बिगुल के लक्ष्य और स्वरूप पर बहस को आगे बढ़ाते हुए

पी.पी. आर्य का पत्र

प्रति,

सम्पादक

बिगुल 

21 अगस्त 1999

प्रिय साथी,

मेरे पत्र को अपने अख़बार में छापने के लिए धन्यवाद स्वीकार करें। जुलाई, 1999 के अन्त में अंक 6-7 की प्रति प्राप्त हुई। इसमें अन्य सामग्री के साथ आपका जवाब भी पढ़ा। जवाब में आपने बहस को आगे बढ़ाने का वादा किया है, अत: यह प्रतिक्रिया भेज रहा हूँ।

सबसे पहले मैं यह आपत्ति दर्ज कराना चाहूँगा कि मेरे पत्र की वास्तविक तिथि 6 मई, 1999 थी। परन्तु बिगुल में आपने इसे 5 जून, 1999 छाप दिया है। यह ‘प्रूफ’ की एक सामान्य ग़लती हो सकती है और सामान्य स्थितियों में मैं इसे चिह्नित भी नहीं करता। परन्तु इस समय इसे चिह्नित करके ठीक कर लेना ज़रूरी है क्योंकि इससे हमारे-आपके बीच और बिगुल के पाठकों, दोनों के लिए ग़लतफहमियाँ पैदा हो सकती हैं। आपके जवाब की तारीख़ 20-06-99 है। अत: यहाँ यह साफ़ हो लेने की ज़रूरत है कि आपके पास मेरे पत्र का जवाब तैयार कर लेने के लिए पर्याप्त वक्‍़त था और कि यह जवाब आप की सोची-समझी अवस्थिति है।

आपके जवाब पर सामान्य टिप्पणी

आपके जवाब पर हमारी सामान्य प्रतिक्रिया यह है कि इसमें :

 • आपने अपने विरोधी की बातों को तोड़-मरोड़कर पेश किया है। इतना ही नहीं, आपने अपने विरोधी के मुँह में वे बातें भी ठूँसने की कोशिश की है, जो उसने कही ही नहीं हैं। कई बार तो आप अपने विरोधी की सुस्पष्ट लिखित अवस्थिति से ठीक उल्टी बात उसके मुँह में ठूँसने की कोशिश करते हैं।

 • आपने हमारी ही नहीं लेनिन और अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की लिखित बातों और ऐतिहासिक तथ्यों को भी तोड़-मरोड़कर पेश किया है।

 • आपने मूल विषय से बहस को भटकाने की कोशिश की है। इसके लिए आपने बड़े-बड़े शब्दों, भारी-भरकम वाक्यांशों का भी प्रयोग किया है। इसके अलावा, आपने बहस को नये विषयों पर सरकाने की कोशिश की है।

लेनिन ने एक जगह लिखा है, ”राजनीति में ईमानदारी ताक़त का परिणाम होती है और पाखण्ड कमज़ोरी का परिणाम होता है।” (वाद-विवाद सम्बन्धी टिप्पणियाँ, संग्रहीत रचनाएँ, खण्ड 17, पृष्ठ 166, 1963 अंग्रेज़ी संस्करण, अनुवाद हमारा) क्रान्तिकारियों के बीच के रिश्तों में और उनके बीच चलने वाली बहसों में ऐसी ग़लत कार्यशैली अपनाना कहीं से भी स्वस्थ बात नहीं है। अपने पत्र में हम आप की इस ग़लत कार्यशैली को विशिष्ट तौर पर कई बार चिह्नित करेंगे। परन्तु इसके बावजूद, हम इन बातों पर आपकी बहुत विस्तृत आलोचना नहीं करेंगे क्योंकि, हम नहीं चाहते कि बहस अपने मूल विषय ”बिगुल के लक्ष्य और स्वरूप” से भटककर इन्हीं बातों में उलझकर रह जाये। आपके ग़ैर-राजनीतिक आचरण को दरकिनार करके हम बहस को मूल विषय पर ही केन्द्रित करेंगे। अत: पत्र के अगले भाग में कुछ महत्वपूर्ण ग़लतियों को उनकी विशिष्टता में चिह्नित करने के बाद हम सीधो बहस के मूल विषय पर केन्द्रित करने का प्रयास करेंगे।

बिगुल द्वारा ‘पॉलिमिक्स’ संचालित करने की ग़लत कार्यशैली

सर्वप्रथम, हम यह स्पष्ट करने की ज़रूरत समझते हैं कि हमने अपने पत्र में कोई शीर्षक नहीं दिया था। हमारे पत्र के ऊपर शीर्षक लगाने का काम आपने किया है। किसी के पत्र को शीर्षक देना क़तई ग़लत नहीं है। परन्तु ईमानदारी का तकाज़ा यह है कि सम्पादक पत्र की मूल भावना के अनुरूप शीर्षक दे। सम्पादक के पास यह नैतिक अधिकार तो क़तई नहीं होता कि वह शीर्षक में ऐसी बातें लिखे जो पत्र में बिल्कुल न हों। 6 मई, 1999 के पत्र में कहीं पर भी ”कैरियरवादी बुद्धिजीवी” शब्द इस्तेमाल नहीं किया गया है। हमने आपको ”कैरियरवादी बुद्धिजीवी” नहीं कहा है। तब किस नैतिक ज़मीन पर खड़े होकर आप इसे शीर्षक में डालते हैं? ऐसी शैली अपनाकर आपबिगुल के पाठकों की निगाह में गिरते हैं।

मेरे पत्र में ‘बुद्धिजीवी’ शब्द ज़रूर 3-4 बार आया है। वह भी पृष्ठ 5 के तीसरे कॉलम के पहले और दूसरे पैरा में (बिगुल के अंक 6-7 में)। यह हिस्सा पढ़ने पर किसी को लग सकता है कि हमने ‘कैरियरवादी बुद्धिजीवी’ तो नहीं परन्तु ‘बुद्धिजीवी’ शब्द इस्तेमाल किया। यहाँ भी ग़लती हमारी नहीं, आपकी है। आपने इन पैराग्राफों पर से उद्धरण चिह्न (Quotation Mark) ग़ायब कर दिये हैं। इनको पढ़कर ऐसा लगने लगता है कि वे बातें लेनिन की पुस्तक ‘एक क़दम आगे, दो क़दम पीछे’ से न होकर हमारी अपनी बातें हैं। अगर यह हमारी अपनी बात होती, तब तो शायद आपको इसे शीर्षक देने का नैतिक अधिकार होता। परन्तु अपनी प्रस्थापनाओं को स्थापित करने के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले उद्धरणों में से शब्द को पकड़कर शीर्षक में इस्तेमाल करना ईमानदारी भरी बहस का परिचायक नहीं होता। ऐसे काम को तोड़-मरोड़कर पेश करना कहते हैं।

दूसरी बात यह कि आपने अपने जवाब में हमें अनेक विश्लेषणों और मनगढ़न्त आरोपों से सुशोभित किया है। ये हैं – भोंड़े अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी, सामाजिक जनवादी प्रवृत्तियाँ, सामाजिक जनवादी भटकाव, सामाजिक जनवादियों की छिछोरी शैली, मूल सामाजिक जनवादी प्रकृति के भोंड़े उत्पाद, राबोचेये देलो और राबोचाया मीस्ल की प्रारम्भिक अर्थवादी प्रवृत्ति की श्रेणी में आने वाले, फ़िल्‍मी वक़ील, क्रीडो मतावलम्बी, कायराना राजनीतिक पुछल्लावाद, आर्थिक अवसरवादियों, पराजयवादी मानसिकता, आँगन की मुर्गी, मज़दूरों को कोसने वाले, आप जैसों की पैदा होने वाली ज्‍़यादा गँवारू भोंड़े क्रान्तिकारियों की धारा, बन्दरकुद्दी मारने वाले, कठमुल्ला क़िस्‍म के अनुकरणवादी, मूर्खता, नौबढ़ राजनीतिक नौदौलतियों, यान्त्रिक आधिभौतिकवादी पद्धति, मिथ्याभासी चेतना वाले, विसर्जनवादी, कूपमण्डूकी अनुभववादी, पूरी जनता के लिए ”सर्ववर्ग समभाव”, कायर शेखचिल्ली, भोंड़ी अटकलबाज़ी, अनुष्ठानधर्मी, अनावश्यक विद्वता और दार्शनिकता दिखाना, अनर्गल प्रलाप, पण्डिताऊपन, सार संग्रहवाद, पाण्डित्यवाद, आत्मधर्माभिमानिता, कार्यकर्ताओं को docile tool (आज्ञाधीन उपकरण) समझते हैं, नौकरशाह नेतृत्व, दोमुँहापन, तिलमिलाने, सच्चाइयों के प्रति ईमानदार रवैया न अपनाना…।

अब अगर आप यह चाहते हैं कि इन ‘अलंकारों’ से भड़ककर हम इनमें से हर एक का जवाब देने लग जायें और इस तरह से बहस भटक जाये, तो हम ऐसा नहीं करेंगे। हम इन्हें एक वाक्य में पूर्णतया रद्द करते हैं और आपको बताना चाहते हैं कि ऐसी कार्यशैली के बारे में लेनिन की क्या राय थी। ”गाली-गलौज का राजनीतिक महत्व” नामक अपने लेख में लेनिन ने कहा है, ”राजनीति में गाली-गलौज भरी भाषा अक्सर सिद्धान्तों के नितान्त अभाव पर, और ऐसी भाषा इस्तेमाल करने वाले के बांझपन, नपुंसकता, क्षोभकारी नपुंसकता पर पर्दा डालने का काम करती है।” (संग्रहीत रचनाएँ, खण्ड 20, पृष्ठ 380, अं. संस्करण, 1964, अनुवाद हमारा)

मित्र, बहस आपने आमन्त्रित की है। बहस का विषय आपने तय किया है। बहस ”बिगुल के लक्ष्य और स्वरूप” पर हो रही है, मुझ पर नहीं। मैं सज्जन हूँ या दुर्जन, सभ्य-सुसंस्कृत हूँ या गँवार, विद्वान हूँ या अनपढ़, नवागन्तुक हूँ या पुराना खग्गाड़, नौबढ़ नौदौलतिया हूँ या पुराना धनी – इससे बहस पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। बहस में कोई अगर हिस्सेदारी करता है तो आपका फर्ज़ बनता है कि आप उसकी राय का ज़िम्मेदारीपूर्वक खण्डन करें और उसके प्रश्नों के उत्तर दें। यह आपका इन्क़लाबी दायित्व बनता है कि आप बहस को क्रान्तिकारियों के बीच होने वाली बहसों की तरह संचालित करें और विज्ञान की कसौटी पर सही-ग़लत का निर्णय होने दें। आइये, ज़िम्मेदार राजनीतिक लोगों की तरह बहस को मूल विषय पर केन्द्रित करें।

‘मास पोलिटिकल पेपर’ (Mass Political Paper)

यहाँ सवाल यह है कि क्या मास पोलिटिकल पेपर शब्द का इस्तेमाल सामाजिक जनवादियों (संशोधनवादियों) की छिछोरी शैली की अभिव्यक्ति है? क्या कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के शब्दकोश में ऐसा शब्द नहीं होना चाहिए, और इसे सामाजिक जनवाद (संशोधनवाद) की अभिव्यक्ति माना जाये?

बिगुल के सम्पादक इस महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर ‘हाँ’ में देते हैं।

हम इसका उत्तर ‘नहीं’ में देते हैं।

हमारे देश के क्रान्तिकारी आन्दोलन में आम राजनीतिक अख़बार, जन राजनीतिक अख़बार, ‘मास पोलिटिकल पेपर’ प्रचलित शब्द रहे हैं। ‘मास पोलिटिकल पेपर’ शब्द और इससे जुड़ी अवधारणा न केवल प्रचलित रही है, बल्कि व्यापक जनता को क्रान्तिकारी राजनीति से लैस करने के उद्देश्य से निकाले जाने वाले अख़बारों के लिए एक सही शब्द भी है। इस शब्द के प्रयोग से बहुत सटीक ढंग से पत्र की अवधारणा अभिव्यक्त होती है।

अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में भी ‘मास पोलिटिकल लिटरेचर’, ‘मास पोलिटिकल पेपर’ प्रचलित और लोकप्रिय शब्द रहे हैं। वहाँ भी ये उस श्रेणी के साहित्य के लिए इस्तेमाल किये जाते रहे हैं जिसमें कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी व्यापक जनता को अपनी राजनीति से लैस करने का प्रयास करते रहे हैं। उदाहरण के लिए, ”प्राव्‍दा” एक जन राजनीतिक अख़बार (Mass Political Newspaper) था।

क्या बिगुल को उसके स्वघोषित उद्देश्यों और ज़िम्मेदारियों के हिसाब से एक ‘मास पोलिटिकल पेपर’ कहना ग़लत है? बिगुल के जून-जुलाई, ’99 अंक के पृष्ठ 2 पर रिवर्स में एक ब्लॉक छपा है जिसका शीर्षक है, ”बिगुल का स्वरूप, उद्देश्य और ज़िम्मेदारियाँ।” इस ब्लॉक की पहली पंक्ति है – ”बिगुल व्‍यापक मेहनतकश आबादी के बीच क्रान्तिकारी राजनीतिक शिक्षक और प्रचारक का काम करेगा।” (ज़ोर हमारा) जिस दिन बिगुल ‘व्यापक मेहनतकश आबादी’ के बीच क्रान्तिकारी राजनीतिक शिक्षा और प्रचार को अपने उद्देश्य व ज़िम्मेदारी के बतौर गिनाना बन्द कर देगा, उस दिन हम बिगुल से वे अपेक्षाएँ रखना बन्द कर देंगे जो एक ‘मास पोलिटिकल पेपर’ से रखी जाती हैं। व्यापक मेहनतकश आबादी में बिगुल ‘प्रोपेगैण्डा’ कर रहा है या ‘एजिटेशन’ या दोनों ही नहीं कर रहा है, यह मूल्यांकन हम आगे करेंगे। परन्तु प्रोपेगैण्डा-एजिटेशन का शगूफ़ा छोड़कर आप बिगुल के स्वघोषित चरित्र (व्यापक मेहनतकश आबादी के लिए राजनीतिक पत्र) से इन्कार नहीं कर सकते।

इसी से जुड़ा हुआ सवाल यह है कि क्या एक ‘मास पोलिटिकल पेपर’ को जनता में सीधे-सीधे क्रान्तिकारी विचारधारा और राजनीति का प्रचार करना चाहिए या नहीं, हमने अपने 6 मई, 1999 के पत्र के दूसरे और तीसरे पैराग्राफ़ में ही यह बात स्पष्ट कर दी है। (बिगुलके जून-जुलाई अंक में प्रकाशित) इसके बावजूद बिगुल के सम्पादक हम पर आरोप लगाते हैं कि हम सीधे-सीधे क्रान्तिकारी विचारधारा और राजनीति के प्रचार के ख़िलाफ़ हैं। (देखें – बिगुल जून-जुलाई, 99, पृष्ठ 7, कॉलम 2, प्रथम पैरा)

अगर आप हमारे 6 मई ’99 के पत्र को मनोगत न होकर वस्तुनिष्ठ होकर पढ़ते तो आप हमारे ऊपर ऐसा ग़लत आरोप न लगाते और ज़बरदस्ती हमारे मुँह में वे बातें ठूँसने का प्रयास न करते जो हमने कही ही नहीं हैं। तब क्या माना जाये कि बिगुल के सम्पादक और हमारे बीच में जनता को राजनीति देने के सवाल पर कोई मतभेद नहीं है? मतभेद हैं। मतभेद यह नहीं है कि सीधे-सीधे राजनीति दी जाये या न दी जाये। मतभेद यह है कि ‘मास पोलिटिकल पेपर’ में राजनीति के नाम पर क्या दिया जाये और कैसे दिया जाये। यहीं पर सारी बहस केन्द्रित है। हमारी-आपकी बहस में यह बुनियादी सवाल है और इसे ही साफ़ करने के लिए हम यह पत्र लिख रहे हैं।

प्रोपेगैण्डा/एजिटेशन

6 मई 1999 के अपने पत्र में हमने आप से सीधा सा सवाल यह पूछा था कि क्या बिगुल भारत के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों का मुखपत्र है या यह एक ‘मास पोलिटिकल पेपर’ है? अपने पत्र के जिस हिस्से में हमने यह सवाल खड़ा किया है वहाँ हमारा आशय बिल्कुल साफ़ था (लिखित में) कि हम आप से पूछ रहे हैं कि बिगुल का पाठक-समूह कौन है? प्रश्न का सीधा जवाब देने और अपनी अवस्थिति स्पष्ट करके बहस को आगे बढ़ाने के बजाय, आपने ‘प्रोपेगैण्डा/एजिटेशन’, तरह-तरह के ‘ऑर्गन’ पर एक लम्बा व्याख्यान दे डाला। बहस बेमतलब के परिधिगत मुद्दों में ही उलझकर न रह जाये इसलिए इन बातों पर भी हम अपनी अवस्थिति साफ़ कर देते हैं।

आपकी तरह हमारा भी मानना है कि रोबोची, सेण्ट पीटबुर्गस्की राबोची लिस्तोक, ज़ार्या, इस्क्रा, व्पर्योद, प्रोलेतारी, सोशल डेमोक्रेट, ज्‍वेज़्दा, प्राव्‍दा, प्रोवेश्चचेन्या... संघर्ष लीग या बोल्शेविकों के ऑर्गन थे। हमारी-आपकी बहस में ज्‍़यादा  महत्वपूर्ण बात यह समझने की है कि इन विभिन्न पत्रिकाओं/अख़बारों का पाठक-समूह कौन था, इन पत्रों का कलेवर क्या था, इन पत्रों ने अपने दौर में आन्दोलन की किन ज़रूरतों को पूरा किया? और वह भी इसलिए ताकि हम यह सीख सकें कि हमें किस ज़रूरत को पूरा करने के लिए किस पाठक-समूह के लिए, कैसा अख़बार या कैसी पत्रिका निकालनी चाहिए।

ऐसा ही प्रोपेगैण्डा/एजिटेशन का मामला है। प्रोपेगैण्डा या एजिटेशन के मामले में भी बहस को बेमतलब के उलझाव से बचाने के लिए न तो हम आपकी मौलिक प्रस्थापनाओं (पृष्ठ 6, कॉलम 2) को आधार मानकर चलने को तैयार हैं और न ही अपनी कोई प्रस्थापनाएँ देकर बहस को संचालित करना चाहते हैं। हमारा आपसे अनुरोध है कि लेनिन की ही परिभाषा को आधार मानकर बहस की जाये।

”…जब मिसाल के लिए, बेकारी के प्रश्न पर ‘प्रचारक’ (propagandist) बोलता है, तो उसे आर्थिक संकटों के पूँजीवादी स्वरूप को समझाना चाहिए, उसे बताना चाहिए कि वर्तमान समाज में इस प्रकार के संकटों का आना क्‍यों अवश्यम्भावी है और इसलिए क्यों इस समाज को समाजवादी समाज में बदलना ज़रूरी है, आदि। सारांश यह कि प्रचारक (propagandist) को सुनने वालों के सामने ‘बहुत से विचार’ पेश करने चाहिए, इतने सारे विचार कि केवल (अपेक्षाकृत) थोड़े से लोग ही उन्हें एक अविभाज्य और सम्पूर्ण इकाई के रूप में समझ सकेंगे। परन्तु इसी प्रश्न पर जब कोई आन्दोलनकर्ता (agitator) बोलेगा, तो वह किसी ऐसी बात का उदाहरण देगा, जो सबसे अधिक ज्वलन्त हो और जिसे उसे सुनने वाले सबसे व्यापक रूप से जानते हों – मसलन, भूख से किसी बेरोज़गार मज़दूर के परिवार वालों की मौत, बढ़ती हुई ग़रीबी, आदि – और फिर इस मिसाल का इस्तेमाल करते हुए, जिससे सभी लोग अच्छी तरह परिचित हैं, वह ‘आम जनता’ के सामने बस एक विचार रखने की कोशिश करेगा, यानी यह कि यह अन्तरविरोध कितना बेतुका है कि एक तरफ तो दौलत और दूसरी तरफ ग़रीबी बढ़ती जा रही है। इस घोर अन्याय के विरुद्ध आन्दोलनकर्ता जनता में असन्तोष और ग़ुस्सा पैदा करने की कोशिश करेगा तथा इस अन्तरविरोध का और पूर्ण स्पष्टीकरण करने का काम वह प्रचारक के लिए छोड़ देगाA

(क्या करें, पृष्ठ 91, प्रगति प्र., 1973, ज़ोर हमारा)

इस्क्रा और प्राव्‍दा

अपने 6 मई 99 के पत्र में हमने यह दलील दी थी कि आपके स्वघोषित उद्देश्य के हिसाब से बिगुल का स्वरूप प्राव्‍दा जैसा होना चाहिए न कि इस्क्रा जैसा। हमने यह भी कहा था कि लेनिन के जिस उद्धरण की मार्फत बिगुल के वर्तमान स्वरूप को सही ठहरा रहे हैं, वहाँ आप लेनिन की बातों का ग़लत इस्तेमाल कर रहे हैं क्योंकि लेनिन की वे बातें ‘इस्क्रा’ जैसे अख़बार पर लागू होती हैं और ‘प्राव्‍दा‘ जैसे अख़बार पर लागू नहीं। ‘इस्क्रा‘ और ‘प्राव्‍दा’ के उदाहरण लेकर हम आप को यह साफ़ करने की कोशिश कर रहे थे कि अलग-अलग पाठक समूहों के लिए अलग-अलग तरह के अख़बार निकाले जाते हैं। ‘इस्क्रा‘ का पाठक समूह रूस के सामाजिक-जनवादी (आज के हिसाब से कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी) और वे उन्नत मज़दूर थे जिन्हें लेनिन ”मज़दूर बौद्धिक” कहते हैं, जो अपनी नारकीय जीवन स्थितियों के बावजूद लगातार अध्‍ययन, अध्‍ययन और अध्‍ययन के काम में जुटे रहते हैं और ख़ुद को सामाजिक-जनवादी (क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट) बना रहे हैं। जबकि ‘प्राव्‍दा‘ का पाठक समूह औसत मज़दूरों की व्यापक आबादी थी।

अपने जवाब में आप कहते हैं कि हम ग़लत ऐतिहासिक तथ्य और ग़लत दलीलें दे रहे हैं। आपका कहना है कि –

 • ‘इस्क्रा‘ और ‘प्राव्‍दा‘ दोनों बोल्शेविकों के एजिटेशनल ऑर्गन थे।

 • ‘इस्क्रा‘ की भाँति ‘प्राव्‍दा‘ का ‘टारगेट रीडर ग्रुप’ भी वर्ग-सचेत अग्रणी मज़दूर थे। ‘प्राव्‍दा‘ औसत चेतना के मज़दूरों के लिए नहीं निकाला जाता था।

 • चूँकि 1912 में ऐेसे वर्ग-सचेत अग्रणी मज़दूरों की गिनती बहुत बढ़ गयी थी, इसलिए ‘प्राव्‍दा‘ के पाठकों का दायरा भी बहुत बढ़ गया था? अन्यथा दोनों अख़बारों के कलेवर (शैली एवं अन्तर्वस्तु) में कोई बुनियादी अन्तर नहीं था, क्योंकि दोनों का ‘टारगेट रीडर ग्रुप’ एक ही था। आपका कहना है कि दोनों के कलेवर में जो थोड़ा-बहुत अन्तर था वह इसलिए था क्योंकि ‘प्राव्‍दा‘ एक क़ानूनी दैनिक अख़बार था, जबकि ‘इस्क्रा‘ एक ग़ैरक़ानूनी अख़बार था।

आपका जवाब पढ़ने के बाद हमने अपने तथ्यों का पुनर्निरीक्षण किया और हमने पाया कि आपकी बातें ग़लत हैं। हम अपनी जगह ठीक हैं और आप या तो सीधे-सीधे झूठी बातें बताकर या फिर अर्धसत्य कहकर बिगुल के पाठकों को गुमराह कर रहे हैं। कौन ग़लतबयानी कर रहा है और बिगुल के पाठकों को झाँसा दे रहा है, इसे साबित करने के लिए हमें सबूत के बतौर अनेक उद्धरण देने पड़ेंगे और इससे पैदा होने वाली असुविधा के लिए पाठक हमें माफ करेंगे।

आपका कहना है कि ‘प्राव्‍दा‘ की तरह ‘इस्क्रा‘ भी बोल्शेविकों का ‘एजिटेशनल ऑर्गन’ था। आपका कहना है कि जब ‘इस्क्रा‘ का प्रकाशन हो रहा था तब उन्नत स्तर की बहसों के लिए ‘ज़ार्या‘ का प्रकाशन हो रहा था। आपकी बातें सत्य हैं, परन्तु अर्द्ध सत्य हैं।

इस्क्रा‘ के काल में आप ‘ज़ार्या‘ का ज़िक्र करके यह स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं कि रूस के सामाजिक-जनवादियों (कम्युनिस्टों) के बीच की उच्च स्तर की बातें ‘ज़ार्या‘ में छपती थीं। यह सही है कि 1900 में ‘इस्क्रा‘ और ‘ज़ार्या’ की स्थापना का निर्णय एक ही साथ लिया गया था और यह भी सही है कि उस वक्त ‘इस्क्रा‘ का स्वरूप मूलत: एजिटेशन माना गया था और ‘ज़ार्या‘ का मूलत: प्रोपेगैण्डा। परन्तु सत्य इतना ही नहीं है। ‘इस्क्रा‘ को किन्हें ‘एजिटेट’ करना है, इस बात पर रूस के सामाजिक-जनवादी बहुत स्पष्ट थे। ‘इस्क्रा‘ के ‘टारगेट रीडर ग्रुप’ सामाजिक-जनवादी (कम्युनिस्ट) और वे उन्नत मज़दूर थे जोकि ”मज़दूर बौद्धिक” थे और सामाजिक-जनवादी बन रहे थे। लेनिन के अनुसार इस उन्नत मज़दूरों की श्रेणी में वे मज़दूर भी नहीं आते थे, जोकि समाजवाद की उत्कट इच्छा रखते हैं, मज़दूर अध्‍ययन मण्डलों में भाग लेते हैं, सामाजिक-जनवादी साहित्य पढ़ते हैं और आन्दोलनात्मक प्रचार-कार्य में भाग लेते हैं। ये ‘इस्क्रा‘ के पाठक तो बनते थे लेकिन वे उसे पूरी तरह समझ नहीं सकते थे। ‘इस्क्रा‘ का पाठक समूह कहीं से भी ‘व्यापक मेहनतकश आबादी’ नहीं थी। ‘व्यापक मेहनतकश आबादी’ को एजिटेट करना कहीं से भी ‘इस्क्रा‘ की मूल ज़िम्मेदारी नहीं थी।

शेष सत्य इतना ही नहीं है। सितम्बर 1900 के निर्णय के बावजूद कि प्रोपेगैण्डा (और उच्च स्तरीय बहसों) के लिए ‘ज़ार्या‘ निकाली जायेगी, ‘ज़ार्या’ का प्रकाशन केवल अगस्त 1902 तक हो सका और अगस्त 1902 तक भी ज़ार्या के केवल तीन अंक निकल पाये (ज़ार्या के अंक 2 और अंक 3 संयुक्तांक के बतौर दिसम्बर 1901 में निकले और प्रवेशांक अप्रैल 1901 में निकला था)। जबकि दिसम्बर 1900 से लेकर नवम्बर 1903 तक ‘इस्क्रा‘ के 52 अंक निकले थे। यह वह दौर था जब पार्टी-गठन का काम पूरे ज़ोर-शोर पर था (जुलाई-अगस्त 1903 में R.S.D.L.P. की दूसरी कांग्रेस सम्पन्न हुई)। यानी कि ‘ज़ार्या‘ की स्थापना के निर्णय के बावजूद रूस के सामाजिक-जनवादियों के बीच की अधिकांश उच्च स्तरीय बहसें ‘इस्क्रा‘ में हुईं। ‘इस्क्रा‘ में ही रूसी सामाजिक-जनवादी मज़दूर पार्टी के कार्यक्रम का मसौदा छापा गया और ‘इस्क्रा‘ में ही दूसरी कांग्रेस की तैयारी से सम्‍बन्धित लेख/दस्तावेज़ छापे गये।

यहाँ हम यह बात भी कह दें कि लेनिन आपकी तरह के ”श्रेणी विभाजन प्रेमी” नहीं थे। वे चीज़ों को ख़ानों में बाँटकर उससे किन्हीं राजनीतिक निष्कर्षों तक नहीं पहुँचते थे जैसेकि आप पहुँचते हैं कि चूँकि ‘इस्क्रा‘ और ‘प्राव्‍दा‘ दोनों एजिटेशनल अख़बार थे, अत: दोनों एक ही तरह के अख़बार थे। इसके विपरीत लेनिन चीज़ों को उनके वास्तविक चरित्र से तय करते थे। इसीलिए बाद में जब उन्होंने एक अखिल रूसी अख़बार की रूपरेखा ”कहाँ से शुरू करें?” और ”क्या करें?” में रखी तो उसे प्रचारक और आन्दोलनकर्ता दोनों के रूप में प्रस्तुत किया। यही नहीं लेनिन द्वारा लिखित तीसरे इण्टरनेशनल द्वारा पारित और आपके द्वारा प्रकाशित ”कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन और उसका ढाँचा” की धारा 38 में साफ़ लिखा है कि अख़बार प्रचारक और आन्दोलनकर्ता दोनों का काम करेगा :

”कम्युनिस्ट अख़बार को… हमारा सर्वोत्ताम आन्दोलनकर्ता (एजिटेटर) और सर्वहारा क्रान्ति का नेतृत्वकारी प्रचारक बनना चाहिए।” लेकिन यह आपकी ‘द्वन्द्ववादी’ पद्धति का नतीजा है कि आप चीज़ों को ख़ानों में बाँट देते हैं और फिर उससे निष्कर्ष निकालने लगते हैं। लेकिन अपना यह ‘द्वन्द्ववाद’ कम से कम लेनिन के मत्थे तो मत मढ़िये।

इस्क्रा‘ का कलेवर और भूमिका क्या थी इसके सम्बन्ध में हम रूसी कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) की स्वीकृत राय यहाँ उद्धृत कर रहे हैं :

”विभिन्न मार्क्‍सवादी संगठनों को एक ही पार्टी में मिलाने और जोड़ने के लिए, लेनिन ने इस्क्रा की स्थापना की योजना पेश की और उसे पूरा किया। क्रान्तिकारी मार्क्‍सवादियों का अखिल रूसी पैमाने का यह पहला अख़बार था।” (सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बो.) का इतिहास, कामगार प्रकाशन, पृष्ठ 29)

इस्क्रा‘ ने बिखरे हुए सोशल डेमोक्रेट मण्डलों और गुटों को एक सूत्र में जोड़ा और दूसरी पार्टी कांग्रेस बुलाने के लिए रास्ता साफ़ किया।” (वही, पृष्ठ 60)

इससे स्पष्ट है कि इस्क्रा ने पार्टी-गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी और यह काम उसने पार्टी कार्यकर्ताओं को इकट्ठा करके तथा उन्हें प्रशिक्षित कर अंजाम दिया। इसीलिए इसका ‘टारगेट रीडर ग्रुप’ पार्टी कार्यकर्ता और अग्रणी वर्ग-सचेत मज़दूर थे।

इस्क्रा‘ को महज़ एजिटेशनल ऑर्गन कहकर ‘प्राव्‍दा‘ की श्रेणी में रखने की कोशिश करना निहायत ग़लत है, क्योंकि ‘इस्क्रा‘ ने उन सारे उच्च स्तरीय सैद्धान्तिक सवालों और बहसों को अपने पृष्ठों में जगह दी जिन्हें कि ‘व्यापक मेहनतकश आबादी’ को सम्बोधित अख़बार क़तई नहीं दे सकता है। यह बात तब और भी साफ़ हो जाती है जब हम ‘प्राव्‍दा‘ के कलेवर और 1912 के काल में बोल्शेविकों द्वारा निकाले जाने वाले अन्य पत्रों के पाठक-समूह पर ग़ौर करें।

1912 में, ‘प्राव्‍दा‘ के प्रकाशन के वक्त बोल्शेविक ‘सोशल डेमोक्रेट’ और ‘ज़्वेज़्दा’   नाम के पत्र निकालते थे। ‘सोशल-डेमोक्रेट’ उच्च स्तरीय सैद्धान्तिक बहसों के लिए पत्र था, जबकि ‘ज़्वेज़्दा’ अग्रणी मज़दूरों के लिए था। ‘प्राव्‍दा‘ को व्यापक मज़दूर आबादी की राजनीतिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए निकाला जाता था। ‘प्राव्‍दा‘ के कलेवर को स्पष्ट करने के लिए हम स्तालिन को उद्धृत कर रहे हैं।

प्राव्‍दा‘ की स्थापना…

”मध्‍य अप्रैल, 1912 की एक शाम को कॉमरेड पोलेतायेव के घर दूमा के दो सदस्य (पोक्रोवस्की और पोलेतायेव), दो लेखक (ओलमिन्स्की और बातुरिन) और केन्द्रीय कमेटी का एक सदस्य, मैं (मैं फरार होने के कारण उस समय पोलेतायेव के घर को अपना अड्डा बनाये हुए था क्योंकि उसे ”संसदीय अभयदान” मिला हुआ था), प्राव्‍दा के मंच के बारे में सहमति पर पहुँचे और समाचार पत्र के प्रथम अंक को संकलित किया। मुझे याद नहीं है कि इस सम्मेलन में प्राव्‍दा के दो बहुत घनिष्ठ सहयोगी देम्यान ब्येदनी और दानिलोव मौजूद थे या नहीं।

‘ज़्वेज़्दा’  द्वारा चलाये गये आन्दोलन (Agitation), मज़दूरों के व्यापक हिस्से की सहानुभूति, और मिलों तथा फ़ैक्टरियों में ‘प्राव्‍दा‘ के लिए फण्ड के व्यापक स्वैच्छिक संग्रह से समाचार पत्र का तकनीकी और वित्तीय पूर्वाधार पहले ही तैयार हो चुका था। सही बात तो यह है कि रूस के मज़दूर वर्ग के और सर्वोपरि पेत्रोग्राद के मज़दूर वर्ग के प्रयासों के परिणामस्वरूप ही प्राव्‍दा अस्तित्व में आया था। यदि ये प्रयास नहीं होते तो समाचारपत्र का अस्तित्व नहीं होता।

प्राव्‍दा का स्वरूप स्पष्ट था। इसका लक्ष्य जन समुदाय के बीच ‘ज़्वेज़्दा’ के कार्यक्रम को लोकप्रिय बनाना था। प्राव्‍दा ने अपने प्रथम अंक में ही लिखा था : ‘कोई भी जो ‘ज़्वेज़्दा’ को पढ़ता है और इसके लेखकों को जानता है, जो प्राव्‍दा के भी लेखक हैं, उसे प्राव्‍दा द्वारा अपनायी जाने वाली लाइन को समझने में दिक्‍़क़त नहीं होगी। ‘ज़्वेज़्दा’ और प्राव्‍दा के बीच अन्तर सिर्फ़ यह था कि दूसरा (यानीप्राव्‍दा), पहले (‘ज़्वेज़्दा’) के विपरीत, अपने को आगे बढ़े हुए मज़दूरों को नहीं, बल्कि मज़दूर वर्ग के व्यापक जनसमुदाय को सम्बोधित करता था। प्राव्‍दा का कार्य था कि रूसी मज़दूर वर्ग के व्यापक हिस्से को, जो नये संघर्ष के लिए तो जागृत हो गया था लेकिन राजनीतिक तौर पर अभी भी पिछड़ा हुआ था, पार्टी के परचम के इर्द-गिर्द गोलबन्द करने में आगे बढ़े हुए मज़दूरों की मदद करे। सिर्फ़ इसी वजह से प्राव्‍दा ने उस समय अपने लिए एक उद्देश्य यह तय किया था कि मज़दूरों के बीच से लेखक तैयार करे और उन्हें समाचार पत्र के संचालन में आकर्षित करे।

”अपने पहले ही अंक में प्राव्‍दा ने लिखा : ‘हम चाहेंगे कि मज़दूर सिर्फ़ सहानुभूति रखने तक ही अपने को सीमित न रखें, बल्कि हमारे अख़बार को चलाने में सक्रिय भूमिका अदा करें। मज़दूर यह नहीं कहें कि वे लिखने के आदी नहीं हैं।’ मज़दूर वर्ग के लेखक तैयारशुदा आसमान से नहीं टपकते। उनको साहित्यिक गतिविधियों के दौरान क़दम-ब-क़दम ही प्रशिक्षित किया जा सकता है। ज़रूरत सिर्फ़ इस बात की है कि काम को साहस के साथ शुरू किया जाये। आप एक या दो बार लड़खड़ा सकते हैं, लेकिन अन्त में आप लिखना सीख लेंगे।’…(जे. वी. स्तालिन, प्राव्‍दा की दसवीं सालगिरह (संस्मरण) से, जे. स्तालिन, वर्क्‍स, खण्ड 5, पृष्ठ सं. 132-34, अनुवाद और ज़ोर हमारा)

दोस्तो, स्तालिन की बात पर ग़ौर कीजिये। प्राव्‍दा व्यापक जनसमूह को अपना ‘टारगेट रीडर ग्रुप’ मानता था और उसके राजनीतिक स्तर को ऊपर उठाने के लिए लिखता था।

क्या तब भी प्राव्‍दा को ‘मास पोलिटिकल पेपर’ मानना उचित होगा? आइये इसे समझने के लिए देखा जाये कि 1938 में सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय कमेटी क्या कहती है। यह दस्तावेज़ इसलिए भी ज़रूरी है कि ताकि हमारे बीच यह बात साफ़ रहे कि हमें अपने आन्दोलन के ‘मास पोलिटिकल पेपरों’ को कैसा बनाने की कोशिश करनी चाहिए।

”बोल्शेविक अख़बार ‘प्राव्‍दा”’…

अपने संगठनों को मज़बूत करने और आम जनता के बीच अपना असर फैलाने के लिए, बोल्शेविक पार्टी ने जो एक शक्तिशाली हथियार इस्तेमाल किया, वह दैनिक बोल्शेविक अख़बार प्राव्‍दा (सत्य) था। यह पेत्रोग्राद से प्रकाशित होता था। लेनिन के निर्देश के अनुसार, स्तालिन, ओलमिन्स्की और पोलेतायेव की पहलक़दमी पर इसकी स्थापना की गयी। प्राव्‍दा आम मज़दूर जनता का अख़बार था जिसकी स्थापना क्रान्तिकारी आन्दोलन के नये उभार के साथ-साथ हुई थी। इसका पहला अंक 22 अप्रैल (नयी शैली 5 मई) 1912 को निकला था। मज़दूरों के लिए यह दरअसल उत्सव का दिन था। प्राव्‍दा के प्रकाशन के सम्मान में यह फैसला लिया गया कि आगे से 5 मई को मज़दूर प्रेस-दिवस मनाया जायेगा।

प्राव्‍दा के निकलने के पहले ही, बोल्शेविकों के पास ‘ज़्वेज़्दा’  नाम का साप्ताहिक अख़बार था। यह आगे बढ़े हुए मज़दूरों के लिए था। लेना काण्ड के समय, ‘ज़्वेज़्दा’  ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इसने लेनिन और स्तालिन के लिखे हुए कई तीखे राजनीतिक लेख छापे, जिन्होंने संघर्ष के लिए मज़दूर वर्ग को गोलबन्द किया। लेकिन उठते हुए क्रान्तिकारी ज्वार को देखते हुए बोल्शेविक पार्टी की ज़रूरतें साप्ताहिक पत्र से न पूरी होती थीं। मज़दूरों के व्यापकतम हिस्सों के लिए एक दैनिक जन राजनीतिक समाचार पत्र (Mass Political Newspaper) ज़रूरी था। ‘प्राव्‍दा‘ ऐसा ही अख़बार था।…

”इस दौर में प्राव्‍दा की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण थी। आम मज़दूर जनता में उसने बोल्शेविज़्म के लिए समर्थन हासिल किया।…प्राव्‍दा का औसत वितरण प्रतिदिन चालीस हज़ार प्रतियों का था, जबकि मेंशेविक दैनिक लूच (किरण) की पन्द्रह हज़ार या सोलह हज़ार से ज्‍़यादा प्रतियाँ नहीं वितरित होती थीं।

”मज़दूर प्राव्‍दा को अपना ही अख़बार समझते थे। उन्हें इस पर बहुत भरोसा था और इसके आह्वान का वे तुरन्त जवाब देते थे। प्रत्येक प्रति हाथों-हाथ घूमते हुए बहुत से पाठकों द्वारा पढ़ी जाती थी। इसने (प्राव्‍दा ने) उनकी वर्ग-चेतना का निर्माण किया, उन्हें शिक्षित किया, उन्हें संगठित किया और संघर्ष के लिए उनका आह्वान किया।

प्राव्‍दा किन चीज़ों के बारे में लिखता था?

”हर अंक में मज़दूरों के दर्ज़नों ख़त छपते थे जिनमें वे अपनी ज़िन्दगी बयान करते थे, पूँजीपति मैनेजर और फोरमैन जिस बुरी तरह उनका शोषण करते थे और तरह-तरह से उन्हें सताते और बेइज्ज़त करते थे, उसे वे बयान करते थे। इन पत्रों में पूँजीवादी स्थितियों की तीखी और ज़ोरदार आलोचना होती थी। प्राव्‍दा अक्सर बेकार और भूखे मरते हुए मज़दूरों की आत्महत्या की रिपोर्टें छापता था। ये वे मज़दूर थे जो फिर काम पाने की आशा छोड़ बैठे थे।

प्राव्‍दा विभिन्न कारख़ानों और उद्योग-धन्धों के मज़दूरों की माँगों और ज़रूरतों के बारे में लिखता था। वह बतलाता था कि मज़दूर अपनी माँगों के लिए किस तरह लड़ रहे हैं। लगभग हर अंक में विभिन्न कारख़ानों में होने वाली हड़तालों की रिपोर्टें छपती थीं। बड़ी और लम्बी चलने वाली हड़तालों में हड़तालियों की मदद करने के लिए, अख़बार दूसरे कारख़ानों और दूसरे उद्योग-धन्धों के मज़दूरों में चन्दे इकट्ठे करने में मदद देता था। कभी-कभी हड़ताल फ़ण्ड में लाखों रूबल इकट्ठे हो जाते थे। उन दिनों के लिए, जबकि ज्‍़यादा तर मज़दूरों को हर रोज़ 70 या 80 कोपेक से ज्‍़यादा न मिलता था, तब ये रक़में बहुत भारी थीं। इससे मज़दूरों के बीच सर्वहारा एकजुटता की भावना और तमाम मज़दूरों के हितों की एकता की चेतना मज़बूत हुई।

”मज़दूर हर राजनीतिक घटना पर हर जीत या हार पर प्राव्‍दा को चिट्ठियाँ, अभिनन्दन या विरोध इत्यादि भेजकर प्रतिक्रिया देते थे।प्राव्‍दा अपने लेखों में सुसंगत बोल्शेविक दृष्टिकोण से मज़दूर आन्दोलन के कार्यभारों की चर्चा करता था। क़ानूनी तौर से प्रकाशित अख़बार ज़ारशाही हो उखाड़ पफेंकने का खुले तौर पर आह्वान नहीं कर सकता था। उसे इशारे करने पड़ते थे, जिन्हें वर्ग-सचेत मज़दूर बहुत अच्छी तरह समझ लेते थे, और जिन्हें वे जन-समुदाय को अच्छी तरह समझाते थे। उदाहरण के लिए, जब प्राव्‍दा ने ”वर्ष 5 की पूरी और बिना कटी-छँटी माँगों” के बारे में लिखा तो मज़दूर समझ गये कि इसका मतलब बोल्शेविकों के क्रान्तिकारी नारे हैं – यानी ज़ारशाही का ख़ात्मा, जनवादी गणतन्त्र, भू-जागीरों की ज़ब्ती और काम के आठ घण्टे।…

प्राव्‍दा मज़दूरों की ज़िन्दगी के बारे में, उनकी हड़तालों और प्रदर्शनों के बारे में ही नहीं लिखता था बल्कि नियमित तौर पर किसानों की ज़िन्दगी, उनको त्रस्त करने वाले अकालों और सामन्ती ज़मीन्दारों द्वारा उनके शोषण का भी वर्णन करता था। यह बतलाता था कि किस तरह स्तोलीपिन ‘सुधार’ के परिणामस्वरूप कुलकों ने किसानों से उनकी सबसे अच्छी ज़मीन छीन ली है। प्राव्‍दा ने वर्ग-चेतन मज़दूरों का ध्‍यान ग्रामीण इलाक़ों में फैले व्यापक और घोर असन्तोष की तरफ खींचा। इसने सर्वहारा वर्ग को यह सिखलाया कि 1905 की क्रान्ति के उद्देश्य अभी हासिल नहीं हुए और एक नयी क्रान्ति होने वाली है। इसने सिखलाया कि इस दूसरी क्रान्ति में सर्वहारा वर्ग को जनता के सच्चे नेता और पथ-प्रदर्शक का काम करना होगा, और कि इस क्रान्ति में उसे क्रान्तिकारी किसान समुदाय जैसा ताक़तवर सहयोगी मिलेगा।…

प्राव्‍दा के मज़दूर संवाददाताओं की तादाद बहुत बड़ी थी। एक साल में ही इसने मज़दूरों के ग्यारह हज़ार से अधिक ख़त छापे। लेकिन,प्राव्‍दा मज़दूर वर्ग के जनसमुदाय से सिर्फ़ ख़तों के ज़रिये सम्पर्क कायम नहीं रखता था। प्रत्येक दिन कारख़ानों से बहुत सारे मज़दूर सम्पादकीय दफ्तर में आते थे। प्राव्‍दा के सम्पादकीय कार्यालय में पार्टी के संगठनात्मक कार्य का एक बड़ा हिस्सा केन्द्रित था। यहाँ पर पार्टी केन्द्रों के प्रतिनिधियों की मीटिंगों का इन्तज़ाम किया जाता था। यहाँ पर मिलों और कारख़ानों में पार्टी के काम की रिपोर्टें ली जाती थीं। यहीं से पार्टी की पेत्रोग्राद कमेटी और केन्द्रीय कमेटी के निर्देश बाहर भेजे जाते थे।” (सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास (बोल्शेविक), संक्षिप्त कोर्स, (पृ. 149-153) फ़ॉरेन लेंगवेज पब्लिशिंग हाउस, मास्को, 1952 का सीधा पुनर्मुद्रित अंग्रेज़ी संस्करण, अनुवाद और शब्दों पर ज़ोर हमारा)

इस लम्बे उद्धरण को देना हमारी मजबूरी इसलिए है क्योंकि बिगुल के सम्पादक इस बात से सीधे इन्कार करते हैं कि ‘प्राव्‍दा‘ औसत मज़दूरों को सम्बोधित था। बिगुल के सम्पादक बिगुल के पाठकों को ग़लत तथ्य देते हैं कि ‘इस्क्रा‘ की तरह ‘प्राव्‍दा‘ का ‘टारगेट रीडर ग्रुप’ अग्रणी वर्ग-सचेत मज़दूर ही थे।

इन लम्बे उद्धरणों द्वारा हमने यह स्थापित करने की कोशिश की है कि ‘इस्क्रा‘ और ‘प्राव्‍दा‘ में भिन्नता मात्र दौर की नहीं है या इस बात की नहीं है कि एक क़ानूनी दैनिक था तथा दूसरा ग़ैरक़ानूनी। इससे कहीं ज्‍़यादा  बड़ी बात यह है कि दोनों अख़बारों के टारगेट रीडर ग्रुप अलग-अलग थे, इसलिए दोनों अख़बारों का कलेवर (अन्तर्वस्तु और शैली) एक-दूसरे से बहुत भिन्न था।

यहीं पर हम पाठकों के सामने यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि न केवल आप उद्धरणों के ग़लत अर्थ निकालते हैं बल्कि उन्हें तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करते हैं। आपने अपने लेख में लिखा है – ”जिसे आप ‘मास पोलिटिकल पेपर’ कह रहे हैं और यह मानक पेश कर रहे हैं कि लेनिन की बातें इस्क्रा पर तो लागू होती हैं पर प्राव्‍दा पर नहीं, उस पत्र ने (स्तालिन कालीन सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) के इतिहास के अनुसार) चौथी दूमा के चुनाव के पूर्व आगे बढ़े हुए मज़दूरों को संगठित किया, सर्वहारा वर्ग की आम कार्रवाई का संगठन किया और मज़दूर वर्ग की आम क्रान्तिकारी पार्टी के रूप में बोल्शेविक पार्टी को ढालने के लिए प्राव्‍दा की कार्यनीति ने राजनीतिक रूप से सक्रिय मज़दूरों के अस्सी फ़ीसदी का समर्थन हासिल किया।

हम नहीं जानते कि उपरोक्त बातें आपने ‘इतिहास’ के किस हिस्से से ली हैं। परन्तु आपके द्वारा ही बाद में सन्दर्भित पृष्ठ 181 पर हमें यह पढ़ने को मिलता है :

”मज़दूर वर्ग की आम क्रान्तिकारी पार्टी बनाने के लिए ढाई साल तक विसर्जनवादियों के ख़िलाफ़ डटकर मोर्चा लेने के फलस्वरूप 1914 की गर्मियों तक बोल्शेविक पार्टी के लिए प्राव्‍दा की कार्यनीति के लिए बोल्शेविक रूस के राजनीतिक तौर से सक्रिय मज़दूरों में से 80 फ़ीसदी का समर्थन हासिल करने में सफल हुए।”

हम आपसे पूछना चाहेंगे – क्या यह सीधे-सीधे तोड़-मरोड़ नहीं है। ”’प्राव्‍दा’ की कार्यनीति के लिए” कैसे ”’प्राव्‍दा’ की कार्यनीति ने” में बदल जाता है? परिणाम कैसे कारण में बदल जाता है? ‘इतिहास’ के उपरोक्त अंश में कर्ता ”बोल्शेविक” (और कर्म ‘विसर्जनवादियों के ख़िलाफ़ डटकर मोर्चा लेना’) है जबकि बिगुल के सम्पादक महोदय की कृपा से कर्ता प्राव्‍दा हो जाता है। यह किसी भी तरह से अपनी बात साबित करने का अतिरिक्त उत्साह है या ‘पोलर एक्सिस दोष’?

इसी तोड़-मरोड़ का अगला उदाहरण तुरन्त बाद की लाइनों में अभिव्यक्त होता है। आपने लिखा है :

”जिसे आप ‘मास पोलिटिकल पेपर’ कहकर इस्क्रा से अलग प्रकृति का बताने की कोशिश कर रहे हैं वह पत्र ‘पार्टी सिद्धान्त’ के लिए, आम मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी बनाने के लिए संघर्ष में… बीचोबीच में था। ‘प्राव्‍दा’ ने बोल्शेविक पार्टी के ग़ैरक़ानूनी केन्द्र के चारों तरफ मौजूदा क़ानूनी संगठनों को इकट्ठा किया और निश्चित उद्देश्य की तरफ मज़दूर आन्दोलन का संचालन किया – क्रान्ति की तैयारी के लिए।” (सो. सं. की क. पा. (बोल्शेविक) का इतिहास, पृ. 181)

यहाँ आपकी चालाकी देखने लायक़ है। यह दो स्तरों पर एक ही तरह से की गयी है। पहली तो यह कि आपने अपनी ओर से कुछ शब्दों पर ज़ोर दे दिया है और यह बताये बिना कि यह ज़ोर आपका है जिससे पाठक को यह लगे कि ज़ोर तो मूल पाठ में ही है। इससे आपकी बात और पुख्‍़ता साबित होने लगती है। क्या इसे सामान्य ”चूक” का मामला मान लिया जाये (वैसे हमें मानना तो नहीं चाहिए, तब जब आप अपने आप को इतना भारी विद्वान समझते हों कि दूसरों को पढ़ने की सीख देते फिरते हों)? लेकिन यह चूक नहीं है। यह सोची-समझी चाल है। यहीं दूसरी बात है – उन शब्दों को जस का तस रहने दिया गया है जो वास्तव में वर्तमान बहस में कुछ रोशनी डाल सकते हैं। पहले वाक्य में ‘आम मज़दूर वर्ग’ शब्द आया है जिसे आपने चुपचाप निकल जाने दिया। क्यों? इस पर ज़ोर क्यों नहीं दिया? क्या इसलिए कि यह आपकी धारणा को खण्डित करता है? इसी तरह दूसरे वाक्य में आने वाले जिन शब्दों पर ज़ोर दिया है उनसे ज्‍़यादा महत्वपूर्ण वे शब्द हैं जिन पर आपने ज़ोर नहीं दिया और वे हैं, ”मौजूदा क़ानूनी संगठनों को इकट्ठा किया”। ‘प्राव्‍दा‘ ने यही काम किया और यही उसका महती योगदान था। ‘इतिहास’ में उपरोक्त अध्‍याय के अन्त में दिये गये सारांश में ठीक इसी बात को फिर दूसरे शब्दों में दोहराया गया है।

लेकिन आप यह नहीं करते। क्यों? इसलिए कि यह आपकी इस्क्रा व प्राव्‍दा की समानता की पूरी धारणा को खण्डित कर देता है। इसलिए आप यह नहीं देखते या देखना नहीं चाहते कि इस्क्रा ने एक ग़ैरक़ानूनी पार्टी केन्द्र का गठन किया और प्राव्‍दा ने इस ग़ैरक़ानूनी पार्टी केन्द्र के चारों तरफ क़ानूनी संगठनों को इकट्ठा किया। यह बहुत बड़ा फ़र्क़ है। इसलिए इस्क्रा ने पार्टी कतारों और अग्रणी वर्ग-सचेत मज़दूरों को सम्बोधित किया जबकि प्राव्‍दा ने आम मज़दूर जनता कोA

लेकिन किसी भी तरह से अपनी बात को सही साबित करने वाले आप जैसे ”बहादुर तीसमार ख़ाँ” (”कायर शेखचिल्ली” का हमें यही विपरीत सूझा, वैसे हमें आशा है कि आप जैसे महापण्डित इस मामले में भी हमारा मार्गदर्शन करेंगे) से और क्या उम्मीद की जा सकती है?

क्या 1899 से 1904 का काल रूसी मज़दूर आन्दोलन में फूट, विसर्जन और ढुलमुलपन का काल था अथवा मज़दूर आन्दोलन के आगे बढ़ने और विकसित होने का काल था?

बिगुल के सम्पादक हम पर आरोप लगाते हैं कि हम 1899 के रूसी मज़दूर आन्दोलन का ज़रूरत से ज्‍़यादा उत्साही और अतिरंजित खाका खींचते हैं, कि हम ऐतिहासिक तथ्यों के साथ प्राय: बलात्कार करते हैं और नये तथ्यों का आविष्कार करते हैं, और इतिहास का विद्रूपीकरण करते हैं।

हमने अपने मई, 99 के पत्र में कहा था कि 1899 के रूसी मज़दूर आन्दोलन की ज़रूरतें और 1999 के हिन्दुस्तानी मज़दूर आन्दोलन की ज़रूरतों में बहुत बड़ा अन्तर है। क्योंकि 1899 में रूसी मज़दूर आन्दोलन आगे बढ़ रहा था, जबकि 1999 का हिन्दुस्तानी मज़दूर आन्दोलन पीछे हट रहा है। ऐसे में जड़सूत्रवादियों की तरह 1899-1904 के रूसी दौर की व्यावहारिक बातों को (उसूली बातों को नहीं) दोहराते रहना ग़लत है। हमने आगे यह लिखा था कि क्रान्तिकारियों को स्थान-काल का भेद ठीक से समझना चाहिए और ज़माने की ज़रूरतों के हिसाब से काम करना चाहिए। अपनी बात को पुष्ट करने के लिए हमने लेनिन को उद्धृत किया था ताकि यह साफ़ रहे कि क्रान्तिकारी प्रतिकूल स्थितियों में मज़दूरों को ककहरा सिखाने, उनमें सांस्कृतिक कार्य… करने की हद तक भी जा सकते हैं।

इतिहास की हमारी समझ ठीक है। इतिहास के बारे में बिगुल के सम्पादक झूठे तथ्य पेश कर रहे हैं। सच्चाई को समझने और ठीक अवस्थिति पर पहुँचने के लिए आइये देखें, लेनिन क्या कहते हैं। चलिये लेनिन की पुस्तक ‘क्या करें’ के उसी अन्तिम अध्‍याय को देखा जाये, जिसका हवाला बिगुल के सम्पादक अपने अख़बार के पृष्ठ 8 के पहले कॉलम के पहले पैरा में देते हैं। लेनिन लिखते हैं, ”रूसी सामाजिक-जनवादी आन्दोलन” को साफ़-साफ़ तीन कालों में बाँटा जा सकता है।

दो पैरा बाद लेनिन लिखते हैं – ”तीसरे काल की तैयारी, जैसा हम देख चुके हैं, 1897 में हुई थी और 1898 में उसने निश्चित रूप से दूसरे काल का स्थान ले लिया था (1898-?)। यह फूट, विसर्जन और ढुलमुलपन का काल था। जब आदमी लड़कपन पार करके जवानी में प्रवेश करने को होता है, तो उसकी आवाज़ फट जाती है। इसी प्रकार इस काल में रूसी सामाजिक-जनवादी आन्दोलन की आवाज़ भी फटने लगी और उसमें एक झूठा स्वर सुनायी देने लगा। एक ओर तो स्त्रूवे और प्रोकोपोविच, बुल्गाकोव और बेरदियायेव जैसे महानुभावों की रचनाओं में, और दूसरी ओर व.इ. और र.म., बो. ट्टचेवस्की और मार्तीनोव जैसे लोगों की रचनाओं में। परन्तु केवल नेतागण ही थे, जो इधर-उधर अलग-थलग भटकते फिरते थे और वापस चले जाते थे, ख़ुद आन्दोलन तो प्रचण्ड गति से बढ़ता और विकास करता गया। सर्वहारा संघर्ष मज़दूरों के नये हिस्सों तक पहुँचा, पूरे रूस में फैल गया और इसके साथ-साथ उसने अप्रत्यक्ष रूप से विद्यार्थियों में और जनता के दूसरे हिस्सों में भी जनवादी भावना जगायी। परन्तु नेताओं की चेतना स्वयंस्पफूर्त उभार के विस्तार और वेग के अनुरूप न बढ़ पायी…” (लेनिन, क्या करें, शब्दों पर ज़ोर हमारा है)

मित्र, आपकी निकटदृष्टि ठीक है, आपकी दूरदृष्टि ठीक है, पोलर-एक्सिस भी ठीक है, आप्टिक-नर्व भी ठीक होनी चाहिए। हमारा ख़याल है कि तब रोग आपके मस्तिष्क में है। लेनिन साफ़ लिखते हैं कि ‘ख़ुद आन्दोलन तो प्रचण्ड गति से बढ़ता और विकास करता गया…। फिर आप बिगुल के पाठकों को लेनिन की बात तोड़-मरोड़कर क्यों बता रहे हैं? क्यों आप सामाजिक-जनवादी आन्दोलन की जगह रूसी मज़दूर आन्दोलन लिख देते हैं? जबकि आप अच्छी तरह जानते हैं कि दोनों धाराएँ एक-दूसरे से अलग थीं और उन दिनों ये दो अलग-अलग धाराएँ एक-दूसरे में मिल रही थीं। लेनिन की बात बहुत साफ़ है कि रूस का सामाजिक-जनवादी आन्दोलन 1898-1904 के वर्षों में फूट, विसर्जन और ढुलमुलपन का शिकार था और ये प्रवृत्तियाँ भी आन्दोलन के नेताओं तक सीमित थीं, जबकि रूसी मज़दूर आन्दोलन में उभार था, वह वेग के साथ आगे बढ़ रहा था और विस्तृत हो रहा था।

आपने हमसे जानना चाहा है कि हमने रूसी क्रान्ति के इतिहास की कौन सी पुस्तक पढ़ी है जिसमें 1898 से 1904 तक के दौर को मज़दूर आन्दोलन के आगे बढ़ने का काल बताया गया है?

तो साथी, इस सवाल का जवाब यह है कि हमने लेनिन को पढ़ा है और बोल्शेविक पार्टी की केन्द्रीय कमेटी द्वारा प्रमाणित इतिहास पढ़ा है। हमारी आपसे गुज़ारिश है कि आप भी ऐसा ही करें। ‘सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के इतिहास’ के दूसरे अध्‍याय में पहले भाग (Section) का शीर्षक है ”1901-1904 में रूस में क्रान्तिकारी आन्दोलन में उठान”। इस भाग में कुल चार पृष्ठ हैं। ज्‍़यादा मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। आप इन्हें ध्‍यान से पढ़ें और समझने का प्रयास करें। आपकी तो निकट दृष्टि अव्वल है, दूर दृष्टि के माशा-अल्ला क्या कहने! ऐसे में आपको ज्‍़यादा ज़ोर नहीं लगाना पड़ेगा।

अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की यह अवस्थिति निर्विवाद है कि 1898 से 1904 का काल रूसी मज़दूर आन्दोलन के आगे बढ़ने का काल है। या तो दुनिया के कम्युनिस्ट झूठ बोल रहे हैं या फिर आप बिगुल के पाठकों को झाँसा दे रहे हैं। हमारा कहना है कि दूसरी वाली बात सही है।

क्या राजनीति देते समय अख़बार को पाठक-समूह की चेतना का ख़याल रखना चाहिए?

हमारा मत है कि निश्चित तौर पर रखना चाहिए।

हमारे-आपके बीच में यह बहस ही नहीं है कि राजनीति दी जाये या न दी जाये। और न ही यह बहस है कि क्रान्ति की राजनीति सीधे-सीधे दी जाये या न दी जाये।

हमारे-आपके बीच यह भी बहस नहीं है कि क्रान्ति को समर्पित अख़बार अपने पाठकों का राजनीतिक शिक्षक होता है, कि अख़बार का काम यह नहीं होता है कि वह अपने पाठकों को वही बातें बताये जिन्हें वे पहले से जानते हों, कि क्रान्ति को समर्पित किसी अख़बार का काम होता है, अपने पाठकों की राजनीतिक चेतना को ऊपर उठाना।

परन्तु इतनी सहमति के बावजूद हम बिगुल के सम्पादक एवं लेखकों के आलोचक हैं। क्योंकि हमारा मत है कि बिगुल अपने ही स्वघोषित उद्देश्य को पूरा नहीं कर रहा है।

बिगुल की समस्या यह है कि एक ओर तो बिगुल अपना ‘टारगेट रीडर ग्रुप’ व्यापक मेहनतकश आबादी को मानता है। दूसरी ओर अपने सम्पादकीय या अपने जवाब में बिगुल के सम्पादक, अख़बार का ‘टारगेट रीडर ग्रुप’ अग्रणी वर्ग-सचेत मज़दूरों को परिभाषित करते हैं। यह एक विसंगतिपूर्ण अवस्थिति है।

जब कोई व्यापक मेहनतकश आबादी की बात करता है तो उसका एक ही अर्थ निकलता है – संगठित सर्वहारा, असंगठित सर्वहारा, अर्द्धसर्वहारा (शहरी तथा ग्रामीण), ग़रीब व मँझोले किसान। ‘व्यापक मेहनतकश आबादी’ में इनके सभी संस्तर – उन्नत, मध्‍यम तथा पिछड़े – आते हैं। औसत तो निश्चित तौर पर आते हैं।

जब कोई ‘वर्ग-सचेत मज़दूरों’ की बात कर रहा होता है तब वह एक ऐसे मज़दूर की बात कर रहा होता है जिसे कम से कम अपने वर्ग का बोध होता है, समाज के अन्य वर्गों के साथ अपने वर्ग के वर्तमान रिश्तों की समझ होती है, जिसे यह बात साफ़ समझ में आती है कि उसके वर्ग की मुक्ति बिना क्रान्ति के नहीं हो सकती है, और जो इस मिशन की पूर्ति के लिए अपने अन्य मज़दूर साथियों को तैयार करने के लिए कुछ तो सक्रिय होता ही है। इससे कम चेतना का मज़दूर किसी भी हालत में वर्ग-सचेत मज़दूर नहीं माना जा सकता है।

‘व्यापक मेहनतकश आबादी’ में सामान्य तौर पर अग्रणी वर्ग-सचेत मज़दूरों की गिनती बहुत कम होती है। मज़दूर आन्दोलन की सुप्त अवस्थाओं में विशेष तौर पर, अग्रणी वर्ग-सचेत मज़दूर कम गिनती में पाये जाते हैं।

‘व्यापक मेहनतकश आबादी’ की चेतना और ‘अग्रणी वर्ग-सचेत मज़दूरों’ की चेतना में अच्छा-ख़ासा अन्तर होता है। क्रान्ति को समर्पित किसी अख़बार को निश्चित तौर पर अपना पाठक-समूह तय करना होगा। अगर वह ऐसा नहीं करता तो वह अपने पाठकों का राजनीतिक शिक्षक नहीं बन पायेगा। ऊहापोह की स्थिति में होता यह है कि वह अपने उन्नत पाठकों को कुछ नया और सार्थक नहीं दे पाता है और निम्न स्तर के पाठकों के लिए उसकी बातें बोधगम्य नहीं होती हैं। कुल मिलाकर वह अपने उद्देश्य को पूरा नहीं कर रहा होता है, वह ‘ऑफ टारगेट’ होकर रह जाता है। पाठकों के लिए सार-हीन होकर रह जाता है।

बिगुल के सम्पादक हिरावलपन्थ को परिभाषित करने का प्रयास करते हैं। आपकी मौलिक प्रस्थापनाओं पर न जाकर हम जनता के बीच काम करने के बारे में लेनिन की बात सुनेंगे :

”यहाँ पर हम फिर देखते हैं कि ‘वामपन्थी’ लोग तर्क करना नहीं जानते, वे वर्ग की पार्टी की तरह, जनसाधारण की पार्टी की तरह काम करना नहीं जानते। आपको जनसाधारण के स्तर पर, वर्ग के पिछड़े हुए भाग के स्तर पर नहीं पहुँच जाना चाहिए। यह बात निर्विवाद है। आपको जनता को कटु सत्य बताना चाहिए। आपको उसके बुर्जुआ जनवादी और संसदीय पूर्वाग्रहों को पूर्वाग्रह ही कहना चाहिए। परन्तु साथ ही आपको यह बात भी बड़ी गम्भीरता के साथ देखनी चाहिए कि पूरे वर्ग की (केवल उसके कम्युनिस्ट हिरावल की नहीं) और सारे मेहनतकश जनसाधारण की (केवल उसके आगे बढ़े हुए प्रतिनिधियों की नहीं) चेतना और तैयारी की वास्तविक हालत क्या है।” (लेनिन, वामपन्थी कम्युनिज़्म : एक बचकाना मर्ज़, दस खण्डीय, हिन्दी संस्करण, खण्ड 9, पृ. 295-96, ज़ोर मूल में)

जनता के बीच काम करने के लिए लेनिन द्वारा सुझायी गयी यह पद्धति ही सही पद्धति है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि जनसाधारण के बीच काम करते हुए हमें उसकी चेतना और तैयारी की वास्तविक हालत का गम्भीरतापूर्वक ध्‍यान रखना चाहिए। जो कोई भी यह नहीं करता और केवल हिरावल को देखकर अपनी नीति तथा दिशा तय करता है और तदनुरूप व्यवहार करता है, हमारी नज़र में वह हिरावलपन्थी है। उसे हिरावलपन्थी कहा जायेगा भले ही वह रोज़मर्रा के संघर्ष करता हो या न करता हो, जनसंगठन बनाने का प्रयास करता हो या न करता हो, वह केवल प्रचार-कार्य करता हो या ”व्यावहारिक” कार्य भी।

हिरावलपन्थी अख़बार एक ऐसा अख़बार होता है जो या तो अपने पाठक-समूह को ठीक से चिह्नित न करता हो या अगर वह अपने पाठक-समूह को ठीक से चिह्नित कर भी ले, तो अपने पाठक-समूह की चेतना का वस्तुनिष्ठ आकलन कर भी ले तो उस चेतना को मद्देनज़र रखते हुए राजनीति देने का काम न करे। जो अपने पन्नों में ऐसे शब्द इस्तेमाल करे जो पाठकों की समझ में न आते हों, ऐसी बातें लिखे जो उसके पाठकों की समझ से ऊपर हों, जिसमें ऐसे लेख न छपते हों जिनसे उसके पाठकों को अपने राजनीतिक कार्यों को आगे बढ़ाने में मदद मिलती हो। यानी कि एक ऐसा अख़बार जिसकी शैली और अन्तर्वस्तु, उसके पाठकों के वास्तविक जीवन व चेतना से बेमेल हो, और जो उन्हें राजनीतिक तौर पर आगे बढ़ाने के बजाय उनसे किताबी बातें करता हो।

हमारा निश्चित मत है कि क्रान्ति को समर्पित किसी अख़बार को अपने पाठक-समूह की चेतना का वस्तुनिष्ठ आकलन करना चाहिए, उस चेतना को परिभाषित करने का प्रयास करना चाहिए। उस चेतना को मद्देनज़र रखते हुए ही राजनीति देने का काम करना चाहिए। अख़बार की भाषा, प्रस्तुति, विषयों का चयन, लेखों की अन्तर्वस्तु हर चीज़ इस चेतना को दिमाग़ में रखकर तय की जानी चाहिए। प्रोपेगैण्डा और एजिटेशन के सम्बन्ध में लेनिन का साफ़ मत है कि ”आन्दोलनकर्ता” (Agitator)… ऐसी बात का उदाहरण देगा, जो सबसे अधिक ज्वलन्त हो और जिसे उसके सुननेवाले सबसे व्यापक रूप से जानते हों…।” (ज़ोर हमारा)

‘सांस्कृतिक कार्य में संयुक्त मोर्चा’ लेख में माओ भी यही मत रखते हैं कि ”जनसमुदाय के साथ सम्बन्ध स्थापित करने के लिए हमें जनसमुदाय की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं के अनुसार काम करना चाहिए। जनसमुदाय के लिए किये जाने वाले तमाम कार्यों का आरम्भ उसकी आवश्यकताओं के आधार पर होना चाहिए न कि किसी व्यक्ति की सदिच्छाओं के आधार पर।” (ज़ोर हमारा)

अगर, क्रान्ति को समर्पित कोई अख़बार हिरावलपन्थी होने की ग़लती से बचना चाहता है तो उसके सम्पादक और लेखकों को लेनिन और माओ की इन बातों को गाँठ बाँध लेना चाहिए। इसी लेख में माओ तो यहाँ तक कहते हैं कि, ”जनसमुदाय को अपना संकल्प ख़ुद ही करना चाहिए, बजाय इसके कि हम उसपर अपना संकल्प लाद दें।”

अख़बार चाहे ‘व्यापक मेहनतकश आबादी’ के लिए निकाला जाने वाला ‘मास पोलिटिकल पेपर’ हो, चाहे वह ‘अग्रणी वर्ग-सचेत मज़दूरों’ को आगे बढ़ाने और कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के बतौर प्रशिक्षित करने के लिए निकाला जा रहा हो, दोनों ही स्थितियों में उसके ‘टारगेट रीडर ग्रुप’ की चेतना का वस्तुनिष्ठ आकलन किया जाना चाहिए। इन दो भिन्न टारगेट रीडर ग्रुप की चेतना में बहुत अन्तर है, इनकी राजनीतिक ज़रूरतें एक-दूसरे से नितान्त भिन्न हैं, अत: अख़बार का कलेवर दोनों के लिए एक जैसा नहीं बनाया जा सकता। बिगुल के सम्पादक और लेखकों को हँसुए की शादी में खुरपी का गीत गाने की ग़लती से बचना चाहिए।

कनफ़्यूशियसवादी शैली

माफ़ करना दोस्तो, हमने आपको कनफ़्यूशियसवादी नहीं कहा था। हमने आप पर कनफ़्यूशियसवादी शैली अपनाने का आरोप लगाया था। परन्तु आपका कहना है कि तमाम ग्रन्थ उलट-पुलट देने के बावजूद आपको हमारा आरोप ठीक से समझ में नहीं आया। ऐसे में हमारी मजबूरी हो जाती है कि हम अपना आशय स्पष्ट करें।

कनफ़्यूशियस प्राचीन चीन का एक विद्वान था। करीब 2,500 वर्ष पहले वह तब पैदा हुआ जब चीन में पुरानी दास प्रथा टूट रही थी और नयी सामन्ती व्यवस्था उसकी जगह ले रही थी। कनफ़्यूशियस ग़ुलामों के विद्रोहों से आतंकित था और टूटती हुई दास प्रथा को बचाना चाहता था। समाज में फैली अफ़रा-तफ़री, उठा-पटक और अराजकता को समाप्त करने के लिए उसने अपने विचार रखे। कनफ़्यूशियस ने घोर प्रतिक्रियावादी विचार प्रतिपादित किये। हालाँकि कनफ़्यूशियस दास प्रथा को बचा नहीं पाया, परन्तु बाद में चीन के सामन्तों ने उसकी बातें अपना लीं।

ऊपरी तौर पर देखा जाये तो कनफ़्यूशियस की बातें बड़ी अच्छी लगती हैं। वह समाज में प्रेम, मानवीयता, सद्गुण, सदाचार, विश्वसनीयता, छोटों के प्रति पवित्र भावनाएँ, उदात्तता स्थापित करने की बातें करता है। ऐसी आकर्षक शैली अपनाने की वजह से सदियों तक समाज में उसकी बातों का प्रभाव बना रहा।

परन्तु ठोस व्यवहार में उसकी बातों के और ही मतलब निकलते थे। ठोस व्यवहार में उसकी शिक्षाएँ थीं –

”जो लोग दिमाग़ से काम करते हैं वे शासन करते हैं, जबकि वे लोग जो अपनी ताक़त से काम करते हैं, दूसरों द्वारा शासित होते हैं।”

”केवल सबसे ऊँचे लोग जो बुद्धिमान होते हैं और सबसे नीचे के लोग, जो मूर्ख होते हैं, को बदला नहीं जा सकता है।”

”कुछ लोग जन्म से ज्ञानी होते हैं।”

औरतों के लिए तीन आज्ञापालन और चार गुण – ”जब कम उम्र की हो तो पिता और भाइयों का आज्ञापालन, जब शादीशुदा हो तो पति का आज्ञापालन, जब विधवा हो तो पुत्रों का आज्ञापालन” और चार गुण थे ”अपनी हैसियत का बोध, मृदुभाषा, सजावट, घरेलू कामों में निपुणता।”

ठोस व्यवहार में कनफ़्यूशियस की बातें मेहनतकश लोगों के किसी काम की नहीं थीं और चीनी क्रान्ति ने इनका निषेध किया। इसलिए अगर कोई व्यक्ति ऐसी शैली अपनाता है जो ऊपरी तौर पर तो ठीक और अच्छी लगे परन्तु ठोस व्यवहार में किसी काम की न हो तो उसकी शैली को कनफ़्यूशियसवादी शैली कहा जा सकता है।

हमारा कहना है कि ऊपरी तौर पर तो यह बात बड़ी अच्छी लगती है कि आप ‘अग्रणी वर्ग-सचेत मज़दूरों’ को क्रान्ति के काम में दीक्षित करने के लिए अख़बार निकाल रहे हैं या ‘व्यापक मेहनतकश आबादी’ के बीच क्रान्तिकारी राजनीतिक शिक्षा और प्रचार के लिए अख़बार निकाल रहे हैं। परन्तु ठोस व्यवहार में जब हम बिगुल को देखते हैं और पाते हैं कि यह दोनों में से किसी भी पाठक-समूह की वास्तविक राजनीतिक ज़रूरतों को पूरा नहीं करता है तब यह स्पष्ट होने लगता है कि यह किसी काम का नहीं है।

फिर भी हमें खेद है कि हमने कनफ़्यूशियसवादी शैली शब्द इस्तेमाल किया। इसकी जगह हमें और सटीक तथा धारदार शब्द इस्तेमाल करना चाहिए था, मसलन शब्दाडम्बरवादी या बमबम करने वाली (Flamboyant) या फिर ऐसे व्यक्ति की शैली जो लार को वक्लासव कहता हो जिसका ज़िक्र कुमारिल भट्ट ने उन भाववादी दार्शनिकों के लिए किया था जो योग के नाम पर नाना प्रकार की बकवास किया करते थे।

हिरावलपन्थी बने रहने से बचने के लिए बिगुल के सम्पादक को कुछ सलाहें

माओ (येनान की कला-साहित्य गोष्ठी में भाषण) का कहना है : ”किसके लिए? का सवाल बुनियादी सवाल है, यह एक उसूल का सवाल है।” इसी लेख में एक अन्य जगह (पृष्ठ 124-125, संकलित रचनाएँ, 1975) वे कहते हैं, ”हम मार्क्‍सवादी हैं, और मार्क्‍सवाद हमें यह सिखाता है कि किसी भी समस्या से निपटते समय हमें वस्तुगत तथ्यों से शुरुआत करनी चाहिए, अमूर्त परिभाषाओं से नहीं, तथा इन तथ्यों का विश्लेषण करके ही हमें अपने निर्देशक उसूलों, नीतियों और उपायों को निर्धारित करना चाहिए।”

बिगुल के सम्पादक से हमारा कहना है कि उन्हें भी सर्वप्रथम बहुत निर्मम होकर ”किसके लिए?” के बुनियादी सवाल को हल करना चाहिए। ‘व्यापक मेहनतकश आबादी’ के लिए अख़बार और ‘अग्रणी वर्ग-सचेत मज़दूरों’ के लिए अख़बार का घालमेल बिगुल को ‘किसी के लिए नहीं’ में तब्दील कर देता है। इस बुनियादी सवाल को तय किये बग़ैर बिगुल के लिए सही निर्देशक नीतियाँ तय ही नहीं हो सकती हैं। इस बुनियादी सवाल के ही उत्तर पर बिगुल में छपने वाले लेखों का राजनीतिक स्तर, लेखों की शैली, लेखों में प्रयोग किये जाने वाले शब्द, अख़बार की प्रस्तुति सब कुछ निर्भर करता है। लम्बे चौड़े (एवं कठमुल्लावादी मार्क्‍सवादी) तर्कों का धुआँ उड़ाकर यदिबिगुल के सम्पादक इस बुनियादी सवाल से किनारा काटने की कोशिश कर रहे हैं तो वे अपने को ही नुक़सान पहुँचा रहे हैं, हमें नहीं। वे अपने ही ध्‍येय के प्रति वफ़ादारी का परिचय नहीं दे रहे हैं।

दूसरी बात यह कि सीधे-सीधे राजनीति देने का मतलब यह क़तई नहीं होता कि आप रटे-रटाये ‘मार्क्‍सवादी सूत्रों’ का भोंपू बजाकर पाठकों पर बौद्धिक आतंक क़ायम करने का काम करें। ऐसा बौद्धिक आतंक इन्क़लाब के किसी काम का नहीं होता है। इससे न तो व्यापक जनता समाजवाद के प्रति आकर्षित होती हैं और न ही यह अग्रणी वर्ग-सचेत मज़दूरों या समाजवाद के सिपाहियों (इन्क़लाबी कार्यकर्ताओं) के प्रशिक्षण में कोई मदद पहुँचाता है। भारी-भरकम मार्क्‍सवादी शब्दावली का प्रयोग किये बग़ैर भी सामान्य हिन्दुस्तानी में सीधे-सीधे राजनीति दी जा सकती है। पाठकों को सामान्य बोधगम्य हिन्दुस्तानी में भी इन्क़लाब की जटिल समस्याएँ और पहलू समझाये जा सकते हैं। इसके लिए हमें स्तालिन और माओ की शैली का अनुसरण करना चाहिए या लेनिन की उस शैली को आत्मसात करने की कोशिश करनी चाहिए जिसे वे ‘गाँव के ग़रीबों से’ में प्रयोग करते हैं।

समाजवादी क्रान्ति, मार्क्‍सवाद के बिना नहीं हो सकती है। परन्तु मार्क्‍सवाद ज़िन्दगी और जीवन-संघर्षों का दर्शन है। अगर इसे मेहनतकशों की ज़िन्दगी और जन-संघर्षों के साथ न जोड़ा जाये तो यह जड़सूत्र बनकर रह जाता है या संशोधनवाद में परिवर्तित हो जाता है। बिगुल हिरावलपन्थी न बना रहे इसके लिए हमारा अनुरोध है कि आप मार्क्‍सवादी शिक्षकों के इस कथन का तब तक न इस्तेमाल करें जब तक कि आप इन्हें लोक-जीवन और लोक-संघर्षों से जोड़कर न समझायें। मार्क्‍सवादी शिक्षकों के कथनों को लोक-जीवन व लोक-संघर्षों से काटकर, अमूर्त ढंग से पेश करते रहने को सीधे-सीधे राजनीति देना नहीं कहते। ऐसा करने से बिगुल केवल अपनी प्रस्तुति में ही मार्क्‍सवादियों का अख़बार लगता है, परन्तु अपनी अन्तर्वस्तु में वह एक हिरावलपन्थी अख़बार बनकर रह जाता है और वह भी बड़े उथले क़िस्म का हिरावलपन्थी।

आपने चुटकी लेते हुए हमसे जानना चाहा है कि बिगुल की लाली कितनी कम कर दी जाये या इसे कितना पतला कर दिया जाये कि काम चले। हमारा कहना है कि बिगुल पहले ही बहुत पतला और गुलाबी है। इसे गाढ़ा और लाल बनाने की ज़रूरत है ताकि यह समाज में कुछ हलचल पैदा कर सके। आप समझते हैं कि यह एक एजिटेशनल अख़बार है। परन्तु हमारी राय यह है कि यह कहीं से भी एजिटेशनल अख़बार नहीं है। एक एजिटेशनल अख़बार बनने के लिए इसे लोगों के जीवन की विशिष्ट घटनाएँ एवं तथ्य उठाने होंगे, जन-सामान्य की भाषा और समाज में प्रचलित उदाहरण लेकर पाठकों में पूँजीवादी राजसत्ता और पूँजीपति वर्ग के प्रति ग़ुस्सा और नफ़रत पैदा करनी होगी। अपने वर्तमान स्वरूप में बिगुल पाठकों को क़तई एजिटेट नहीं करता है। यह अख़बार कभी-कभार प्रोपेगैण्डा करने का प्रयास करता है। इसमें भी वह रटे-रटाये फिकरों तक सीमित होकर रह जाता है।

सीधे-सीधे राजनीति देकर क्रान्ति के काम को आगे बढ़ाना बड़ी अच्छी बात है। सीधे-सीधे राजनीति देने का मुग़ालता पालना बड़ी बुरी बात है। बिगुल की त्रासदी यह है कि यह सीधो-सीधे राजनीति नहीं दे रहा है। सीधो-सीधे राजनीति देने के लिए जुमलेबाज़ी से बचना होता है, सरल लोकप्रिय भाषा का इस्तेमाल करना होता है, अमूर्त सूत्र बताने के बजाय लोक-जीवन के ज्वलन्त मुद्दे उठाकर पाठकों को समाज में हो रहे शोषण का वर्गीय स्वरूप समझाना होता है, राजसत्ता से वर्गीय-शोषण का अन्तर्सम्बन्ध समझाना होता है, मेहनतकशों को एकताबद्ध होने और क्रान्ति की ज़रूरत का एहसास करवाना होता है, संगठन बनाने का रास्ता दिखाना होता है, राजसत्ता को पलटने का हौसला पैदा करना होता है…। मार्क्‍सवादी शब्दाडम्बर का धुआँ उड़ाते हुए, अमूर्तता में समाजवाद के झण्डा को हिलाते रहने को सीधे-सीधे राजनीति देना नहीं कहते।

अगर आप चाहते हैं कि हम और गहराई में जाकर आपके हिरावलपन्थ की आलोचना करें तो ऐसा कीजियेगा कि प्रवेशांक से लेकर अब तक हमें बिगुल के सारे अंक पहुँचा दीजिये। हम आपकी गाली-गलौज के बावजूद आपकी मदद करने को तैयार हैं।

द्वन्द्ववाद का नमूना

आपने अपने लेख में पार्टी-गठन और पार्टी-निर्माण के अन्तर्सम्बन्धों के बारे में बात की है। जैसाकि आपकी शैली है, जब आप औपचारिक सूत्र दुहरा रहे होते हैं तो सामान्य बातें कह देते हैं लेकिन जैसे ही आप विशिष्ट बातों पर आते हैं, आपका अपना अन्तरविरोध उजागर होकर सामने आ जाता है। बिगुल के ‘टारगेट रीडर ग्रुप’ के बारे में हम यह पहले ही देख चुके हैं। यहाँ भी यही देखने को मिलता है। पहले तो आप घोषित कर देते हैं कि पार्टी-गठन और पार्टी-निर्माण में द्वन्द्वात्मक अन्तर्सम्बन्ध है लेकिन उसके तुरन्त बाद ही आप अपने श्रेणी विभाजन पर आ जाते हैं, हालाँकि अपनी वास्तविक पोज़ीशन को बचाने के लिए आप यह भी कह देते हैं कि अलग-अलग पार्टी ऑर्गन्स के बीच चीन की दीवर नहीं खींची जा सकती। आपके श्रेणी विभाजन को यदि बिना लाग-लपेट के रखें तो इस तरह दिखेगा।

प्रचारक      —> ज़ार्या,       ‘ज़्वेज़्दा’    —>    पार्टी-गठन

आन्दोलनकर्ता —>    इस्क्रा,           प्राव्‍दा —>    पार्टी-निर्माण

यह आपके श्रेणी विभाजन प्रेम का ही नतीजा है जो आपको इस नतीजे तक ले जाता है, जिसकी हास्यास्पद स्थिति को हम अभी देखेंगे। यही श्रेणी विभाजन प्रेम आपको दैनिक बनाम पाक्षिक या मासिक अख़बार तथा क़ानूनी बनाम ग़ैरक़ानूनी अख़बार का विभाजन करने और उन्हें राजनीतिक फ़र्क़ करने का मूल आधार बनाने तक ले जाता है।

अब, आपका श्रेणी विभाजन ठीक है तो इस्क्रा ने 1900-1903 के बीच पार्टी-निर्माण की भूमिका निभायी, हालाँकि अभी पार्टी का गठन ही नहीं हुआ था। और शब्दश: आप यही बात कहते भी हैं। लेकिन ख़ुद बोल्शेविक पार्टी आपसे इस मसले पर इत्तफ़ाक़ नहीं रखती। पहले हमने जो उदाहरण दिये हैं उनसे साफ़ है कि बोल्शेविक पार्टी इस्क्रा का योगदान ”पार्टी-गठन” में मानती है, ”पार्टी-निर्माण” में नहीं। और वास्तव में हुआ भी यही था। अन्यथा हो भी क्या सकता था। जो पार्टी अभी गठित ही नहीं हुई, उसके निर्माण का सवाल कहाँ से पैदा हो गया? लेकिन आपके श्रेणी विभाजन का तर्क आपको ऐसे ही हास्यास्पद निष्कर्षों तक ले जा सकता है।

इसकी उल्टी बात भी आपको हास्यास्पद नतीजे तक ले जायेगी। मसलन ”ज़्वेज़्दा” जो आपके हिसाब से प्रचारक पत्र था, उसकी भूमिका पार्टी-गठन में बनती है। अब आपसे कोई सवाल पूछ सकता है कि जब पार्टी का गठन तो पहले ही हो चुका हो (ठीक, आप द्वारा दी गयी परिभाषा के अनुसार ही) तब यह पत्र क्या करेगा? ठीक क्रान्ति के पहले (या क्रान्ति के बाद भी) कोई सुसंगठित पार्टी ‘ज़ार्या‘ या ‘ज़्वेज़्दा’ जैसा पत्र निकाले तो वह पत्र क्या काम करेगा? पार्टी-गठन का? लेकिन आपका तर्क आपको ऐसे ही नतीजों तक ले जा सकता है। इनसे बचने के लिए तब आप ‘द्वन्द्वात्मक अन्तर्सम्बन्धों’ की बात करने लगेंगे।

यहीं पर हम यह स्पष्ट कर दें कि पार्टी-गठन और पार्टी-निर्माण तथा इनमें पार्टी ऑर्गन्स की भूमिका के आपके उपरोक्त ग़ैर द्वन्द्ववादी दृष्टिकोण का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि आपने यहाँ पर पार्टी-गठन और पार्टी-निर्माण का सवाल उठाकर बात को ग़लत जगह ले जाने की कोशिश की है। बात को भटकाने की कोशिश की है (शायद यह भी आपकी ‘द्वन्द्ववादी’ शैली का नमूना हो)। लेकिन इसी में आपकी सबसे बड़ी कमज़ोरी और सबसे बड़ी समस्या भी छिपी है।

इस पूरी बहस में केन्द्र बिन्दु पार्टी-गठन और पार्टी-निर्माण नहीं बल्कि जनदिशा (Mass line) का सवाल है और आपकी सबसे बड़ी समस्या है कि आपने इसका पूरे लेख में ज़िक्र तक नहीं किया है। अब आप यह न कहें कि जनदिशा का सवाल, पार्टी-गठन/पार्टी-निर्माण का सवाल है। सवाल तो यह क्रान्ति का भी है और मार्क्‍सवादी दर्शन का भी। तब क्या हम इन पर बात करने लगेंगे?

जनता के किस हिस्से को कितनी चेतना, किस भाषा-शैली और रूप में दें, यह जनदिशा का सवाल है। वैसे जनदिशा के और भी पहलू हैं। फिलहाल हम अख़बार के प्रचारक-आन्दोलनकर्ता होने के पहलू से इस पर बात कर रहे हैं। ‘व्यापक मज़दूर आबादी’ में चेतना उन्नत मज़दूरों को ध्‍यान में रखकर देनी है या औसत मज़दूरों को, यह इससे तय होगा कि क्या आप जनदिशा के मामले में सही रुख़ अख्तियार कर रहे हैं। यदि आप ऐसा करते तो आप ”औसत चेतना” पर इतनी हाय-तौबा नहीं मचाते और न ही उसे 1899 के क्रीडो मतावलम्बियों से जोड़ने का प्रयास करते। तब आप इस बात से इतना परेशान नहीं होते कि पार्टी कतारों और अग्रणी मज़दूरों के लिए ‘इस्क्रा‘ जैसा अख़बार होना चाहिए और आम मज़दूरों के लिए ‘प्राव्‍दा‘ जैसा आम राजनीतिक अख़बार। और तब न तो आप ‘इस्क्रा‘ और ‘प्राव्‍दा‘ में घालमेल करते और न ही ‘अग्रणी वर्ग-सचेत मज़दूर’ और ‘व्यापक मेहनतकश आबादी’ में।

आपकी सोच में निहित यह घालमेल आपके व्यवहार में भी रंग लाता है। न केवल बिगुल की समस्या यह है कि वह क्या, किसके लिए छापता है, इस मामले में वह ‘सम्भ्रम, दिग्भ्रम व मतिभ्रम’ का शिकार है, बल्कि इसके वितरण का भी यही हाल है। आप हमारी मासूमियत पर तरस खाते हैं कि हम नहीं जानते कि बिगुल एक क्रान्तिकारी धड़े का अख़बार है। लेकिन हम क्या करें? बिगुल के वितरक साथी, बिगुल को बिगुल मज़दूर दस्ता का अख़बार बताते हैं। अब, इस बात से तो हम क्या कोई भी यही निष्कर्ष निकालेगा कि बिगुल जनसंगठन की चेतना के स्तर का अख़बार है। आप इसे यदि पार्टी की चेतना का अख़बार कहें, तो यह घालमेल के अलावा क्या है? इसी तरह बिगुल के वितरक साथी बिगुल को केवल अग्रणी वर्ग-सचेत मज़दूरों को देने के बदले हर आम मज़दूर को पकड़ा देते हैं। इनमें से अधिकांश ऐसे होते हैं जो बिगुल में प्रयुक्त मार्क्‍सवादी शब्दावली के 90 प्रतिशत से अनभिज्ञ होते हैं, उसमें कही गयी बातों की तो बात ही क्या की जाये! अग्रणी वर्ग-सचेत मज़दूरों के लिए अख़बार निकालना और उसे हर ख़ासो-आम को पढ़वाने का प्रयास करना क्या सोच की उसी घालमेल का व्यावहारिक प्रतिफलन नहीं है? क्या यह जनदिशा के बारे में ‘मिथ्याभासी’ चेतना का मामला नहीं है?

क्रीडो मत पर चन्द बातें

क्रीडो मत के सम्बन्ध में चन्द बातें कर लेना ज़रूरी है! इसलिए नहीं कि आप के आरोप में कुछ दम है (आपके आरोप को हम पहले ही रद्द कर चुके हैं और उसे दो-कौड़ी का भी नहीं मानते हैं) इसलिए कि आप ख़ुद समझ सकें कि आरोप लगाने का आपका तरीक़ा कितना सतही, छिछला और ओझों-सोखों जैसा है। इसलिए कि आपको ख़ुद एहसास हो कि आप मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी बनाने के काम को कितनी अगम्भीरता से ले रहे हैं। इसलिए कि आपको समझ में आये कि लेनिन की पार्टी बनाने के तरीक़े में और आपके तरीक़े में कितना अन्तर है।

क्रीडो मत क्या था? क्रीडो मतावलम्बियों का मानना था कि –

 • पश्चिमी यूरोप के सर्वहारा वर्ग ने राजनीतिक आज़ादी हासिल करने के संघर्षों में कोई भूमिका अदा नहीं की।

 • औद्योगिक सर्वहारा में संगठनबद्ध होने की क्षमता नहीं होती है। वह बहुत धीमे-धीमे और बहुत अनमने ढंग से संगठन बनाने के लिए तैयार होता है। वह केवल ढीले-ढाले और कमज़ोर संगठन ही बना सकता है।

 • रूस की विशेष स्थितियों में सर्वहारा द्वारा राजनीतिक संघर्ष की कोई सम्भावना नहीं थी क्योंकि रूसी सर्वहारा बहुत कमज़ोर था और रूस में राजनीतिक उत्पीड़न बहुत ज्‍़यादा था। राजनीतिक संघर्ष का काम उदार पूँजीपति वर्ग के ज़िम्मे छोड़ दिया जाना चाहिए।

 • सर्वहारा वर्ग की स्वतन्त्र पार्टी बनाने की सारी बातें, रूसी भूमि पर विजातीय (विदेशी) लक्ष्य आरोपित करने के समान हैं।

 • रूसी मार्क्‍सवादी के सामने एक ही रास्ता बचता है, वह यह कि रूसी मार्क्‍सवादी आर्थिक संघर्षों में मदद और उदार पूँजीपतियों के नेतृत्व में राजनीतिक गतिविधियों तक अपने आप को सीमित रखें।

 • मार्क्‍सवादियों की वर्गीय रूपरेखा (Schema) उन्हें सामाजिक जीवन में खुलकर हिस्सेदारी करने से रोकती है। उन्हें इसे त्याग कर उदार-जनवादी मार्क्‍सवादी बन जाना चाहिए।

ये क्रीडो मत के चारित्रिक लक्षण हैं। इन्हें समग्रता में मानने वाले किसी व्यक्ति को क्रीडो मतावलम्बी कहा जा सकता है।

अगर आप किसी को 1999 के भारत के क्रीडो मतावलम्बी कहना चाहते हैं, तो आपको उसमें ये छ: चारित्रिक लक्षण दिखाने पड़ेंगे। इसमें आप रूस की जगह भारत इस्तेमाल कर सकते हैं। आपने एक विशिष्ट आरोप लगाया है, इसलिए क़ायदन आपको क्रीडो मत के सभी लक्षण दिखाने चाहिए। परन्तु अगर आपको बच्चा मानकर रियायत भी दे दी जाये तब भी आपको इनमें से अधिकांश लक्षण दिखाने चाहिए। आरोप लगाते वक्त आपकी हालत यह है कि आप मनगढन्त बातें इकट्ठी करते हैं, उन्हें सामने वाले के मुँह में ठूँसते हैं और आरोप लगाकर आह्लादित हो जाते हैं।

आपके आरोप का आधार ऐसी बातें हैं जो सामने वाले ने कही ही नहीं हैं, और न ही ऐसी बातें जिनका अभिप्राय भी वह निकलता हो, जो आप आरोप में इस्तेमाल करते हैं। अगर सामने वाला दौर की ज़रूरतों को मद्देनज़र रखते हुए जनता के बीच काम करने की बात कर रहा हो और इसके लिए रूस के क्रान्तिकारियों का उदाहरण ले कि कैसे वे अलग-अलग दौरों के हिसाब से अपने काम के तरीक़े बदलते रहे, तो आप मनोगत होकर इसका मतलब यह समझते हैं कि वह आर्थिक-सांस्कृतिक कार्यों तक सीमित रहने की कोशिश कर रहा है। कॉमरेड, यह मनोगतवाद की इन्तहा है। लम्बे समय तक अगर आप यही कार्यशैली अपनाते रहे तो आपकी हालत यह हो जायेगी कि आईने में अपना चेहरा देखने पर आपको लगेगा कि आप कार्ल मार्क्‍स हैं।

लेनिन के तरीक़े और आपके तरीक़े में अन्तर यह है कि लेनिन कहीं की ईंट और कहीं का रोड़ा जोड़ने की बाज़ीगरी नहीं करते थे। हमारा आपसे अनुरोध है कि आप लेनिन की संग्रहीत रचनाओं के खण्ड 4 में से ‘ए प्रोटेस्ट बाई रसियन सोशल-डेमोक्रेट्स’ पढ़ें। इस लेख में लेनिन सबसे पहले पूरा का पूरा क्रीडो घोषणापत्र उद्धृत करते हैं। उसके बाद वे मनोगत होने के बजाय, उन्हीं बातों को हूबहू वैसे ही लेते हैं जैसे लेखक ने उन्हें कहा है, और एक-एक महत्वपूर्ण बात का खण्डन करते चले जाते हैं। लेनिन कहीं भी सामने वाले की बात को खींचकर उसका मतलब बदलने की हिमाक़त नहीं करते। और न ही वे अपने खण्डन के दौरान सामने वाले की खिल्ली उड़ाने की हरक़त करते हैं। वे सामने वाले की ग़लत सोच को ठीक करने के लिए उससे गम्भीर संघर्ष करते हैं। रूस के सामाजिक-जनवादियों के इस प्रतिवाद को कई बार पढ़कर आप को सीखना चाहिए कि पार्टी बनाने के काम को कैसी गम्भीरता से एक इन्क़लाबी को लेना चाहिए।

दोस्तो, आपको हमारी नेक सलाह है कि ऐसी छिछली कार्यशैली को छोड़ें। आत्म-संघर्ष करके जल्दी से जल्दी छोड़ें। जब तक आप इससे मुक्त नहीं होते, तब तक देश के क्रान्तिकारी भी, आप में वैज्ञानिक वस्तुनिष्ठता के अभाव की वजह से, आपको अगम्भीर लोग मानने के लिए विवश होंगे और आपके साथ एकता के प्रति अनिच्छुक रहेंगे।

अख़बार में नामों का प्रयोग

हमारा स्पष्ट मत है कि अख़बार पाठक समूह की चेतना को आगे बढ़ाने के लिए निकाला जाता है, न कि अपना ‘बायो-डाटा’ सुधारने के लिए। पाठक-समूह की चेतना पर इससे फ़र्क़ पड़ता है कि अख़बार में क्या लिखा जाता है, न कि इससे कि लेखक का क्या नाम है। अख़बार किसी भी हालत में व्यक्तिगत शोहरत हासिल करने का माध्‍यम नहीं होना चाहिए। अगर एक क़ानूनी पत्र निकाला जा रहा है तो भारतीय क़ानूनों के तहत यह ज़रूरी हो जाता है कि अख़बार के मालिक एवं सम्पादक का नाम दिया जाये। इससे बचकर क़ानूनी अख़बार निकाला नहीं जा सकता है। ऐसी स्थितियों में हमारी राय है कि क्रान्तिकारियों को अपने अख़बारों में ‘प्रिण्ट लाइन’ के अलावा कोई और नाम देने की ज़रूरत नहीं है। पाठकों के पत्र नाम से देना एक अलग बात है।

बिगुल के सम्पादक का मत है कि भूमिगत कार्यकर्ताओं को छोड़कर शेष लेखकों के नाम दिये जाने चाहिए। इससे लेखकों की राजनीतिक लाइन पर नज़र रखने में मदद मिलती है और बाद में इनमें से जब कोई संशोधनवाद करने लगे तो उसके विचलन की जड़ें तलाशी जा सकती हैं।

बिगुल के सम्पादक एवं लेखक अपने आपको हिन्दुस्तानी क्रान्ति का केन्द्र समझते हैं, यह जानकर हमें काफ़ी हैरानी हुई। दोस्तो, माओ बनने के दिवास्वप्न देखना एक मानसिक रोग है। इसके बजाय आपको क्रान्ति के काम की व्यावहारिक योजनाएँ बनानी चाहिए। एक क्रान्तिकारी को सपने देखने चाहिए, किन्तु ख़ुद की महानता की बजाय जनता की मुक्ति और ख़ुशी के सपने देखने चाहिए।

अगर फिर भी आप अख़बार में लेखकों के नाम देने की बात इसलिए सोचते हैं ताकि बाद में राजनीतिक लाइन तलाशी जा सके, तो भी हमारी सलाह है कि लेखकों को गुमनाम बनाये रखते हुए भी इस समस्या का समाधान हो सकता है। आप ऐसा कीजिये कि बाज़ार से 10 रुपये की एक कापी ख़रीद लें और बिगुल के सम्पादकीय मेज की दराज़ में उसे चाबी लगाकर रखें। इस कापी में हर लेख और उसके लेखक का रिकॉर्ड बनाते चलिये। बस इतना कर लेने से लाइन की तलाशी के लिए रिकॉर्ड की समस्या हल हो जायेगी (चाहे तो रिकॉर्ड की दो प्रतियाँ बनायें जिनमें से एक को अपने अभिलेखागार में सुरक्षित रखें)।

गुमनाम लेखन करना केवल भूमिगत जीवन की ज़रूरतों के लिए ज़रूरी नहीं है, लेखक की मानसिक सेहत के लिए भी ज़रूरी है। परन्तु आप तो इसके विपरीत मत रखते हैं। चलिये, हम ही आपसे दो सवाल पूछ लेते हैं? बिगुल में न केवल लेखकों के नाम छपते हैं बल्कि अनुवादकों के भी नाम छपते हैं। क्या आप बतायेंगे कि अनुवाद में कौन सी लाइन तलाशेंगे, (और वह भी तब जब अनुवाद में प्रयोग किये गये शब्दों की अन्तिम ज़िम्मेदारी सम्पादक की होती है) दूसरा सवाल यह कि क्या हम मानें कि जिन साथियों के असली नामबिगुल में अब तक छपे हैं, उनका भूमिगत जीवन समाप्त हो गया है? यहाँ हम अभी यह सवाल नहीं उठा रहे हैं कि जो लेख, लेखक के बजाय किसी और के नाम से छपते हैं उनमें ”लाइन की ग़लती” की ज़िम्मेदारी लेखक की होगी या उस व्यक्ति की जिसका नाम छापा गया है। फ़र्ज़ कीजिये कि अगर यह सम्पादकीय जवाब यदि आपने नहीं, किसी और ने लिखा हो तो इसमें लाइन की जिन ग़लतियों को हमने चिह्नित किया है, उसका ज़िम्मेदार कौन होगा? आप या वह लेखक?

अस्तु

कुल मिलाकर आपके जवाब के बारे में मेरी राय यह है कि आप बिगुल के लक्ष्य और स्वरूप के बारे में सम्भ्रम-मतिभ्रम-दिग्भ्रम के शिकार हैं, अपने पाठकों की चेतना के बारे में बिल्कुल अनजान हैं और बिगुल को अपना पण्डिताऊपन झाड़ने तथा अपनी भड़ास निकालने के साधन के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं। इसके लिए आप शब्दजाल-वाक्यजाल-(कु)तर्कजाल का भरपूर प्रयोग करते हैं। पार्टी संगठन और जनसंगठन के चरित्र और उनके आपसी रिश्तों से या तो आप बिल्कुल अनभिज्ञ हैं या फिर ‘मिथ्याभास’ के शिकार हैं। फलस्वरूप पार्टी कतारों – उन्नत चेतना वाले वर्ग-सचेत मज़दूरों के अख़बार और व्यापक मेहनतकश आबादी के अख़बार के बीच मूल फ़र्क़ को आप नज़रअन्दाज़ करते हैं और जब प्रोपेगैण्डा और एजिटेशन के ध्रूमावरण में अपनी अवस्थिति को सही सिद्ध करने की कोशिश करते हैं तो हास्यास्पद लगने लगते हैं। जब आप दार्शनिक उड़ान भरते हैं तो द्वन्द्ववाद को भोंड़ेपन की हद तक ले जाते हैं।

साथी, इन सारे मसलों पर ग़ौर करें और यदि सम्भव हो तो इन्हें ठीक करें। यदि इन मसलों पर आपका नज़रिया ठीक हो जाता है तो अन्य मुद्दों पर भी आपसे बहस-मुबाहिसे का रास्ता खुल जायेगा।

उम्मीद है कि आप बहस को जारी रखेंगे।

क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ

आपका साथी

पी.पी. आर्य, पन्तनगर


बिगुल, अक्टूबर 1999


 

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