पाँच राज्यों में एक बार फिर विकल्पहीनता का चुनाव : मज़दूर वर्ग के स्वतन्त्र पक्ष के क्रान्तिकारी प्रतिनिधित्व का सवाल

पाँच राज्यों में विधानसभा चुनावों की शुरुआत हो चुकी है। ये शब्द लिखे जाने तक पंजाब, उत्तराखण्ड और गोवा में वोट पड़ चुके हैं और उत्तर प्रदेश में भी दो चरणों की वोटिंग हो चुकी है। हमसे फिर से चुनने के लिए कहा गया है। अगले पाँच वर्षों के लिए इन राज्यों में पूँजीपति वर्ग के मामलों का प्रबन्धन कौन करेगा, यह तय करने के लिए फिर से हमें चुनने के लिए कहा जा रहा है। पिछले 65 वर्षों में राज्यों के विधानसभा चुनावों और संसदीय चुनावों में वास्तव में इसी बात का फै़सला होता आया है कि अगले पाँच वर्षों तक पूँजीपति वर्ग की ‘मैनेजिंग कमेटी’ का काम पूँजीपति वर्ग की कौन-सी पार्टी करेगी। इस बार भी कुछ अलग नहीं हो रहा है। इन चुनावों में तमाम चुनावी पूँजीवादी पार्टियों के बीच क्या समीकरण काम कर रहे हैं, उनकी बेहद संक्षेप में चर्चा करने के बाद हम इस प्रश्न पर चर्चा करेंगे कि क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी का पूँजीवादी चुनावों में बारे में क्या रुख होना चाहिए।

चुनावी खेल के समीकरण

इन पाँच राज्यों के चुनावों में सबसे महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश का चुनाव है जो कि जनसंख्या की दृष्टि से सबसे बड़ा राज्य है। इसीलिए उत्तर प्रदेश के चुनावों को 2019 के लोकसभा चुनावों का स्टेज रिहर्सल भी कहा जा रहा है। उत्तर प्रदेश के चुनावी मैदान में एक ओर भाजपा-नीत राष्ट्रीय जनवादी गठबन्धन है तो दूसरी ओर सपा-कांग्रेस गठजोड़। दलित पहचान की चुनावी पूँजीवादी राजनीति करने वाली मायावती की बहुजन समाज पार्टी भी मज़बूती से मैदान में है। साथ ही, उत्तर प्रदेश के चुनावों में हमेशा की तरह स्थानीय टटपुँजिया दलों, स्थानीय क्षत्रपों और छुटभैया नेताओं की भरमार है जो हमेशा अपने सारे विकल्प खुले रखते हैं और ‘ज़रूरत पड़ने पर गधे को भी बाप बना लो’ की गौरवशाली भारतीय टटपुँजिया राजनीतिक परम्परा पर अमल करते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुज़फ़्फ़रनगर और शामली में दंगों और साम्प्रदायिक तनाव के कारण पैदा हुआ ध्रुवीकरण पहले से कम हुआ है, मगर फिर भी वह पूरी तरह ख़त्म नहीं हुआ है। भाजपा इसी साम्प्रदायिक तनाव को और भड़का कर वोटों का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने के प्रयासों में लगी हुई है। क्योंकि नोटबन्दी के कारण और साथ ही जाटों को आरक्षण देने के अपने वायदे पर अमल नहीं करने के कारण साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के कारण भाजपा के पक्ष में आये जाट वोट वापस खिसककर अजित सिंह के राष्ट्रीय लोक दल या फिर सपा-कांग्रेस गठजोड़ की तरफ जा सकते हैं। अवध और पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी नोटबन्दी के कारण भाजपा के वोट आधार में भारी कटौती होने की सम्भावना है। लेकिन अन्तिम समय पर सपा की आन्तरिक कलह के कारण वोटों का रुझान भाजपा की ओर जा सकता है। साथ ही, बसपा की चुनौती को भी सपा-कांग्रेस गठबन्धन कम करके नहीं आँक सकता है। अखिलेश यादव शहरों में किये अपने विकास कार्य और गाँवों में सड़क व अन्य निर्माण कार्य के आधार पर साथ ही चुनावों में मुफ्त बन्दरबाँट की घोषणाओं के बूते अपने वोट को पक्का करने का प्रयास कर रहे हैं। कई राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि सपा के आन्तरिक कलह के नुक़सानों के अलावा अखिलेश यादव को फ़ायदा भी मिला है। उनकी यह छवि गयी है कि सपा को गुण्डा ताक़तों और अराजकता से अखिलेश यादव ने मुक्त कर दिया है और अब अगर उन्हें सत्ता मिले तो वे तमाम विकास कार्य कर सकते हैं।

कार्टून साभार – https://latuffcartoons.wordpress.com

इन समीकरणों पर बहुत लम्बी बहस वास्तव में मज़दूर वर्ग के लिए बहुत प्रासंगिक नहीं है। कारण यह है कि इन सभी पार्टियों का वर्ग चरित्र मज़दूर-विरोधी है। हर दल, हर पार्टी, हर संगठन और हर विचारधारा व राजनीति का एक वर्ग चरित्र होता है। दूसरे शब्दों में कोई भी राजनीति और विचारधारा किसी न किसी वर्ग की सेवा करती है। ऐसे में, अगर हम उत्तर प्रदेश में चुनावी अखाड़े में उतरी तमाम पार्टियों की बात करें तो हम देख सकते हैं कि वे किन वर्गों की नुमाइन्दगी करती हैं।

कांग्रेस और भाजपा बड़े पूँजीपति वर्ग के हितों की नुमाइन्दगी करती हैं। कांग्रेस ही वह पार्टी है जिसने देश में और अपने शासन के मातहत रहे तमाम राज्यों में निजीकरण, उदारीकरण और भूमण्डलीकरण की नीतियों की शुरुआत की थी। 1991 में देश में और उससे भी कुछ वर्ष पहले से ही राज्यों में कांग्रेस ने इन नीतियों का श्रीगणेश कर दिया था। बताने की ज़रूरत नहीं है कि इन नीतियों के ज़रिये हम मेहनतकशों की गाढ़ी कमाई से खड़े किये गये पब्लिक सेक्टर के उपक्रमों को औने-पौने दामों पर देशी और विदेशी बड़ी पूँजी के हवाले करने की शुरुआत हुई थी। कांग्रेस इन नीतियों को अपने तथाकथित सेक्युलरिज़्म और दिखावटी उदार सामाजिक नीति के साथ लागू करती है। इन्हीं नीतियों को भाजपा ने अपनी साम्प्रदायिक फासीवादी नीतियों के साथ कहीं ज़्यादा तेज़ रफ़्तार से, दमनकारी रवैये के साथ और नंगे तौर पर लागू किया है। भाजपा की सामाजिक नीति अल्पसंख्यकों, दलित जातियों व औरतों के अधिकारों के प्रश्न पर कट्टरवादी, साम्प्रदायिक, ब्राह्मणवादी और पितृसत्तावादी है। यानी, यह इन समुदायों व सामाजिक संस्तरों के हक़ों को छीनने और उन्हें हीन मानने वाली सोच को मानती है। मौक़ा पड़ने पर कांग्रेस भी सवर्णवादियों और साम्प्रदायिक भावनाओं के तुष्टीकरण से बाज़ नहीं आती, जैसा कि 1980 के दशक में राम मन्दिर के साम्प्रदायिक फासीवादी आन्दोलन के बरक्स उसने किया था। लेकिन फिर भी भाजपा एक फासीवादी संगठन (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या आरएसएस) का चुनावी चेहरा है। मज़दूर वर्ग को अपनी तात्कालिक प्रतिरोध नीति के लिए कांग्रेस जैसी नर्म दक्षिणपन्थी उदार पूँजीवादी पार्टी और भाजपा जैसी आक्रामक फासीवादी पार्टी के बीच फ़र्क़ करने की ज़रूरत है। निश्चित तौर पर, दोनों ही बड़ी पूँजी का प्रतिनिधित्व करती हैं। लेकिन बड़ी पूँजी की नुमाइन्दगी करने का उनका तरीक़ा और अन्दाज़ अलग है।

वहीं दूसरी ओर अगर हम समाजवादी पार्टी की बात करें तो यह मुख्य तौर पर गाँवों में धनी व उच्च मध्यम किसानों और शहरों में ठेकेदार, प्रापर्टी डीलर, निम्न पूँजीपति वर्ग के एक हिस्से समेत बड़े पूँजीपतियों के भी एक हिस्से की नुमाइन्दगी करती है। वोटों की ख़ातिर यह अपने आपको मुसलमानों का सबसे बड़ा हिमायती साबित करने का प्रयास करती है और साथ ही यादवों के वोटों को अपने वोट बैंक का प्रमुख आधार बनाती है। मुज़फ़्फ़रनगर दंगों में अखिलेश यादव प्रशासन द्वारा उचित हस्तक्षेप न करने और भाजपा के साम्प्रदायिक हमलों से अल्पसंख्यकों की हिफ़ाज़त न करने के कारण मुसलमानों के बीच सपा की छवि बिगड़ी थी लेकिन हालिया दिनों में अखिलेश यादव ने उसे सुधारने का प्रयास किया है और साथ ही कांग्रेस से हाथ मिलाने से भी इसमें अखिलेश यादव को मदद मिली है। जहाँ तक बसपा का प्रश्न है तो वह मुख्य तौर पर अस्मितावादी राजनीति के ज़रिये दलित वोटों को बटोरने पर ज़ोर देती है। लेकिन साथ ही सतीश चन्द्र मिश्रा के तौर पर इस पार्टी ने एक ब्राह्मण चेहरा भी आगे किया हुआ है जिसके बूते 2007 ब्राह्मण वोट भाजपा से खिसककर अपने पक्ष में लाने में बसपा को सफलता मिली थी। इस बार बसपा मुसलमान वोटों पर भी गिद्धदृष्टि जमाये हुए है। लेकिन वास्तव में बसपा दलित जातियों के बीच से पैदा हुए एक छोटे-से कुलीन वर्ग की नुमाइन्दगी करती है। इसके अलावा, बसपा शहरी मध्य वर्ग, मुसलमानों और उच्च जातियों के एक हिस्से के वोट पर भी निशाना साध रही है। मुख्य तौर पर, बसपा भी टटपुँजिया वर्गों, मध्य वर्ग और साथ ही पूँजीपति वर्ग के एक हिस्से की नुमाइन्दगी करने वाली पार्टी है और इसका निशाना मुख्य तौर पर ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के ज़रिये दलित अस्मिता का इस्तेमाल कर दलित वोटों, सतीश चन्द्र मिश्र की ब्राह्मण नेता की छवि का इस्तेमाल कर ब्राह्मण वोटों और मुसलमान उम्मीदवारों को पहले से ज़्यादा टिकट देकर मुसलमान वोटों को हासिल करने पर है। उत्तर प्रदेश में इन विधानसभा चुनावों में यही त्रिको‍णीय संघर्ष है।

लेकिन इस पूरे संघर्ष में जो भी चुनावी दल उतरे हैं, वे सभी पूँजीपति वर्ग और निम्न पूँजीपति वर्ग के किसी न किसी हिस्से की नुमाइन्दगी करते हैं। मज़दूर वर्ग का पक्ष ग़ायब है। कोई ऐसा दल नहीं है जो कि मज़दूर वर्ग के हितों की नुमाइन्दगी करता हो। कहने के लिए वामपन्थी दल हैं मिसाल के तौर पर भाकपा, माकपा और भाकपा (माले)। इन तीन प्रमुख चुनावी वामपन्थी पार्टियों ने कुछ अन्य टटपुँजिया वामपन्थी पार्टियों जैसे कि एसयूसीआई के साथ मिलकर एक मोर्चा बनाया है। इनकी हालत यह है कि इन्हें 403 सीटों पर खड़ा करने के लिए उम्मीदवार भी नहीं मिल रहे हैं। उससे भी अहम बात यह है कि ये मज़दूर वर्ग के पीठ में छुरा भोंकने वाली ग़द्दार चुनावी वामपन्थी पार्टियाँ हैं। पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल में इनकी सरकारें हैं या रह चुकी हैं। इन सभी राज्यों में इन्होंने पूँजीपतियों की सेवा करने वाली नीतियों को लागू करने में कहीं भी अपने आपको कांग्रेस या भाजपा से पीछे नहीं सिद्ध किया। उल्टे दमनकारी होने के मामले में कई जगह ये उनसे आगे भी निकल गयीं। वास्तव में, ये संसदीय वामपन्थी पार्टियाँ छोटे पूँजीपतियों, छोटे दुकानदारों, मँझोले व धनी किसानों की नुमाइन्दगी करने का दावा रखती हैं। मज़दूर वर्ग के वोट के लिए ये लाल झण्डे का इस्तेमाल करती हैं, लेकिन इनके झण्डों का लाल रंग वास्तव में फीका पड़ते-पड़ते अब गुलाबी हो गया है। इन पर मज़दूर वर्ग ही अब भरोसा नहीं करता है। मज़दूर वर्ग का एक छोटा-सा हिस्सा इन्हें वोट देता है, लेकिन व्यापक मज़दूर वर्ग के वोट विकल्पहीनता में कभी इस तो कभी उस खुली पूँजीवादी पार्टी को पड़ते हैं।

वैसे तो कुल वोटरों का 60 से 70 फ़ीसदी पिछले कुछ संसद व विधानसभा चुनावों में वोट डालता रहा है, मगर यह मानना होगा कि इसमें ख़रीदे गये या फ़र्ज़ी वोटों को हटा भी दें, तो देश के मेहनतकश वर्गों के एक अच्छे-ख़ासे हिस्से की अभी भी पूँजीवादी संसदीय व्यवस्था में कुछ बची हुई उम्मीदें हैं। ऐसे में, पूँजीवादी चुनावों में मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी नुमाइन्दगी का ग़ायब होना और मज़दूर वर्ग का स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष पेश न हो पाना आज देश के क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन की एक भारी कमी है। इस पर हम कुछ आगे आयेंगे।

उत्तराखण्ड में मुख्य मुकाबला भारत के बड़े पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी करने वाली दो राष्ट्रीय पार्टियों के बीच है – कांग्रेस और भाजपा। फि़लहाल, कांग्रेस की सरकार सत्ता में है। कुछ ही माह पहले कांग्रेस की हरीश रावत सरकार को भाजपा ने गिराने का प्रयास किया था लेकिन वह प्रयास सफल नहीं हो पाया था। उत्तराखण्ड में बहुजन समाज पार्टी ने भी पिछले चुनावों में 12 प्रतिशत वोट हासिल किये थे और इस बार भी वह कई सीटों पर काफ़ी ज़ोर लगा रही है। उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद से ही वहाँ बारी-बारी से कांग्रेस और भाजपा की सरकारें रही हैं। इन दोनों ही पार्टियों की सरकारों ने कारपोरेट पूँजीवादी लूट के ज़रिये विकास को जो मॉडल उत्तराखण्ड में पिछले दो दशकों में लागू किया है, वह सबके सामने है। एक ओर हाइड्रोपावर परियोजनाओं को पूँजीवादी लूट के नज़रिये के साथ जिस प्रकार से लागू किया गया है, उसने उत्तराखण्ड के पूरे पारिस्थितिक सन्तुलन को बिगाड़ दिया है। प्रकृति ने मुनाफ़े की अन्धी हवस की सज़ा भी दी है। 2013 में उत्तराखण्ड में आयी बाढ़ एक प्राकृतिक विपदा नहीं थी, बल्कि बड़ी पूँजी द्वारा उत्तराखण्ड की प्राकृतिक सम्पदा की बेतहाशा लूट के कारण पैदा हुए प्राकृतिक तबाही का एक नमूना थी। इस समय भी करीब 558 हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट जारी हैं। 5000 हेक्टेयर जंगल की ज़मीन और साथ ही तमाम उपजाऊ ज़मीनें इन प्रोजेक्टों को दे दी गयी है। वहीं दूसरी ओर इन प्रोजेक्टों द्वारा बेरोज़गारी दूर करने के दावे खोखले साबित हुए हैं। उत्तराखण्ड राज्य में सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ करीब 20 लाख बेरोज़गार हैं जबकि 40 लाख बेरोज़गार नौकरियों की तलाश में राज्य छोड़ चुके हैं। वहीं दूसरी ओर 1100 गाँवों को निर्जन घोषित कर दिया गया है, क्योंकि नौकरियों के लिए प्रवास के कारण वहाँ कुछ बचा ही नहीं है। प्रदेश की ग़रीब और मेहनतकश जनता मेहनत और कुदरत की भारी लूट के कारण तबाहो-बरबाद है। लेकिन यहाँ भी कोई विकल्प मौजूद नहीं है। चुनावों में मज़दूर वर्ग का स्वतन्त्र क्रान्तिकारी पक्ष अनुपस्थित है। पंजाब में भी हालत कोई अलग नहीं है। वहाँ इन चुनावों में त्रिकोणीय मुकाबला होता नज़र आ रहा है। एक ओर अकाली दल-भाजपा का बेहद अलोकप्रिय हो चुका शासक गठबन्धन है। दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी है जो कि पिछले कुछ समय से अपने कारणों से नहीं बल्कि भाजपा और अकालियों के अलोकप्रिय होते जाने के कारण उभरती जा रही है। वहीं दिल्ली में अपनी सफलता के बाद से देश के छोटे राज्यों में पहले पाँव पसारने के उद्देश्य से अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी पंजाब के चुनावों में हस्तक्षेप कर रही है। पंजाब में सिख धर्म की अस्मितावादी और कट्टरपन्थी राजनीति करने वाली और सिख जनता और पंजाब के विशिष्ट हितों की नुमाइन्दगी करने वाली दक्षिणपन्थी पार्टी शिरो‍मणि अकाली दल और राष्ट्रीय स्तर की साम्प्रदायिक फासीवादी पार्टी भाजपा के बीच गठबन्धन है। यह गठबन्धन वास्तव में प्रदेश के धनी किसान व फ़ार्मर लॉबी और साथ ही बड़ी वित्तीय व औद्योगिक पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी करता है। कांग्रेस धनी किसान लॉबी के एक अपेक्षाकृत छोटे हिस्से की नुमाइन्दगी करने के साथ दलितों के वोटों पर भी निशाना साधती है। चूँकि पंजाब में दलित आबादी का हिस्सा अन्य राज्यों के मुकाबले कहीं ज़्यादा है, इसलिए दलित वोट राज्य में सत्ता किसके हाथ में जायेगी यह तय करने की स्थिति में हो सकते हैं। अब आम आदमी पार्टी के रूप में तीसरे बड़े खिलाड़ी के खेल में उतरने से मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है। ‘आम आदमी पार्टी’ ने पंजाब के क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन और साथ ही 1980 व 1990 के दशक के अलगाववादी सिख आन्दोलन के कई भूतपूर्व तत्वों को अपने भीतर समेट लिया है। वह एक साथ सभी असन्तोषों को अभिव्यक्त करने का प्रयास कर रही है और उसका एजेण्डा और माँगपत्रक ऊपर से देखने पर योगात्मक सर्वसमावेशी जैसा, यानी, एक साथ हर माँग को समेट लेने वाला दिखता है। लेकिन वास्तव में आम आदमी पार्टी का एजेण्डा हर जगह हर समुदाय को सन्तुष्ट करने के दावों के समुच्चय के बावजूद वास्तव में छोटी पूँजी, ग्रामीण व शहरी टटपुँजिया वर्गों, छोटे व्यापारी वर्ग आदि की सेवा करता है। यह अपने वर्ग चरित्र से ही एक टटपुँजिया पार्टी है। इस त्रिको‍णीय मुकाबले में चाहे जो भी जीते, इससे पंजाब के ग़रीब मेहनतकश वर्ग को कुछ ख़ास हासिल नहीं होने वाला है। यहाँ भी मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी को पूँजीवादी चुनावों के मंच पर कोई स्वतन्त्र क्रान्तिकारी प्रतिनिधित्व हासिल नहीं है।

गोवा में भी हालत कुछ ऐसी है। वहाँ भी कांग्रेस, भाजपा और आम आदमी पार्टी के बीच त्रिकोणीय मुकाबला हो रहा है। मणिपुर में चुनावी राजनीति के समीकरण कुछ अलग किस्म के हैं, क्योंकि मणिपुर उन राज्यों में से है जहाँ भारतीय राज्यसत्ता का दमन अपने चरम पर रहता है। वहाँ की दमित राष्ट्रीयता को अपने बुनियादी नागरिक व जनवादी अधिकारों के लिए भी इंच-इंच लड़ना पड़ता है। हम इन राज्यों में चुनावी समीकरणों के विस्तार में नहीं जायेंगे क्योंकि न तो हमारे मौजूदा विश्लेषण के लिए यह अपरिहार्य है और न ही हमारे पास इसके लिए पर्याप्त जगह और समय है। निश्चित तौर पर, आगे हम अलग से उत्तर-पूर्व के राज्यों की राजनीतिक स्थिति के बारे में लिखेंगे। लेकिन फि़लहाल हम इस प्रश्न पर आते हैं कि मौजूदा विधानसभा चुनावों और आम तौर पर पूँजीवादी व्यवस्था में होने वाले चुनावों में मज़दूर वर्ग की अवस्थिति क्या होनी चाहिए? हमें क्या करना चाहिए?

पूँजीवादी चुनाव और क्रान्तिकारी मज़दूर अवस्थिति

पूँजीवादी व्यवस्था और उसमें होने वाले चुनाव निश्चित तौर पर ऐतिहासिक तौर पर हमारे लिए अप्रासंगिक हो चुके हैं। कहने का अर्थ यह है कि ऐतिहासिक तौर पर वह दौर बीत गया जब पूँजीवादी जनवाद और उसके चुनाव आम मज़दूर वर्ग और मेहनतकश जनता को कुछ दे सकते थे। ऐसा केवल उस दौर में होता है जब सामन्तवाद या साम्राज्यवाद के विरुद्ध क्रान्तिकारी तरीक़े से कोई रैडिकल परिवर्तन हुआ हो, एक क्रान्तिकारी पूँजीपति वर्ग सत्ता में आया हो और वह जनवादी सुधारों को अंजाम दे रहा हो। केवल और केवल इसी दौर में पूँजीवादी जनवादी चुनाव देश-समाज की आम मेहनतकश जनता को कुछ दे सकते हैं। इसके अतिरिक्त, जैसे ही पूँजीवादी व्यवस्था अपने प्रगतिशील सकारात्मकों को पूर्ण कर एक बोझ बन जाती है, वैसे ही इसके चुनावों की भी ऐतिहासिक तौर पर प्रासंगिकता समाप्त हो जाती है। भारत में यह सकारात्मकों का पूर्ण करने वाला कोई विचारणीय दौर तो रहा भी नहीं था क्योंकि हमारे देश का एक विशिष्ट औपनिवेशिक गुलामी का इतिहास था और यहाँ आज़ादी एक समझौते के तौर पर पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी करने वाली कांग्रेस पार्टी के हाथों में आयी थी, जिसका जनता से कभी भी ज़्यादा कुछ साझा रहा ही नहीं था। लेकिन इतना तय है कि आज के दौर में पूँजीवादी चुनाव क़तई जनता के लिए कोई विकल्प पेश नहीं करते हैं। यानी, आज के दौर में पूँजीवादी जनवादी चुनाव विकल्पहीनता के चुनाव होते हैं। आज के ही चुनावी माहौल पर निगाह दौड़ा ली जाये तो यह बात साफ़ हो जाती है। चाहे आप अपने दिल को धोखा देने और तसल्ली देने की कितनी भी कोशिश करें, आप जानते हैं कि हम मज़दूरों-मेहनतकशों के लिए यह विकल्पहीनता का चुनाव होता है, जिसमें एक पार्टी या गठबन्धन की कारगुज़ारियों से तंग आकर हम किसी दूसरी पार्टी या गठबन्धन को वोट डाल आते हैं। हम भी जानते हैं कि इससे कोई विशेष परिवर्तन नहीं होने वाला। लेकिन यह एक पूँजीवादी पार्टी को अपने पाँच वर्ष के शासन काल में किये गये कुकर्मों की सज़ा देने का एक तरीक़ा बन गया है। सज़ा के तौर पर जनता अगले चुनावों में दूसरे पूँजीवादी दल को वोट दे देती है; वह दल पाँच वर्ष में फिर से हमारा जीना मुहाल कर देता है, तो उसे अगले चुनावों में सज़ा देकर हम वापस पिछले पूँजीवादी दल को या किसी तीसरे पूँजीवादी दल को सत्ता सौंप देते हैं। लेकिन यह हमारे गुस्सा निकालने का एक तरीक़ा मात्र है। हम भी जानते हैं कि हमारे पास कोई वास्तविक विकल्प नहीं है। लेकिन मज़दूर वर्ग और मेहनतकश आबादी के व्यापक पिछड़े हिस्से भी हैं जिन्हें अभी भी पूँजीवादी चुनावों से कुछ उम्मीद बँधी रहती है। हालाँकि वैज्ञानिक और ऐतिहासिक विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि पूँजीवादी चुनावों के ज़रिये लम्बी दूरी में व्यापक मेहनतकश जनता को कुछ हासिल नहीं होने वाला और वैज्ञानिक और ऐतिहासिक तौर पर पूँजीवादी जनवादी चुनाव अप्रासंगिक और व्यर्थ हो चुके हैं। लेकिन क्या यह कहा जा सकता है कि राजनीतिक तौर पर पूँजीवादी व्यवस्था में चुनाव अप्रासंगिक हो गये हैं?

नहीं! निश्चित तौर पर क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों के लिए और मज़दूर वर्ग के अल्पसंख्यक उन्नत हिस्सों के लिए पूँजीवादी चुनाव अप्रासंगिक और पुराने पड़ चुके हैं। लेकिन वैज्ञानिक और ऐतिहासिक तौर पर समाज के उन्नत क्रान्तिकारी दस्ते और तत्वों के लिए जो अप्रासंगिक और पुराना पड़ चुका है, कोई ज़रूरी नहीं कि वह देश की मेहनतकश मज़दूर आबादी की बहुसंख्या के लिए अप्रासंगिक और पुराना पड़ गया हो। वास्तव में, ऐसा हुआ भी नहीं है। देश में पिछले कुछ संसद चुनावों और विधानसभा चुनावों में वोट डालने वाले वोटरों का प्रतिशत बढ़ रहा है। निश्चित तौर पर, हम इस परिघटना को शासक वर्ग द्वारा ‘ब्रेन वॉश’ या सम्मोहन विद्या के प्रयोग के द्वारा नहीं समझा सकते हैं। सच यह है कि भारत के 84 करोड़ सर्वहारा और अर्द्धसर्वहारा आबादी के एक अच्छे-ख़ासे हिस्से में यदि पूँजीवादी जनवाद में कोई अटूट आस्था नहीं है, तो निश्चित तौर पर उसमें अभी भी इस पूँजीवादी जनवाद और उसके चुनावों को लेकर कुछ विभ्रम और आधा-अधूरा भरोसा बचा हुआ है। और अगर एक विशाल अल्पसंख्या भी पूँजीवादी जनवाद और चुनावों में भ्रमग्रस्त और संशयग्रस्त भरोसा रखती है या उसका विश्वास अभी पूरी तरह टूटा नहीं है, या विकल्पहीनता और आधे-अधूरे विश्वास की एक मिश्रित भावना के कारण अभी भी 65 से 70 फ़ीसदी वोटर वोट डालने जाते हैं, तो यह मानना होगा कि पूँजीवादी जनवाद और उसके चुनावों के राजनीतिक स्पेस (क्षेत्र) को क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों को ख़ाली नहीं छोड़ना चाहिए। उन्हें निश्चित तौर पर इस मंच का रणकौशल (टैक्टिक्स) के तौर पर तौर पर इस्तेमाल अपने क्रान्तिकारी लक्ष्यों की पूर्ति के रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए करना चाहिए; उन्हें पूँजीवादी चुनावों के मंच का इस्तेमाल व्यापक जनसमुदायों की राजनीतिक शिक्षा और प्रचार के लिए करना चाहिए। निश्चित तौर पर, यदि किसी देश की क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी इस स्थिति में नहीं है कि वह पूँजीवादी चुनावों में रणकौशल (टैक्टिक्स) के तौर पर भागीदारी कर उनका इस्तेमाल कर सके, तो वह उसमें ग़ैर-भागीदारी का एक आरज़ी नारा देती है। लेकिन यह निश्चित तौर पर कोई दीर्घकालिक नारा नहीं बन सकता है। या तो जनता क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए तैयार होगी; शासक वर्ग अपने शासन को जारी रख पाने में अक्षम होगा; और ऐसी परिस्थिति में व्यापक मेहनतकश जनता क्रान्तिकारी पार्टी के बहिष्कार के नारे को स्वीकार करेगी। अन्यथा, यदि जनता के व्यापक जनसमुदायों का पूँजीवादी जनवाद और उसके चुनावों में अभी भी (आधा-अधूरा और संशयग्रस्त ही सही) विश्वास है, तो उस सूरत में क्रान्तिकारी पार्टी को चुनावों में रणकौशल के तौर पर भागीदारी कर इस मंच का इस्तेमाल जनता के राजनीतिक और वैचारिक स्तरोन्नयन के लिए करना चाहिए।

दूसरी बात यह कि व्यापक मेहनतकश जनसमुदायों का जो हिस्सा अभी भी पूँजीवादी जनवाद के प्रति विभ्रमग्रस्त है और उसके प्रति एक टूटाफूटा सा भरोसा रखता है, वह महज़ क्रान्तिकारी पार्टी के पर्चों, अख़बारों और भाषणों के ज़रिये इन विभ्रमों से आज़ाद नहीं होगा। पूँजीवादी जनवाद की सीमाओं को प्रदर्शित केवल और केवल तभी किया जा सकता है जबकि क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी पूँजीवादी चुनावों के मंच पर एक स्वतन्त्र मज़दूर पक्ष का प्रतिनिधित्व करे (स्वतन्त्र का अर्थ है, अन्य पूँजीवादी पार्टियों व पूँजीवादी वर्गों के प्रभाव और वर्चस्व से मुक्त, न कि राजनीति और पार्टी नेतृत्व से मुक्त), उनमें रणकौशल के तौर पर भागीदारी करे और इसके ज़रिये क्रान्तिकारी प्रचार व उद्वेलन करने के साथ ही पूँजीवादी व्यवस्था और पूँजीवादी जनवाद की अन्तिम सीमाओं को भी उजागर कर दे। यानी, इस रणकौशल के तौर पर भागीदारी के ज़रिये वह यह प्रदर्शित करे कि सबसे उदार, रैडिकल व प्रगतिशील किस्म का पूँजीवादी जनवाद भी मज़दूर वर्ग के हितों को पूर्ण नहीं कर सकता; वह वास्तव में बुर्जुआ वर्ग (पूँजीपति वर्ग) का ही जनवाद होता है, चाहे वह कुछ जूठन-छाजन मज़दूर वर्ग को क्यों न दे दे; वह बेरोज़गारी और ग़रीबी से मेहनतकश आबादी को मुक्ति नहीं दिला सकता है, क्योंकि पूँजीवादी व्यवस्था को बेरोज़गार आबादी की ज़रूरत होती है। यानी, पूँजीवादी जनवाद और चुनावों की ऐतिहासिक अप्रासंगिकता और व्यर्थता को राजनीतिक तौर पर प्रदर्शित करने का रास्ता यह है कि व्यापक क़ानूनेतर आन्दोलनों, मसलन आम हड़ताल आदि, के अलावा क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पक्ष पूँजीवादी चुनावों के क्षेत्र में भी हस्तक्षेप करे और रणकौशल के तौर पर भागीदारी करते हुए पूँजीवादी व्यवस्था और उसके पूँजीवादी जनवाद की अन्तिम सीमाओं को व्यापक मेहनतकश आबादी के समक्ष बेनकाब करे।

लेनिन ने लिखा था कि हमें क़ानूनी व क़ानूनेतर राजनीतिक कार्यों के बीच ‘या’ का चिन्ह नहीं लगाना चाहिए, बल्कि ‘और’ शब्द का इस्तेमाल करना चाहिए। लेनिन का मानना था कि मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी आन्दोलन को एक ओर क़ानूनेतर संघर्ष (जैसे कि आम हड़ताल) का रास्ता अख्तियार करना चाहिए, जो कि निश्चित तौर पर ज़्यादा अहम है, लेकिन यदि उसे इस रास्ते पर आगे बढ़ना है, तो उसे क़ानूनी रूपों और माध्यमों (जिनमें से पूँजीवादी चुनावों में रणकौशल के तौर पर भागीदारी एक प्रमुख रूप है) का भी इस्तेमाल करना चाहिए। लेनिन बोल्शेविक पार्टी द्वारा पूँजीवादी चुनावों के बेहद सीमित पूँजीवादी जनवाद में भी बोल्शेविकों द्वारा प्रयोग का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि व्यापक मेहनतकश जनसमुदायों को रूस में इन क़ानूनी कार्यों के बग़ैर तैयार करना मुश्किल होता।

निश्चित तौर पर, क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट इस बात पर मज़बूती से भरोसा करते हैं कि मज़दूर सत्ता और समाजवादी व्यवस्था की स्थापना पूँजीवादी चुनावों के रास्ते नहीं हो सकती, क्योंकि ऐसी राज्यसत्ता की स्थापना पूँजीवादी राज्यसत्ता के ध्वंस के बिना सम्भव नहीं है। और पूँजीवादी राज्यसत्ता का अर्थ महज़ सरकार नहीं होता। वास्तव में, क्रान्तिकारी दृष्टि से सरकार पूँजीवादी राज्यसत्ता का ऐतिहासिक तौर पर कम महत्वपूर्ण हिस्सा है। पूँजीवादी राज्यसत्ता के स्थायी हिस्से हैं उसकी पुलिस, सेना, सशस्त्र बल, नौकरशाही और उसकी न्यायपालिका। वास्तव में, ये हिस्से पूँजीवादी राज्यसत्ता के असली खाने के दाँत का काम करते हैं। जैसे ही संकट के दौरों में पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्ध ख़तरे में पड़ते हैं, वैसे ही पूँजीवादी व्यवस्था अपने असली खाने के दाँतों के साथ सामने होती है और विधायिका यानी संसद और सरकार की भूमिका गौण बन जाती है। इसलिए मज़दूर राज्यसत्ता की स्थापना और समाजवादी व्यवस्था के निर्माण के लिए समूची पूँजीवादी राज्यसत्ता के ध्वंस की अनिवार्यता पर कोई प्रश्न नहीं खड़ा किया जा सकता है। चीले में सल्वादोर अयेन्दे के नेतृत्व में जब समाजवादी पार्टी ने चुनाव जीता तो कुछ मज़दूर पक्षीय कल्याणकारी नीतियों की शुरुआत करते ही चिले के बड़े पूँजीपति वर्ग ने साम्राज्यवाद के साथ मिलकर तख्तापलट कर दिया और सैन्य तानाशाही स्थापित कर पूँजी की नंगी तानाशाही स्थापित कर दी। ऐसा वे क्यों कर सके? क्योंकि क्रान्तिकारी आन्दोलन के ज़रिये जनता की क्रान्तिकारी पहलक़दमी खुली नहीं थी; क्योंकि जनता सशस्त्र नहीं थी; क्योंकि सत्ता और शक्ति के प्रश्न पर जनता अभी भी कमज़ोर थी; पूँजी की जकड़बन्दी समाज में क़ायम थी, जिसके बूते सेना और पुलिस के बड़े हिस्सों को पूँजीपति वर्ग अपने साथ ले सकता था और साम्राज्यवादी सहायता से तख्तापलट कर सकता था; जनता ने वोट डालकर समाजवादी अयेन्दे को सत्ता में पहुँचाया था, न कि सड़कों की लड़ाई लड़कर। ऐसे में, जनता ने अयेन्दे को सत्ता में वोट डालने के ‘निष्क्रिय’ तरीक़े से पहुँचाया था; और जब अयेन्दे के ख़िलाफ़ प्रतिक्रियावादी तख्तापलट हुआ तो भी जनता का बड़ा हिस्सा निष्क्रियता के साथ, हालाँकि अफ़सोस भरी निष्क्रियता के साथ तमाशबीन बना रहा। चीले का यह उदाहरण दिखलाता है कि लेनिन की यह शिक्षा वैज्ञानिक और ऐतिहासिक तौर पर वर्ग समाज के समूचे ऐतिहासिक दौर के लिए सही है कि क्रान्ति का प्रश्न राज्यसत्ता का प्रश्न है और राज्यसत्ता का प्रश्न वास्तविक शक्ति का प्रश्न है। इसलिए मज़दूर राज्यसत्ता की स्थापना और समाजवादी निर्माण की शुरुआत क्रान्तिकारी रास्ते से ही हो सकती है।

लेकिन क्या इसका यह अर्थ है कि पूँजीवादी चुनावों में रणकौशल के तौर पर भागीदारी की जाये? नहीं! उल्टे इसका यह अर्थ निकलता है कि जब तक जनता के व्यापक जनसमुदायों की एक विशाल अल्पसंख्या में भी पूँजीवादी जनवाद और चुनावों के प्रति कोई भरोसा बचा है, तब तक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी को मज़दूर वर्ग के स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष की नुमाइन्दगी करते हुए पूँजीवादी चुनावों में रणकौशल के तौर पर भागीदारी करनी चाहिए। रणकौशल (टैक्टिक्स) के तौर पर भागीदारी का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि मज़दूर क्रान्ति करने, मज़दूर सत्ता स्थापित करने और समाजवाद के निर्माण की रणनीति (स्ट्रैटेजी) पूँजीवादी व्यवस्था के मातहत चुनाव में भागीदारी नहीं हो सकती है। यानी, चुनावों के ज़रिये ही मज़दूर सत्ता और समाजवाद नहीं सकता। यह क्रान्ति की रणनीति नहीं हो सकता है। लेकिन क्रान्ति की इस रणनीति को आगे बढ़ाने और उसके लिए जनसमुदायों को जागृत, गोलबन्द और संगठित करने के लिए महज़ क्रान्तिकारी पार्टी के पर्चे और अख़बार काफ़ी नहीं हो सकते हैं। इस रणनीति के लिए जनता को जागृत, गोलबन्द और संगठित करने के लिए क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पक्ष को पूँजीवादी जनवाद की सीमाओं और उसके ऐतिहासिक अप्रासंगिकता और व्यर्थता को व्यवहारत: प्रदर्शित और सिद्ध करना होगा। और ऐसा केवल तभी किया जा सकता है जबकि पूँजीवादी चुनावों में रणकौशल के तौर पर कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी पक्ष हस्तक्षेप करे। पूँजीवादी संसदवाद का हम वैज्ञानिक और ऐतिहासिक तौर पर मनोगत रूप में खण्डन करते हैं, लेकिन इस खण्डन को ही बुर्जुआ संसद विधानसभाओं का वस्तुगत अन्त नहीं समझ लिया जाना चाहिए। इसके वस्तुगत तौर पर अन्त की ज़मीन तभी तैयार हो सकती है, जबकि एक बोल्शेविक उसूलों पर कसी हुई क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी की अगुवाई में सड़क का आन्दोलन आगे बढ़े और साथ ही ऐसी पार्टी के नेतृत्व में बुर्जुआ संसद और विधानसभाओं और साथ ही नगरपालिकाओं में रणकौशल के तौर पर भागीदारी की जाये और उनकी सीमाओं को खोलकर सामने रखा जाये।

अन्त में…

यह एक बड़ी चुनौती है। आज देश भर में बुर्जुआ चुनावों में मज़दूर वर्ग के स्वतन्त्र क्रान्तिकारी पक्ष की नुमाइन्दगी करने वाली कोई क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी मौजूद नहीं है। एक ओर वामपन्थी दुस्साहसवादी कार्यदिशा है जो कि पूँजीवादी चुनावों के बहिष्कार का नारा देती है, जबकि कोई उसकी बात ही नहीं सुनता! वहीं दूसरी ओर सुधारवादी संशोधनवादी नक़ली कम्युनिस्ट पार्टियाँ हैं, जिनकी राजनीति वस्तुत: बुर्जुआ व्यवस्था की ही आख़िरी सुरक्षा पंक्ति का काम करती है। ऐसे में, मौजूद पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी मज़दूर वर्ग की कोई नुमाइन्दगी नहीं है। मज़दूर वर्ग का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। मज़दूर वर्ग के स्वतन्त्र पक्ष की अनुपस्थिति के कारण मज़दूर वर्ग का अच्छा-ख़ासा हिस्सा इस या उस पूँजीवादी चुनावी पार्टी का पिछलग्गू बनने को मजबूर है। इसका नुक़सान केवल राजनीतिक ही नहीं बल्कि विचारधारात्मक भी है। मज़दूर वर्ग विचारधारात्मक तौर पर भी पिछलग्गू बनने लगता है, निहत्था हो जाता है और पूँजीवादी विचारधारा के वर्चस्व के मातहत आने लगता है।

ऐसे में, आज देश के क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन के समक्ष कई अहम कार्यभार हैं। पहला यह कि आज एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण की आवश्यकता है। मौजूदा क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट ग्रुपों के कठमुल्लावाद, उनके पुराने पड़ चुके कार्यक्रम, रणनीति और आम रणकौशल और नेतृत्व के अवसरवाद के कारण उनके बीच कोई टिकाऊ एकता हो ही नहीं सकती। ऐसे में, नया क्रान्तिकारी विचार केन्द्र, प्रयोग केन्द्र और भर्ती केन्द्र विकसित करते हुए एक नयी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण करना होगा। दूसरा बड़ा कार्यभार यह है कि इस नयी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में मज़दूर वर्ग का व्यापक हड़ताल आन्दोलन खड़ा करना होगा, ग़रीब किसानों और खेतिहर मज़दूरों के संगठन व यूनियनें बनाते हुए संघर्ष की शुरुआत करनी होगी और साथ ही व्यापक निम्न मध्यवर्गीय आबादी के अधिकतम सम्भव हिस्सों को उनकी रोज़मर्रा की माँगों पर खड़ा करते हुए भावी नयी समाजवादी क्रान्ति के पक्ष में जीतना होगा। लेकिन इतना ही काफ़ी नहीं होगा। तीसरा बड़ा कार्य यह है कि क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में पूँजीवादी चुनावों अन्य संवैधानिकक़ानूनी मंचों पर मज़दूर वर्ग की स्वतन्त्र क्रान्तिकारी पक्ष की नुमाइन्दगी करते हुए रणकौशल के तौर पर हस्तक्षेप करना होगा और पूँजीवादी जनवाद के सभी औपचारिक वायदों को पूर्ण करने की जि़द और संघर्ष के ज़रिये इसकी अन्तिम सीमाओं को उजागर करना होगा, ताकि व्यापक मेहनतकश अवाम को एक बेहतर और ज़्यादा उन्नत सर्वहारा जनवाद के लिए तैयार किया जा सके और उस सर्वहारा जनवाद की स्थापना हेतु एक क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए भी तैयार किया जा सके। यह तीसरा काम बेहद मुश्किल और जटिल है और इस काम को हाथ में लेने के बाद प्रारम्भिक दौर में कई ग़लतियों के लिए भी तैयार रहना होगा। लेकिन इसकी जटिलता और दुरूहता से डरकर इस काम को अनिश्चित काल तक नहीं टाला जा सकता है।

यह स्पष्ट है कि मौजूदा चुनाव में किसी को भी वोट डालने या किसी को भी वोट डाल देने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला। बस इतना होगा कि शायद एक पूँजीवादी पार्टी की जगह दूसरी पूँजीवादी पार्टी सत्ता में आ जाये। वस्तुगत तौर पर, फासीवादी पार्टी यानी भाजपा और संघ परिवार का सत्ता में न आना निश्चित तौर पर तात्कालिक तौर पर कुछ राहत देता दिख सकता है और शायद कुछ राहत वास्तव में भी दे। एक फासीवादी पूँजीवादी पार्टी और अन्य पूँजीवादी पार्टियों में सर्वहारा वर्ग को तात्कालिक रणनीति और आम रणकौशल के लिए फ़र्क़ करना ही चाहिए। लेकिन यह भी स्पष्ट है कि फासीवादी ताक़तों का ख़तरा किसी उदार पूँजीवादी पार्टी के जरिये नहीं दूर हो सकता है, क्योंकि वह उदार पूँजीवादी पार्टियों के शासन के दौर में पैदा अनिश्चितता, अराजकता और असुरक्षा के कारण ही पैदा होता है। इसलिए हम इस या उस पूँजीवादी पार्टी के ज़रिये तात्कालिक राहत की भी बहुत ज़्यादा उम्मीद ही करें तो बेहतर होगा। वास्तव में, अब तात्कालिक तौर पर भी मज़दूर वर्ग के लिए यह ज़रूरी बन गया है कि वह स्वतन्त्र तौर पर अपने राजनीतिक पक्ष को पूँजीवादी चुनावों के क्षेत्र में प्रस्तुत करे और अपने क्रान्तिकारी रूपान्तरण की लम्बी लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए इन चुनावों में रणकौशल के तौर पर भागीदारी करे। इसके बिना भारत में मज़दूर वर्ग का क्रान्तिकारी आन्दोलन ज़्यादा आगे नहीं जा पायेगा।

 

 

मज़दूर बिगुल, फरवरी 2017


 

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