बहस को मूल मुद्दे पर एक बार फिर वापस लाते हुए

सम्पादक, बिगुल का पी.पी.आर्य को जवाब

प्रति,

साथी पी.पी. आर्य

10 अक्टूबर ’99

प्रिय साथी,

आपका 21 अगस्त’99 का पत्र 10 सितम्बर ’99 को प्राप्त हो चुका था। देर से उत्तर देने के लिए हमें खेद है, पर सितम्बर के महीने की राजनीतिक व्यस्तताओं के चलते और ‘बिगुल’ में कुछ अन्य विशेष सामयिक सामग्री देने की मजबूरी के चलते, हम आपका पत्र देर से छाप रहे हैं और उसका उत्तर देर से दे पा रहे हैं।

न चाहते हुए भी आपके जवाब पर एक सामान्य टिप्पणी :

* पॉलिमिक्स चलाने के बारे में ”मूल्यवान” नसीहतें देने की आड़ लेकर आपने अपने कुछ स्पष्ट आरोपों से मुकरने की कोशिश की है तथा लम्बा-चौड़ा पँवारा बाँधकर अपनी राजनीतिक लाइन के असली चरित्र पर पर्दा डालने तथा मतभेद के बुनियादी मुद्दों को लोकरंजक (Populist) जुमलेबाज़ियों, वक़ीलाना जिरहबाज़ी और हवाबाज़ी के सहारे किनारे धकेलने में कोई कसर नहीं उठा रखी है।

* आपने न केवल हमारी बातों को और ऐतिहासिक तथ्यों को भी भारी तोड़-मरोड़ के साथ प्रस्तुत किया है, बल्कि निहायत ग़लत और अप्रासंगिक ढंग से लम्बे उद्धरण पेश करके पाण्डित्य-प्रदर्शन करते हुए बहस को मूल प्रश्नों से भटकाने की कोशिश की है।

* आपकी बुनियादी पद्धति यह है कि जो-जो कुकृत्य ख़ुद करने हों, वही तोहमत अग्रिम तौर पर विरोधी पर मढ़ दो। मसलन, ख़ुद तथ्यों को तोड़ना-मरोड़ना हो तो पहले सामने वाले पर ही यह आरोप लगा दो; ख़ुद गालियों की बौछार करनी हो तो पहले सामने वाले पर ही यह आरोप लगा दो; या तो सर्वमान्य आम बातों की पुष्टि के लिए या फिर अप्रासांगिक ढंग से उद्धरणबाज़ी करके पाण्डित्य-प्रदर्शन करना हो तो पहले सामने वाले पर ही यह आरोप लगा दो; स्वयं बहस को (”आगे बढ़ाने” के नाम पर) मूल मुद्दे से दूर ले जाना हो तो पहले सामने वाले पर ही यह आरोप लगा दो।

‘पॉलिमिक्स’ की कार्यशैली के बारे में मजबूरन कुछ बातें

‘पॉलिमिक्स’ कैसे चलायी जाये? हम समझते हैं कि कम्युनिस्टों की आपसी बहस ‘अरुण जेटली-कपिल सिब्बल मार्का दूरदर्शनी बहस’ की तरह नहीं होनी चाहिए। यानी एक-एक तकनीकी नुक्ते – नुक्ते तक के नुक्ते क़ो उठाकर विरोधी को कोने में धकेलने की कोशिश में ग़लतबयानी तक करने की हदों तक पहुँच जाना और मतभेद के मूल मुद्दों को स्पष्ट करने से बचना या उन पर लीपापोती करना तथा जिन तर्कों का उत्तर न हो उन्हें किनारे धकेलकर नयी-नयी बातें करने लग जाना – यह तिकड़मबाज़ी है। तुर्की-ब-तुर्की, वाक्य-दर-वाक्य खण्डन-मण्डनात्मक शैली अपनाने के बजाय पहले ज़ेरे-बहस सामने आये मतभेद के बुनियादी मुद्दों को रेखांकित कर लिया जाना चाहिए – यानी बहस ‘पोज़ीशनल वारफेयर’ के रूप में होनी चाहिए, ‘गुरिल्ला वारफेयर’ के रूप में नहीं। राजनीतिक सूत्रीकरणों-विशेषणों को गाली या तोहमत नहीं समझना चाहिए और गालियों-तोहमतों को राजनीतिक सूत्रीकरणों के रूप में प्रस्तुत नहीं करना चाहिए। मूल मुद्दों पर अपने पूरे तर्कों को रखने के बाद ही शैली आदि के प्रश्न या विरोधी द्वारा प्रस्तुत उदाहरणों-साक्ष्यों की अप्रासंगिकता जैसे सवाल उठाये जाने चाहिए तथा आलोचना रखी जानी चाहिए। जिन मुद्दों पर विरोधी द्वारा प्रस्तुत तर्कों के उत्तर न हों उन्हें ईमानदारी के साथ स्वीकार करना और सोचना चाहिए। इसके बजाय ऐसा नहीं करना चाहिए कि अगली पारी में उन मुद्दों को ही दरकिनार कर दें, या उत्तर दिये जा चुके आरोपों को ही फिर से दुहरा दें या दूसरे सवाल उठाकर अपनी अवस्थिति की मूल विसंगतियों पर ही पर्दा डाल दें। विरोधी हमलों से बचने के लिए न तो दायें-बायें कूदना चाहिए और न ही हर अगले जवाब में अपनी पोज़ीशन में थोड़ा-सा खिसक लेने का अवसरवादी तरीक़ा इस्तेमाल करना चाहिए।

हम ये सारी बातें आम तौर पर नहीं, ख़ास तौर पर आपके सन्दर्भ में कर रहे हैं। ”पॉलिमिक्स कैसे चलायें” या ”अपने आपको सुधार लें” जैसी नसीहतें देने या शेखीबाज़ी करने के हम क़ायल नहीं हैं और न ही अपने को इसका हक़दार समझते हैं, पर हमें यह गहरी चिन्ता ज़रूर हो गयी है कि आप कहाँ जा रहे हैं और अपने सफ़र में कहाँ तक पहुँच चुके हैं!

थोड़ा रुककर, यथासम्भव वस्तुगत होकर सोचने के बाद हम इस नतीजे पर पहुँचते जा रहे हैं कि आप अहम्मन्यतापूर्वक अपनी बातों पर डटे रहने की शेखी बघारते हुए अपनी बुनियादी पोज़ीशन से दायें-बायें दोलन करते रहने की अवसरवादी पद्धति का सहारा ले रहे हैं। आप संयम व विवेक के साथ विरोधी बातों पर ग़ौर करने का माद्दा पूरी तरह खो बैठे हैं। बहस धीरे-धीरे ”अन्धो के आगे रोना, अपना दीदा खोना” की स्थिति में पहुँचती जा रही है। फिर भी हम एक बार फिर आपको बहस के बुनियादी मुद्दों और हमारे मतभेदों की याद दिलाने की कोशिश करेंगे। लेकिन इसके पहले मजबूरी यह है कि आपने बहस को मूल मुद्दे से ज्‍़यादा  से ज्‍़यादा दूर ले जाते हुए हमारे ऊपर तोहमतों का जो कचड़ा उड़ेलने की कोशिश की है, उनमें से कम से कम सबसे प्रमुख, सबसे भ्रमोत्पादक, सबसे धूर्ततापूर्ण और सबसे घटिया कुछ आरोपों के बारे में कुछ कहा जाये।

न चाहते हुए भी हम आपकी कुछ तकनीकी-क़ानूनी आपत्तियों-आरोपों की भी थोड़ी चर्चा करेंगे। हालाँकि यह चर्चा फिर संवाद को मूल मुद्दे से दूर ले जायेगी, पर यदि यह चर्चा न की जाये तो आपका और आपके बहुतेरे पूर्वाग्रही और ‘मुँदी आँखों वाले’ साथियों का ध्‍यान मूल मुद्दों पर जायेगा ही नहीं और आपका आत्मधर्माभिमान (Self-righteousness) आपकी विवेक-बुद्धि को सक्रिय ही नहीं होने देगा।

मिथ्यारोपों के बारे में

1. सबसे पहले स्पष्टीकरण आपकी पहली आपत्ति के बारे में। आपके पत्र की तिथि 6.5.99 की जगह 5.6.99 छप जाना विशुद्ध रूप से प्रूफ़ की ग़लती है जिसके लिए प्रेस का काम देखने वाले हमारे साथी ज़िम्मेदार हैं। हमें इस ग़लती के लिए हार्दिक खेद है। इस तकनीकी ग़लती का उल्लेख आपने यह सिद्ध करने के लिए किया है कि आपके पत्र का जवाब देने के लिए हमारे पास काफ़ी समय था और हमारा जवाब हमारी सोची-समझी अवस्थिति है। वैसे, आप यह तर्क न भी देते तो हम स्वयं स्वीकार करते हैं कि हमारा जवाब हमारी सोची-समझी अवस्थिति ही है। आपका जवाब देने के लिए हमारे पास पर्याप्त समय था यह भी सही है, हालाँकि यह ”पर्याप्त समय” हमने पहले से ही इसी काम के लिए आरक्षित नहीं रखा था।

वैसे इस तकनीकी ग़लती को निर्दिष्ट करने के पीछे आपका उद्देश्य शायद कुछ और ही है। इसे साफ़ करने के लिए हम कुछ और तथ्यों की ओर इंगित कर रहे हैं। आपके वर्तमान पत्र की तारीख़ 21 अगस्त ’99 है। हमें यह पत्र 10 सितम्बर को रजिस्टर्ड डाक से प्राप्त हुआ। पर हमें भेजने से पहले, अगस्त के अन्त तक आप यह पत्र पूरे तराई क्षेत्र में, दिल्ली व अन्यत्र बाँट चुके थे, जिसकी सूचना हमें वहाँ के साथियों से मिली। आपकी यह सोची-समझी कार्य-प्रणाली लगती है, पर आप इससे क्या सिद्ध करना चाहते हैं? इस मसले पर हम बस इतना ही कहना चाहते हैं कि कचहरी के मुकदमेबाज़ों की तरह ”केस खड़ा करने के लिए” तमाम तकनीकी तथ्यों, भूलों-ग़लतियों की आड़ में मतभेद के मूलभूत मुद्दों को दरकिनार कर देना ‘पॉलिमिक्स’ को संचालित करने की सही कार्यशैली कदापि नहीं हो सकती।

2. आपकी एक आपत्ति आपके पत्र को दिये गये शीर्षक को लेकर है। आपके अनुसार, ”किसी के पत्र को शीर्षक देना क़तई ग़लत नहीं है। परन्‍तु ईमानदारी का तकाज़ा यह है कि सम्‍पादक पत्र की मूल भावना के अनुरूप शीर्षक दे।” आपके ख़याल से हमने ऐसा न करके एक अनैतिक काम किया है और ‘बिगुल’ के पाठकों की निगाह में गिर गये हैं।

आइये देखें, सच्चाई क्या है। हमने आपके पत्र को शीर्षक दिया है, ”आप लोग कमज़ोर, छिछले कैरियरवादी बुद्धिजीवी हैं और ‘बिगुल’ हिरावलपन्थी अख़बार है!” क्या यह शीर्षक आपके पत्र की मूल भावना के प्रतिकूल है? आपने अपने पहले पत्र के शुरुआती हिस्से में ही (बिगुल, जून-जुलाई ’99, पृ. 5, पहला कॉलम, तीसरा पैरा) हम लोगों को ”ऐसे कमज़ोर व छिछले लोग” बताया है जो… ”आत्ममहानता की कुण्ठाओं में जीना पसन्द करते हैं।” यह तो शब्दश: उद्धृत करने की बात हुई, वास्तव में इस आशय के कई आरोप आपने पूरे पत्र में लगाये हैं। आम बुद्धिजीवी की स्थिति-मानसिकता के बारे में लेनिन का जो लम्बा उद्धरण आपने दिया है, वह यदि सर्वहारा क्रान्तिकारी संगठन से जुड़कर सक्रिय किसी भी बुद्धिजीवी पर लागू किया जाये, तो निस्सन्देह वह कैरियरवादी ही सिद्ध होगा। नाम से लेख लिखने वाले प्रसंग में भी छपास व शोहरत के भूखे जिन निकृष्ट व्यक्तिवादियों की आपने चर्चा की है, वह भी कोई हवा में चलाया गया तीर या यूँ ही कही गयी बात नहीं है। आपके ख़याल से ‘बिगुल’ में अपने मूल नाम से लिखने वाले लोग (और उन्हें छापने वाले सम्पादक भी) ऐसे ही कैरियरवादी बुद्धिजीवी हैं। हम ”कमज़ोर व छिछले” ”बुद्धिजीवी” ”आत्ममहानता की कुण्ठाओं में जीने” के साथ ही यदि लेनिन को ग़लत उद्धृत करते हुए ”पाठकों को झाँसा” देते हैं, तो भला हम ”कैरियरवादी” के अतिरिक्त और क्या हैं?

जहाँ तक शीर्षक के अगले वाक्यांश की बात है, तो यह तो आप भी स्वीकार करेंगे कि आपने ‘बिगुल’ को स्पष्टत: एक हिरावलपन्थी अख़बार कहा है क्योंकि यह मज़दूर वर्ग की चेतना के स्तर का ख़याल किये बग़ैर उस पर ”ऐसी बहुत सारी सामग्री लादने की कोशिश” करता है ”जो आन्दोलन की आवश्यकताओं से मेल नहीं खाती है।” आपने इसके लिए पर्याप्त तर्क भी दिये हैं (देखिये, आपका 6 मई, 99 का पत्र, बिगुल, जून-जुलाई ’99, पृ.6, दूसरा पैरा)। हमने आपके पत्र के इसी मूल मन्तव्य या प्रत्यारोप को – आपके पूरे पत्र की इसी मूल भावना को, शीर्षक में समेटा है। सारी तोहमतें लगाने के बाद आप इन्हें सूत्रबद्ध करने से घबराते क्यों हैं? यहाँ सवाल किसकी नैतिकता का है और आख़िर आप इस तरह के मनगढ़न्त आरोप क्यों लगा रहे हैं

 इसपर हम कुछ नहीं कहेंगे, क्योंकि तब आप फिर पिनपिनाने लगेंगे कि हम आप पर मनगढ़न्त आरोप लगा रहे हैं और गाली दे रहे हैं, और बहस फिर मूल मुद्दे से और अधिक दूर चली जायेगी।

3. आपकी एक आपत्ति यह है कि बुद्धिजीवियों के बारे में आपने (अपने 6 मई के पत्र में) लेनिन का जो लम्बा उद्धरण दिया है, उसमें से जान-बूझकर हमने उद्धरण चिह्न हटा दिये हैं, जिससे ये लगे कि ये बातें लेनिन की न होकर आपकी हैं। स्पष्ट कर दें कि आपका पत्र कोई नुक्ता तक लगाये बिना (सिर्फ़ शीर्षक देकर) कम्पोज़िंग के लिए दे दिया गया। हमें प्राप्त पत्र की फोटो प्रतिलिपि के सूक्ष्म-मद्धम उद्धरण चिह्नों पर कम्पोज़िटर द्वारा ग़ौर न किये जाने और प्रूफरीडर साथी की लापरवाही के कारण यह ग़लती हुई है, जिसका हमें खेद है। पर लेनिन की प्रसिद्ध पुस्तक के इस प्रसिद्ध उद्धरण को आपका कथन सिद्ध कर देने से भला हमारी अवस्थिति को क्या लाभ मिलता? इसमें नीयत में खोट आप किस रूप में निकाल रहे हैं? आप में प्रचुर विद्वता और अनुभव हो भी, तो हम आपके मुँह में लेनिन की बात ठूँसकर; आपको उनके समकक्ष रखने की हिमाक़त तो नहीं ही करेंगे।

4. आपका कहना है कि हमने अपने जवाब में आपको ”अनेक विशेषणों और मनगढ़न्त आरोपों से सुशोभित किया है।” आपने हमारे इन विशेषणों की एक सूची प्रस्तुत की है। हम आपसे विनम्रतापूर्वक दो बातें कहना चाहते हैं। पहली तो यह कि यदि ऐसे ही अलंकारों, विशेषणों को आपके दोनों पत्रों से छाँटकर, सन्दर्भहीन ढंग से सूची तैयार की जाये तो यह आप द्वारा प्रस्तुत सूची से बहुत अधिक लम्बी होगी।

दूसरी बात यह कि आप जैसों की राजनीतिक प्रवृत्ति के चरित्र-निरूपण के लिए जिस किसी भी राजनीतिक विशेषण का इस्तेमाल किया गया है, उसके लिए हमने बहस शुरू करते हुए दिये गये प्रारम्भिक सम्पादकीय आलेख (बिगुल, अप्रैल, 1999) में और आपके 6 मई ’99 के पत्र के प्रत्युत्तर (बिगुल, जून-जुलाई, 1999) में तफ़सील से तर्क दिये हैं। पहले ही लेख में हमने स्पष्ट रूप में कहा है किजिन लोगों की राय है कि मज़दूर वर्ग के बीच सीधे-सीधे विचारधारात्मक-राजनीतिक प्रचार की कार्रवाई से मज़दूर वर्ग के अख़बार को बचना चाहिए तथा महज़ आर्थिक संघर्षों के मुद्दों-कार्रवाइयों तथा नागरिक अधिकारों के इर्द-गिर्द लेख-टिप्पणियाँ, रपटें छापकर आम मज़दूरों की चेतना को थोड़ा ऊपर उठाने के बाद ही उनके बीच सीधे राजनीतिक प्रचार की कार्रवाई सम्भव है; जो लोग एक मज़दूर अख़बार का मुख्य लक्ष्य पाठक समुदाय (Target Reader Group) औसत और निचली चेतना की व्यापक मज़दूर आबादी को बताते हैं; जो लोग आर्थिक लड़ाइयाँ और यूनियनें खड़ी करने को ही ”सर्वोपरि क्रान्तिकारी काम” मानते हैं और सोचते हैं कि इसी के ज़रिये मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी के गठन और निर्माण का काम भी पूरा हो जायेगा, वे अर्थवाद और सामाजिक जनवाद की एक नयी मेंशेविक प्रवृत्ति के साथ ही अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी प्रवृत्ति के शिकार हैं। आपके 6 मई ’99 के पत्र का विश्लेषण करते हुए पुन: बिगुल (जून-जुलाई, 1999) में प्रकाशित अपने उत्तर में हमने तफ़सील से तर्क देते हुए बताया है कि हम आपको ”1999 के भारत का क्रीडो मतावलम्बी” और आपकी लाइन को अर्थवादी, सामाजिक जनवादी और अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी भटकाव से ग्रस्त मानते हैं। अब आपकी दिक्‍़क़त यह है कि पूरे तर्कों के बावजूद आप विरोधी के राजनीतिक सूत्रीकरणों-विशेषणों को हर हाल में गाली मानने पर अड़े हैं और सन्दर्भों से कटे हवालों तथा तोड़े-मरोड़े गये तथ्यों के आधार पर ख़ुद द्वारा किये गये गाली-गलौज को ‘स्वस्थ पॉलिमिक्स’ समझते हैं। आपके ऐसे ही आरोप पर अपना स्पष्टीकरण हम पहले भी दे चुके हैं।

5. ‘इस्क्रा’ और ‘प्राव्‍दा’ के बुनियादी चरित्र के सम्बन्ध में मूल मुद्दे को हल्का (dilute) करते हुए और बहकाते हुए लम्बे-चौड़े उद्धरण के द्वारा आपने पाण्डित्य-प्रदर्शन की कोशिश की है। उसकी चर्चा तो हम आगे करेंगे। लेकिन आपके उस घटिया आरोप पर स्पष्टीकरण ज़रूरी है, जिसके द्वारा आपने हमारे ऊपर ‘सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) का इतिहास’ को ग़लत उद्धृत करने की बात कही है। हमने ‘प्राव्‍दा’ के बारे में यह लिखा है कि उसने चौथी दूमा के चुनाव के पूर्व आगे बढ़े हुए कम्युनिस्टों को संगठित किया और मज़दूर वर्ग की आम क्रान्तिकारी पार्टी के रूप में बोल्शेविक पार्टी को ढालने के लिए प्राव्‍दा की कार्यनीति ने राजनीतिक रूप से सक्रिय मज़दूरों के अस्सी फ़ीसदी का समर्थन हासिल किया। एक वक़ील की तरह आपने उक्त पुस्तक से उद्धरण देते हुए प्रश्न उठाया है कि ‘परिणाम कैसे कारण बन गया है और कर्ता कैसे बदल गया है?’ हम आपकी सेवा में निवेदन करना चाहते हैं कि हमने ‘सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) का इतिहास’ (पृ. 181 से) हूबहू (Quote-unquote) उद्धरण नहीं लिया है, बल्कि ‘प्राव्‍दा’ के बारे में पृ. 176 से लेकर 184 तक दिये गये विवरण के आधार पर अपना निचोड़ प्रस्तुत किया है। पृ. 181 के जिस वाक्यांश को आपने प्रस्तुत किया है, वहाँ यह चर्चा हो रही है कि बोल्शेविकों ने विसर्जनवादियों की कार्यनीति के ख़िलाफ़ राजनीतिक तौर पर सक्रिय मज़दूरों में से 80 फ़ीसदी को बोल्शेविक पार्टी और प्राव्‍दा की कार्यनीति के साथ खड़ा कर लिया। यहाँ जब हम चर्चा प्राव्‍दा के चरित्र और भूमिका की कर रहे हैं तो उन्हीं पृष्ठों पर दी गयी सामग्री के आधार पर यह नतीजा निकालते हैं कि प्राव्‍दा ने राजनीतिक तौर से सक्रिय मज़दूरों के अस्सी फ़ीसदी का समर्थन हासिल किया, मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी खड़ी करने के लिए। वैसे सिर्फ़ बोल्शेविक पार्टी के इतिहास के उपरोक्त पृष्ठों के आधार पर ही नहीं, स्वयं आपने प्राव्‍दा के बारे में जो विवरण दिया है, उससे भी यही नतीजा निकलता है कि प्राव्‍दाने मज़दूर वर्ग की आम क्रान्तिकारी पार्टी खड़ी करने के लिए राजनीतिक रूप से सक्रिय मज़दूरों के व्यापक हिस्से को साथ लिया।

जहाँ हमने बोल्शेविक पार्टी के इतिहास के पृ. 181 से हूबहू (Quote-unquote) उद्धृत किया है, वहाँ कुछ नहीं सूझने पर आपने यह आरोप थोप मारा है कि हमने कुछ शब्दों पर अपनी ओर से ज़ोर दे दिया है और यह बताया नहीं है कि ज़ोर हमारा है न कि मूल पाठ का। सचमुच बड़ी क्षुब्धा करने वाली बात है! कोई भी पाठक यह सहज ही देख सकता है कि अपने पूरे उत्तर में, ‘बोल्ड’ अक्षरों द्वारा सर्वत्र (उद्धरणों में भी) अपने ही ज़ोर को रेखांकित किया गया है और इसीलिए कहीं भी ”ज़ोर हमारा” और ”ज़ोर लेखक का” लिखने की ‘स्टाइल’ नहीं चलायी गयी है। बहुधा, यदि लेख में आये उद्धरणों में ज़ोर वाले हिस्से न हों या उनकी चर्चा का कोई विशेष महत्व न हो या आप कोई दस्तावेज़ न लिख रहे हों तो लेखक ऐसी शैली अपना लेते हैं जो हमने चलायी है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उपरोक्त दोनों विकृतिकरण का जो आरोप आपने लगया है, उनके न होने पर भी हमारे बुनियादी तर्क पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा है। लेकिन आपको चूँकि इसी तरह की नुक्ताचीनी और घटिया आरोपों की आड़ में बुनियादी बात को दरकिनार करके क़ानूनची बुद्धिजीवियों और कम समझ वाले कार्यकर्ताओं को गफ़लत में डाल देना है, इसलिए आपने ऐसा करने की कोशिश की है।

इसी तरह की आपकी कुछ क़ानूनची-शैली में उठायी गयी आपत्तियाँ हैं, पर इनकी अलग से चर्चा करने पर कुछ और पृष्ठ ख़र्च करने के बजाय हम इनकी चर्चा वहीं करेंगे, जहाँ विशिष्ट सन्दर्भों में ये हवाले आये हैं।

‘मास पोलिटिकल पेपर’ (Mass Political Paper)

इस उपशीर्षक के अन्तर्गत आपने अपने पत्र में हमारे ऊपर सबसे पहले यह आरोप लगाया है कि हमारे मुताबिक़ ‘मास पोलिटिकल पेपर’ शब्द कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के शब्दकोश में होना ही नहीं चाहिए और यह कि हम इसे सामाजिक-जनवाद की अभिव्यक्ति मानते हैं।

यह सरासर एक ग़लतबयानी है। या तो आप अपने विरोधी की बात पढ़ते-सुनते समय हद दर्जे के मनोगतवादी हो जाते हैं या फिर आपकी यह मजबूरी है कि अपनी बातों को सिद्ध करने के लिए आप तथ्यों को तोड़ें-मरोड़ें। आइये, ‘बिगुल’ के जून-जुलाई ’99 अंक में पृ. 5-6 पर प्रकाशित आपके 6 मई ’99 के पत्र और पृ. 6-7-8 पर प्रकाशित हमारे प्रत्युत्तर के सन्दर्भित हिस्सों को एक बार फिर देखें।

आपने अपने पत्र में (कॉलम 3, पैरा 3-4) में यह सवाल उठाया है कि हम ‘बिगुल’ को भारत के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों (या उनके एक ग्रुप) का मुखपत्र मानते हैं? आपके इस प्रश्न का हमने जो उत्तर दिया है उस पर फिर से ग़ौर कीजिये। आपने ‘पार्टी ऑर्गन’ और ‘मास पोलिटिकल पेपर’ – इन दो प्रवर्गों को एक-दूसरे के आमने-सामने खड़ा किया था और इस पर हमारा कहना था, ”’मास पोलिटिकल पेपर’ शब्‍द का इस्‍तेमाल सामाजिक जनवादियों की छिछोरी शैली में न करें। कम्‍युनिस्‍ट पार्टियों के ‘मास पोलिटिकल पेपर’ उनके ‘एजिटेशनल ऑर्गन’ ही हुआ करते हैं।”

बात को और स्पष्ट करें। आपका स्पष्ट कहना था (अब आप अपनी इस अवस्थिति में भी गोलमाल कर रहे हैं) कि एक पत्र या तो ‘पार्टी ऑर्गन’ हो सकता है या ‘मास पोलिटिकल पेपर।’ हमने इस सोच को सामाजिक जनवादी बताया था। देखिये, कितने सलीक़े और चतुराई से आपने तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा है। हमारा कहना है कि ‘मास पोलिटिकल पेपर’ पार्टी का ‘एजिटेशनल ऑर्गन’ हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। जैसेकि एक ट्रेडयूनियन का मुखपत्र या एक सोवियत का मुखपत्र भी ‘मास पोलिटिकल पेपर’ की श्रेणी में ही आता है। पर वह ‘पार्टी ऑर्गन’ नहीं होता। दूसरी ओर, ‘प्राव्‍दा‘ एक ‘मास पोलिटिकल पेपर’ था, पर वह एक ‘एजिटेशनल पार्टी ऑर्गन’ भी था। पार्टी का ‘एजिटेशनल ऑर्गन’ अपने आदर्श रूप में ‘मास पोलिटिकल पेपर’ ही हो सकता है, अब यह एक दीगर बात है कि किन्हीं प्रतिकूल या प्रारम्भिक स्थितियों में वह पत्र ग़ैरक़ानूनी हो या उसका पाठक समुदाय सीमित हो अथवा किन्हीं अनुकूल या उभार की स्थितियों में, पत्र क़ानूनी हो या उसका बहुत बड़ा पाठक समुदाय हो। अपने पत्र के उसी हिस्से में हमने स्पष्टत: ज़ोर देकर लिखा है, ”प्राव्‍दा बोल्शेविकों का दैनिक समाचारपत्र था। वह पार्टी का मज़दूरों के लिए निकाला जाने वाला ‘एजिटेशनल ऑर्गन’ था।” इतनी स्पष्टता के बावजूद आप हमारी बातों को तोड़-मरोड़कर जो मनमाना अर्थ निकालते हैं, उसका क्या मतलब निकाला जाये?

अपने इसी उपशीर्षक के अन्तर्गत आपने ‘बिगुल का स्वरूप, उद्देश्य और ज़िम्मेदारियाँ’ शीर्षक से हर अंक में छपने वाली स्थायी सामग्री से यह पहला वाक्य उद्धृत किया है, ”बिगुल व्‍यापक मेहनतकश आबादी के बीच क्रान्तिकारी राजनीतिक शिक्षक और प्रचारक का काम करेगा।” फिर आप सवाल उठाते हैं कि ‘बिगुल‘ के स्वघोषित उद्देश्यों के हिसाब से क्या इसे एक ‘मास पोलिटिकल पेपर’ कहना ग़लत है? हमारा यह प्रतिप्रश्न है कि हमने ऐसा कहाँ कहा है? हमारा कहना यह है कि ‘मास पोलिटिकल पेपरएक व्यापक और ढीला (loose) प्रवर्ग है और इसे ‘पार्टी ऑर्गन’ के प्रवर्ग के आमने-सामने खड़ा करके सवाल पूछने के पीछे का बोध (perception) ग़लत है। जब हमने साफ़-साफ़ पिछले उत्तर में ही लिखा है कि ”बिगुल मज़दूर वर्ग के लिए निकाला जाने वाला ‘एजिटेशनल ऑर्गन’ है”, तो स्पष्टत: हम इसे एक ‘मास पोलिटिकल पेपर’ मानते हैं। यूँ तो ”श्रेणी-विभाजन प्रेम” की तोहमत आगे अपने पत्र में आप हमारे ऊपर ही लगा देते हैं, पर वस्तुत: ‘प्रोपेगैण्डा’ और ‘एजिटेशन’ के बीच आप जिस तरह ‘चीन की दीवार’ खड़ी करने का शौक़ रखते हैं उसे देखते हुए यह भी स्पष्ट करना यहाँ ज़रूरी लगता है कि ‘एजिटेशनल ऑर्गन’ होने का लक्ष्य लेकर चलते हुए भी वस्तुगत स्थितियों के दबावों-तकाज़ों के नाते ‘बिगुल‘ का जो स्वरूप सामने है वह (सीमित हदों तक) ‘एजिट-प्रॉप ऑर्गन‘ का है।

आपने अपने 21 अगस्त के पत्र में (‘मास पोलिटिकल पेपर’ उपशीर्षक के अन्तर्गत) हमारे ऊपर आरोप लगाया है कि हम ज़बरदस्ती आपके मुँह में वे बातें ठूँस रहे हैं जो आपने कही ही नहीं हैं और यह ग़लत आरोप लगा रहे हैं कि आप सीधे-सीधे क्रान्तिकारी विचारधारा और राजनीति के प्रचार के ख़िलाफ़ हैं जबकि आपने अपने 6 मई के पत्र के दूसरे-तीसरे पैराग्राफ में अपनी बात स्पष्ट कर दी है।

जनाब, आप फिर ग़लतबयानी करते हुए ग़लत आरोप लगा रहे हैं। अपने पूर्व-पत्र के दूसरे-तीसरे पैराग्राफ में सैद्धान्तिक तौर पर ‘बिगुल‘ के घोषित उद्देश्य से आप दिखावटी सहमति ज़ाहिर करते हैं और मज़दूर आन्दोलन के लिए ऐसे अख़बार की ज़रूरत भी बताते हैं, पर आपके ख़याल से (आन्दोलन के स्तर और ज़रूरत का ख़याल किये बिना आन्दोलन की आवश्यकताओं से बेमेल सामग्री लादते रहने के कारण) ‘बिगुलअपने घोषित उद्देश्यों को ही पूरा नहीं करता। आन्दोलन की आवश्यकताएँ क्या हैं और बिगुलकी सामग्री बेमेल कैसे है? आप ही के उक्त पत्र में (बिगुल, जून-जुलाई ’99, पृ. 5, चौथा कॉलम, पहला पैरा) आगे स्पष्टत: यह कहने की कोशिश की गयी है कि मज़दूर आन्दोलन में समाजवाद के सीधे-सीधे प्रचार की गुंजाइश तब बहुत बढ़ जाती है जब समाजवादी बातों की ग्राह्यता बहुत अधिक होती है, जबकि भारत में आज इसके एकदम विपरीत स्थिति है… आदि-आदि। इसी पैराग्राफ में आपने हमारे ऊपर स्थान-काल की अनदेखी का आरोप लगाते हुए लेनिन का उद्धरण देते हुए यह भी कहा है कि रूस में आन्दोलन की प्रारम्भिक अवस्थाओं में (और आपके ख़याल से भारत का मज़दूर आन्दोलन चूँकि बहुत पीछे हटा है अत: प्रारम्भिक अवस्थाओं में जा पहुँचा है!) कम्युनिस्टों को प्राय: सांस्कृतिक कार्यों और आर्थिक कार्यों में ही जुटे रहना पड़ता था। आपके पत्र के इस हिस्से से क्या यह बात एकदम साफ़ नहीं है कि आप आज के भारतीय मज़दूर आन्दोलन में ”समाजवादी बातों” के सीधे-सीधे प्रचार के ख़िलाफ़ हैं, क्योंकि उनकी ग्राह्यता घट गयी है और यह कि आप आज सांस्कृतिक-आर्थिक कार्यों पर ज़ोर की बात जैसा कुछ कहना चाहते हैं? तब क्या ‘बिगुल‘ के घोषित उद्देश्य से पत्र के शुरू में दिखायी गयी आपकी सहमति फर्ज़ी नहीं है?

दिलचस्प बात तो यह है कि ठोस हवालों-उदाहरणों से आपने कहीं भी यह स्पष्ट नहीं किया है कि ‘बिगुल‘ में मज़दूर वर्ग के बीच सर्वहारा क्रान्ति, सर्वहारा वर्ग की पार्टी की अनिवार्यता और सर्वहारा क्रान्ति की विचारधारा के प्रचार के लिए जिस तरीक़े की सामग्री दी जाती है, वह मज़दूर आन्दोलन की आज की ज़रूरतों से बेमेल कहाँ और किस प्रकार है? ‘बिगुल’ की ‘फ़ाइल’ के आधार पर यदि छपने वाली सामग्री का प्रवर्गीकरण किया जाये तो मोटे तौर पर इतने प्रवर्ग दीखते हैं : * विश्व पूँजीवाद आज दुनिया के विभिन्न हिस्सों में आर्थिक लूट और दमन का जो कुचक्र रच रहा है, उसपर विशिष्ट घटनाओं-प्रसंगों के सन्दर्भ में संक्षिप्त चर्चा * दुनिया के पैमाने पर और हमारे देश के पैमाने पर उदारीकरण-निजीकरण की नीतियाँ सर्वहारा वर्ग पर और पूरी जनता पर जो कहर बरपा कर रही हैं, उनकी सामान्य और विशिष्ट चर्चा * विश्व पूँजीवाद के तथा भारतीय पूँजीवाद के संकट की और क्रान्तिकारी विकल्प की चर्चा * अपने देश की बुर्जुआ राजनीति और अहम नीतियों-फैसलों की चर्चा, मज़दूर वर्ग को उसके फौरी तथा दूरगामी कार्यभारों की याद दिलाना तथा इसी के लिए राज्यसत्ता, संसद, सरकार, समाज व्यवस्था आदि के बारे में शिक्षा * देश के अलग-अलग हिस्सों में चल रहे मज़दूर आन्दोलनों की चर्चा-विश्लेषण के बहाने शिक्षा और प्रचार-एजिटेशन * ‘बिगुल’ से जुड़े कार्यकर्ताओं से प्राप्त मज़दूर आन्दोलनों और क्षेत्र-विशेष के मज़दूरों की जीवन-स्थितियों पर रपटें * मज़दूर पाठकों के पत्र-प्रतिक्रियाएँ-सुझाव * संसद, पूँजीवादी दलों, सरकार और राज्यसत्ता का, तथा फासीवाद, अन्धाराष्ट्रवाद आदि प्रवृत्तियों का भण्डाफोड़ और विश्लेषण * पूँजीवादी मीडिया का भण्डाफोड़ और विश्लेषण * दक्षिणपन्थी अवसरवाद, सुधारवाद, ट्रेडयूनियनवाद आदि का भण्डाफोड़-विश्लेषण * जयन्तियों-वर्षगाँठों के अवसर पर मज़दूर वर्ग को दुनिया की सर्वहारा क्रान्तियों, सर्वहारा शिक्षकों की महान विरासत, मज़दूर आन्दोलन के इतिहास से परिचित कराना * मार्क्‍सवादी क्लासिक्स से सरल शिक्षोपयोगी सामग्री छाँटकर और सर्वहारा वर्ग के महान नेताओं के लेखन से प्रासंगिक और उपयोगी लेखों/अंशों का नियमित प्रकाशन * स्त्री प्रश्न पर सुबोध सामग्री * रचनात्मक सर्वहारा साहित्य (कविताएँ, कहानियाँ आदि), * मज़दूर वर्ग की विचारधारा, पार्टी और सर्वहारा क्रान्ति की अपरिहार्यता के बारे में वैचारिक लेख व टिप्पणियाँ… आदि-आदि।

यह एक संक्षिप्त खाका है। हमारी कोशिश इसी फ्रेमवर्क के ज़रिये मज़दूर वर्ग तक विचारधारात्मक-राजनीतिक सामग्री पहुँचाने की होती है। हाँ, यह तय है कि अख़बार घोषित तौर पर मार्क्‍सवादी हैपर सीधे-सीधे विचारधारात्मक सामग्री देने का काम इसके कुछ एक स्तम्भों द्वारा ही होता है। यह भी तय है कि अख़बार मुख्यत: उन्नत चेतना के मज़दूरों को और गौणत: उससे नीचे के दरमियाने या औसत चेतना के मज़दूरों को सम्बोधित करता है। इस अख़बार के सहारे शिक्षित कार्यकर्ता व उन्नत मज़दूर मुँहज़बानी प्रचार, गेट मीटिंगों, जनसम्पर्कों, पर्चों, छोटी-छोटी पुस्तिकाओं आदि के द्वारा औसत और निम्न चेतना के मज़दूरों को शिक्षित करते हैं तथा इस प्रक्रिया में अपनी सांगठनिक कुशलता विकसित करते हैं। अख़बार से जुड़े ऐसे कार्यकर्ताओं तथा उन्नत मज़दूरों के बीच से विकसित कार्यकर्ताओं का विकसित होता हुआ ताना-बाना पार्टी-निर्माण की इमारत खड़ी करने में निर्माणाधीन इमारतों के इर्दगिर्द खड़े बल्लियों के ढाँचे (लेनिन द्वारा निरूपित रूपक) का काम करे – यह हमारा बोध रहा है। इसमें हमारी सफलता-असफलता और सीमाएँ क्या रही हैं, यह एक अलग चर्चा का विषय है।

हम कहना यह चाहते हैं कि आप यदि ठोस उदाहरणों से यह बता पाते कि हम मज़दूर आन्दोलन की साम्प्रतिक आवश्यकताओं से बेमेल सामग्री किस रूप में दे रहे हैं, तब शायद आपकी ठोस आलोचना हमें ”सुधरने” में कोई ठोस भूमिका भी निभा पाती। पर अमूर्त, बिना किसी आधार के की जाने वाली बातों से यह उद्देश्य पूरा नहीं होता। हाँ, इसी प्रक्रिया में मज़दूर अख़बार के स्वरूप, भूमिका आदि के बारे में आपके जो तर्क सामने आते हैं, उनमें हमें ख़तरनाक क़िस्‍म के भटकाव नज़र आते हैं।

एक बार फिर ‘प्रोपेगैण्डा’/’एजिटेशन’ का प्रश्न, एक बार फिर ‘इस्क्रा’, ‘प्राव्‍दा’ के उदाहरणों से सम्‍बन्धित विवाद

आपने अपने पहले पत्र में सवाल यह उठाया था कि ‘बिगुल’ भारत के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों का मुखपत्र है या यह एक ‘मास पोलिटिकल पेपर’ है? अब आप कह रहे हैं कि आपका आशय यह था कि ‘बिगुल’ का पाठक-समूह कौन है? यही तो हमारा कहना है कि आपका प्रश्न आपका आशय नहीं स्पष्ट कर रहा था बल्कि यह दर्शाता था कि ‘पार्टी ऑर्गन्स’ के स्वरूप और ‘मास पोलिटिकल पेपर’ के बारे में आप स्पष्ट नहीं हैं। इसीलिए हमने यह ज़रूरी समझा कि अलग-अलग प्रकृति के पार्टी ऑर्गन्स के सन्दर्भ में इतिहास के हवाले से संक्षिप्त चर्चा करते हुए अपनी बात स्पष्ट करें। लेकिन आपको फिर बुरा लग गया है और आपने हमारे ऊपर ”तरह-तरह के ऑर्गन पर एक लम्बा व्याख्यान दे डालने” का आरोप लगाते हुए हमारी ”मौलिक प्रस्थापनाओं” को (बिना उनका खण्डन या आलोचना किये) स्वीकारने से इन्कार कर दिया है। ”सदाशयता” दिखाते हुए आपने बहस संचालित करने के लिए अपनी ओर से कोई प्रस्थापना देने से इन्कार कर दिया है, और ‘प्रोपेगैण्डा-एजिटेशन‘ के बारे में लेनिन की ही दी हुई परिभाषा को आधार बनाने का हमसे अनुरोध करते हुए ‘क्या करें‘ पुस्तक (पृ. 91) से उद्धरण दिया है।

अफ़सोस यह है कि हम आपके इस अनुरोध को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि आपने जो उद्धरण दिया है वह हमारी बहस के सन्दर्भ में सर्वथा अप्रासंगिक है और जहाँ आपने इस उद्धरण को छोड़ा है, उसका अगला ही वाक्य इस उद्धरण की अप्रासंगिकता और आपकी चालाकी को साफ़ कर देता है। ‘क्या करें‘ (पृ. 91) से उद्धृत अंश को आप अपने ”मनलायक अंश” पर अपना ज़ोर लगाते हुए इस वाक्य पर छोड़ देते हैं : ”…इस घोर अन्याय के विरुद्ध आन्दोलनकर्ता जनता में असन्तोष और ग़ुस्सा पैदा करने की कोशिश करेगा तथा इस अन्तरविरोध का और पूर्ण स्पष्टीकरण करने का काम वह प्रचारक के लिए छोड़ देगा।” हम इसके ठीक आगे का महज़ एक वाक्य और उद्धृत कर रहे हैं, ”अतएव प्रचारक मुख्यतया छपी हुई सामग्री का उपयोग करता है और आन्दोलनकर्ता जीवित शब्दों का प्रयोग करता है।” (ज़ोर स्वयं लेनिन का)

लेकिन एजिटेशनल अख़बार तो जीवित शब्द नहीं, छपी हुई सामग्री होता है! ज़ाहिर है, लेनिन यहाँ एक विशेष सन्दर्भ में ‘प्रोपेगैण्डिस्ट’ और ‘एजिटेटर’ संगठनकर्ताओं की विशिष्टताओं की चर्चा कर रहे हैं। इन्हें हूबहू उठाकर ‘प्रोपेगैण्डा ऑर्गन’ और ‘एजिटेशनल ऑर्गन’ पर चस्पाँ कर देना और फिर निहायत अनुभववादी ढंग से उन मानकों को लागू करने की ज़िद पकड़ लेना शायद कठमुल्लावादी मूर्खता होगी। एक ‘एजिटेटर’ अपने भाषण में जिस अन्तरविरोध पर लोगों के सामने बस एक विचार रखने का काम करेगा, उस पर एक ‘एजिटेशनल पेपर’ भी महज़ इतना ही नहीं करेगा। ‘बिगुल’ ”जीवित शब्द” नहीं एक अख़बार है जो सीमित हद तक विश्लेषण भी प्रस्तुत ही करेगा।

चूँकि ‘बिगुल’ व्यापक मेहनतकश आबादी के बीच क्रान्तिकारी राजनीतिक शिक्षक और प्रचारक” की भूमिका की बात करता है अत: आपका कहना है कि ”जिस दिन बिगुल व्यापक मेहनतकश आबादी के बीच क्रान्तिकारी राजनीतिक शिक्षा और प्रचार को अपने उद्देश्य व ज़िम्मेदारी के बतौर गिनाना बन्द कर देगा, उस दिन हम ‘बिगुल’ से वे अपेक्षाएँ रखना बन्द कर देंगे जो एक ‘मास पोलिटिकल पेपर’ से रखी जाती हैं।” आगे ‘बिगुल’ को (स्वघोषित उद्देश्य के हिसाब से) ‘प्राव्‍दा’ जैसे पत्र की श्रेणी में रखते हुए आप लिखते हैं कि ”’इस्क्रा’ का पाठक समूह कहीं से भी ‘व्यापक मेहनतकश आबादी’ नहीं थी। व्यापक मेहनतकश आबादी को ‘एजिटेट’ करना कहीं से भी ‘इस्क्रा’ की मूल ज़िम्मेदारी नहीं थी।” आपके कई मूल विभ्रमों की जड़ इसी प्रसंग में है। पहली बात तो यह कि जब हम ‘बिगुल’ के स्वरूप, उद्देश्य और ज़िम्मेदारियों की चर्चा करते हुए कहते हैं कि यह ”व्यापक मेहनतकश आबादी के बीच क्रान्तिकारी राजनीतिक शिक्षक और प्रचारक का काम करेगा।” और यह कि ”बिगुल मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी शिक्षक, प्रचारक और आह्वानकर्ता के अतिरिक्त क्रान्तिकारी संगठनकर्ता और आन्दोलनकर्ता की भी भूमिका निभायेगा” तो हम यहाँ ‘बिगुल’ के पाठक समुदाय की बात नहीं कर रहे हैं। व्यापक मेहनतकश अवाम के हर ‘क्रॉस-सेक्शन’ के बीच ऐसा कोई भी अख़बार सीधे-सीधे शिक्षक, प्रचारक, आह्वानकर्ता, संगठनकर्ता और आन्दोलनकर्ता के रूप में नहीं जाता। ऐसा अख़बार संगठनकर्ताओं की टोली के माध्‍यम से और मज़दूरों के उन्नत संस्तरों तक पहुँचकर फिर उनके ज़रिये ही व्यापक मेहनतकश आबादी तक अपनी बात पहुँचा पाता है और व्यापक मेहनतकश अवाम को ‘एजिटेट’ करने का काम कर पाता है। यह बात हमारी अपनी मौलिक खोज नहीं बल्कि लेनिन की ही मूल प्रस्थापना है और पहले भी ‘बिगुल’ के पन्नों पर एकाधिक बार स्पष्ट की जा चुकी है।

आपने हमारे मुँह में अपनी बातें ठूँसने के लिए क्या-क्या कारस्तानियाँ की हैं, इसका एक उदाहरण देखिये। आपने लिखा है कि हमने‘प्राव्‍दा’ और ‘इस्क्रा‘ दोनों को ‘एजिटेशनल’ अख़बार बताया है और यह स्थापना दी है कि दोनों एक ही तरह के अख़बार थे। जबकि हमने स्पष्टत: लिखा है कि ”’इस्क्रा’ भी बोल्शेविकों का मूलत: ‘एजिटेशनल’ या एक हद तक ‘एजिट-प्रॉप’ श्रेणी का ‘ऑर्गन’ ही था।” ‘इस्क्रा’ और ‘प्राव्‍दा’ के फ़र्क़ के बारे में आपने कई तरह से, बार-बार हमारी बातों को तोड़ा-मरोड़ा है। अत: इस मसले पर हम अपनी बात फिर से स्पष्ट करना ज़रूरी समझते हैं।

पहली बात तो यह कि एजिटेशनल/प्रोपेगैण्डा और पार्टी ऑर्गन्स के बारे में लम्बा भाषण देने का आरोप हमारे ऊपर मत लगाइये। ‘इस्क्रा’‘प्राव्‍दा’ के उदाहरणों की शुरुआत आपने की है तो फिर हमें अपनी बात स्पष्ट करने की इजाज़त तो आपको देनी ही चाहिए।दूसरी बात, हमने बार-बार स्पष्ट किया है कि दोनों प्रकार के ऑर्गन्स के बीच और उनके कार्यभारों के बीच कोई चीन की दीवार नहीं होती, पर आप हमारे ऊपर श्रेणी-विभाजन प्रेमी होने का आरोप थोप रहे हैं, जिसके कि आप स्वयं बुरी तरह शिकार हैं।

समग्र रूप में, लेनिन का यह कहना सही है कि ”कम्युनिस्ट अख़बार को हमारा सर्वोत्तम आन्दोलनकर्ता (एजिटेटर) और सर्वहारा क्रान्ति का नेतृत्वकारी प्रचारक बनना चाहिए।” पर इसका मतलब यह नहीं कि सभी कम्युनिस्ट अख़बार बराबर-बराबर ‘एजिटेटर’ और ‘प्रोपेगैण्डिस्ट’ होते हैं। फिर भी मुख्य पहलू के हिसाब से श्रेणी-निर्धारण होता ही रहा है। रूस में भी हुआ था। ‘इस्क्रा’ और ‘ज़ार्या‘ या ‘प्राव्‍दा’ और ‘ज़्वेज़्दा’ के बीच के फ़र्क़ को तो आप भी स्वीकार करेंगे।

जब बोध के धरातल पर एक अखिल रूसी पार्टी अख़बार के रूप में ‘इस्क्रा’ के प्रकाशन की बात हुई थी तो उसका स्वरूप मूलत: ‘एजिटेशनल’ ही तय हुआ था और ‘ज़ार्या’ का मूलत: ‘प्रोपेगैण्डा’। यह आप भी मानते हैं। बाद की परिस्थितियों में ‘इस्क्रा’ का जो स्वरूप बना वह एक ‘एजिट-प्रॉप’ ऑर्गन का था। पर यह स्थितियों की बात थी, न कि ‘कहाँ से शुरुआत करें’ और ‘क्या करें’ में प्रस्तुत बोध की ग़लती थी। ‘इस्क्रा’ के टारगेट रीडर ग्रुप कम्युनिस्ट और उन्नत मज़दूर (‘मज़दूर बौद्धिक’) थे, पर उनके माध्‍यम से‘इस्क्रा’ व्यापक मेहनतकश आबादी के शिक्षक-प्रचारक की तथा संगठनकर्ता-आन्दोलनकर्ता की ऐतिहासिक भूमिका निभा रहा था। चूँकि ठोस स्थितियों में ‘ज़ार्या‘ के कम ही अंक (तीन अंक) निकले, अत: ‘इस्क्रा’ की भूमिका ‘प्रोपेगैण्डा’ और ‘पॉलिमिक्स’ चलाने की भी बनी, पर वह साथ-साथ अपनी पूर्वनिर्धारित भूमिका का भी निर्वाह करता रहा। यानी, जैसाकि हमने पहले स्पष्ट किया है, ‘इस्क्रा’का चरित्र कुल मिलाकर ‘एजिट-प्रॉप’ प्रकृति के ऑर्गन के रूप में सामने आया।

जब ‘प्राव्‍दा’ का प्रकाशन शुरू हुआ तो रूस में कम्युनिस्ट आन्दोलन एक उन्नत मंज़िल में पहुँच चुका था। पार्टी-निर्माण व पार्टी-गठन का कार्य बहुत आगे की मंज़िल में पहुँच चुका था। मेंशेविकों से पीछा छुड़ाकर बोल्शेविक अपनी अलग पार्टी बना चुके थे। मज़दूरों की भारी आबादी कम्युनिस्टों की तरफ आकृष्ट हो चुकी थी। ‘इस्क्रा’ काल की अपेक्षा मज़दूरों के तीनों संस्तरों की चेतना जगी हुई और उठान की स्थिति में थी तथा उन्नत और औसत संस्तर के मज़दूरों की संख्या भी बहुत अधिक हो चुकी थी। तब एक ऐसे पत्र की ज़रूरत थी जो मुख्यत: उन्नत और फिर औसत चेतना के मेहनतकशों को सम्बोधित करते हुए भी जगी हुई मेहनतकश आबादी के एक बहुत बड़े हिस्से तक पहुँचे। ‘प्राव्‍दा’ ने इसी काम को अंजाम दिया। इसलिए वह आदर्श रूप में एक ‘मास पोलिटिकल पेपर’ (एजिटेशनल ऑर्गन) के रूप में दिखायी पड़ता है। पर हम यहाँ एक बार फिर लेनिन के उस प्रसिध्द उद्धरण की याद दिलाना चाहते हैं जिसमें उन्होंने‘प्राव्‍दा’ को सड़क चलते उन लाखों आम मज़दूरों के लिए, ”जो अभी आन्दोलन के दायरे में नहीं खिंच पाये हैं”, ”बहुत महँगा, बहुत कठिन और बहुत बड़ा” बताया है और उनके लिए सस्ता, छोटा और व्यापक सर्कुलेशन वाला ‘वेचेर्नाया प्राव्‍दा‘ प्रकाशित करने की बात की है। आप हमारे इस हवाले को एकदम गोल कर गये हैं और लम्बे उद्धरण के ज़रिये न जाने क्या सिध्द करने के लिए ‘प्राव्‍दा’की स्थापना और भूमिका की गाथा सुनाने लगे हैं।

आपका कहना है कि ‘बिगुल’ ‘व्यापक मेहनतकश आबादी’ के बीच शिक्षक-प्रचारक की अपनी स्वघोषित भूमिका के हिसाब से एक ‘मास पोलिटिकल पेपर’ है और इसकी भूमिका ‘प्राव्‍दा’ जैसी होनी चाहिए और इसके ऊपर लेनिन के उस लेख की बात लागू नहीं होती जिसमें उन्होंने मज़दूर अख़बार का मुख्य ‘टारगेर रीडर ग्रुप’ उन्नत संस्तर के मज़दूर को माना है। लेनिन की वह बात ‘इस्क्रा’जैसे पत्र पर ही लागू होती है।

हम जो बताने की कोशिश कर रहे हैं वह यह कि आप बलपूर्वक मनमाने मानक निर्धारित करके ‘बिगुल’ पर ‘प्राव्‍दा’ का फ्रेम थोप रहे हैं। यूँ तो ऐतिहासिक दौरों के बीच की तुलना भी हर तुलना की तरह लँगड़ी होती है, पर फिर भी जिस हद तक तुलना सम्भव है, उस हद तक करने पर यही कहा जा सकता है कि भारत का क्रान्तिकारी वामपन्थी आन्दोलन आज वैसे ही कार्यभारों के दौर में है जैसाकि ‘इस्क्रा’ के दौर में था। किसी भी तरह से हम वैसे दौर में नहीं हैं जो ‘प्राव्‍दा’ का दौर था। स्वयं आप ही के लम्बे उद्धरण में‘प्राव्‍दा’ के जिस चरित्र और उसके जिन कामों की चर्चा है, वे किसी भी तरह से आज हमारे सामने नहीं हैं। आज कुछ वैसे ही कार्यभार ज़रूर हमारे सामने हैं जिन्हें अंजाम देने के लिए ‘इस्क्रा’ जैसे एक अख़बार की योजना लेनिन ने प्रस्तुत की थी। पर कोई भी तुलना इतनी हूबहू नहीं होती कि किसी चीज़ की नक़ल करने की कोशिश की जाये। इतिहास से बोध और धारणा के धरातल पर सीखा जा सकता है न कि अन्धानुकरण किया जाता है। आज हमारे देश में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के बीच गम्भीर सैद्धान्तिक-वैचारिक बहस चलाने के लिए और उन्नत संगठनकर्ताओं को सामग्री मुहैया कराने वाले मंच (ऑर्गन्स) भी मौजूद हैं और ऐसे पत्र निकालने की स्थितियाँ भी हैं – क़ानूनी भी व इसके विपरीत भी। अत: ‘इस्क्रा’ को पूर्व निर्धारित स्वरूप से अलग जितने काम हाथ में लेने पड़े थे, उतना, ज़रूरी नहीं कि आज भी लेना पड़े। ‘बिगुल’ को ‘मास पोलिटिकल पेपर’ कहने का यह अर्थ लेना यान्त्रिकता होगी कि यह व्यापक औसत चेतना के मज़दूरों को मुख्यत: सम्बोधित हो। ‘मास पोलिटिकल पेपर’ एक ढीला शब्द है। ‘बिगुल’ इन अर्थों में ‘मास पोलिटिकल पेपर’ है कि इसमें ऐसी सामग्री भी रहती है और पर्याप्त रहती है, जिसके बारे में बताकर कार्यकर्तागण इसे कारख़ाना गेटों, मज़दूर इलाक़ों, रेलों-बसों आदि में बेच लेते हैं और फ़ैक्टरी सम्बन्धी आर्थिक भण्डाफोड़ से लेकर देश की बुर्जुआ राजनीति तक के भण्डाफोड़ व आन्दोलनों की रपटों को औसत चेतना वाले पढ़े-लिखे मज़दूर भी दिलचस्पी के साथ पढ़ते हैं और शिक्षित होते हैं। पर उन्हीं अंकों में कुछ ऐसे भण्डाफोड़-विषयक लेख और ऐसे विश्लेषण या ऐसे सरल सैद्धान्तिक लेख भी होते हैं जो उन्नत चेतना वाले मज़दूरों और आम कम्युनिस्ट कतारों के लिए होते हैं और जो मज़दूर अध्‍ययन मण्डलों में चर्चा और विमर्श के लिए सामग्री और दिशा मुहैया करने का काम करते हैं।

हालाँकि अपनी सीमाओं-क्षमताओं के अपरिहार्य दबावों के चलते ‘बिगुल’ का भी जो स्वरूप बना है वह ‘एजिट-प्रॉप’ प्रकृति का है, पर इसका मुख्य पहलू एक ‘एजिटेशन ऑर्गन’ का ही है जो सर्वोपरि तौर पर अग्रणी वर्ग-सचेत मज़दूरों को (और कम्युनिस्ट कतारों को) सम्बोधित करता है और फिर मुख्यत: उनके माध्‍यम से व्यापक मेहनतकश आबादी को ‘एजिटेट’ करता है, शिक्षित करता है।

‘टारगेट रीडर ग्रुप’ का सवाल बनाम व्यापक मेहनतकश आबादी के शिक्षक होने का सवाल : एक काल्पनिक विसंगति – एक दिग्भ्रमित समझ

‘क्या राजनीति देते समय अख़बार को पाठक-समूह की चेतना का ख़याल रखना चाहिए?’ – इस उपशीर्षक के अन्तर्गत नसीहत देते हुए आप लिखते हैं – ”बिगुल की समस्या यह है कि एक ओर तो ‘बिगुल’ अपना ‘टारगेट रीडर ग्रुप’ व्यापक मेहनतकश आबादी को मानता है, दूसरी ओर अपने सम्पादकीय या अपने जवाब में ‘बिगुल’ के सम्पादक, अख़बार का ‘टारगेट रीडर ग्रुप’ अग्रणी वर्ग-सचेत मज़दूरों को परिभाषित करते हैं। यह एक विसंगतिपूर्ण अवस्थिति है।”

साथी, विसंगति हमारी अवस्थिति की नहीं आपकी समझ की है। आपकी समस्या यह है कि आप समझते हैं कि एक ऐसा अख़बार सिर्फ़ अपने ‘टारगेट रीडर ग्रुप’ का ही शिक्षक होता है, या सिर्फ़ उसी के बीच प्रचारक-संगठनकर्ता की भूमिका निभाता है। ‘टारगेट रीडर ग्रुप’ का निर्धारण और व्यापक मेहनतकश आबादी के बीच भूमिका – दोनों दो चीज़ें हैं। जैसाकि हमने स्पष्ट किया है, आज के दौर में ऐसे एक अख़बार का ‘टारगेट रीडर’ सबसे पहले उन्नत चेतना वाले मज़दूरों का अग्रणी संस्तर ही है (उसके बाद एक हद तक औसत चेतना के मज़दूरों का दूसरा संस्तर भी होगा)। फिर ऐसे किसी अख़बार की राजनीति उन्नत चेतना वाले अग्रणी मज़दूरों और कार्यकर्ताओं के माध्‍यम से – भाषणों, मुँहामुँही प्रचारों, पर्चों, नारों आदि में ढलकर व्यापक मज़दूर आबादी तक पहुँचती है। इस रूप में ऐसा एक मज़दूर अख़बार व्यापक मेहनतकश आबादी के बीच शिक्षक-प्रचारक की भूमिका निभाने लगता है। ‘बिगुल’ के पन्नों पर हम पहले भी इस लेनिनवादी धारणा को स्पष्ट कर चुके हैं कि मज़दूर वर्ग का राजनीतिक अख़बार संगठनकर्ता की भूमिका निभाता है संगठनकर्ता के ज़रिये, आन्दोलनकर्ता की भूमिका निभाता है आन्दोलनकर्ता के ज़रिये और प्रचारक की भूमिका निभाता है प्रचारक के ज़रिये।

1999 का भारतीय मज़दूर आन्दोलन 1899 के रूसी मज़दूर आन्दोलन से आगे है या पीछे, इस मसले को छोड़ भी दें, या यह भी मान लें कि पीछे है, तो भी इसमें उन्नत चेतना वाले मज़दूरों का एक संस्तर, औसत चेतना के मज़दूरों का दूसरा संस्तर और निम्न चेतना के मज़दूरों का निचला संस्तर अवश्य ही होगा; चाहे इन संस्तरों की चेतना लेनिन द्वारा बताये गये 1899 के रूसी मज़दूरों के उपरोक्त तीनों संस्तरों की चेतना से क्रमश: भले ही मेल न खाती हो। पर लेनिन की इतनी बात ज़रूर हर हाल में यहाँ भी लागू होती है कि मज़दूरों का जो उन्नत संस्तर समाजवाद के विचारों को अपेक्षाकृत अधिक तेज़ी के साथ और अधिक आसानी के साथ अपनाता है, उसे ही मज़दूर वर्ग के बीच विचारधारात्मक-राजनीतिक प्रचार, शिक्षा, भण्डाफोड़ और एजिटेशन की कार्रवाई चलाने वाला कोई भी मज़दूर अख़बार अपना प्रमुख ‘टारगेट रीडर ग्रुप’ बनायेगा और फिर उनके माध्‍यम से व्यापक मेहनतकश आबादी के बीच राजनीतिक शिक्षक-प्रचारक की भूमिका निभायेगा।

अपनी बात को सिध्द करने के लिए आप हमारी एक और ”विसंगति” की ओर इंगित करते हैं। आपके अनुसार, हम इसे एक क्रान्तिकारी धड़े का अख़बार बताते हैं जबकि ‘बिगुल’ के वितरक साथी इसे ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ का अख़बार बताते हैं। इससे आप नतीजा निकालते हैं कि यह ”जनसंगठन की चेतना के स्तर का अख़बार” है और हम ”पार्टी की चेतना का अख़बार” कहकर घालमेल कर रहे हैं। क्या ख़ूब तर्क है! यानी आप अख़बार के चरित्र का फैसला वितरक साथी के शब्दों से करते हैं, अख़बार पढ़कर नहीं। आप खण्डन-मण्डन का अन्धा बना देने वाला जोश त्यागकर ज़रा सोचिये। यदि कोई ‘एजिटेशनल’ (या ‘एजिट-प्राप’) प्रकृति का क़ानूनी अख़बार अघोषित ‘ऑर्गन’ के तौर पर कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के किसी धड़े की ओर से निकाला जाये तो सड़क पर उसका पूरा परिचय क्यों और किस रूप में दिया जाना चाहिए? आप जैसे समझदार साथियों को अख़बार की प्रकृति का फैसला अख़बार की राजनीति की दिशा के आधार पर करना चाहिए न कि वितरकों का ”इण्टरव्यू” लेकर। बहस के इस प्लेटफ़ॉर्म की जो सीमा है, उसकी याद दिलाते हुए यहाँ हम आपकी दिवालिया समझ और कुतर्क के बारे में बस इतना ही इंगित कर सकते हैं। वैसे आप यहाँ भी तथ्यों को तोड़-मरोड़ रहे हैं। हमारी जानकारी के मुताबिक़, हमारे वितरक साथी यह स्पष्ट बताते हैं कि यह अख़बार अमुक-अमुक उद्देश्यों-ज़िम्मेदारियों को पूरा करने के लिए निकलता है और इसे वे लोग निकालते, छापते-बाँटते हैं जो इन उद्देश्यों-कार्यभारों के बाबत एकमत हैं। ‘बिगुल’ के प्रचारकों-वितरकों-संवाददाताओं के दस्तों को ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ कहा जाता है। बहरहाल, बिगुल की कई प्रतियाँ उत्साह और वर्ग-भावनावश कितने ही आम और औसत चेतना के मज़दूर भी अपने कारख़ानों-बस्तियों में बाँटने ले जाते हैं और वे यदि इसे ‘बिगुल मज़दूर दस्ता‘ का ‘ऑर्गन’ भी बता दें तो इससे कुछ तय नहीं होता। दूसरे, आप जब यह कहते हैं कि हम ‘बिगुल’ को ”पार्टी की चेतना का अख़बार” कहते हैं तो फिर अन्धेरगर्दी मचाते हुए हमारे मुँह में अपनी मनमानी बात ठूँसते हैं। हमने ‘बिगुल’ को मज़दूर आबादी के लिए निकाला जाने वाला क्रान्तिकारी राजनीतिक अख़बार कहा है जो ‘एजिटेशनल’ या ‘एजिट-प्रॉप’ प्रकृति का ‘ऑर्गन’ है, जिसका स्वरूप एक हद तक एक ‘मास पोलिटिकल पेपर’ का है और जो मुख्यत: वर्ग-सचेत, उन्नत राजनीतिक चेतना वाले मज़दूरों को सम्बोधित है। किसी पार्टी या ग्रुप की ओर से उन्नत मज़दूरों व आम कतारों के लिए निकाले जाने वाले अख़बार को आप ”पार्टी की चेतना का अख़बार” जान-बूझकर कह रहे हैं या मूर्खतावश, यह तो आप ही जानें!

और आप यहाँ भी नहीं रुकते। आपका तर्क चरम भोंड़ेपन के शिखर पर पहुँचकर ही दम लेता है। आगे आप फरमाते हैं कि ”‘बिगुल’ के वितरक साथी ‘बिगुल’ को केवल अग्रणी वर्ग-सचेत मज़दूरों को देने के बदले हर आम मज़दूर को पकड़ा देते हैं। इनमें से अधिकांश ऐसे होते हैं जो ‘बिगुल’ में प्रयुक्त मार्क्‍सवादी शब्दावली के 90 प्रतिशत से अनभिज्ञ होते हैं, उसमें कही गयी बातों की तो बात ही क्या की जाये?” आप हमारी मजबूरी क्यों नहीं समझते? हमारे पास दरअसल आप वाली वो जादुई ऐनक नहीं है जिसे नाक पर टिकाकर घर बैठे मज़दूरों की शक्‍़ल देखते ही आप उनकी चेतना का स्तर नाप लेते हैं। हम तो हर जगह सामने पड़ने वाले मज़दूरों को अख़बार के बारे में बताकर अख़बार ख़रीदने के लिए कहते हैं, यह जानते हुए कि सभी पूरा ‘बिगुल’ नहीं पढ़ते और कुछ तो एकदम नहीं पढ़ते। पर इसी प्रक्रिया में ‘बिगुल’ उन्नत चेतना वाले कुछ थोड़े-से मज़दूरों तक भी पहुँच जाता है और कुछ उनसे थोड़ा-नीचे, थोड़ा-बहुत पढ़-समझ लेने वाले औसत मज़दूरों तक भी। बहुतेरे ऐसे मज़दूर साथी हैं जो ‘बिगुल’ से जुड़े कार्यकर्ताओं की सहायता से ‘बिगुल’ पढ़ते हैं। दूसरी बात यह कि आपने ‘बिगुल’ में प्रयुक्त मार्क्‍सवादी शब्दावली का जो हौव्वा खड़ा किया है, वह भी आपकी मनोगत धारणा है। आन्दोलनों की रपटें-विश्लेषण, बुर्जुआ राजनीति-क़ानून-मीडिया या फ़ैक्टरी की स्थितियों के भण्डाफोड़‘बिगुल’ में जिस भाषा में छपते हैं और मज़दूर साथियों के जो पत्र छपते हैं – उन्हें बड़े पैमाने पर मज़दूर पढ़ते हैं और प्रतिक्रिया देते हैं। मार्क्‍सवादी क्लासिक्स से हम जो सामग्री देते हैं या क्रान्ति की समस्याओं पर जो लेख देते हैं, वह ‘बिगुल’ का एक छोटा हिस्सा होता है और उसमें ज़रूर जटिल मार्क्‍सवादी शब्दावली भी होती है। आम रपटों-लेखों में विवरण के साथ जो मार्क्‍सवादी राजनीतिक शब्दावली आती है, उन्हें मज़दूर पाठक अपने अनुभव के आधार पर समझते हैं और एक क्रमिक प्रक्रिया में शिक्षित होते जाते हैं।

यहाँ पहला मुद्दा यह याद रखने का है कि अख़बार सबसे पहले उन्नत चेतना वाले मज़दूरों को सम्बोधित है और दूसरी बात यह समझने की है कि अख़बार का काम सिर्फ़ अपने पाठक की चेतना तक नीचे उतरना या उसके पीछे चलना नहीं बल्कि थोड़ा नीचे उतरकर (सम्प्रेषण की दृष्टि से) फिर पाठक की चेतना को ऊपर उठाना होता है।

हमारा ख़याल है कि ‘किसके लिए‘ के सवाल पर हम काफ़ी साफ़ हैं। यह तो आपकी फितरत है कि कभी अमूर्त किताबी मानकों के सहारे तो कभी भोंड़े अन्धानुकरणवाद के सहारे अपनी बातें कहने की कोशिश कर रहे हैं और यह भी स्पष्ट नहीं कर पा रहे हैं कि आप कहना क्या चाह रहे हैं। जो आप कहते हैं उसे स्वयं ही काट दे रहे हैं या जो कहना चाह रहे हैं, कह नहीं पा रहे हैं। आपकी मनोगतता का ही एक सबूत यह भी है कि हमारे ”हिरावलपन्थ” की इतनी आलोचना कर चुकने के बाद आप अब हमसे ‘बिगुल’ की फ़ाइल माँग रहे हैं ताकि और ठोस अध्‍ययन करके हमारी ”मदद” कर सकें। ऐसी मदद करने वालों से ख़ुदा बचाये। हमारी नेक सलाह है कि आप पहले अपनी ख़ुद की मदद करें, वरना शायद ख़ुदा भी आपकी मदद नहीं कर सकता।

पार्टी-निर्माण व पार्टी-गठन के बारे में आपकी ”अचूक” द्वन्द्ववादी समझ!!

पार्टी-निर्माण और पार्टी-गठन के अन्तर्सम्बन्‍धों के बारे में हमारी ”ग़ैर द्वन्द्वात्मक समझ” को बेनक़ाब करते हुए वास्तव में आपने अपनी ”द्वन्द्वात्मक समझ” की ही अनूठी बानगी पेश की है।

हमेशा की तरह यहाँ भी शुरुआत आप हमारी बातों को तोड़ने-मरोड़ने से करते हैं। आपने ‘बिगुल’, जून-जुलाई ’99 अंक में पृष्ठ 5 पर दूसरे-तीसरे पैराग्राफ़ में पार्टी-निर्माण  पार्टी-गठन के बारे में प्रस्तुत हमारी बातों को दो लाइन के इस ”ज्यामितीय समीकरण” में अद्भुत प्रतिभाशाली ढंग से समेट दिया है :

प्रचारक —->  ज़ार्या       ‘ज़्वेज़्दा’    —->  पार्टी-गठन

आन्दोलनकर्ता —->  इस्क्रा      प्राव्‍दा —->  पार्टी-निर्माण

इसके द्वारा आपने साबित कर दिया है कि हम किस हद तक ग़ैर द्वन्द्वात्मक हैं और श्रेणी-विभाजन प्रेमी हैं। आपने अपना उपरोक्त भयंकर मज़ाकिया नतीजा हमारे मुँह में ठूँसने के लिए ”प्रधानत:” और ”मुख्यत:” जैसे हमारे द्वारा प्रयुक्त सभी विशेषणों को उड़ा दिया है तथा पार्टी-निर्माण व गठन के पहलुओं की अविभाज्य द्वन्द्वात्मकता के बारे में बार-बार कही गयी हमारी बातों को पहले ही खिल्ली उड़ाकर ख़ारिज़ कर दिया है। पर आपने लगे हाथों पार्टी-निर्माण और पार्टी-गठन के बारे में अपने घोर सामाजिक जनवादी बोध एवं धारणा को भी एकदम नंगा कर दिया है।

हम अपनी ‘पोज़ीशन’ एक बार फिर स्पष्ट करेंगे और तब आपकी ‘पोज़ीशन’ की चर्चा करेंगे। बोल्शेविज़्म के सांगठनिक उसूलों की हमारी समझ के हिसाब से, एक क्रान्तिकारी सर्वहारा पार्टी का बनना और विकास करना एक सतत् जारी प्रक्रिया है और पार्टी-गठन तथा पार्टी-निर्माण उसके दो पहलू हैं।

कुछ लोग विचारधारा की अपनी समझ के आधार पर जब देश-विशेष की परिस्थितियों की एक समझ बनाते हैं, कामों की एक आम दिशा तय करते हैं और मान लीजिये कि एक छोटा-मोटा ग्रुप का ढाँचा बनाकर काम शुरू करते हैं, तो वे पार्टी खड़ी करने की दिशा में आगे बढ़ते हुए पार्टी-गठन की प्रक्रिया को अंजाम दे रहे होते हैं। लेकिन यह जो प्रारम्भिक ढाँचा खड़ा होता है, यह एक वास्तविक क्रान्तिकारी सर्वहारा ढाँचा तभी बन सकता है जब वह ग्रुप सामाजिक प्रयोगों में दिशा की अपनी समझ को ठोस रूप देने व सत्यापित करने का काम करे, बुनियादी वर्गों को संगठित करते हुए लाइन को विकसित करे, बुनियादी वर्गों के बीच से पार्टी-भर्ती करे, जन संगठनों में संगठन की कोशिकाओं का जाल बिछाते हुए आर्थिक-राजनीतिक संघर्षों की प्रक्रिया में अपनी लाइन को सत्यापित-विकसित करे तथा अपने कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करे एवं माँजे-तपाये। यह हुआ पार्टी खड़ी करने की दिशा में आगे बढ़ते हुए पार्टी-निर्माण की प्रक्रिया को अंजाम देना, जो पार्टी-गठन की प्रक्रिया के साथ-साथ चलती है।

क्रमश: उन्नत सामाजिक प्रयोगों के साथ-साथ, उसी के आधार पर (यानी पार्टी-निर्माण के पहलू की मज़बूती के आधार पर) किसी एक ग्रुप या संगठन की राजनीतिक लाइन विकसित होती है, अन्य बिरादर कम्युनिस्ट ग्रुपों-संगठनों से ‘पॉलिमिक्स’ की क्रिया (सामाजिक प्रयोगों के साथ-साथ) जारी रहती है जिसका एक फ़ैसलाक़ुन मुकाम तब आता है जब विचारधारात्मक-राजनीतिक-सांगठनिक लाइन की एकता के आधार पर, देश-विशेष के स्तर पर एक एकीकृत सर्वहारा पार्टी अस्तित्व में आती है।

पर सही मायनों में एक सर्वहारा चरित्र की पार्टी तभी खड़ी हो सकती हैजबकि सही लाइन के साथ-साथ नेतृत्व और कतारों का ‘कम्पोजिशन’ भी सही हो और यह तभी हो सकता है जब उपरोक्त वर्णित प्रक्रिया के साथ-साथ बुनियादी वर्गों के बीच क्रान्तिकारी प्रयोगों के दौरान पार्टी के सर्वहारा क्रान्तिकारी चरित्र के सुदृढ़ीकरण का – उसके नेतृत्व और कतारों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण व सुदृढ़ीकरण का – काम लगातार जारी रहा हो तथा सर्वहारा वर्ग व अन्य बुनियादी वर्गों के बीच प्रचार-शिक्षा-आन्दोलन व संगठन का काम करते हुए उनके बीच से बड़े पैमाने पर, लगातार, पार्टी-भर्ती की गयी हो। यह पार्टी-निर्माण का पहलू है, जिसके कमज़ोर होने पर यदि कोई एकीकृत सर्वहारा पार्टी गठित भी हो जाये तो वह एक कमज़ोर चरित्र वाली पार्टी होगी जो कालान्तर में अपना रंग भी बदल सकती है।

ज़ाहिर है कि पार्टी-गठन और पार्टी-निर्माण की दोनों साथ-साथ जारी, अन्तर्सम्बन्धित प्रक्रियाओं में ज़ोर कभी एक पहलू पर अधिक होता है, तो कभी दूसरे पर अधिक होता है, पर दोनों साथ-साथ ही चलती हैं।

जब आप चकित होकर पूछते हैं कि जो पार्टी अभी गठित ही नहीं हुई, उसके निर्माण का सवाल कहाँ से पैदा हो गया? – तो आपका सामाजिक-जनवादी बोध एकदम अवक्षेपित होकर सतह पर उतरा आता है। आपके ख़याल से जब पार्टी-गठन का काम (यानी देश स्तर पर एक एकीकृत पार्टी बनने का काम) हो जाता है तभी पार्टी-निर्माण का काम (यानी सामाजिक प्रयोगों में उतरकर तपने-निखरने का काम) शुरू होता है। हूबहू यही सोच कभी हम लोगों के कुछ सहयात्रियों ने प्रस्तुत की थी जिन्होंने 1989 में एक अलग राह पकड़ ली और अब सामाजिक-जनवादी रास्ते पर काफ़ी दूर निकल गये हैं। ऐसी कोई भी पार्टी जो गठन के काम को पूरा करने के बाद ही निर्माण का काम शुरू करती है, वह केवल बुद्धिजीवियों की पार्टी – केवल एक ”पैस्सिव रैडिकल” पार्टी ही हो सकती है।लेनिन और उनके सहयोगी मार्क्‍सवाद के आधार पर अपने देश की स्थितियों की एक प्रारम्भिक समझ के आधार पर जब मज़दूरों के अध्‍ययन-मण्डलों के रूप में शुरुआती ढाँचे खड़ा कर रहे थे – तो उनके काम का यह पहलू पार्टी-गठन का काम था। साथ ही वे मज़दूरों के बीच से कम्युनिस्ट तैयार कर रहे थे, हड़ताली पर्चे लिख रहे थे और मज़दूरों के संघर्षों में भागीदारी करते हुए नेतृत्व को और कार्यकर्ताओं को तपा-निखार रहे थे – यह पहलू पार्टी-निर्माण का पहलू था। लाइन पर चलने वाली सैद्धान्तिक बहसों का पहलू पार्टी-गठन का पहलू था और उसी से जुड़ा हुआ, सही लाइन को सत्यापित करने वाला सामाजिक प्रयोगों का पहलू पार्टी-निर्माण का पहलू था।

जिस तरह से आप यह समझते हैं कि पार्टी-गठन का काम हो जाने के बाद ही पार्टी-निर्माण का काम शुरू हो पाता है, उसी तरह आप यह समझते हैं कि जब एक बार देश स्तर पर एक पार्टी गठित हो जाती है तो फिर पार्टी-गठन का काम पूरा हो जाता है और आप हमसे पूछते हैं कि ”हमारी ही दी हुई परिभाषा के अनुसार”, जब पार्टी का गठन पहले ही हो चुका था तो ‘ज़्वेज़्दा’ जैसा पत्र क्या कर रहा था जोकि एक प्रचारक पत्र था और पार्टी-गठन के कार्य से जुड़ा था।

‘ज़्वेज़्दा’ जैसे पत्र की भूमिका पर चर्चा तो आगे करेंगे, पहले पार्टी-गठन विषयक आपके भ्रान्त बोध पर चर्चा की जाये। जब देश-स्तर पर एक पार्टी गठित हो जाती है, उसके बाद भी एक पार्टी जब तक वर्ग-संघर्ष में रहती है तब तक वह किसी न किसी रूप में विश्रृंखलित और पुनर्गठित होती रहती है। पार्टी के भीतर दो लाइनों का संघर्ष ‘पॉलिमिक्स’ के रूप में लगातार चलता रहता है और पूरी तरह उभर चुके, लाइलाज ग़ैरसर्वहारा तत्वों को – पार्टी के भीतर के बुर्जुआ तत्वों को – समय-समय पर अलग करके पार्टी एक तरह से अपना पुनर्गठन करती रहती है। यह पार्टी-गठन की वह क्रिया है जो पार्टी के गठित हो जाने के बाद भी जारी रहती है – यहाँ तक कि राज्यसत्ता हाथ में आने के बाद भी, जैसेकि त्रात्स्की के गिरोह को अलग करके स्तालिन काल में बोल्शेविक पार्टी ने औरसर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान पूँजीवादी पथगामियों को शिकस्त देकर चीनी पार्टी ने अपने को नये धरातल पर फिर से गठित किया।

जब हम अलग-अलग कोटि के ‘पार्टी-ऑर्गन्स’ की बात पार्टी-गठन और पार्टी-निर्माण के सम्बन्ध में कर रहे थे तो बार-बार याद दिला रहे थे कि इन्हें रूढ़ श्रेणियों में बाँटकर देखने के बजाय एक या दूसरे पहले की प्रधानता के रूप में देखा जाना चाहिए। फिर भी आपने उलटकर हमारे ऊपर ही श्रेणी-विभाजन प्रेमी का आरोप लगा दिया है।

एक ‘प्रोपेगैण्डा ऑर्गन’ भी संगठन की उन्नत कतारों में लाइन की समझ देकर उन्हें सामाजिक प्रयोगों के लिए तैयार करता है अत: वह भी पार्टी-निर्माण के कार्यभार को अंजाम देता है, पर चूँकि इस कोटि के ऑर्गन मुख्यत: विचारधारा, राजनीति और स्थितियों के गम्भीर विश्लेषण और ‘पॉलिमिक्स’ के काम को अंजाम देते हैं, अत: वे मुख्यत: पार्टी-गठन के पहलू से जुड़ते हैं। दूसरी ओर, ‘एजिटेशनल ऑर्गन’ मुख्यत: संगठन की लाइन को कतारों और उन्नत मज़दूरों तक पहुँचाकर उन्हें सामाजिक प्रयोगों में उतरने के लिए तैयार करते हैं तथा उनके ज़रिये आम जनता तक कार्यभारों की समझ पहुँचाकर उसे सक्रिय करते हैं, अत: इनका जुड़ाव मुख्यत:पार्टी-निर्माण के पहलू से होता है। ध्‍यान रखिये कि फिर हमारी बात का जवाब देते हुए मुख्यत: विशेषण को उड़ाकर आप हमारी बात का विकृतिकरण मत कर दीजियेगा।

शुरू में जब ‘ज़ार्या‘ और ‘इस्क्रा‘ की योजना क्रमश: एक ‘प्रोपेगैण्डा’ और ‘एजिटेशनल ऑर्गन’ के रूप में बनी थी तो उनके द्वारा पार्टी-गठन और पार्टी-निर्माण के कार्यभारों को इसी रूप में अंजाम दिया जाना था। पर परिस्थितियाँ ऐसी रहीं कि ‘ज़ार्या‘ के महज़ तीन ही अंक निकल सके और ‘प्रोपेगैण्डा पॉलिमिक्स’ के एक मंच के रूप में भी ‘इस्क्रा‘ की महत्वपूर्ण भूमिका के नाते उसका स्वरूप एक ‘एजिट-प्रॉप ऑर्गन’ का बना और उसकी भूमिका पार्टी-निर्माण और पार्टी-गठन के दोनों कामों में बनी। अगले दौर में ‘ज़्वेज़्दा’ जैसे पत्र का काम मुख्यत: लाइन के प्रश्न पर गम्भीर व्याख्या-विश्लेषण व पॉलिमिक्स का बना जोकि उस दौर में मुख्यत: पार्टी-गठन के कार्यभार से जुड़ता था। ‘प्राव्‍दा‘ की भी इस काम में महत्वपूर्ण भूमिका थी, फिर भी एक ‘एजिटेशनल ऑर्गन’ (पार्टी के ‘मास पोलिटिकल पेपर’) के रूप में वह मुख्यत: आम कतारों व उन्नत मज़दूरों तक ‘ज़्वेज़्दा’ के कार्यक्रम को पहुँचा रहा था और फिर उनके माध्‍यम से व्यापक मेहनतकश आबादी को वर्ग संघर्ष के लिए जागृत-संगठित कर रहा था, अत: उसका कार्यभार मुख्यत: पार्टी-निर्माण के पहलू से जुड़ा हुआ था। अन्त में फिर आपसे अनुरोध कर दें कि हम यहाँ इन पत्रों के कार्यभारों के मुख्य पहलू की बात कर रहे हैं न कि कोई रूढ़ श्रेणीबद्ध सूत्रीकरण पेश कर रहे हैं, अत: मॉडलों के अन्धानुकरण की अपनी प्रवृत्ति के चलते फिर कोई ”ज्यामितीय सूत्रीकरण” हमारे ऊपर मत थोप दीजियेगा।

पार्टी-निर्माण और पार्टी-गठन के बारे में आपका बोध और धारणा पूरी तरह सामाजिक जनवादी है। आपने सही कहा है कि यहाँ सवाल जनदिशा का है और यहाँ भी यही बात सामने आती है कि आप की जनदिशा की समझ भी सामाजिक जनवादी है।

आप 1899 के रूस के नहीं 1999 के भारत के ‘क्रीडो’ मतावलम्बी हैं!

हमने आपको 1999 के भारत के ‘क्रीडो’ मतावलम्बी कहा है और आपका कहना है कि आरोप लगाने का हमारा तरीक़ा सतही, छिछला और ओझों-सोखों जैसा है। इसके बाद आपने ‘क्रीडो’ मत के छह ”चारित्रिक लक्षणों” का उल्लेख लेनिन के ऐतिहासिक लेख ‘ए प्रोटेस्ट बाइ रशियन सोशल डेमोक्रैट्स‘ के आधार पर किया है और हमें ”चुनौती” दी है कि हम आपके भीतर उन छह ”चारित्रिक लक्षणों” को ढूँढ़ निकालें। लेकिन हम ऐसा मूर्खतापूर्ण आग्रह पूरा नहीं करेंगे।

आपने ‘क्रीडो मत’ की चारित्रिक अभिलाक्षणिकता नहीं, ‘क्रीडो’ मत के अर्थवाद की छह प्रमुख अभिव्यक्तियों की चर्चा की है। सर्वहारा आन्दोलन में जब कोई भी विजातीय प्रवृत्ति या धारा बार-बार सिर उठाती है तो उसकी अभिव्यक्तियाँ, यहाँ तक कि कुछ गौण चारित्रिक लक्षण भी बदल जाते हैं। हाँ, उनकी सारवस्तु वही रहती है। जैसे ख्रुश्चेव को ”काउत्स्की का चेला” और ”काउत्स्कीपन्थी” कहा गया, पर उसके संशोधनवाद के रूप व अभिव्यक्तियाँ हूबहू काउत्स्की जैसी ही नहीं थीं। ऐसा हो भी नहीं सकता।

निस्सन्देह आप ”क्रीडो मतावलम्बी” ही हैं पर 1899 के रूस के नहीं बल्कि 1999 के भारत के क्रीडो मतावलम्बी हैं। आपने ‘क्रीडो’ मत की अभिव्यक्तियों की चर्चा की है, गत उत्तर में हमने भी एक हवाले से उसके सारतत्व की चर्चा की थी। आप द्वारा उल्लिखित अभिव्यक्तियों से भी ‘क्रीडो’ मत का वही सारतत्व आसवित होता है जिसकी चर्चा हमने पिछले प्रत्युत्तर में की है। ”(क्रीडो) घोषणापत्र रूसी अर्थवाद के अवसरवाद की सर्वाधिक मुखर अभिव्यक्ति थी” (लेनिन : कलेक्टेड वर्क्‍स, खण्ड 9, पाद टिप्पणी सं. 37)। लेनिन ने ही अन्यत्र ‘क्रीडो’ मत को इस रूप में याद किया है : ”बर्नस्‍टीनपन्थियों के ”क्रीडो” की याद कीजिये। ”शुद्ध सर्वहारा वर्गीय” विचारों तथा कार्यक्रमों से लोगों ने यह निष्‍कर्ष निकाला : हम सामाजिक जनवादियों को केवल आर्थिक सवालों से, मज़दूरों के वास्‍तविक हेतु से, हर प्रकार की राजनीतिक तिकड़मों की आलोचना करने की स्‍वतन्‍त्रता से, सामाजिक जनवादी काम को सचमुच अधिक गहरा बनाने से सरोकार रखना चाहिए।” (लेनिन : जनवादी क्रान्ति में सामाजिक जनवाद की दो कार्यनीतियाँ, पृ. 101, प्रगति प्रकाशन, 1969 संस्‍करण, ज़ोर हमारा)।

इसी सारवस्तुगत समानता की दृष्टि से हमने आपको आज के भारतीय क्रान्तिकारी वामपन्थी शिविर का ‘क्रीडो’ मतावलम्बी’ कहा है। आपका सीधे-सीधे कहना है कि मज़दूर आन्दोलन में समाजवाद का सीधे-सीधे प्रचार तब किया जाना चाहिए जब समाजवादी बातों की ग्राह्यता (receptivity) बहुत अधिक हो। आपका मानना है कि आज पीछे हट रहे भारत के मज़दूर आन्दोलन में समाजवाद के बजाय प्रतिक्रियावादी विचारों का माहौल है। आप आज के वर्तमान हालात के हिसाब से प्रचार और कार्रवाई का आग्रह करते हुए लेनिन का एक उद्धरण (सन्दर्भों से काटकर) देते हैं कि आन्दोलन के प्रारम्भिक अवस्थाओं में रूसी कम्युनिस्टों को प्राय: एक तरह के सांस्कृतिक कार्यों और आर्थिक कार्यों में ही जुटे रहना पड़ता था। आपने उस उद्धरण के ज़रिये यह कहने की कोशिश की है कि पीछे हटता हुआ भारतीय मज़दूर आन्दोलन चूँकि आज ”प्रारम्भिक अवस्थाओं” में जा पहुँचा है, अत: हमें भी सम्प्रति केवल आर्थिक व सांस्कृतिक कार्यों तक सीमित रहना चाहिए। आप या तो यह कहना चाहते हैं कि आज भारत में उन्नत चेतना का मज़दूर है ही नहीं, या फिर यह कहना चाहते हैं कि ”व्यापक मेहनतकश आबादी” के बीच शिक्षक-प्रचारक होने की बात करने के नाते ‘बिगुल’ जैसे ‘मास पोलिटिकल पेपर’ को औसत मज़दूरों को सम्बोधित होना चाहिए न कि मुख्यत: उन्नत चेतना के मज़दूरों को। ये सारी बातें आपने ख़ासकर, ‘बिगुल’ जून-जुलाई ’99 अंक में प्रकाशित अपने विगत पत्र में, पृष्ठ 5 पर अन्तिम कॉलम के दोनों पैराग्राफ़ों में कही हैं। साथ ही अवसरवाद के तकाज़ों से प्रेरित होकर आप अपने विगत पत्र के शुरू में ही यह सहमति भी जताते हैं कि मज़दूर वर्ग के बीच विचारधारात्मक-राजनीतिक प्रचार का काम सीधे-सीधे किया जा सकता है। जब आपका ध्‍यान इस विसंगति की ओर दिलाया जाता है तो आप बिना किसी ठोस साक्ष्य के कहने लगते हैं कि ‘बिगुल’ इस काम को जनता की चेतना का ख़याल किये बिना कर रहा है। पर असलियत यह है कि आप मज़दूरों में समाजवाद के विचार के प्रचार के ही हामी नहीं हैं क्योंकि आपके विचार से आज भारतीय मज़दूर आन्दोलन में समाजवाद की ग्राह्यता नहीं है बल्कि प्रतिक्रियावादी विचारों का माहौल है।

आपके यही विचार आपको ”1999 के भारत का क्रीडो’ मतावलम्बी” सिद्ध करते हैं। ‘क्रीडो’ मतावलम्बियों का अर्थवाद अपने ठीक बाद रूस में जन्मे अर्थवाद की अन्य प्रवृत्तियों की अपेक्षा अधिक भोंड़ा और नंगा था। आज भारत के क्रान्तिकारी शिविर में कुछ और भी अर्थवादी प्रवृत्तियाँ-रुझानें मौजूद हैं, उनकी तुलना में आपकी अर्थवादी अवसरवादी प्रवृत्ति भोंड़ी है। इसीलिए हमने आपको ”1999 के भारत का ‘क्रीडो’ मतावलम्बी” कहा है।

अख़बार में नामों के प्रयोग का सवाल और ‘व्यक्तिवाद’ के ख़िलाफ़ प्राणपण से सन्नद्ध ”वक़ील साहब” की कुछ और दलीलें

अख़बार में नामों के प्रयोग के सवाल पर आप अपने ‘स्टैण्ड’ के पक्ष में तर्कों को जितना ही खींचते जा रहे हैं, उनका भोंड़ापन उतना ही उजागर होता जा रहा है।

अख़बार में नाम से लेख न देने के पीछे आपका मूल तर्क यह था कि इससे व्यक्तिवाद को बढ़ावा मिलता है। हमारा यह कहना था कि व्यक्तिवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई का यह पेटी-बुर्जुआ नुस्‍ख़ा वैसा ही है जैसा लोहियावादी कभी नाम से टाइटिल हटाकर जातिवाद ख़तम कर रहे थे। दुनिया की अन्य पार्टियाँ पार्टी-नामों से, छद्म नामों से और गुमनाम लिखने की जो परिपाटी चलाती रही हैं, उसके पीछे का कारण व्यक्तिवाद से संघर्ष नहीं बताया गया है बल्कि यह राज्यसत्ता के विरुद्ध क्रान्तिकारी पार्टियों की समग्र कार्य-प्रणाली का एक अंग रहा है। इसके साथ ही हमने यह भी याद दिलाया है कि कई देशों में वर्ग-संघर्ष की ठोस स्थितियों के हिसाब से पार्टी नेतागण अपने मूल नाम से भी लिखते और काम करते रहे हैं। फिर भी यदि आप अपने हास्यास्पद सूत्रीकरण पर अड़े हुए हैं तो हमें कुछ नहीं कहना।

आप फिर यह कहकर हमारी बातों को तोड़-मरोड़ रहे हैं कि हमारा कहना है कि भूमिगत कार्यकर्ताओं को छोड़कर शेष लेखकों के नाम दिये जाने चाहिए। हमने यह कहा है कि नाम से लिखने-न-लिखने का सवाल पार्टी की समग्र क्रान्तिकारी कार्यशैली का एक अंग है। खुला काम करने वाला व्यक्ति भी छद्म नाम से लिख सकता है और किन्हीं स्थितियों में भूमिगत कार्यकर्ता भी नाम से पार्टी-लेखन कर सकता है। आप गुमनाम लेखन को भूमिगत जीवन की ज़रूरत बताते हैं; यह अनिवार्य नहीं है। आप इसे लेखक की मानसिक सेहत के लिए ज़रूरी मानते हैं। यह आपका नीमहकीमी मनोवैज्ञानिक नुस्‍ख़ा हो सकता है, विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन के नेताओं की यह शिक्षा नहीं रही है। हमारा आग्रह नाम से लिखने के सवाल पर नहीं है, यह हमारे पत्र-पत्रिकाओं से भी ज़ाहिर है। हमारी आपत्ति आपके उस तर्क पर है जो आपने गुमनाम लेखन के पक्ष में दिया है।

राजनीतिक लाइन पर चौकसी बरतने की राजनीतिक समस्या का आपने जो नायाब तकनीकी सुझाव बताया है, उसमें कार्यकर्ताओं की राजनीतिक चेतना की नहीं बल्कि एक कॉपी और एक ताला-चाबी की ज़रूरत है। यहाँ एक बार फिर आप साबित करते हैं कि आप कार्यकर्ताओं को docile tool (आज्ञाधीन उपकरण) समझते हैं और सही राजनीतिक पद्धति को कमान में रखने के बजाय तकनीकी समाधानों के ज़रिये काम करने के हामी हैं। आपके ख़याल से, लाइन की चौकसी बरतने का काम सिर्फ़ सम्पादक मण्डल या पार्टी-नेतृत्व करता है, न कि पार्टी-कतारें।

आगे आप हमसे दो नायाब सवाल पूछते हैं। आप पूछते हैं कि क्या अनुवाद में भी कोई लाइन होती है। आपकी समझ बढ़ाते हुए हम यह आम जानकारी दे दें कि बिल्कुल होती है। आपको जानना चाहिए कि संशोधनवादी पार्टियों व लेखकों ने मार्क्‍स के समय से लेकर आज तक मार्क्‍सवादी रचनाओं के अनुवाद के विकृतिकरण के ज़रिये और संकलनों के सामग्री-चयन तक में अपनी लाइन चलायी है। यह एक विस्तृत और दिलचस्प चर्चा का विषय है, पर यहाँ इसकी दरकार नहीं है।

आपका दूसरा सवाल यह है कि ‘बिगुल’ के जिन साथियों के असली नाम अब तक ‘बिगुल’ में छपे हैं, क्या उनका भूमिगत जीवन समाप्त हो गया है? या तो आप एक सच्चे राजनीतिक नौदौलतिये हैं जिसे तौर-तरीक़े-परम्पराओं की कोई जानकारी नहीं है या फिर आप एक ग़लत प्लेटफार्म पर विध्‍वंसात्मक नीयत से यह सवाल उठा रहे हैं। फिलहाल हम पहली बात ही मानकर चल रहे हैं और मौजूदा प्लेटफ़ॉर्म की सीमाओं का ख़याल करते हुए आपको बता रहे हैं कि भूमिगत और खुला राजनीतिक जीवन काम करने की स्थायी स्थितियाँ नहीं होतीं। क्रान्तिकारी संगठनकर्ता स्थिति व आवश्यकतानुसार खुले व भूमिगत होते रहे हैं। खुला हो जाने से भूमिगत जीवन सदा-सर्वदा के लिए समाप्त नहीं हो जाता। दूसरे, भूमिगत व्यक्ति भी नाम से, किन्हीं स्थितियों में लिख सकता है। यहाँ हम इतना ही कह सकते हैं। अब आप तैरना सीखे बग़ैर धारा में छपाका मार गये हैं तो उसकी तकनीक सिखाना हमारा काम नहीं है। और वैसे भी आपको ज़रूरत नहीं है। आप तो पानी में कूदने के बाद तैरने की अपनी तकनीक गढ़ रहे हैं।

”न पूछते हुए भी” आप एक सवाल और पूछते हैं कि जो लेख, लेखक के बजाय किसी और नाम से छपते हैं उनमें लाइन की ग़लती की ज़िम्मेदारी किसकी होगी? वक़ीलाना तर्क की घुट्टी पिये आप जैसे व्यक्ति को बस यही उत्तर दिया जा सकता है कि यह ज़िम्मेदारी लिखने वाले व्यक्ति की होती है, क्योंकि किसी भी स्तर पर संगठन में जब ऐसा होता है तो वह संगठन के भीतरी कोर की जानकारी में होता है। आपको पता है कि नवीं कांग्रेस की जो रिपोर्ट लिन प्याओ ने पढ़ी थी, वह उसकी नहीं थी। उसकी संशोधानवादी रिपोर्ट रद्द करकेमाओ ने दूसरी रिपोर्ट तैयार करायी थी। लिन प्याओ के पतन और मृत्यु के बाद यह तथ्य पार्टी के बाहर ज़ाहिर कर दिया गया था।

पर आपके इन सभी तर्कों का उत्तर हमने इसलिए दिया है कि आपकी वक़ीलाना बुद्धि को भी तसल्ली हो जाये और आप समझ जायें कि यह मामला सतही तकनीकी तिकड़म का नहीं बल्कि सही सच्ची बोल्शेविक कार्यशैली का है। हमारी मूलभूत आपत्ति आपके उस तर्क पर थी जो आपने गुमनाम लेखन के लिए दी थी, वरना यह आपका अधिकार है कि आप अपने संगठन में क्या पद्धति चलायें। हाँ, इतना ज़रूर है कि अललटप्पू तर्क गढ़ने के बजाय सांगठनिक कार्यशैली के प्रश्न पर इतिहास की विरासत, परम्पराओं और तर्कों से पहले परिचित हो लिया जाये।

मज़दूर आन्दोलन की तुलना का सवाल

जहाँ तक 1899 के रूसी मज़दूर आन्दोलन और 1999 के मज़दूर आन्दोलन में मज़दूरों की चेतना की दृष्टि से तुलना का प्रश्न है, हमारे बुनियादी तर्क वही हैं जो हमने ‘बिगुल’ के जून-जुलाई ’99 अंक के पृ. आठ पर तीसरे-चौथे-पाँचवें पैराग्राफ में दिये हैं।

पहली बात तो यह कि ऐसी कोई तुलना आम तौर पर की ही नहीं जा सकती। यह यान्त्रिक आधिभौतिक पद्धति होगी।

दूसरी बात यह कि विश्वव्यापी विपर्यय और देशस्तर पर क्रान्तिकारी शक्तियों के लम्बे बिखराव से मज़दूर वर्ग में आयी पस्ती का यह अर्थ नहीं निकाला जा सकता है कि उसकी चेतना 1947 के पहले के भारतीय मज़दूर वर्ग से या कि 1899 के रूसी मज़दूर वर्ग से भी पीछे चली गयी है।

तीसरी बात यह कि भारतीय मज़दूर वर्ग में प्रतिक्रियावादी माहौल का प्रभाव यथार्थ का सिर्फ़ एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि वह ”समाजवाद” का झण्डा उड़ाते अर्थवादियों-संशोधनवादियों को काफ़ी हद तक समझ और त्याग चुका है और क्रान्तिकारी विचारधारा के प्रचार को सुनने-ग्रहण करने के लिए आज पहले हमेशा से अधिक तैयार है। वस्तुगत स्थितियों का विकास आने वाले दिनों में मेहनतकश अवाम पर विनाश का जो क़हर बरपा करने वाला है, उसके विरुद्ध व्यापक उभार अवश्यम्भावी है। देश के अलग-अलग कोनों में छिटपुट लगातार चल रहे स्वयंस्‍फूर्त संघर्ष आने वाले दिनों के पूर्वसंकेत हैं। हमें इस स्वयंस्‍फूर्त से न तो आँख मूँदनी चाहिए न ही इसकी पूजा करनी चाहिए, बल्कि इससे आवश्यक नतीजे निकालने चाहिए। यही समय है जब तबाही के कगार पर खड़े मज़दूरों के रोज़मर्रा की लड़ाइयों में शामिल होते हुए उनके बीच राजनीतिक-वैचारिक शिक्षा एवं प्रचार के काम को तथा कार्यों को पूरा ज़ोर लगाकर शुरू कर दिया जाये। यही सवाल आज हमारे सामने भी किसी न किसी रूप में मौजूद है कि क्या हम जीतने का साहस कर सकते हैं?

इसी सन्दर्भ में जब हमने लेनिन के हवाले से 1898 से शुरू हुए तीसरे काल को रूसी मज़दूर आन्दोलन के फूट, विसर्जन और ढुलमुलपन का काल कहा है तो ज़ाहिरा तौर पर हम सामाजिक जनवादी आन्दोलन (कम्युनिस्ट आन्दोलन) की ही बात कर रहे हैं। यह बात आगे के विवरण से भी ज़ाहिर है जहाँ हमने 1904 में मेंशेविक अवसरवाद को निर्णायक शिकस्त देने और 1905-07 की रूसी क्रान्ति की पूर्वपीठिका तैयार होने की बात कही है। आपका कहना है कि हमने ‘सामाजिक जनवादी आन्दोलन’ की जगह ‘रूसी मज़दूर आन्दोलन’ लिखकर ऐतिहासिक तथ्यों के साथ बलात्कार किया है। आपको शायद पता नहीं कि मार्क्‍सवादी साहित्य में अलग सन्दर्भ में सामाजिक जनवादी (कम्युनिस्ट) आन्दोलन के लिए भी ‘मज़दूर आन्दोलन’ शब्दावली का प्रयोग हुआ है। जिस चीज़ को लेनिन ने मज़दूर आन्दोलन कहा है, उसे ‘मज़दूरों का स्वयंस्‍फूर्त आन्दोलन’ या उनका ‘ स्वयंस्‍फूर्त उभार’ भी कहा जाता रहा है। दूर क्यों जाते हैं। 1983 में भारतीय क्रान्ति की प्रकृति, स्वरूप व समस्याओं पर प्रकाशित सर्वज्ञात दस्तावेज़ में भी तो, ‘कम्युनिस्ट आन्दोलन’ की जगह ‘मज़दूर आन्दोलन’ शब्दावली का प्रयोग किया गया है।

हमारा मूल तर्क यह है कि यदि हम यह मान भी लें कि 1999 के भारतीय मज़दूर आन्दोलन में समाजवादी बातों की ग्राह्यता 1899 के रूसी मज़दूर आन्दोलन से बहुत कम है, तब भी इससे यह तय नहीं होता कि आज यहाँ मज़दूर वर्ग के बीच सीधो राजनीतिक-विचारधारात्मक प्रचार के लिए एक राजनीतिक अख़बार नहीं निकाला जाना चाहिए, और केवल आर्थिक आन्दोलन के कामों में ही जुटे रहना चाहिए। इस सम्बन्ध में अपनी बातें हम विस्तार से पहले ही कह चुके हैं।

साथी, बहस के परिधिगत मुद्दों को खींचते जाने की वक़ीलाना तर्क-प्रणाली के चलते आप इसे ‘बिगुल के लक्ष्य और स्वरूप’ के बहाने आज के लिए ज़रूरी मज़दूर अख़बार के स्वरूप पर जारी चर्चा से लगातार काफ़ी दूर खींच लाये हैं। हमारा आग्रह है कि हमने अख़बार के स्वरूप पर बहस शुरू करते हुए और लेनिन के एक लेख का हिस्सा छापते हुए उसके हवाले से ‘बिगुल’ के अप्रैल ’99 अंक में जो मूल प्रस्थापनाएँ रखी थीं, उन पर नये सिरे से विचार किया जाये।

हमारा एक अनुरोध और है। यह बहस अब इतनी व्यापक और विस्तारित हो चुकी है कि ‘बिगुल’ के कलेवर और स्वरूप से बाहर जा चुकी है। इस बार तो हम विशेष बहस परिशिष्ट छापकर आपका पत्र और उसका उत्तर दे रहे हैं। पर चूँकि इसका सम्बन्ध अब इसके स्तर की दृष्टि से मुख्यत: कार्यकर्ताओं और बहुत थोड़े से उन्नत स्तर के पाठकों से ही बन रहा है, अत: एक दूसरा तरीक़ा अपनाना बेहतर लग रहा है। आप अपना उत्तर वैसे भी बहुत जगह बाँटते-भेजते हैं। ‘बिगुल’ से जुड़े सभी कार्यकर्ताओं व अन्य दूसरे सभी उन्नत सम्पर्कों तक भी आप ही उसे पहुँचायें। हम पतों की पूरी सूची आपको दे देंगे। साथ ही, आप भी कार्यकर्ताओं और अपने साहित्य के उन्नत चेतना वाले पाठकों के नाम-पते हमें दे दें। हम अपना उत्तर अपने साथियों-सम्पर्कों व उन्नत पाठकों के साथ-साथ उन्हें भी भेजेंगे। इसके साथ ही आन्दोलन के जिन महत्वपूर्ण हिस्सों तक इस बहस को ले जाना हो, उसकी एक सूची आदान-प्रदान करके बना ली जाये और दोनों पक्ष अपने-अपने ‘कमेण्ट्स’ उन्हें भी भेजें। इस तरह आपका जवाब हम दुबारा छापते रहने से बच जायेंगे, ‘बिगुल’के संसाधनों पर ग़ैरज़रूरी बोझ भी नहीं पड़ेगा और यह बहस पूरे शिविर में सबके पास पहुँचती भी रहेगी।

पर इसकी कोई भी उपयोगिता तभी है जब बहस बहस के लिए नहीं, किसी नतीजे तक पहुँचने के लिए चलायी जाये। साथ ही, यदि अपने उत्तर दिये जा चुके तर्कों को ही हठधर्मी के साथ दुहराते रहना हो और मतभेद के मूल मुद्दों को दरकिनार करके नये-नये मुद्दे खड़े करते रहना हो, तो भी इस बहस की कोई सार्थकता नहीं है। यह भी यदि लग रहा हो कि अब तक के चक्रों में हमारे सभी तर्क आ चुके हैं और अब अनावश्यक दुहराव हो रहा है तो मतभेद के मुद्दों को रेखांकित करके इस बहस को समापन तक पहुँचाया जा सकता है।

आपकी जो भी राय हो लिखियेगा। उसके हिसाब से बहस आगे जारी रखने का modus operandi तय कर लिया जायेगा।

 – क्रान्तिकारी अभिवादन सहित,

आपका साथी,

सम्पादक, बिगुल

बिगुल, अक्टूबर 1999


 

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