अक्टूबर क्रान्ति की शतवार्षिकी के अवसर पर एक संस्मरण
”हम लूटमार नहीं, क्रान्ति करने आये हैं!’’

बेस्सी बीटी (अमरीकी पत्रकार जो जुलाई 1917 में रूस आयी थीं और लगभग आठ महीने वहाँ रही थीं। उनकी ‘दि रेड हार्ट ऑफ़ रशा’ नामक पुस्तक 1919 में प्रकाशित हुई थी।)

नेवस्की शान्त था।1 पैलेस स्कवेयर लगभग सूना पड़ा हुआ था। नेवा के साथ प्रत्येक पुल के प्रवेश पर सैनिकों का एक झुण्ड आग के आसपास बैठा था। उस झुण्ड के मध्य में यहाँ-वहाँ एक छोटा लड़का बैठा था। और इतने सारे बड़े लोगों के बीच बैठकर संसार में कहीं के भी छोटे लड़के जो भी महसूस करते हैं उसी प्रकार का रोमांच महसूस कर रहा था। प्रत्येक झुण्ड के कुछ ही दूर गोला-बारूद से भरी एक वैगन खड़ी थी।

उस रात की स्थिति में ऐसी कोई बात नहीं थी जो केरेंस्की की सरकार2 के लिए शुभ हो। वह एक रस्से पर चढ़े एक नट जैसे था – चाहे जब भी गिर सकता था। ‘सारी सत्ता सोवियतों के लिए’ नारा और तेज़ हो गया और हर घण्टे बढ़ता ही रहा। रूसी मज़दूर जो विश्व का सबसे छोटा मज़दूर दल था, सबसे अधिक वर्ग जागरूक और कृतसंकल्प था और उसके पास बन्दूक़ें थीं।

इसमें मुझे कोई सन्देह नहीं था कि यह हुजूम बोल्शेविकों का था। पेत्रोग्राद गैरीसन बोल्शेविकवादी थे। मोर्चे से आने वाली प्रत्येक ख़बर से यह पता चलता था कि खन्दकों के लोग तेज़ी से बायीं ओर बढ़ते जा रहे थे। पृथ्वी और शान्ति की क्षुधा तत्काल शान्ति के लिए आकुल थे।

करेंस्की, जो उस सच्चे लोकतान्त्रिक की भाँति सभी को प्रसन्न रखने की कोशिश कर रहा था, किसी को भी ख़ुश करने में सफल नहीं रहा। उसका जनता से सम्पर्क टूट गया था। उस पर नीचे, ऊपर, बाहर, भीतर सभी ओर से हमले हो रहे थे और उसके पदासीन रह पाने की कुछ भी आशाएँ शेष नहीं रही थीं। जिन लोगों को उसके साथ रहना चाहिए था, वे अपनी पूरी ताक़त से गुप्त रूप से उसके पतन की सोच रहे थे। और कुछ तो इसकी योजना भी बना रहे थे। मित्र-राष्ट्रों के सैनिक मिशन के वैयक्तिक सदस्य कार्निलोव3 को मिली घोर असफलता के बावजूद अभी भी इस पुरानी मान्यता से चिपके हुए थे कि रूस को कोई अश्वारोही (सैनिक) ही बचा सकता है और वे लुक-छिपकर मिलते थे तथा केरेंस्की को बचाने की नहीं, उसके स्थान पर किसी और तानाशाह को बिठाने के बारे में विचार-विमर्श करते थे।

पुरानी व्यवस्था की गुप्त व शैतानी ताक़तें दुर्व्यवस्था बढ़ाने के लिए जर्मन आक्रमणकारियों के साथ मिलकर साजिश रच रही थीं। इन सबसे ऊपर और दूर-दूर तक जनता की ईमानदार गुहार गूंज रही थी : ‘‘विश्व में शान्ति हो!’’ तथा ‘‘भूमि किसानों को मिले!’’

बोल्शोविकों ने शान्ति और भूमि देने का वचन दिया। उन्होंने यह भी वादा किया कि विश्व के मज़दूरों को ‘‘एकजुट हो, युद्ध और पूँजीवादी शोषण को हमेशा-हमेशा के लिए ख़त्म कर देना चाहिए।’’

वे उस रात रूस के भविष्य के बारे में बड़े शानदार सपने देख रहे थे; बड़ी-बड़ी योजनाओं को बना रहे थे और वे इस बात से भी अनभिज्ञ नहीं थे कि उनके सपनों और योजनाओं का इस्तेमाल भविष्य में शेष विश्व द्वारा भी किया जायेगा। शायद आदर्श संरचना के रूप में, शायद केवल भयानक उदाहरण और त्रासद चेताविनयों के रूप में।

यह एक ऐसी घड़ी थी, जिसमें यह पक्का विश्वास किये जाने की आवश्यकता थी कि मानव अभियान आगे बढ़ रहा है, और इसकी कोई परवाह नहीं कि इस रास्ते में किस परिवार में कितनी लोगों की जानें गयीं।

वापस आते हुए मैं पैलेस स्कवेयर होते हुए आयी। विण्टर पैलेस (शीत प्रासाद)4 के सामने शक्तिशाली ग्रेनाइट शेफ्ट की छाया में चार बख्तरबन्द गाडि़याँ खड़ी थीं, उनके तोपों की नली खिड़कियों की ओर थी। उनकी पुश्तों पर चमकते हुए लाल झण्डे शायद अभी-अभी चित्रित किये गये थे और एक झण्डे पर बड़े अक्षरों में लिखा था ‘सर्वहारा’। शायद, बीस मैकेनिकों और ड्राइवरों का झुण्ड तोपों और इंजनों की तत्काल कार्यवाई के लिए तैयार हो रहे थे। कभी-कभी कोई आदमी नट कसते-कसते सिर उठाकर इधर-उधर देख लेता था और स्थिति पर कुछ टिप्पणी करता भी जाता था। केरेंस्की के पते-ठिकाने के बारे में ही उस समय मुख्य रूप से बात हो रही थी।

पैलेस की ओर अपने रेंच से इशारा करते हुए उनमें से एक ने कहा – ‘‘अब वह यहाँ नहीं है। वह तो रातों-रात फि़नलैंड भाग गया है।’’

दूसरे ने निन्दात्मक भाव से कहा, ‘‘वह फि़नलैंड नहीं भागा है। वह सेनाएँ लेने गया है तथा हमसे लड़ने के लिए वापस आ रहा है।’’

तीसरे ने कहा, ‘‘वह रेडक्रॉस की एक नर्स के वेश में मोर्चे से भाग गया है।’’ इतना सुनते ही उसके सब साथी हँस पड़े।

 तीन बजे मैं स्मोल्नी के लिए चल पड़ी।5 … हाल ही तक यह विशाल भवन जो एक निजी शिक्षणालय था और जहाँ पर रूसी अभिजात वर्ग की कोमल कलिकाएँ एकान्त में खिलती थीं, सहसा शस्त्रागार में बदल गया था, जिसमें बन्दूक़ों तथा बन्दूक़धारी लोगों की गहमागहमी मची हुई थी।

बाहरी कार्यालय में हमें एक सुन्दर-सा लड़का मिला और वह हमारा नाम और अनुरोध पूछकर दूसरे कमरे में चला गया और वहाँ का दरवाज़ा बन्द कर दिया। हम उसे उत्सुकता से देखते रहे। उस दरवाज़े के पीछे वे लोग थे जो पेत्रोग्राद की घेरेबन्दी और उस पर कब्जे़़ की रणनीति के बारे में दिशा-निर्देश दे रहे थे और इतनी कुशलता से इसका निर्देशन कर रहे थे कि आगे आने वाले दिनों में बोल्शेविकों के शत्रु इस पर इसरार करते थे कि उनकी समिति में जर्मन हैं, क्योंकि रूसी लोग इतने निपुण संगठन को सँभालने में हरगिज़ दक्ष नहीं थे।

जब अन्दर का दरवाज़ा फिर खुला तो वही लड़का हाथ में पास लेकर फिर आया। मेरा पास स्केच-पैड से एक छोटा-सा पन्ना फाड़कर टाइप किया हुआ था, जिस पर ‘पाँच’ की संख्या लिखी हुई थी तथा मात्र इतना कहा गया था :

‘‘मज़दूरों और सैनिक डिपुटियों की परिषद की सैनिक क्रान्तिकारी समिति कुमारी बेस्सी बीटी को समूचे शहर में निर्बाध रूप से आने-जाने की अनुमति देती है।’’

 काग़ज़ की यह छोटी-सी पुर्जी कई बन्द दरवाज़ों को खोलने वाली थी। इस पर समिति की नीली मुहर लगी हुई थी। और उस रात रूसी किरच की ओर से सम्मान प्राप्त करने के लिए यही मुहर आदेशात्मक थी।

सवा तीन बजे थे जब हम महान रेड आर्क की छाया में रुके थे और अँधेरे स्क्वेयर में बड़ी सावधानी से झाँक रहे थे। कुछ क्षण निस्तब्धता छायी रही तभी राइफ़लों की तीन गोलियों ने उस चुप्पी को तोड़ दिया। हम चुपचाप खड़े थे और बदले की गोलियों की प्रतीक्षा में थे किन्तु हमे केवल काँच के टूटने और सड़क पर उसके टुकड़े बिखर जाने की आवाज़ सुनाई दी।

अचानक एक नाविक अँधेरे से उभरकर सामने आकर खड़ा हुआ और बोला, ‘‘सब कुछ ख़त्म हो गया है, उन्होने आत्मसम्पर्ण कर दिया है।’’

हम टूटे काँच के बिखरे टुकड़ों से भरे चौक को पार करके आगे बढ़े और बैरीकेडों पर चढ़कर उस दोपहर खड़े किये गये, जो विण्टर पैलेस के रक्षकों ने वहाँ खड़े किये थे और विजयी नाविकों तथा रेड गार्ड्समैन (लाल रक्षकों) के पीछे-पीछे मटमैले लाल पत्थर के बने विशाल भवन की ओर चल दिये।

अपने नीले मुहर लगे पासों के आधार पर उन्होंने हमें बिना कुछ पूछे अन्दर जाने की अनुमति दे दी। नाविकों के एक कमिसार ने हमें दीवार से लगी एक बेंच पर बैठने को कहा। नाविकों के एक झुण्ड ने परिषद-चैम्बर की ओर सीढ़ी लगा दी और अन्तरिम सरकार को गिरफ़्तार कर लिया।

… विजयी नाविकों की पुख्ता पंक्ति महल के बाहर-भीतर आ-जा रही थी। उस घड़ी ट्राफि़यों और स्मारकों को एकत्र करने की इच्छा बड़ी प्रबल थी उनमें, किन्तु महल में ऐसा कुछ दिख ही नहीं रहा था। एक नाविक अपने हाथ में कोट का एक हेंगर लिये हुए सीढि़यों से नीचे आया और दूसरे के हाथ में सोफे़ का कुशन था। तीसरे को केवल एक मोमबत्ती ही मिली थी। कमिसार ने उन्हें दरवाज़े पर रोक लिया।

उसने हाथ से बरजते हुए कहा, ‘‘नहीं, नहीं कामरेडों तुम्हें यहाँ से कुछ भी नहीं ले जाना चाहिए।’’

उसने उन नाविकों से इस तरह समझाने के ढंग से बातचीत की जैसे किसी बच्चे से की जाती है और बच्चों की भाँति उन्होंने अपना लूट का माल धर दिया। लेकिन एक व्यक्ति ने, जो एक सैनिक था और जिसने कम्बल ले लिया था, इसका विरोध किया।

उसने कहा, ‘‘किन्तु मुझे तो ठण्ड लग रही है।’’

‘‘मैं इसमें कुछ नहीं कर सकता हूँ… यदि तुम उसे ले जाओगे तो लोग कहेंगे कि हम यहाँ लूटमार करने आये हैं, जबकि हम यहाँ लूटमार करने नहीं बल्कि क्रान्ति करने आये हैं।’’

उसी क्षण सीढि़यों पर खड़खड़ाहट हुई और मैंने देखा कि अन्तरिम सरकार के सदस्य धीरे-धीरे नीचे आ रहे थे।

उनमें से कुछ अकड़कर और सिर ऊँचा किये चल रहे थे। कुछ मुर्झाये हुए और चिन्तित लग रहे थे। उस दिन की उत्सुकतापूर्ण प्रतीक्षा से हुई थकावट तथा क्रूज़र ‘अवरोरा’ की चंचल तोपों के अधीन गुज़री उस रात तथा एक के बाद दूसरे मन्त्रिमण्डलीय संकट के सप्ताह उनके लिए काफ़ी त्रासदायक साबित हुए थे।

मैं वहाँ चुपचाप बैठी थी और उनको जाते हुए देख रही थी और आश्चर्य कर रही थी कि इस रात के कार्य का अर्थ रूस और विश्व के भविष्य के लिए क्या होगा।

 

  1. लेखिका‍ ने 25 अक्टूबर 1917 को रूसी राजधानी पेत्रोग्राद (अब लेनिनग्राद) का उल्लेख किया है। नेवेस्की प्रोस्पेक्त शहर का मुख्य रास्ता है।
  2. अन्तरिम सरकार पूँजीवादी और ज़मींदारों की सत्ता का राजनैतिक अंग था जिसकी स्थापना फ़रवरी 1917 की क्रान्ति के बाद की गयी थी और जिसने ज़ारशाही को उखाड़ फेंका था। सरकार का प्रमुख अलेक्ज़ेण्डर करेंस्की था।
  3. जनरल कार्निलोव राजतन्त्रवादी था और जुलाई 1917 से कमाण्डर-इन-चीफ़। अगस्त में उसने एक क्रान्ति-विरोधिता का अभियान छेड़ा था ताकि सैनिक तानाशाही स्थापित की जा सके। बाद में वह रूस में क्रान्ति-विरोधी आयोजकों में से एक बन बैठा।
  4. भूतपूर्व शाही निवास और अन्तरिम सरकार का कार्यालय आज इसे ‘अर्मिताज’ के नाम से जाना जाता है और यह विश्व का सबसे बड़ा कला, संस्कृति और ऐतिहासिक संग्रहालय है।
  5. स्मोल्नी संस्थान अक्टूबर सशस्त्र विद्रोह का मुख्यालय था।

 ‘क्रान्ति की झलकियाँ’ से साभार

 


 

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