‘इस्क्रा’ के सम्पादकीय बोर्ड का घोषणापत्र

वी.आई. लेनिन (सम्पादकीय बोर्ड की ओर से)
अनुवाद : अमर नदीम

एक राजनीतिक समाचारपत्र, ‘इस्क्रा’, का प्रकाशन प्रारम्भ करते समय हम यह आवश्यक समझते हैं कि जिन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए हम प्रयासरत हैं, उनके और अपने कार्यभारों की अपनी समझ के बारे में कुछ कहें।

हम रूसी श्रमिक वर्गीय आन्दोलन और रूसी सामाजिक जनवाद* के इतिहास के अत्यन्त महत्वपूर्ण दौर से गुज़र रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों का मुख्य लक्षण रहा है – हमारे बुद्धिजीवी वर्ग में सामाजिक जनवादी विचारों का आश्चर्यजनक तेज़ी से होता प्रचार-प्रसार, और सामाजिक विचारों के इस रुझान के साथ ही औद्योगिक सर्वहारा का एक आन्दोलन भी हाथ मिलाता लगता है जो अपने शोषकों के विरुद्ध संगठित होने और जूझने लगा है और समाजवाद के लिए संघर्ष करने को व्यग्र हो रहा है। सभी जगह मज़दूरों और सामाजिक जनवादी बुद्धिजीवियों के अध्ययन चक्र अस्तित्व में आते जा रहे हैं, स्थानीय आन्दोलनों के पर्चे बड़ी संख्या में वितरित हो रहे हैं, सामाजिक जनवादी साहित्य की माँग बढ़ रही है और आपूर्ति से कहीं अधिक है, और कठोर सरकारी उत्पीड़न भी आन्दोलन पर लगाम लगाने में असमर्थ है। जेलें और निर्वासन के स्थान अपनी क्षमता से अधिक भर चुके हैं। शायद ही कोई ऐसा महीना जाता होगा जिसमें हम पूरे रूस में फैले विशाल ‘जाल में समाजवादियों के फँसने’, भूमिगत सन्देशवाहकों के पकड़े जाने, साहित्य और छापेख़ानों की ज़ब्ती के समाचार न सुनते हों। परन्तु आन्दोलन तो बढ़ ही रहा है, लगातार रूस के व्यापकतर इलाक़ों में फैलता जा रहा है, मज़दूर वर्ग में और भी गहरी जड़ें जमाता जा रहा है और लगातार बढ़ते अनुपात में लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता जा रहा है। रूस का पूरा आर्थिक विकास, सामाजिक चिन्तन का इतिहास, और रूसी क्रान्तिकारी आन्दोलन इस बात की गारण्टी देते हैं कि सामाजिक जनवादी मज़दूर आन्दोलन बढ़ता ही जायेगा और अपने सामने उपस्थित सभी अवरोधों पर निश्चय ही विजय प्राप्त कर लेगा।

(*उस वक़्त ‘सामाजिक जनवाद’ का मतलब क्रान्तिकारी समाजवाद था–सं.)

दूसरी ओर हमारे आन्दोलन का जो मुख्य लक्षण पिछले दिनों में विशेष रूप से सामने आया है, वह है इसमें एकता का अभाव और इसका नौसिखियापन। जगह-जगह अध्ययन चक्र बन रहे हैं और सक्रिय भी हैं – पर एक-दूसरे से अलग-थलग – ख़ास तौर पर ऐसे अध्ययन चक्र जो एक ही जि़ले में सक्रिय रहे हैं। न तो कोई सुनिश्चित परम्पराएँ स्थापित की जा रही हैं, न ही किसी निरन्तरता का निर्वाह हो रहा है। स्थानीय प्रकाशनों में यह एकजुटता का अभाव और रूसी सामाजिक जनवाद की अब तक की उपलब्धियों से पूर्ण अलगाव और अपरिचय और भी स्पष्ट हो जाता है।

ऐसा बिखराव आन्दोलन के शक्ति और व्यापकता के वर्तमान स्तर से उपजी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है और हमारे विचार से इसके विकास में एक महत्वपूर्ण चिन्तनीय लम्हे को हमारे सामने उपस्थित करता है। आन्दोलन के अन्दर सुदृढ़ीकरण, तालमेल और एक सुनिश्चित ढाँचे और संगठन की सख्त ज़रूरत महसूस की जाने लगी है; फिर भी व्यावहारिक स्तर पर सक्रिय सामाजिक जनवादियों में से कई अब आन्दोलन को नयी ऊँचाइयों तक ले जाने की आवश्यकता को नहीं समझ पा रहे हैं। बल्कि इसके विपरीत व्यापक दायरों में वैचारिक ढुलमुलपन दिखता है – जैसे कि, ‘मार्क्सवाद की आलोचना’ के फ़ैशन और ‘बर्नस्टीनवाद’ के प्रति मूर्खतापूर्ण आसक्ति, तथाकथित ‘अर्थवादी’ रुझान के विचारों का प्रसार, और इसी के अभिन्न अंग अर्थात आन्दोलन को निचले स्तर पर ही अटकाये रखने का प्रयास, और जनसंघर्षों का नेतृत्व करने वाली क्रान्तिकारी पार्टी के गठन के कार्यभार को पृष्ठभूमि में ठेल देना। यह भी एक तथ्य है कि रूसी सामाजिक जनवादियों में ऐसा वैचारिक ढुलमुलपन दिखाई देता है और आन्दोलन की सैद्धान्तिकी से पूरी तरह असम्बद्ध इस संकीर्ण व्यवहारवाद से पूरे आन्दोलन के ही भटकावग्रस्त हो जाने का ख़तरा है। जिस व्यक्ति को भी हमारे अधिकांश संगठनों की हालत के बारे में प्रत्यक्ष जानकारी है, उसे इस बारे में कोई भी सन्देह नहीं है। यही नहीं, इस तथ्य की पुष्टि करने वाली साहित्यिक रचनाएँ भी मौजूद हैं। यहाँ उस विचार पद्धति का उल्लेख ही पर्याप्त होगा जिसका उचित और आवश्यक विरोध पहले ही प्रारम्भ हो चुका है। “राबोचाया मिस्ल” (सितम्बर 1899) का अतिरिक्त परिशिष्ट जो उस रुझान को बिलकुल साफ़ तरीक़़े से सामने ले आता है जो पूरे राबोचाया मिस्ल में व्याप्त है, और अन्त में, सेण्ट पीटर्सबर्ग के ‘मज़दूर वर्ग का आत्मोद्धार’ समूह[1] का घोषणापत्र भी “अर्थवादी” दृष्टिकोण से ही लिखा गया है। और राबोचेये दिलो के ये दावे भी पूरी तरह असत्य हैं कि यह विचार पद्धति सिर्फ़ कुछ व्यक्तियों की राय का प्रतिनिधित्व करती है और कि राबोचाया मिस्ल द्वारा प्रदर्शित रुझान रूसी मज़दूर वर्गीय आन्दोलन के विकास क्रम में एक ख़ास प्रवृत्ति होने के बजाय उसके सम्पादकों के मतिभ्रम और फूहड़पन की अभिव्यक्ति मात्र है।

 इसके साथ ही साथ, उन लेखकों की रचनाएँ जिन्हें अब तक लोग कमोबेश “वैध” मार्क्सवाद के मुख्य प्रतिनिधियों में गिनते हैं, विचारों और सोच के उत्तरोत्तर उस दिशा में बढ़ने का संकेत देती हैं जहाँ वे बुर्जुआ व्यवस्था की वकालत के समकक्ष हो जाती हैं। परिणामस्वरूप हमें हासिल होते हैं वे भ्रम और अराजकता जिसके बल पर भूतपूर्व मार्क्सवादी, या सही कहें तो भूतपूर्व समाजवादी बर्नस्टीन अपनी विजय का बखान करने लगता है और प्रेस में निर्विरोध घोषणा करता है कि रूस में सक्रिय सामाजिक जनवादियों का बहुमत उसका अनुयायी है।

 हम ख़तरे को बढ़ा-चढ़ाकर पेश नहीं करना चाहते परन्तु इसकी ओर से आँखें मूँद लेना बेहद नुक़सानदेह होगा। इसी कारण हम ‘श्रमिक मुक्ति दल’ (‘इमैन्सिपेशन ऑफ़ लेबर’ ग्रुप) द्वारा अपनी साहित्यिक गतिविधियाँ पुनः प्रारम्भ करने और सामाजिक जनवाद को विकृत करने और भोंडे रूप में पेश करने के प्रयासों के विरुद्ध सुनियोजित संघर्ष छेड़ने का हृदय से स्वागत करते हैं।

 उपरोक्त तथ्यों से यह व्यावहारिक निष्कर्ष निकाला जा सकता है: हम रूसी सामाजिक जनवादियों को एकजुट होकर अपने सारे प्रयास एक ऐसी मज़बूत पार्टी के निर्माण की दिशा में लगा देने चाहिए जो सामाजिक जनवाद के एकमात्र झण्डे के नीचे संघर्ष करे। 1898 की कांग्रेस ने – जिसमें रूसी सामाजिक-जनवादी मज़दूर पार्टी की स्थापना हुई थी और घोषणापत्र प्रकाशित किया गया था – ठीक यही कार्यभार हमें सौंपा था।

हम स्वयं को इस पार्टी का सदस्य मानते हैं; हम घोषणापत्र में निहित मूल विचारों से पूर्णतया सहमत हैं और अपने लक्ष्य की आम घोषणा के रूप में इसे अतिशय महत्व देते हैं। इस कारण, हम, इस पार्टी के सदस्यों के तौर पर, अपने तात्कालिक और प्रत्यक्ष कार्यभार का प्रश्न इस रूप में प्रस्तुत करते हैं : पार्टी को अधिकतम सम्भव मज़बूती के साथ पुनरुज्जीवित करने के लिए हमें कौन सी कार्य योजना अपनानी चाहिए?

आमतौर पर इस प्रश्न का यही उत्तर मिलता है कि हमें एक नयी केन्द्रीय समिति चुनकर उसे निर्देशित करना चाहिए कि वह पार्टी मुखपत्र का प्रकाशन पुनः प्रारम्भ करे। परन्तु भ्रम और अव्यवस्था के जिस दौर से हम इस समय गुज़र रहे हैं उसमें इस सीधे-सादे तरीक़़े से शायद ही कोई लाभ हो।

पार्टी को स्थापित और मज़बूत करने का अर्थ है सभी रूसी सामाजिक-जनवादियों के बीच एकता को स्थापित और मज़बूत करना, और ऊपर गिनाये गये कारणों से, ऐसी एकता के लिए आदेश नहीं दिया जा सकता, न ही यह निर्वाचित प्रतिनिधियों के किसी निर्णय द्वारा स्थापित की जा सकती है; इसके लिए तो कठिन परिश्रम करना होगा। सबसे पहले तो, एक ठोस वैचारिक एकता के लिए काम करना होगा जो उन मतभेदों और भ्रान्तियों को निर्मूल कर सके जो – साफ़-साफ़ कहें तो! – रूसी सामाजिक जनवादियों को आज अपनी गिरफ़्त में लिये हुए हैं। इस वैचारिक एकता को एक पार्टी कार्यक्रम के द्वारा सुदृढ़ करना होगा। दूसरे, हमें आन्दोलन के सभी केन्द्रों के बीच सम्पर्क स्थापित करने और उसे बनाये रखने, आन्दोलन के बारे में पूरी सूचना समय से पहुँचाने, और हमारे अख़बार और पत्रिकाएँ रूस के सभी भागों में नियमित रूप से वितरित करने के उद्देश्य से एक संगठन खड़ा करने के लिए काम करना होगा। पार्टी एक ठोस आधार वाली वास्तविकता और परिणामस्वरूप एक सशक्त राजनीतिक शक्ति सिर्फ़ तभी बन पायेगी जब ऐसा संगठन बन चुका हो, जब एक रूसी अग्रिम चौकी स्थापित हो चुकी हो। हमारा इरादा अपने प्रयासों को इस कार्यभार के पूर्वार्द्ध पर केन्द्रित करने का है अर्थात ऐसे साहित्य की रचना जो सैद्धान्तिक रूप से सुसंगत और क्रान्तिकारी सामाजिक-जनवाद को विचारधारात्मक रूप से एकजुट करने में समर्थ हो क्योंकि हमारे विचार से यह आज हमारे आन्दोलन का महत्वपूर्ण तकाज़ा और पार्टी गतिविधियों को पुनः प्रारम्भ करने के लिए आवश्यक प्राथमिक क़दम है।

जैसाकि हम कह चुके हैं, रूसी सामाजिक जनवादियों की विचारधारात्मक एकजुटता अभी निर्मित की जानी है और हमारे विचार से इसके लिए आवश्यक है कि आज के “अर्थवादियों”, “बर्नस्टीनवादियों”, और “आलोचकों” द्वारा उठाये गये सिद्धान्त और रणकौशल सम्बन्धी मूलभूत प्रश्नों पर खुली और व्यापक बहस की जाये। एकजुट होने से पहले, और एकजुट होने के लिए हमें कुछ सुनिश्चित सीमारेखाएँ खींचनी होंगी। अन्यथा हमारी एकजुटता पूरी तरह बनावटी होगी और वर्तमान वैचारिक भ्रमों के पूर्ण उन्मूलन को बाधित ही करेगी। अतः यह बात बिलकुल साफ़ है कि हमारा उद्देश्य अपने प्रकाशन को विभिन्न विचारों का गोदाम भर बना देने का क़तई नहीं है। इसके ठीक विपरीत हम अपना प्रकाशन एक सुनिश्चित, सुपरिभाषित उद्देश्य की भावना से संचालित करेंगे। यह भावना एक शब्द – मार्क्सवाद – में व्यक्त की जा सकती है और यह दुहराना शायद ही आवश्यक हो कि हम दृढ़ता के साथ मार्क्स और एंगेल्स के विचारों के सुसंगत विकास के पक्ष में हैं और मज़बूती के साथ उन लफ़्फ़ाज़ी पूर्ण, गोलमोल, और अवसरवादी “सुधारों” को अस्वीकार करते हैं जिनका फ़ैशन एडुअर्ड बर्नस्टीन, पी. स्त्रूवे, और अन्य कई लोगों ने चला रखा है।  यद्यपि हम सारे मुद्दों पर चर्चा अपने सुनिश्चित दृष्टिकोण से ही करेंगे, पर हम अपने कॉलमों में कामरेडों के बीच होने वाली बहस के लिए स्थान रखेंगे। सभी रूसी सामाजिक-जनवादियों और वर्गचेतन मज़दूरों के सामने ऐसी खुली बहसें आवश्यक और वांछित हैं ताकि मौजूदा मतभेदों की गहराई स्पष्ट हो सके, ताकि विवादित मुद्दों पर सभी दृष्टिकोणों से बहस हो सके, ताकि उस अतिवाद के विरुद्ध संघर्ष किया जा सके जिसके शिकार न केवल विभिन्न विचारों के अपितु विभिन्न इलाक़ों और क्रान्तिकारी आन्दोलन की भिन्न-भिन्न “विशिष्टताओं” के प्रतिनिधि अपरिहार्य रूप से हो जाते हैं। निस्सन्देह, जैसाकि ऊपर कहा गया है, हम स्पष्ट रूप से परस्पर विरोधी दृष्टिकोणों के बीच खुली बहस के अभाव और बुनियादी मुद्दों के बारे में मतभेदों पर पर्दा डालने के प्रयास को वर्तमान आन्दोलन की कमजोरियों में से एक मानते हैं।

हम अपने प्रकाशन कार्यक्रम के सारे मुद्दों और बिन्दुओं के विस्तार में नहीं जायेंगे क्योंकि यह कार्यक्रम स्वतः वर्तमान परिस्थितियों में प्रकाशित एक राजनीतिक समाचारपत्र कैसा होना चाहिए की आम धारणा पर ही आधारित है।

हमारा पूरा प्रयास रहेगा कि प्रत्येक रूसी कॉमरेड हमारे प्रकाशन को अपना ही माने, जिससे सारे ही समूह आन्दोलन से सम्बन्धित हर तरह की सूचनाएँ साझा कर सकें, जिसमें वे अपने अनुभव दूसरों से बाँट सकें, अपने विचार व्यक्त कर सकें, राजनीतिक साहित्य की अपनी आवश्यकताएँ बता सकें, और सामाजिक-जनवादी संस्करणों के बारे में अपनी राय व्यक्त कर सकें, संक्षेप में कहें तो, आन्दोलन के लिए उनका जो भी योगदान हो और आन्दोलन से उन्होंने जो कुछ भी ग्रहण किया हो, वे उस प्रकाशन के माध्यम से साझा कर सकें। सिर्फ़ इसी तरीक़़े से एक अखिल रूसी सामाजिक-जनवादी मुखपत्र की नींव डालना सम्भव हो सकेगा। सिर्फ़ ऐसा प्रकाशन ही आन्दोलन को राजनीतिक संघर्ष के असली रास्ते पर ले जा सकेगा। “अपनी सीमाओं का विस्तार करो और अपनी प्रचारात्मक, आन्दोलनात्मक, और संगठनात्मक गतिविधियों की अन्तर्वस्तु को और भी व्यापक बनाओ” – पी.बी. एक्सेलरोद के इन शब्दों को रूसी सामाजिक-जनवादियों की निकट भविष्य की कार्यवाहियों को परिभाषित करते नारे की भूमिका अदा करनी चाहिए, और यही नारा हम अपने प्रकाशन के कार्यक्रम के लिए भी अपना रहे हैं।

हमारी अपील मात्र समाजवादियों और वर्गचेतन मज़दूरों से नहीं है, हम उन सभी का आह्वान करते हैं जो वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था द्वारा उत्पीड़ित हैं; हमारे प्रकाशन के कॉलम उनके लिए उपलब्ध हैं ताकि वे रूसी निरंकुशता की सारी घृणास्पद जुगुप्सा को उजागर कर सकें।

जो लोग सामाजिक-जनवाद को सर्वहारा के स्वतः-स्फूर्त संघर्षों का संगठन भर समझते हैं, वे स्थानीय आन्दोलनों और मज़दूर वर्गीय साहित्य मात्र से सन्तुष्ट हो सकते हैं। हम सामाजिक-जनवाद को इस रूप में नहीं देखते; हम इसे मज़दूर वर्गीय आन्दोलन से अविच्छिन्न रूप से जुड़ी और निरंकुशता के विरुद्ध कार्यरत क्रान्तिकारी पार्टी मानते हैं। सिर्फ़ ऐसी एक पार्टी के रूप में संगठित हो कर ही सर्वहारा – आज के रूस का सर्वाधिक क्रान्तिकारी वर्ग – अपने समक्ष प्रस्तुत ऐतिहासिक कार्यभार को पूरा कर सकेगा – अर्थात देश के तमाम जनवादी तत्वों को अपने झण्डे के नीचे एकजुट करना और घृणित व्यवस्था के ऊपर निर्णायक विजय का सेहरा उस कठिन संघर्ष के सर पर बाँधना जिसमें कितनी ही पीढ़ियाँ अपनी बलि दे चुकी हैं।

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समाचारपत्र का आकार एक से दो हस्ताक्षरित आलेखों के बीच होगा।

उन परिस्थितियों के कारण जिनमें रूसी भूमिगत प्रेस को काम करना पड़ता है, प्रकाशन की कोई नियमित तिथि नहीं होगी।

हमें अन्तर्राष्ट्रीय सामाजिक-जनवाद के अनेक महत्वपूर्ण प्रतिनिधियों से लेख आदि मिलने का, श्रमिक मुक्ति समूह (जी.वी. प्लेखानोव, पी.बी. एक्सेलरोद, और वी. आई. ज़ासुलिच) से घनिष्ठ सहयोग का, और रूसी सामाजिक-जनवादी मज़दूर पार्टी के विभिन्न संगठनों के साथ ही साथ रूसी सामाजिक-जनवादियों के विभिन्न समूहों से मदद का आश्वासन मिला है।

 टिप्पणियाँ

 [1] मज़दूर वर्ग का आत्मोद्धार समूह “अर्थवादियों” का एक छोटा सा समूह था जो 1898 के पतझड़ में सेण्ट पीटर्सबर्ग में प्रारम्भ हुआ था और कुछ महीने तक ही चल पाया था। इस समूह ने अपने उद्देश्यों का एक घोषणापत्र (लन्दन से प्रकाशित पत्रिका नाकानुने {पूर्वसन्ध्या पर} में मुद्रित), अपनी नियमावली, और मज़दूरों को सम्बोधित कई घोषणाएँ जारी की थीं।

लेनिन ने अपनी पुस्तक ‘क्या करें’ के दूसरे अध्याय में इस समूह के विचारों की आलोचना की थी।

सर्वप्रथम ‘इस्क्रा’ द्वारा 1900 में एक स्वतन्त्र पर्चे के रूप में प्रकाशित।

 स्रोत : लेनिन की संकलित रचनाएँ, प्रगति प्रकाशन, 1964, मास्को, खण्ड 4, पृष्ठ 351-356 (अंग्रेज़ी संस्करण)।

मज़दूर बिगुल, फरवरी 2017


 

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