स्वच्छता अभियान की देशव्यापी नौटंकी के बीच मुम्बई में सार्वजनिक शौचालय में गिरकर लोगों की मौत

सत्यनारायण

सत्ता में आने के बाद से ही मोदी सरकार लगातार स्वच्छता अभियान का ढिंढोरा पीट रही है। हाथों में झाड़ु लेकर फ़ोटो खिंचवाने से लेकर टीवी, अख़बार, रेडियो में जमकर पैसा ख़र्च कर विज्ञापन के माध्यम से जागरूकता फैलाने की बात हो रही है। पर असल में स्वच्छ भारत बनाने के लिए जिस चीज़ की बुनियादी ज़रूरत है उस पर कोई ख़र्च नहीं किया जा रहा है। मुम्बई जैसे महानगर में जहाँ 60 फ़ीसदी आबादी झुग्गी झोपड़ियों में रहती है व बुनियादी ज़रूरतों से वंचित है, वहाँ सार्वजनिक शौचालयों की हालत देखकर इसका अन्दाज़ा लगाया जा सकता है।

सार्वजनिक शौचालयों के इन्हीं जर्जर हालात का नतीजा हाल ही में मुम्बई में कई लोगों की मौत के रूप में सामने आया। बीती 3 फ़रवरी को मानखुर्द के इन्दिरानगर में एक सार्वजनिक शौचालय का फ़र्श सेप्टिक टैंक में धँस गया। उस वक़्त शौचालय में 20-25 लोग मौजूद थे। ज़्यादातर लोग उस गन्दगी में गिर पड़े। फ़ायर ब्रिगेड व पुलिस की गाड़ी लगभग एक घण्‍टे बाद पहुँची व तब तक इलाक़े के लोगों ने ही अपने प्रयास से अधिकांश को निकाल लिया था। पुलिस व मुख्यधारा के समाचार पत्रों ने तीन व्यक्तियों हरीश टीकेकर (उम्र 40), गणेश सोनी (40) मोहम्मद अंसारी (36) की मौत की पुष्टि की है। पर इलाक़े के लोगों के अनुसार कुल 7 व्यक्तियों की मौत हुई। 1 व्यक्ति की पहचान नहीं हो पायी (यद्यपि उसकी लाश निकाली गयी थी) व तीन व्यक्तियों को उस टैंक से निकाला ही नहीं गया। इस झुग्गी बस्ती में ऐसे भी बहुत से लोग हैं जो अकेले रहते हैं व बाहर से मज़दूरी करने आते हैं। ऐसे में ये तीन व्यक्ति कौन थे, इसकी भी पहचान नहीं हो पायी। पर दबी जबान में कई लोगों ने यह कहा कि उस घटना के बाद से इलाक़े के तीन लोग गायब हैं।

यह शौचालय म्हाडा (महाराष्ट्र हाउसिंग एण्ड एरिया डवलपमेण्‍ट ऑथोरिटी) द्वारा सिर्फ़ दस साल पहले बनाया गया था। इसके निर्माण में घटिया निर्माण सामग्री के इस्तेमाल का अन्दाज़ा इसी से लगाया जा सकता है। ये जिस विधायक के फ़ण्ड से बना वो बाद में म्हाडा के चैयरमेन भी बने। ऐसे कितने ही सार्वजनिक शौचालय व मकान उन्होंने बनवाये होंगे व उनकी हालत क्या होगी, ये अन्दाज़ा लगाना कठिन नहीं है। शौचालय की जर्जर हालात के बारे में वहाँ के निवासियों ने लगातार शिकायतें भी की थीं पर जिस ठेकेदार को ये शौचालय रखरखाव के लिए ठेके पर दिया गया था, उसके कानों पर जूँ भी नहीं रेंगी। ठेकेदार को अभी हाल ही में म्हाडा से 9 लाख रुपये का भुगतान भी मरम्मत हेतु किया गया था पर वो सब भी उसकी मुनाफ़़ेे की भेंट चढ़ गये।

जिन तीन व्यक्तियों की मौत की पुष्टि हुई है वे सब अपने घर के इकलौते कमाने वाले सदस्य थे। लोगों की मौत की जि़म्मेदार सरकारी संस्था म्हाडा की तरफ़ से मृतकों को कोई मुआवजा भी नहीं दिया गया है। वैसे तो अभी मुम्बई में चुनावों का मौसम चल रहा है। महानगरपालिका के चुनावों के कारण गली-गली में पार्षद पद के प्रत्याशी लोगों के आगे हाथ जोड़ रहे हैं पर सिर्फ़ मध्यम वर्ग तक के ही आगे। ग़रीब आबादी के बीच इस तरह की दुखदायी घटना होने पर भी किसी नेता मन्त्री का न पहुँचना यह बताता है कि ग़रीब आबादी की तमाम सारी राजनैतिक पार्टियों के लिए क्या अहमियत है ।

विज्ञापनों पर जमकर ख़र्च पर ज़रूरी कामों पर ख़र्चने को पैसा नहीं

नरेन्द्र मोदी सरकार के सत्ता में आते ही स्वच्छता अभियान की जो नौटंकी शुरू हुई थी, वो अभी भी जारी है। टीवी पर अमिताभ बच्चन से लेकर नोटों पर स्वच्छता अभियान का प्रचार करने पर तो जमकर लुटाया जा रहा है पर सार्वजनिक सुविधाओं पर न के बराबर ख़र्च किया जा रहा है। सरकार ने नवम्बर 2015 से एक विशेष टैक्स भी इस बाबत लगाया था। स्वच्छ भारत सैस नाम के इस कर से जहाँ पिछले आधे वित्त वर्ष में 3901 करोड़ रुपये जुटे वहीं इस वित्त वर्ष में लगभग 10000 करोड़ रुपया जुटेगा। इस पैसे का इस्तेमाल कर ज़रूरतमन्दों को बेहतर शौचालय सुविधा मुहैया करवायी जा सकती थी पर इस पैसे का ज़्यादातर इस्तेमाल गाँवों में शौचालय बनाने के नाम पर व विज्ञापन के लिए किया जा रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार ऐसे ज़्यादातर शौचालय सिर्फ़ पेपर पर बन रहे हैं हक़ीक़त में नहीं। दिसम्बर 2015 में एक संस्था द्वारा 10 जि़लों में किये गये एक सर्वे के अनुसार बताये गये शौचालयों में 29 प्रतिशत सिर्फ़ काग़ज़ों पर हैं जबकि 36 प्रतिशत इस्तेमाल किये जाने लायक ही नहीं हैं। 2014-15 में सरकार द्वारा 212.57 करोड़ रुपये विज्ञापनों पर ख़र्च किये गये, वहीं 2015-16 में यह ख़र्च बढ़कर 293.14 करोड़ हो गया।

मुम्बई शहर की बात की जाये तो यहाँ पर सार्वजनिक शौचालयों की संख्या बेहद कम है और जो हैं, उनकी हालत खस्ता है। मुम्बई शहर की कुल आबादी का साठ प्रतिशत हिस्सा झुग्गी बस्तियों में रहता है। यहाँ के 78 प्रतिशत सार्वजनिक शौचालयों में पानी की सुविधा नहीं है और 58 प्रतिशत बिजली से वंचित हैं। लोगों को पानी की व्यवस्था बाहर से ही करनी पड़ती है। बिजली न होने के कारण महिलाएँ व बच्चे इन शौचालयों का इस्तेमाल रात के समय नहीं करते हैं। इससे उनमें कई बीमारियाँ पनपती हैं। सार्वजनिक शौचालयों की संख्या इतनी कम है कि कहीं-कहीं तो 200 से ज़्यादा व्यक्तियों के ऊपर एक शौचालय है। जिस इलाक़े में दुर्घटना हुई है, वहाँ 5000 लोगों के लिए 22 शौचालय (एक यूनिट) थे। नरेन्द्र मोदी स्वच्छता अभियान के अपने भाषणों में जनता को अपना नज़रिया बदलने की सलाह देते हैं। कुछ विज्ञापन भी ऐसे आते हैं जिसमें दिखाया जाता है कि लोग मोबाइल तो इस्तेमाल करते हैं पर शौचालय इस्तेमाल नहीं करते। ऐसे विज्ञापन करने व कराने वालों को ऐसे सार्वजनिक शौचालयों में लाने की ज़रूरत है। यहाँ इतनी असहनीय बदबू होती है कि इंसान 10 मिनट मुश्किल से रुक पायेगा। ऊपर से ऐसी दुर्घटनाएँ होने का डर। ये दुर्घटना भी कोई पहली दुर्घटना नहीं थी। इससे पहले मानखुर्द में ही मार्च 2015 में एक शौचालय के धँसने से एक महिला की मौत हुई थी, 2016 में मालाड व गोरेगाँव में दो बच्चों की इसी तरह की घटना में मौत हो गयी थी। ऐसे में अगर लोग मजबूरी में खुले में शौच करने को मजबूर हैं तो वो लोगों की ग़लती नहीं है बल्कि इस सरकार और व्यवस्था का नाकारापन और बेशर्मी है।

सार्वजनिक शौचालय – एक मालदार उद्योग

मुम्बई के ज़्यादातर सार्वजनिक शौचालय बनाये तो म्हाडा या बीएमसी द्वारा जाते हैं पर उन्हें चलाने का ठेका एनजीओ या प्राइवेट कम्पनियों को दिया गया है। बेहद ग़रीब इलाक़े में एकदम जर्जर शौचालय के लिए भी ये ठेकेदार 2, 3 से 5 रुपया चार्ज लेते हैं। पूरी मुम्बई में सार्वजनिक शौचालयों से सालाना लगभग 400 करोड़ की कमाई होती है। जाहिर है कि ये इन कम्पनियों के लिए बेहद मुनाफ़़ेे का सौदा है जहाँ ख़र्च कुछ भी नहीं है और कमाई इतनी ज़्यादा है।

कब तक सहेंगे, यूँ चुप रहेंगे

मानखुर्द के इस इलाक़े में दुर्घटना के बाद लोग आक्रोशित होकर उसी दिन बाक़ी लाशों को निकालने की भी माँग कर रहे थे। तब उन पर पुलिस द्वारा लाठीचार्ज किया गया। इस घटना के बाद से वो सार्वजनिक शौचालय भी बन्द है और लोग मज़बूरी में 3 किलोमीटर दूर के दूसरे शौचालय में या फिर पास ही मौजूद खाड़ी में जाने को मजबूर हैं। न तो उसकी जगह नया सार्वजनिक शौचालय बनाने की बात हो रही है, न ही फ़ौरी तौर पर कोई मोबाइल शौचालय चलवाने की। आज ज़रूरत है कि यहाँ के सब लोग एकजुट होकर मृतकों के आश्रितों के लिए न सिर्फ़ मुआवजे की माँग करें बल्कि अपने इलाक़े में इस तरह की बेहद बुनियादी सुविधाएँ लागू करवाने के लिए एकजुट हों। अगर ऐसा नहीं करेंगे तो कोई भी नेता-मन्त्री आकर हमें अपने हक़-अधिकार नहीं देगा। कांग्रेस की सरकार हो या भाजपा की, वो तभी कुछ करेंगे जब जनता एकजुट होकर उन्हें मज़बूर करे।

 

 

मज़दूर बिगुल, फरवरी 2017


 

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