‘बिगुल के लक्ष्य और स्वरूप’ पर जारी बहस : एक प्रतिक्रिया

ललित सती का पत्र

‘बिगुल के लक्ष्य और स्वरूप’ पर जारी बहस के तहत साथी पी.पी. आर्य की तरफ से एक मोटा पुलिन्दा (‘बिगुल’ को भेजे जाने वाले जवाब की फोटो प्रतिलिपि) हमें भी प्राप्त हुआ। पुलिन्दे (उक्त जवाब को पुलिन्दा ही कहा जाना उचित होगा) का राजनीतिक जवाब तो ‘बिगुल’ के सम्पादक की ओर से दिया ही जायेगा। मैं पहले कुछ तकनीकी मुद्दों पर ध्‍यान दिलाना चाहूँगा।

सर्वप्रथम तो यह कि जब साथी पी.पी. आर्य के पास ‘बिगुल’ के सारे अंक ही उपलब्ध नहीं हैं (उन्होंने स्वयं अपने पत्र में यह बात क़बूली है) तो वे बहस किस पर चला रहे हैं। इससे सीधे-सीधे ”बहस” के पीछे का उनका मन्तव्य साफ़ हो जाता है और महज़ इस बात पर उनका भारी-भरकम पोथा कूड़ेदानी के हवाले किया जा सकता है।

दूसरी बात, जनाब पी.पी. आर्य प्राइमरी के उस अधयापक के जैसे लगते हैं जिसे लम्बे-लम्बे इमला बोलते समय या तो इस बात का कदापि इल्म नहीं रहता है कि बच्चे की तख्ती पर कितने शब्द आयेंगे, या फिर जो अपनी ‘विद्वता’ से आतंक पैदा करना चाहता है। साथी, आठ पेज के अख़बार में उद्देश्य व स्वरूप पर बहस के लिए कितना बड़ा पत्र लिखा जाना चाहिए, क्या आप जानते नहीं हैं, या जानकर अनजान बन रहे हैं? ‘बिगुल’ ने तो फिर भी आपके पहले पत्र की ही विशालता को छापने, बहस चलाने के उद्देश्य से अख़बार के चार पृष्ठ बढ़ा दिये। अब आपने उससे भी भारी पोथा भेजकर फिर एक चालबाज़ी की है, कि या तो विवशतावश ‘बिगुल’ इसे न छापे (ताकि आप अपने कुत्सा प्रचार के पुराने हथियार का इस्तेमाल कर सकें। इसीलिए तो जवाब पहले ‘बिगुल’ कार्यालय भेजने की जगह उससे जुड़े साथियों तक पहुँचाने की जल्दबाज़ी दिखलायी) और यदि इसे छापा जाये तो पूरा ‘बिगुल’ ही उसमें समा जाये।

पत्र में तारीख़ का मुद्दा उठाकर आपने अपने को ही बेनक़ाब कर लिया। अमूमन, यदि ‘बिगुल’ सम्पादक को आपके पत्र और अपने उत्तर के बीच कम दिन का अन्तर दिखलाने का कोई प्रयोजन होता तो वे आपके पत्र की तारीख़ बदलने की जगह अपने ही जवाब की तारीख़ पीछे की डालते। पत्र में तिथि आपने बेशक 6.5.99 की डाली है लेकिन मेरी जानकारी के अनुसार ‘बिगुल’ कार्यालय में यह पत्र जून के प्रथम सप्ताह में ही मिला था। अब इस दूसरे पत्र को ही ले लें। मुझे यह पत्र 30 अगस्त को ही मिल गया था। (पत्र में 21 अगस्त की तारीख़ पड़ी है) जबकि बिगुल कार्यालय में अभी आज तक (7 सितम्बर) वह नहीं प्राप्त हुआ है (मुझे पत्र की प्रतिलिपि देने आये आर्य जी के ही एक साथी ने बताया कि अभी पत्र बिगुल कार्यालय भेजा जा रहा है)। यहाँ आप एक ऐसे क़ानूनविद नज़र आते हैं जो ख़ुद अपने ही तर्कों में फँस जाता है।

यहीं एक बात हम और कहना चाहेंगे। साथी पी.पी. आर्य अपने पत्र में एक जगह लिखते हैं कि ”बिगुल के वितरक साथी बिगुल को केवल अग्रणी वर्ग-सचेत मज़दूरों को देने के बदले हर आम मज़दूर को पकड़ा देते हैं।” यहाँ वे उस कूपमण्डूक की भाँति लगते हैं जो एक तालाब के किनारे खड़ा होकर उसकी गहराई के बारे में अहंकारी की तरह बयान देने लगता है। उसकी गहराई के बारे में उस शख़्स से बहस करने लगता है जो उसमें तैर रहा है। इनकी तर्कपद्धति तो यह है कि वे बन्द कमरे में ही बैठक मज़दूर की चेतना निर्धारित कर देना चाहते हैं। तभी तो इनकी उस आभासी चेतना का निर्माण होता है जिसमें इनको मज़दूर तब तक उन्नत चेतना का नहीं दिखलायी देगा जब तक कि वह एक मार्क्‍सवादी बुद्धिजीवी की तरह अपने को अभिव्यक्त नहीं करने लगता। जनाब हमारे पास वह ”अलौकिक शक्ति” नहीं है कि बग़ैर उनके पास गये ही उनकी चेतना के स्तर को चिह्नित-निर्धारित कर सकें।

जनाब आर्य के एक साथी ने एक बार ‘बिगुल’ की आलोचना करते हुए यह कहा था कि ‘हमें साहित्य वहीं तक वितरित करना चाहिए जहाँ तक हमारी पहुँच हो’। यहाँ भी यही प्रश्न खड़ा हो जाता है कि हमारी ”पहुँच” निर्धारित कैसे होगी? और क्या जहाँ हमारी ”पहुँच” नहीं है वहाँ क्रान्तिकारी साहित्य देना वर्जित होना चाहिए? जनाब पी.पी. आर्य और उक्त साथी की बात में एक समानता है। हम लोग तो मज़दूर आन्दोलन में कुछ सीखते, अध्‍ययन-मनन करते हुए मज़दूर आन्दोलन को संगठित करने का प्रयास कर रहे हैं। यहाँ ‘बिगुल’ हमारे लिए काफ़ी मददगार साबित हो रहा है। हाँ, साथी पी.पी. आर्य जैसे लोग अपनी ‘दिव्य दृष्टि’ से पहले से ही ‘मज़दूरों की चेतना’ निर्धारित कर सकते हैं और साहित्य वितरण की सीमा बाँध सकते हैं।

ललित सती

रुद्रपुर (ऊधमसिंहनगर)


बिगुल’ अक्टूबर 1999


 

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