नये साल के ठीक पहले झारखण्ड की कोयला खदान में दर्दनाक हादसा
मुनाफ़े की अन्धी हवस ने एक बार फ़‍िर ली खनन मज़दूरों की जान

पराग

गुज़रे 29 दिसम्बर को जब देश के प्रमुख टीवी चैनलों पर नोटबन्दी की मियाद ख़त्म होने की या फिर नये साल पर आयोजित होनी वाली पार्टियों की चर्चा थी, शाम साढ़े सात बजे झारखण्ड के गोड्डा जि़ले की लालमटिया ओपन कास्ट माइंस के पहाड़िया बोरिया साइट पर ज़मीन धँसने से वहाँ काम कर रहे खनन मज़दूर और खनन मशीनें लाखों मीट्रिक टन कोयले के मलबे के नीचे दब गये। अगले दो दिनों तक मलबा निकालने का काम चला जिसके बाद बाद भी कोई मज़दूर जीवित नहीं पाया गया। हालाँकि ईसीएल (ईस्टर्न कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड), जिसके तहत यह खदान आती है, ने मृतकों की कुल संख्या की घोषणा नहीं की, लेकिन वहाँ काम कर रहे मज़दूरों के अनुसार घटना के समय खदान में क़रीब 70 मज़दूर कार्यरत थे और लगभग 40 खनन मशीनें लगी हुई थीं। ग़ौरतलब है कि मज़दूरों को खान के लिए खोदी गयी ज़मीन पर दरार पड़ने से ज़मीन धँसने की आशंका पहले से ही थी और उन्होंने इस बाबत प्रबन्धन को सूचित भी किया था, लेकिन अधिकारियों ने उसे नज़रअन्दाज़ करते हुए काम जारी रखने को कहा था और वही हुआ जिसका मज़दूरों को डर था। इस मुनाफ़ा केन्द्रित समाज में जहाँ ज़्यादा से ज़्यादा उत्पादन करके बेहिसाब मुनाफ़ा कमाने का जुनून होता है, मज़दूरों की शिकायतों को यूँ ही नज़रअन्दाज़ कर दिया जाता है और उसकी जान की क़ीमत को दो कौड़ी का आँका जाता है। मज़दूरों की अपार जनसंख्या में अगर कुछ मज़दूर दुर्घटना में जान गँवा भी देते हैं, तो पूँजीपतियों और ठेकेदारों को क्या फ़र्क पड़ता है! उनके लिए तो मुनाफ़ा ही सर्वोपरि है!

लालमटिया ओपन कास्ट माइंस ईसीएल (ईस्टर्न कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड) के अन्तर्गत आती है जोकि कोल इण्डिया लिमिटेड की सहायक कम्पनियों में से एक है। इस खदान में खनन के काम को महालक्ष्मी नामक निजी कम्पनी को ठेके पर दिया गया है। मज़दूरों की सुरक्षा के सम्बन्ध में निजी कम्पनियाँ हमेशा ही लापरवाही बरतती रही हैं। उनकी कोशिश यही रहती है कि लागत को कम से कम किया जाये ताकि मुनाफ़े को बढ़ाया जा सके। इस सनक के चलते ये ठेकेदार मज़दूरों का जमकर शोषण करते हैं। मज़दूरों के स्वास्थ्य और सुरक्षा पर होने वाले ख़र्च, जैसे कार्यक्षेत्र में नयी तकनीक का प्रयोग या उन्हें सुरक्षित वातावरण में काम करने के लिए होने वाले तमाम ख़र्चों, को ये कम से कम करते हैं और मज़दूरों को ऐसे इलाके़ में काम करने के लिए मजबूर करते हैं जहाँ दुर्घटना की सम्भावना होती है। लालमटिया की ह्रदयविदारक दुर्घटना खनन के इतिहास में कोई पहली दुर्घटना नहीं है। अकेले 2016 में ही कोयले और अन्य खदानों में इस तरह की दुर्घटना से मरने वाले मज़दूरों की संख्या 65 थी। आँकड़ों के अनुसार पिछले साल हर तीन दिन में खदानों में एक गम्भीर दुर्घटना रिपोर्ट की गयी। लिखित प्रमाणों के हवाले से देखा जाये तो 2009 से 2013 के बीच में भारत में 752 खदान दुर्घटनाएँ रिपोर्ट की गयीं।

ग़ौरतलब है कि 1973 में कोयला खदान (राष्ट्रीयकरण) अधिनियम के तहत सभी कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण इस वजह से किया गया था क्योंकि निजी क्षेत्र के खनन के कार्यों में भागीदारी से मज़दूरों की सुरक्षा के इन्तज़ाम ठीक नहीं रहते थे, और इस कारण मज़दूरों की कार्यस्थल पर मौतें एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन गयी थी। परन्तु समय के साथ देखने में आया कि राष्ट्रीय कोयला कम्पनियाँ भी मज़दूरों की सुरक्षा के लिए कोई ख़ास पुख्ता इन्तज़ाम नहीं कर पायीं और अब तो कोल इण्डिया लिमिटेड और उसकी सहायक कम्पनियाँ जैसे ईस्ट इण्डिया कोल फ़ील्ड्स भी मुनाफ़े की चूहादौड़ में शामिल होकर खनन के कामों को ठेके पर देती है जिसके चलते खदानों में काम करने वाला मज़दूर वर्ग गोल चक्कर में घूमकर उसी जगह वापस आ खड़ा हुआ है, जहाँ उसकी सुरक्षा को कोई अहमियत नहीं दी जाती।

आउटसोर्सिंग/सबकॉन्ट्रैक्टिंग/ठेकेदारी उस प्रक्रिया का अंग है जिसके तहत किसी संस्थान का काम बाहरी एजेंसियों या कम्पनियों को दे दिया जाता है। यह तरीक़ा दुनिया भर में बड़ी मालिक कम्पनियों द्वारा अपनाया जाता है ताकि मज़दूरों पर होने वाले ख़र्च को कम किया जा सके और मज़दूरों की ज़िन्दगी की पूरी जि़म्मेदारी कम्पनी की न होकर ठेकेदार की हो और इस प्रकार अधिक से अधिक मुनाफ़ा कमाया जा सके। मुनाफ़े की अन्धी होड़ में ठेकेदार मज़दूरों को केवल उतनी ही मज़दूरी देते हैं जिससे वो जीवित रहकर अगले दिन फिर से मज़दूरी करने के लिए हाजि़र हो सकें और उनके स्वास्थ्य और सुरक्षा को पूरी तरह नज़रअन्दाज़ करते हैं। पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजीपति वर्ग द्वारा मज़दूर के श्रम के शोषण के चलते मज़दूरों के बीच यूनियन बनाके अपने हक़ों की माँग उठाने का ख़तरा भी बड़े मालिकों को सताता रहता है। आउटसोर्सिंग अथवा ठेकेदारी के कारण मज़दूरों से बड़ी कम्पनी का सीधा कोई सम्पर्क नहीं रह जाता और मज़दूर ठेकेदार के पास काम करने वाला असंगठित मज़दूर बन जाता है। आउटसोर्सिंग नीति के चलते मालिकों और ठेकेदारों को मज़दूरों का शोषण करने की बेरोकटोक छूट मिल जाती है क्योंकि ठेकेदार की निजी कम्पनी असंगठित मज़दूरों को एक मामूली सी मज़दूरी के सिवाय और कोई सुविधा नहीं मुहैया कराती और अगर उसे यूनियन बनाने की भनक लग जाये या कोई अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाये तो उन असंगठित मज़दूरों के ि‍ख़‍लाफ़ सीधे हायर एण्ड फ़ायर नीति (जब चाहो रखो, जब चाहो निकाल दो) का प्रयोग करके उन्हें चलता कर दिया जाता है। दुनिया भर में पूँजीपतियों ने यूनियन न बनने देने या उसकी ताक़त को निष्प्रभावी कर देने के लिए ही आउटसोर्सिंग को एक सुनियोजित नीति के रूप में अपनाया है। पिछले ढाई दशकों में नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के तहत आउटसोर्सिंग और ठेकेदारी जैसे तरीक़े अपनाने से संगठित/यूनियनकृत मज़दूरों की संख्या कम होती रही है तथा असंगठित मज़दूरों की संख्या बढ़ती रही है। इन असंगठित मज़दूरों के लिए कोई सेवाशर्तें नहीं होती हैं, श्रम कानून भी नहीं लागू होते और सामाजिक सुरक्षा का छल जो सरकारें करती रहती हैं वो भी अब धीरे-धीरे ख़त्म किया जा रहा है। ठेके पर रखे गये मज़दूरों को समान काम के लिए समान वेतन तक नहीं दिया जाता है और कई मज़दूरों को न्यूनतम मज़दूरी तक नहीं दी जाती। ठेके पर रखे जाने वाले कर्मचारियों को 40 साल की उम्र में नौकरी से हटा दिया जाता है और उन्हें बेकार का आदमी घोषित कर दिया जाता है ताकि उन्हें कहीं और काम पर नहीं रखा जा सके।

स्पष्ट है कि लालमटिया जैसे हादसों का लगातार घटित होना इस मुनाफ़े पर टिकी हुई व्यवस्था की ही नेमत है, जिसमें मुनाफ़े के आगे इंसान की जान की कोई क़ीमत नहीं होती। पूँजीवादी व्यवस्था में मज़दूरों को उत्पादन के क्षेत्र में मात्र एक कलपुर्जा समझा जाता है। एकाध पुर्जा ख़राब हो जाने से उसे तुरन्त बदल दिया जाता है। एक मज़दूर मरता है तो अगले ही दिन उसकी जगह लेने दूसरा मज़दूर, जो बेरोज़गारी की मार झेल रहा होता है, हाजि़र हो जाता है। हादसों के बाद प्रशासन और सरकारों की ओर से मुआवज़े की घोषणा की जाती है और सुरक्षा को लेकर कुछ दिखावटी फै़सले किये जाते हैं लेकिन चूँकि मुनाफ़ा कमाने का लक्ष्य सर्वोपरि बना रहता है इसलिए ऐसे हादसों की सम्भावना भी बनी रहती है। निश्चित रूप से इस व्यवस्था के दायरे के भीतर मज़दूरों के कार्यस्थल पर सुरक्षा सम्बन्धी माँगों को पुरज़ोर तरीके़ से उठाया जाना चाहिए। लेकिन मज़दूरों को यह भ्रम भी नहीं पालना चाहिए कि ऐसी कुछ माँगों के पूरा होने मात्र से भविष्य में लालमटिया जैसे दर्दनाक हादसे रुक जायेंगे। मुनाफ़े पर टिकी हुई इस व्यवस्था को उखाड़कर ही ऐसे हादसों पर प्रभावी लगाम लगायी जा सकती है। जो मज़दूर ज़मीन के भीतर से कोयला निकालने के लिए अपनी जान जोि‍ख़‍म में डालकर 300 फ़ीट गहरी खान खोदकर बेहद ख़तरनाक परिस्थितियों में दिन-रात काम कर सकते हैं, वे मानवता पर बोझ बन चुकी इस बर्बर पूँजीवादी व्यवस्था की क़ब्र खोदकर उसे मौत की नींद भी सुला सकते हैं। ज़रूरत इस बात की है कि ज़मीन के भीतर काम करने वाले खनन मज़दूरों और ज़मीन के ऊपर काम करने वाले औद्योगिक व कृषि मज़दूरों के बीच वर्गीय आधार पर जुझारू एकजुटता स्थापित हो।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2017


 

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