नोटबन्दी और बैंकों के ‘‘बुरे क़र्ज़’’

श्‍वेता

आठ नवम्ब‍र की रात को प्रधानमन्त्री मोदी ने अचानक 500 और 1000 रुपये की नोटबन्दी का ऐलान किया। नक़दी परिचलन का 86 प्रतिशत हिस्सा 500 और 1000 रुपये के नोटों के रूप में ही था। ग़ौरतलब है कि लेन-देन का 90 प्रतिशत नक़दी के रूप में ही किया जाता है और 85 प्रतिशत से ज़्यादा कामगारों को तनख्व़ाहों का भुगतान भी नक़दी के रूप में ही किया जाता है। फ़ाइनेंनशि‍यल इनक्लायूशन इनसाइटस प्रोग्राम के एक सर्वे के अनुसार लगभग 53 प्रतिशत आबादी के पास कोई बैंक खाता नहीं हैं। यूनाइटेड नेशंस डेवलपमेण्ट प्रोग्राम की एक रिपोर्ट के अनुसार 80 प्रतिशत महिलाओं के पास कोई बैंक खाता नहीं है। ऐसे में सहज ही अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि नोटबन्दी का आम जनता पर कितना गहरा प्रभाव पड़ रहा होगा।

नोटबन्दी की घोषणा के बाद से अब तक एक महीने से ज़्यादा समय बीतने के बाद भी जनता की मुसीबतें बदस्तूर जारी हैं। बैंकों के बाहर लोग घण्टों खड़े होकर अपनी दैनिक ज़रूरतों के लिए नक़दी निकालने के लिए मजबूर कर दिये गये हैं। जिन लोगों के बैंक खाते नहीं थे, उन्हें नोट बदलवाने के लिए बिचौलियों का सहारा लेना पड़ा जिसकी एवज़़ में उन्होंने 30 से 40 प्रतिशत तक का कमीशन काटा। ज़्यादातर कारख़ानों में तो मालिक अब भी मज़दूरों को पुराने 500 और 1000 रुपये के नोटों के रूप में ही तनख्व़ाहों का भुगतान कर रहे हैं, मज़दूरों के एतराज़ जताने पर उन्हें काम छोड़ने के लिए कहा जा रहा है। नोटबन्दी के बाद कई कम्पनियों ने मज़दूरों को उनकी तनख्व़ाहों का भुगतान करने में असमर्थता जताते हुए तालाबन्दी की घोषणा कर दी है। पश्चिम बंगाल के हावड़ा जि़ले में श्री हनुमान जूट मिल में 5 दिसम्बर को कम्पनी प्रबन्धन ने कम्पनी बन्दी का ऐलान किया जिसके बाद 2500 मज़दूरों को काम से हाथ धोना पड़ा। मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ़ डेवलपमेण्ट स्टडीस के एक अर्थशास्त्री एस. जनकरंजन के अनुसार नोटबन्दी के बाद बड़ी तादाद में निर्माण मज़दूरों पर छँटनी की तलवार लटक रही है। एक अनुमान के अनुसार तमिलनाडु के निर्माण उद्योग में लगे लगभग 5 लाख मज़दूरों पर इस समय छँटनी का ख़तरा मँडरा रहा है। नोटबन्दी के बाद नक़दी और काम दोनों में ही आयी कमी के कारण सूरत के डायमण्ड कटिंग और पॉलिशिंग उद्योग में लगे क़रीब 20 लाख मज़दूरों में से तक़रीबन 10 लाख मज़दूर अपने गाँवों की ओर वापस रुख़ कर रहे हैं (स्रोत: बिज़नेस स्टेण्डर्ड, 10 दिसम्बर)। कमोबेश यही स्थिति राजकोट के ज्वेलरी उद्योग, अलंग में जहाज़ तोड़ने के काम में लगे मज़दूरों की है। इसी तरह पूर्वी बंगाल के तराई इलाक़े के एक चाय बागान की बन्दी के बाद क़रीब 2,500 मज़दूरों की रोज़़ी-रोटी का स्रोत पूरी तरह ख़त्म होता है (स्रोत: इण्ड‍ियन एक्सप्रेस, 11 दिसम्बर)। दिये गये आँकड़े यह बताने के लिए काफ़ी हैं कि नोटबन्दी ने आम मेहनतकश जनता को कितनी बुरी तरह प्रभावित किया है। सरकार व उसके पिट्ठू नोटबन्दी के समर्थन में चाहे कितने ही (कु)तर्क देकर बच निकलने की बेशर्म कोशिशें करें, लेकिन जनता पर बरपाये गये इस कहर पर पर्दा नहीं डाला जा सकता।
नोटबन्दी का ऐलान करते हुए यह दावा दिया गया कि यह क़दम काला धन और नक़ली नोटों पर नकेल कसने के लिए उठाया गया है। आइए, ज़रा इन दावों की भी पड़ताल कर लें। ज्ञात हो कि काले धन का केवल 6 प्रतिशत ही नक़दी के रूप में मौजूद रहता है। काले धन का बड़ा हिस्सा ऐसे देशों या इलाक़ों (जैसे स्वीट्ज़रलैण्ड, पनामा, बरमूडा, केमन आइलैण्ड, वर्जिन आइलैण्ड आदि) में लगाया जाता है जो या तो पूरी तरह कर मुक्त होते हैं, या फिर वहाँ नाममात्र का कर लगता है। इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है कि नोटबन्दी की तारीफ़ों के पुल उन तमाम नामी-गिरामी हस्तियों (याद कीजिए अमिताभ बच्चतन, अजय देवगन) ने बाँधे जिनका नाम पनामा पेपर लीक मामले में सामने आया था। इसके अलावा काला धन बड़े पैमाने पर रियल एस्टेट, सोना या शेयर की ख़रीदारी में लगा दिया जाता है। यही नहीं बड़े-बड़े पूँजीपति फ़र्ज़ी कम्पनियों के नाम पर (जिसका कोई वास्तविक कारोबार नहीं है) काले धन को एफ़डीआई का नाम देकर पुन: देश की अर्थव्यवस्था में ले आते हैं। इस प्रक्रिया को कैपीटल राउण्ड ट्रिपिंग के नाम से जाना जाता है। ऐसे में स्पष्ट है कि काला धन के असली खिलाड़ी जो बहुतेरी तकनीकों का इस्तेेमाल करके अपना काला धन ठिकाने लगाते हैं उन पर नोटबन्दी का कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला। हाँ, इससे यह ज़रूर होगा कि कुछ छोटे-मोटे खिलाड़ी पकड़ में आ सकते हैं।
अब नोटबन्दी से नक़ली नोटों के ख़ात्मे के दावे की पड़ताल कर ली जाये। नेशनल इन्वेस्टीगेटिव एजेंसी (एनआइए) और इण्ड‍ियन स्टैटिि‍स्ट‍कल इंस्टीट्यूट के 2015 के एक संयुक्त अध्ययन के अनुसार अर्थव्यवस्था में हमेशा ही 400 करोड़ की नक़ली मुद्रा मौजूद रहती है। एक और मज़ेदार तथ्य देखिए, फाइनेंशियल एक्सप्रेस की 15 नवम्बर की एक ख़बर के अनुसार नयी नोटों की केवल छपाई का ही ख़र्च 11,000 करोड़ रुपये है। अब ज़रा सोचिए कि 400 करोड़ के नक़ली नोटों के ख़ात्मे के लिए 11,000 करोड़ का ख़र्च करके नये नोट छापना कहाँ की समझदारी है!
बहरहाल, अब तक तो यह स्प्ष्ट हो ही गया है कि नोटबन्दी से न तो काला धन पर लगाम लग सकती है, न ही नक़ली नोटों के कारोबार पर। तब फिर सवाल उठता है कि आखि़रकार नोटबन्दी का यह क़दम उठाया ही क्यों गया है? अगर समय में ज़्यादा नहीं, क़रीब 1 साल पीछे जाये तो आपको शायद याद हो कि अगस्त 2015 में वित्त मन्त्री अरुण जेटली का बयान आया था कि तरलता की कमी से निपटने के लिए बैंको में 70,000 करोड़ रुपये डालने की आवश्यकता है। आखि़रकार तरलता की यह कमी पैदा ही कैसे हुई? इस कमी का कारण है बैंकों के ‘‘बुरे क़र्ज़’’ या नॉन-परफ़ॉर्मिंग एसेट्स (एनपीए)। एनपीए का अर्थ है लेनदार द्वारा 90 दिनों की समय सीमा के दौरान न तो मूलधन न ही ब्याज़ की अदायगी। भूतपूर्व आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन के अनुसार भारतीय बैंकों पर इन बुरे क़र्ज़ों की मात्रा मार्च 2016 तक 6 लाख करोड़ तक पहुँच चुकी है। इन बुरे क़र्ज़ों का 90 प्रतिशत भार पब्लिक सेक्टर के बैंकों पर है। वैसे हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बैंकों की छवि को खराब होने से बचाने के लिए इन बुरे क़र्ज़ों की मात्रा को कम करके बताया जाता है। असली तस्वीर की भयावहता का अन्दाज़ा रेटिंग एजेंसियों की रिपोर्टों से पता चल जाता है। भारतीय रेटिंग एजेंसी इण्ड‍िया ‍रेटिंग्स के अनुसार मार्च 2016 तक भारतीय बैंकों द्वारा दिया गया कुल क़र्ज़ 70 लाख करोड़ था और इसका 1/5वाँ भाग (यानी 13 लाख करोड़) स्ट्रेस्ड एसेट्स का था। स्ट्रेस्ड एसेट्स बैंको द्वारा दिये गये उन क़र्ज़ों को कहा जाता है जिनके वापस आने की या तो कोई उम्मीद नहीं है, या बहुत कम उम्मीद है या फिर उन्हें पूरी तरह माफ़ कर दिया गया है। ग़ौरतलब है कि अभी कुछ महीने पहले 29 सरकारी बैंकों ने पूँजीपतियों द्वारा लिये गये 1.54 लाख करोड़ के बुरे क़र्ज़ को पूरी तरह माफ़ कर दिया है। 9000 करोड़ रुपये डकारकर विजय माल्या विदेश भाग गया यह किसी से छिपा नहीं है। हालाँकि विजय माल्या तो केवल एक नाम है जो चर्चा में आया, दरअसल इस हमाम के कई नंगे धड़ल्ले से सरकार की मदद से जनता की आँखों में धूल झोंक रहे हैं। बैंकों में जमा जनता की गाढ़ी कमाई को खुलेआम पूँजीपतियों को क़र्ज़ के रूप में दिया जाता है और जब वे उसे लौटाने से मना करते हैं तो सरकारें तब भी कोई कार्रवाई करने के बजाय उनको पलकों पर बिठा कर रखती है।
शोध संस्थान क्रेडिट स्यूसी रिसर्च की रिपोर्ट बताती है कि भारत में जिन कॉरपोरेट घरानों पर सबसे ज़्यादा क़र्ज़ लदा है उसमें नामी-गिरामी कम्पनियाँ वेदान्ता, एस्सार, अडानी, अनिल अम्बानी और मुकेश अम्बानी की कम्पनियाँ शामिल हैं। कुल मिलाकर, बैंक अपनी साख़ बचाने के लिए तरह-तरह की तकनीकी शब्दावलियाँ गढ़कर जनता की नज़र से असलियत छिपाने की घिनौनी कोशिशें करते हुए पूँजीपतियों की तन-मन-धन से सेवा करते हैं। यह स्पष्ट है कि बैंकों पर इन बुरे क़र्ज़ों के दबाव से अर्थव्यवस्था में तरलता की कमी का आना निश्चित था। नोटबन्दी का ऐलान करके जनता को नक़दी जमा करने के लिए मजबूर करके इस तरलता की कमी से निपटने का आसान तरीक़ा खोजा गया।
काले धन पर सर्जिकल स्ट्राइक का हवाला देकर सरकार की असली मंशा काला धन पर हमला नहीं बल्कि पूँजीपतियों की सेवा करना है। यहाँ एक और तथ्य का जि़क्र करते हुए चलें। नोटबन्दी के फै़सले के बाद बैंकों ने ब्याज़ दरें घटा दी हैं। इससे ज़ाहिरा तौर पर जनता को तो कोई लाभ नहीं होगा पर 7.3 लाख करोड़ का क़र्ज़ दबाये बैठे 10 बड़े ऋणग्रस्त कॉरपोरेट घरानों के लिए तो यह क़दम सोने पर सुहागा होने जैसा है। भई साफ़़ है, यह जनता नहीं पूँजीपतियों की सरकार है।

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2016


 

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