साम्राज्यवाद का टट्टू भी बोला : स्वास्थ्य सेवाएं अमीरों की सेवा में

नोएडा। ‘‘भारत की स्वास्थ्य सेवाएं सिर्फ अमीर लोगों की ही सेवा करती हैं, ऐसा कहना है साम्राज्यवाद के टट्टू विश्व बैंक का। गरीब देशों की सरकारों द्वारा दी जाने वाले विश्व बैंक का ऐसा कहना है तो निश्चय ही हालात बहुत गम्भीर होंगे। विश्व बैंक का कहना है कि जहां भारत स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च करने वाले देशों में है वहीं जो थोड़ा बहुत सरकारी खर्च होता भी है उसे अमीर लोग हड़प लेते हैं। निजी क्षेत्र की सेवाओं की प्रशंसा करने वालों के मुंह पर यह जोरदार तमाचा है कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में हर फीसदी निजी भागीदारी होने के बावजूद स्वास्थ्य सेवायें अत्यधिक महंगी और घटिया हैं जबकि श्रीलंका जैसे देश में जहां निजी क्षेत्र की भागीदारी सिर्फ 49 प्रतिशत है वहां सुविधाएं बेहतर हैं। भारत में निजी अस्पताल और नर्सिंग होम सिर्फ लोगों को लूटने के लिए होते हैं। वहीं स्वास्थ्य सेवा के उपभोक्ताओं की कोई सुनवाई नहीं होती। निजी सेवाओं के नियमन की व्यवस्था नहीं होने से हर तरफ मनमानी का वातावरण व्याप्त है। सरकारी उदासीनता के कारण निजी सेवाओं के घटिया होने के बावजूद लोग वहां जाने के लिए मजबूर हैं। इन सबके बावजूद विश्व बैंक यह सुझाव देने से बाज नहीं आया कि निजी क्षेत्र की सेवाओं को दुरुस्त करने के लिए कोई सरकारी नियामक व्यवस्था नहीं बनानी चाहिए।

निजी क्षेत्र द्वारा स्वास्थ्य के क्षेत्र में जारी लूट का एक पहलू एड्स और इसको केन्द्र में रखकर की जाने वाली गतिविधियां भी हैं। देश की सरकार द्वारा भी एड्स के प्रति जागरूकता लाने के लिए प्रचार–प्रसार पर अरबों का खर्च किया जा रहा है और इसका फायदा एनजीओ और निजी कम्पनियां उठा रही हैं। मजे की बात यह है कि एड्स मरीजों से ज्यादा संख्या एड्स एक्टिविस्टों की है। इस बीमारी को लेकर तरह–तरह के भ्रामक प्रचार भी किये जा रहे हैं जबकि सच्चाई यह है कि तीसरी दुनिया के देशों में कुपोषण और भुखमरी की वजह से ज्यादा लोगों की मौत होती है न कि एड्स से। यौन व्यभिचार की अपेक्षा चिकित्सा क्षेत्र में व्याप्त दुरव्यवस्था ज्यादा संक्रमण फैलाती है। दवा कम्पनियां एड्स की दवाओं द्वारा गरीब देशों के लोगों पर गुपचुप तरीके से प्रयोग करती हैं, क्योंकि इन देशों में ऐसे कानून नहीं हैं जो लोगों के पक्ष में इन कम्पनियों के खिलाफ कार्रवाई कर सकें। ऐसी दवायें भविष्य में अनेक प्रकार के संकट उत्पन्न कर सकती हैं।

विश्व बैंक जैसी संस्थाओं का दोहरा चरित्र इस रूप में सामने आ जाता है कि जहां यह स्वास्थ्य में सरकारी भागीदारी कम होने का रोना रोती है वहीं एड्स के नाम पर अरबों डालर खर्च कर गरीब देशों की जनता की मूलभूत आवश्यकताओं से मुंह मोड़ लेती हैं। आम जनता को इन संस्थाओं की नैतिकता को समझना चाहिए तथा इनके दोरंगेपन को पहचानते हुए इनके झांसे में आने से बचना चाहिए।

बिगुल, फरवरी 2004


 

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