साथी पी.पी. आर्य के 6 मई ’99 के पत्र पर देर से प्रकाशित एक और प्रतिक्रिया
देहाती मज़दूर यूनियन के कार्यकर्ताओं का पत्र

यह पत्र ग्रामीण मेहनतकशों के बीच ‘बिगुल’ लेकर जाने वाले कुछ कार्यकर्ताओं ने सबसे पहले लिखा था। पर सम्पादकीय प्रत्युत्तर छप जाने की सूचना मिलने पर एक सम्‍बन्धित साथी ने इसे सम्पादकीय कार्यालय नहीं भेजा। बाद में यह उत्तर जब सम्पादकीय कार्यालय को प्राप्त हुआ तो इसे छापना हमें ‘बिगुल’ के पाठकों के लिए उपयोगी और ज़रूरी लगा। इस पत्र में यह स्पष्ट होता है कि ‘बिगुल’ के मार्गदर्शन में मार्क्‍सवाद से शिक्षित कार्यकर्तागण, साथी पी.पी. आर्य जैसों की लाइन की विजातीयता को किस प्रकार देखते-परखते हैं। – सम्पादक

प्रति, श्री पी.पी. आर्य,

प्रिय साथी,

अप्रैल 1999 के अंक का सम्पादकीय ‘बिगुल के लक्ष्य और स्वरूप पर एक बहस और हमारे विचार‘ तथा सम्पादकीय की बातों को पुष्ट करने के लिए – ”मज़दूर अख़बार किस मज़दूर के लिए?” (लेनिन के 1899 के लिखे लेख ‘रूसी सामाजिक जनवादी में एक प्रतिगामी प्रवृत्ति‘ के एक अंश का अनुवाद) को पढ़ने के बाद आपने ‘बिगुल‘ के लेखकों और पाठकों के लिए 6.5.99 की लिखित प्रतिक्रिया भेजी है और उम्मीद रखे हैं कि वह बिगुल में छपेगी तथा अख़बार के लक्ष्य एवं स्वरूप पर बहस आगे बढ़ेगी।

महोदय, अपने पत्र में पैरा-2 में बिगुल के लक्ष्य एवं स्वरूप से सहमति जताते हुए आपने पैरा-3 में कुछ शिक़ायत दर्ज की है। वह यह कि –

1. बिगुल अपने घोषित उद्देश्य को पूरा नहीं कर रहा है।

2. (बल्कि) बिगुल अपने घोषित उद्देश्य के विपरीत काम कर रहा है।

आप बिगुल की घोषित उद्देश्य की निष्क्रियता एवं उसके उद्देश्य की विपरीतता पर बात शुरू करने-करते बिगुल के सम्पादक पर, उसकी काम की विपरीतता पर आ गये हैं। ख़ैर, आपने अपनी प्राथमिकता के आधार पर बहस चुनी है। आपकी बिगुल के सम्पादक से यह शिक़ायत है कि ”आप बिना खुले तौर पर नाम लिए कुछ लोगों पर मेंशेविक एवं अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी होने का चिप्पा लगा देते हैं। आपने छूटते ही गाली दी। यह न तो बहादुरी का काम है और न अक्लमन्दी का। आपकी गालियों से न तो सामने वाले डरेंगे और न ही आपके शागिर्द हो जायेंगे। इस तरह चिप्पे लगा देने से कहीं से भी सर्वभारतीय संगठन के निर्माण में मदद नहीं मिलती है। इसके उलट सामने वाले की समझ में आने लगता है कि आप लोग कुछ कमज़ोर और छिछले लोग हैं जोकि दूसरों को गालियाँ देकर आत्म-महानता की कुण्ठाओं में जीना पसन्द करते हैं। ऐसी हरकतों से सामने वालों को यही समझ में आता है कि एक सर्वभारतीय क्रान्तिकारी राजनीतिक संगठन का हिस्सा बनने के लिए जो समान कम्युनिस्ट विनम्रता होनी चाहिए, आपमें उसकी कमी है।” और अन्त में आप की हिदायत है कि ”बिगुल के सम्पादक अपनी आदत सुधारें और इस छिछलेपन से उबरें।

महोदय, आपकी इस सुझाव पर बेशक़ विचार किया जाना चाहिए और किया जायेगा। लेकिन ये तो बताइये आप अपनी दाढ़ी क्यों झाड़ रहे हैं जबकि उसमें तिनका नहीं है? चोर को चोर कहना क्या वाक़ई गाली है? मेंशेविक, अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी प्रकृति को आपकी समझ से कैसे सम्बोधित किया जाये ताकि इनके सारतत्व को समझा भी जा सके ओर गाली का आरोप भी न लगने पाये? प्रवृत्तियाँ भी क्या कभी नख-शिख से पहचानी जा सकती हैं? इनकी पहचान तो सिर्फ़ इनकी क्रियाकलापों से ही की जा सकती है। ऐसी प्रवृत्तियों को उनकी विशेषणों से, जिनको मार्क्‍सवाद के शिक्षकों ने बहुत समझबूझ कर विश्लेषित करके नाम दिया है, यदि सम्बोधित किया गया तो फिर यह गाली कैसे है? यदि इसे आप गाली मानते हैं तो शुरू से लेकर अब तक मार्क्‍सवादी आलोचनात्मक साहित्यों में गालियाँ ही गालियाँ भरी पड़ी हैं, ये सम्पादक की अपनी ईजाद नहीं। ऐसी प्रवृत्तियों पर मार्क्‍स से लेकर माओ तक ने यही विश्लेषण चस्पाँ किये हैं। रही बात सामने वाले के डरने की तो सम्पादक इस मुग़ालते में नहीं है। विश्लेषण तो इसलिए उछाला गया है कि कोई प्रगतिशील तत्व ऐसी प्रवृत्तियों को पहचानने में कहीं भूल न कर बैठे।

महोदय, किसी को शागिर्द बनाने अथवा किसी का शागिर्द बनने से कम्युनिस्ट नैतिकता परे होती है। शागिर्दी तो ऐसी प्रवृत्तियों के वक़ीलों को ही सुलभ और मुनासिब है। अगर सच कहा जाये तो यह आत्ममहानता की कुण्ठा ही है कि प्रकृति-विश्लेषकों को कुछ कमज़ोर और कुछ छिछला कहा गया है। जहाँ तक कम्युनिस्ट विनम्रता का सवाल है तो कम्युनिस्ट विनम्रता, मेहनतकशों, प्रगतिशील बुद्धिजीवियों तथा कम्युनिस्टों के लिए हुआ करती है, मेंशेविकों, अराजकतावादियों, संघाधिपत्यवादियों एवं अन्य कम्युनिस्ट विरोधियों के लिए नहीं। अभी आप कम्युनिस्ट विनम्रता से ही परिचित हैं, कम्युनिस्ट कठोरता से शायद नहीं। मार्क्‍सवाद नरम-नरम हलवा नहीं है। जहाँ तक सर्वभारतीय संगठन निर्माण की बात है तो किस तरह का सर्वभारतीय संगठन? भाकपा-माकपा मार्का या भाकपा (माले) मार्का? ”सर्वधर्म समभाव” या ख्रुश्चेवी ”सम्पूर्ण जनता” मार्का? अनुरोध अनुनय-विनय, अनुकम्पा भी मेंशेविज्म, अराजकतावादी, संघाधिपत्यवाद का ही सबल हथियार है, कम्युनिस्ट तो सिर्फ़ पद्धति, प्रणाली, तर्क और व्यवहार पर ही विश्वास करते हैं। सम्पादक ने किसी व्यक्ति विशेष की आलोचना या तोहमत नहीं लगाया है वह तो प्रवृत्तियों का मात्र विश्लेषण भर किया है।

महोदय, आपने अपने पत्र के पैरा 4 में तोहमत और तीखी आलोचना में गुणात्मक अन्तर दिखाते हुए लेनिन को कोट किया है और एक क्रान्तिकारी पार्टी-बिल्डिंग की सफलता के लिए लेनिन की कार्यशैली के अनुसार काम करने का नेकनीयती के साथ सुझाव दिया है। माना कि तोहमत और तीखी आलोचना में गुणात्मक अन्तर है, पर यह भी तो प्रभावित (आलोच्य) प्रवृत्तियों की गुणात्मक अन्तरताओं का ही प्रतिफलन है? इन्हीं गुणात्मक अन्तरताओं के चलते एक बात किसी को सीख, किसी को आलोचना, किसी को तीखी आलोचना तो किसी-किसी को तोहमत लगने लगती है। मुर्गी की समान गर्मी से एक अण्डे से चूजा निकल आता है पर उसी आकार का एक पत्थर नीम-गरम भी नहीं हो पाता है। इसलिए कि अण्डे और पत्थर में गुणात्मक अन्तर है। यही वैज्ञानिक सच है। लेनिन की कार्यशैली किसान की उस कार्यशैली के मानिन्द है जो गेहूँ और गेहूँ के मामा के ऊपर अलग-अलग प्रभाव डालती है। गेहूँ की अच्छी फसल के लिए गेहूँ के मामा को उखाड़कर फेंकना ही पड़ता हे। लेनिन की कार्यशैली को समझने के लिए ‘राज्य और क्रान्ति‘ एवं ‘क्या करें?‘ को ठीक से पढ़ने की ज़रूरत है। आप पायेंगे कि उनमें कितनी सफ़ाई से गेहूँ और गेहूँ के मामा को फरियाया गया है।

महोदय, अब हम आते हैं आपके 5 एवं 6 पैरे पर। पाँचवें पैरा में बिगुल सम्पादक का अन्याय दर्ज किये हैं यथा सम्पादक ने अपने सम्पादकीय में कुछ लोगों को मेंशेविक होने का आरोप लगाया है और ‘व्यक्तिवाद-विरोध’ पर कूपमण्डूकता एवं अधकचरा-मौलिक सिद्धान्तकार कहकर फटकारने का हवाला दिया गया है। जिसके जवाब में पैरा-6 में रूस-चीन का उदाहरण देकर यह सिद्ध करने की कोशिश की गयी है कि ”गुमनाम लेखन आज की परिस्थिति में भारत के लिए बहुत ज़रूरी है।” और यह भी लिखे हैं कि ”कुछ क्रान्तिकारी नेता और उनके परिवार-जन ‘छपास’ का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते। अपनी व्यक्तिगत शोहरत के लिए संगठन के प्रकाशन गृहों का खुलकर इस्तेमाल करते हुए लजाते नहीं।” और इसमें आपको व्यक्तिवाद नज़र आ रहा है। इसके लिए आप थोड़ा विलाप किये हैं कि थोड़ा आदर्श होना चाहिए और थोड़ा वाम। यदि कभी-कभार नाम भी देना हो तो सिर्फ़ आन्तरिक बहसों तक। आगे कहा गया है कि ”इतने पर भी नहीं मानते हैं तो आप शौक़ से इस दलदल में पड़े रहिये, दूसरों को इस दलदल में खींचने की कोशिश मत कीजिये।” फिर आप को तसल्ली नहीं होती है तो मुड़कर सामूहिकता के दर्शन से कम्युनिस्ट पार्टी बनाने की तहज़ीब सिखाते हुए ”एक क़दम आगे दो क़दम पीछे” से लेनिन को कोट कर देते हैं।

महोदय, वाक़ई आपने बहुत मेहनत की है। इस मेहनत से आप पसीना-पसीना तो हो ही गये होंगे। बिजली भी तो इस समय कुछ अधिक ही गुल रहती है? पाकेट से रूमाल निकालकर चेहरा साफ़ करने के बाद बड़े ही आत्म-महानता के सन्तोष के साथ एक लम्बी उच्छ्वास भी खींचे होंगे। क्यों नहीं, क्यों नहीं, आप एक विद्वान जो ठहरे। मार्क्‍सवाद को आप नहीं समझेंगे तो फिर दूसरा कौन समझेगा, लेकिन एक ही बात हमें खटक रही है – हँसुवा के ब्याह में खुरपी के गीत क्यों? चले थे हम लोग ‘बिगुल के लक्ष्य और स्वरूप पर’ बहस करने और हो गयी सास-पतोहू की रेंड़वारी-बंसवारी। ख़ैर, अब तो मजबूरी है कि किसानी शैली से गेहूँ की सुरक्षा के लिए गेहूँ के मामा को अलग किया जाये।

 महोदय, पत्र में आपने स्वीकारा है कि बिना नाम लिये मेंशेविक होने का आरोप लगाया गया है। पहली बात – मेंशेविक प्रवृत्ति को उजागर करने में आपको क्या परेशानी है? ऐसी प्रवृत्तियाँ जब-जब भी सर उठायी हैं, क्रान्तिकारी खेमे में उनका भण्डाफोड़ होता रहा है। मेंशेविक से बोल्शेविक पार्टी बनी ही इन्हीं प्रवृत्तियों को चिह्नित करके। आरोप के आधार – ”मज़दूर वर्ग के बीच… ऊँचा उठाना चाहिए।” जो बिगुल में दर्ज है उसे शायद आपने ठीक से पढ़ने की जहमत नहीं उठायी। दूसरी बात – व्यक्तिवाद विरोध की सोच ही आपमें कैसे आयी? क्या एक कम्युनिस्ट संगठन में एक व्यक्ति द्वारा की गयी कार्रवाई व्यक्तिवादी कार्रवाई होती है यदि वह सचमुच ढाँचा और संगठन से दुरुस्त हो? ऐसी बात तो दो ही के दिमाग़ में आ सकती है या तो उनके जो नौसिखुए हैं या उन घाघ मध्‍यवर्गियों के जिनको सिवाय खुड़पेंच के ढाँचा और संगठन से कुछ लेना-देना नहीं होता। बिगुल का निकालना एक खुली कार्यवाही है फिर इसको गुमनाम क्यों लिखा जाये? महोदय, आप ये कैसे जानते हैं कि जो लेख बिगुल में जाता है, कोई व्यक्ति मर्जी से अपनी नाम देता है, यह भी तो हो सकता है कि बिगुल के लेख में जाने वाला नाम संगठन तय करता हो और क्रान्तिकारी संगठनों में यही होता है। क्यों, क्या एतराज़ है इस पर आपको? कै प्रतिशत आदर्श और कै प्रतिशत वाम होना चाहिए? ये भी आपको लिखना चाहिए। आप द्वारा लिखा गया ‘छपास’ शब्द से तो हलवाई की मिठाई देखकर कुक्कुर की छाती फटने का भाव झलक रहा है और ‘लजाने’ शब्द से अंगूर के प्रति उस लोमड़ी के खटास भाव की सड़ाँध भरी बदबू। लेनिन के जुमलों की सिर्फ़ जुगाली करते हुए उनकी राजनीतिक कार्यवाही के विपरीत आचरण करने वाली प्रवृत्ति ही मेंशेविज़्म है। ‘दल-दल में घुस जाने’ वाला जुमला लेनिन नये अवसरवादियों की ‘आलोचना की स्वतन्त्रता’ के लिए इस्तेमाल किये थे। (पढ़िये ‘क्या करें?’) बरसाती पटाव पर गोंजर-बिच्छुओं को खींचकर लाया नहीं जाता, वे तो स्वयं ही रेंग कर पटाव पर आ जाते हैं जो ख़तरा ही पैदा करते हैं।

महोदय, लेनिन के ”एक क़दम आगे दो क़दम पीछे” पुस्तक से आप द्वारा दिया गया कोटेशन पार्टी-निर्माण में वैसे ही है जैसे कोई सईस अपनी सईसाना के मद में अन्धा होकर घोड़े के मुँह के बजाय उसके पूँछ में लगाम लगा दे। लेनिन जिस सन्दर्भ में यह अंश लिखे हैं क्या वैसा ही सन्दर्भ है, जहाँ आपने ये अंश (कोटेशन) फिट किया है? कम्युनिज़्म सामूहिकता का दर्शन है, बेशक़, पर क्या सामूहिकता का दर्शन सर्वहारा में अपने आप आ जाता है या सर्वहारा को यह दर्शन दिया जाता है? आपके मतानुसार, तब तो मार्क्‍स, एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन, माओ को अपनी-अपनी महान रचनाएँ नहीं लिखनी चाहिए क्योंकि ये सब विशिष्ट व्यक्तियों की महानता का प्रतीक-चिह्न हैं और इनसे पार्टी-निर्माण अवश्य बाधित होता रहा होगा। आपके तर्क की दिशा यही तो है?

महोदय, पैरा-7 में आपने बुद्धिजीवियों की प्रवृत्ति का जो विश्लेषण किया है, वह जलेबी पारने से अधिक कुछ नहीं है। मार्क्‍सवादी दर्शन के सारे के सारे धुरन्धर विभूतियों की क्या मजबूरी थी, जिसके चलते जन समूह के लिए अनुशासन की आवश्यकता स्वीकारे थे? क्या मार्क्‍स से लेकर माओ तक सभी अनिच्छा से पार्टी-निर्माण, पार्टी-गठन के कामों में लगे थे। दाद है आपकी इस तर्क बुद्धि को!

महोदय, आठवें पैरे में आप एकदम दार्शनिक हो उठे हैं। आपकी इस दर्शन की कै से घृणा हो रही है। सारे के सारे बुद्धिजीवियों पर अपनी दार्शनिक नज़र से ऐसे घूरे हैं जैसे ऋषि ने उस ब्लाटा चिड़िया पर घूरा था। वर्ग-संघर्ष का दर्शन इन्हीं बुद्धिजीवियों ने ही दी है जिन पर अनायास ही आप लाल-पीले हो रहे हैं। महोदय, बुद्धिजीवियों का भी वैचारिक वर्ग होता है। ऊपर जो कुछ भी लिखा गया है वह बिगुलके लक्ष्य एवं स्वरूप पर कुछ भी सार्थक बहस का हिस्सा नहीं है।

महोदय, नवें पैरा में आपने बिगुल के स्वरूप पर थोड़ी निगाह डाली है। बिगुल के स्वरूप की अपनी आलोचना में आपने लेनिन के अनुवादित लेखक का हवाला देते हुए यह साबित करने की कोशिश की है कि बिगुल का कोई स्तर नहीं है। इसलिए इसकी कोई भूमिका भी नहीं है। इस मायने में काग़ज़ और स्याही की बरबादी है। आपकी आलोचना सचमुच जन-समूह के अनुरूप है। धनिया बेचने वाले बनियों के कुछ हिस्सों से यही आलोचना सुनने को मिलती है जो शुकसागर सोरठी, शोभकनवा के आत्मज्ञान की महानता के ऐंठ में बैठे रहते हैं और भूल से कभी-कभार उनके हाथों में बिगुल पड़ जाता है तो वे भी यही कहते हैं – क्या है बिगुल में? कुछ भी तो नहीं है इसमें? चार पन्ने का कमनिष्टिहा अख़बार है। इससे बढ़िया तो पांचजन्य, सहारा, आज और दैनिक है। और वे बिगुल को ऐसे लौटाते हैं जैसे जल्दी नहीं किये तो बिगुल उनको डँस लेगा। आप जैसे क्रान्तिकारियों के लिए बिगुल कोई स्तर भला क्यों रखेगा? मैं यह मान सकता हूँ क्योंकि आप की सोच उन्हीं जन-समूह के सोच के धरातल पर है और साथ ही कम्युनिस्ट पार्टी बनाने के प्रति आप गम्भीर भी हैं। माना कि सम्पादक पर आपने बड़ी कृपा की है। समझदारी देकर काग़ज़ और स्याही की बरबादी से उबारा है पर आपने यह नहीं बताया कि बिगुल किस दृष्टि से स्तरहीन है, भाषा या अन्तरवस्तु से?

महोदय, आपने दसवें पैरा में बिगुल की इसलिए खिंचाई की है क्योंकि यह आम मज़दूरों के एक बड़े घेरे के लिए बोधगम्य नहीं है। यहाँ भी आपने साफ़ नहीं किया कि भाषा की दृष्टि से या अन्तर्वस्तु के दृष्टि से? मैं आप से यह जानना चाहूँगा कि आप जैसे उच्च क्रान्तिकारियों और आम मज़दूरों के विशाल घेरे के बीच कोई संस्तर है या नहीं? आपकी समझ से एक उच्च क्रान्तिकारियों का संस्तर है दूसरा संस्तर आम मज़दूरों का विशाल घेरा। इसके अलावा कोई संस्तर है ही नहीं। जब इन दो के अलावा तीसरा कोई संस्तर है ही नहीं तो बिगुल के पाठक कहाँ से पैदा हो गये और बिगुल के पाठक को बिगुल की आलोचना का सवाल कहाँ से उभर आया? लेनिन का सही इस्तेमाल करने वाले महोदय, इसका क्या उत्तर देंगे? यह भी बिगुल के लक्ष्य और स्वरूप पर कोई कारगर बहस नहीं बल्कि दो प्रवृत्तियों के बीच स्पष्ट किया गया रेखांकन है।

महोदय, आपका ग्यारहवाँ पैरा भी बिगुल के लक्ष्य एवं स्वरूप के मुद्दे से भटका हुआ है। आपका बिगुल के सम्पादक पर आक्षेप है कि काल और स्थान के भेद का ख़याल नहीं रखा जाता है। इसकी पुष्टि में 1899 के रूसी मज़दूर आन्दोलन और 1999 के भारत के मज़दूर आन्दोलन की स्थिति की तुलना की गयी है। इस पर आपसे मेरा यही कहना है कि आप सिर्फ़ अंश को देख रहे हैं समग्र को नहीं। आज की दुनिया पेरिस कम्यून की पूर्व स्थिति में नहीं खड़ी है। इस धरती पर अनेक देशों में जनवादी समाजवादी क्रान्तियाँ सम्पन्न हो चुकी हैं। यह भी सच है कि आज सारी जनवादी, समाजवादी सत्ताएँ धराशायी भी हो चुकी हैं। सम्पूर्ण विश्व साम्राज्यवाद के डण्डों के नीचे है। इसका मतलब यह क़तई नहीं है कि दुनिया के सर्वहारा ककहरा सीखने के स्टेज में आ गये हैं। पेरिस कम्यून, अक्टूबर क्रान्ति और चीन की जनवादी क्रान्तियों की भूमिका क्या ज़ीरो हो गयी है? अगर हाँ, तो आज दुनिया के देशों में पुन: हलचलें क्यों उठ रही हैं? भारत के मज़दूर-आन्दोलन की स्थिति यदि कमज़ोर है तो इसका कारण यह नहीं कि इनको (आम मज़दूरों को) आज तक सांस्कृतिक और आर्थिक आन्दोलनों से नहीं गुज़ारा गया है बल्कि इसके उलट सच्चाई यह है कि भारतीय मज़दूर आन्दोलन की स्थिति इसलिए कमज़ोर है कि क्योंकि इनको आज तक सिर्फ़ सांस्कृतिक, आर्थिक आन्दोलनों में ही फँसाकर क्रान्तिकारी राजनीतिक चेतना से दूर रखा गया है और इस कार्रवाई में सर्वाधिक हाथ इन्हीं मेंशेविकों, अराजकतावादियों, संघाधिपत्यवादियों का रहा है। ऐसा नहीं है कि भारतीय आम मज़दूर समझने की क्षमता कम रखता है। अगर ऐसा होता तो वे बुर्जुआ की बातें क्यों समझ जाता? 18 दिन की रेल हड़ताल, बिजली, डाकतार विभाग, बैंक, बीमा कर्मचारियों की हड़तालें क्यों सम्भव होतीं? क्रान्तिकारी नेतृत्व अपनी ग़लती, कमज़ोरी आम मज़दूरों की माथे मढ़कर इस राजनीतिक अपराध से बरी नहीं हो सकता। साम्राज्यवादी युग में कबीरकाल की कार्रवाई का सुझाव देने वाले कितना बढ़िया काल और देश का ख़याल रखते हैं? यही है मेंशेविक मानसिकता की विशेषता।

महोदय, लेनिन जब लिखते हैं कि ”आन्दोलनों की प्राथमिक अवस्था में सामाजिक जनवादियों को बहुत-सा ऐसा काम करना पड़ता था जो एक प्रकार का सांस्कृतिक कार्य होता था अथवा उन्हें लगभग आर्थिक आन्दोलन में ही जुटा रहना पड़ता था…” तो इसका मतलब यह नहीं कि क्रान्तिकारियों का मुख्य और सम्पूर्ण काम सिर्फ़ सांस्कृतिक कार्य और आर्थिक आन्दोलन में ही जुटा रहना है। लेनिन सांगठनिक कामों में एक विचारधारात्मक अख़बार की उपयोगिता और उसकी आवश्यकता को कभी भी और कहीं भी नहीं नकारे हैं। एक क्रान्तिकारी अख़बार यदि विचारधारा को सर्वहारा में ले जाता है तो उससे सांस्कृतिक कार्य और आर्थिक आन्दोलन जिसके माध्‍यम से आम मज़दूरों को शिक्षित करने का काम किया जाता है, कैसे बाधित होता है? क्या बिगुल निकालने वाले, सांस्कृतिक कार्यवाही और आर्थिक आन्दोलनों से सर्वहारा को चेतना देने का काम नहीं करते हैं? अब आप स्वयं ही विचार करें कि स्थान-काल का अनदेखा और लेनिन की शिक्षा का ग़लत इस्तेमाल कौन कर रहा है – आप या सम्पादक?

महोदय, आपने अपने बारहवें पैरा में भारत के औसत मज़दूरों को परिभाषित करने की बात उठायी है। आप तो औसत मज़दूर में आयेंगे नहीं क्योंकि आपका संस्तर औसत मज़दूरो की संस्तर से बहुत ऊँचा है और जिन मज़दूरों को ‘चना ज़ोर गरम’ की शैली में लिखा जाता है वे भी औसत मज़दूर में नहीं आयेंगे क्योंकि ये इतने पिछड़े हैं कि दो पैरा पीछे की बातें भूल जाते हैं जिनको आम मज़दूरों का विशाल घेरा आपने बताया है। इन दोनों संस्तरों के बीच इस लम्बे गैप में कोई संस्तर बनता है कि नहीं? ‘चना ज़ोर गरम’ की शैली में लिखने वाले लेखकों को किस संस्तर में डालना चाहते हैं? मेरा मानना है कि इन दोनों संस्तरों के बीच का संस्तर ही उन औसत मज़दूरों का संस्तर है जिनको परिभाषित करने की बात उठाये हैं। इनकी संख्या भले ही कम है पर किसी भी हालत में शून्य नहीं है। ये भारत के औसत मज़दूर क्रान्तिकारी चेतना के अभाव में बुर्जुआ राजनीतिक ठग वैद्यों, धुर दक्षिणपन्थी नटों, मेंशेविक गिरहकटों के हाथों में खेल रहे हैं।

महोदय, ‘चना ज़ोर गरम’ जुमले के इस्तेमाल को खिल्ली मानते हैं। यानी आपके विचार से चना ज़ोर गरम बहुत नीच घिनौना शब्द है। लेखक ने तो उस शब्द को सरलता के भाव में तुलनात्मक प्रयोग किया है और आप उसे घृणित और नीच भाव से ले रहे हैं। तब चना बेचने वालों को आप क्या समझते होंगे? यही है आप के कम्युनिस्ट सामूहिकता का दर्शन। बिगुल की शैली कन्फ्यूशियसवादी शैली आपको नज़र आ रही है। अभी आप पीछे कह आये हैं कि बिगुल का कोई स्तर नहीं है। आप की इस दोहरी बातों से आप ही बताइये कि आपको कहाँ रखा जाये? उच्च क्रान्तिकारी संस्तर में या आम मज़दूरों की घेरे में? यदि आप आम मज़दूरों के घेरा के जीव हैं तो ज़रूरबिगुल की शैली आपको कन्फ्यूशियस शैली लगेगी ही। तब बिगुल आपके लिए नहीं, भारत के उन्नत चेतना वाले और औसत मज़दूरों के लिए है। तब आप नाहक लेनिन, स्तालिन और माओ की किताबों की गदा को आज़माने की ढिठाई कर रहे हैं। आपके प्राथमिक शिक्षक औसत मज़दूर हैं। यह नयी बात नहीं है कि बिगुल जैसे राजनीतिक प्रचारक अख़बारों को आज ही हिरावलवादी कहा जा रहा है, इसके पूर्व भी जितने क्रान्तिकारी अख़बार क्रान्तिकारियों द्वारा निकाले गये हैं, उन सभी अख़बारों को विरोधियों द्वारा हिरावलवादी, आतंकवादी पता नहीं और क्या-क्या कह कर बदनाम करने की कोशिश करते रहे हैं। सच ही तो ऐसे अख़बारों से साम्राज्यवादी पोसुओं की ज़िन्दगी कुचली जाती है और अवश्य कुचली जानी चाहिए। आम मज़दूरों की वर्गीय चेतना को ”बिगुल” जैसा अख़बार नहीं बल्कि मेंशेविकों, संशोधनवादियों, अर्थवादियों, उदारवादियों की लिजलिजी नीतियाँ ही भोथरा बनायी हैं। जो हमेशा जनदिशा के विरोधी रही हैं।

महोदय, आपने तेरहवाँ पैरे में माओ के कोटेशन से समझाने की कोशिश किये हैं कि जन आकांक्षाओं का धीरज के साथ इन्तज़ार करना चाहिए। महोदय, सिर्फ़ माओ के कोटेशन का पाजामा सिला लेने से कोई माओवादी अथवा क्रान्तिवीर नहीं बन जाता। माओ अपने इस कोटेशन में जन समुदाय को जागरूक बनाने के लिए क्रान्तिकारी विचारधारा की मनहाई नहीं किये हैं और न कहीं यही कहे हैं कि जन समुदाय की परिवर्तन की संकल्पबद्धता को विकसित करने के लिए क्रान्तिकारी प्रयास न किया जाये। आप द्वारा कोट किया गया माओ के कोटेशन का क्या मतलब है? मतलब यह है कि जनता को बग़ैर शिक्षित किये किसी क्रान्तिकारी कार्रवाई (संघर्ष) में उतारने के लिए बलात् आदेश को लादना ग़लत होगा। इसके परिणाम ग़लत होंगे और अपने आदेश को लादने वालो जनता से कट जायेगा। यही हिरावलवाद है और जनदिशा का निषेध है। अपने लेख में माओ इसी प्रवृत्ति से बचने की शिक्षा देते हैं।

महोदय, अपने आख़िरी (चौदहवें) पैरा में आपने बिना प्रश्न उठाये ही बिगुल का वितरण का श्रेय बिगुल के वितरकों को दे डाले हैं और आख़िरी में आप खोले हैं कि वितरक साथियों के मेहनत मशक्क़त की बदौलत बिगुल की 75 प्रतिशत से अधिक प्रतियाँ मज़दूरों में बँट रही हैं न कि बिगुल के लेखों की अन्तर्वस्तु की बदौलत।

बिगुल के वितरकों को बिगुल के लेखकों से अलग करके देखना ढाँचागत दृष्टिदोष है, कम्युनिस्ट सामूहिकता की टाँग पकड़कर परनाले में घसीटना है। हम आपसे पूछते हैं कि क्या बिगुल-वितरक आसमान से टपके हैं या संगठन के प्रयास से बिगुल-वितरक बने हैं? यदि संगठन के प्रयास से बिगुल-वितरक बने हैं तो फिर लेखक संगठन से बाहर कैसे है और बिगुल वितरण में कैसे नहीं उनकी भूमिका बनती? बिगुल के वितरकों से 75 प्रतिशत बिगुल जो पाठक (मज़दूर) ख़रीदते हैं, क्या वे बिगुल-वितरकों का मुँह देखकर ख़रीदते हैं, अन्तर्वस्तु से नहीं? आगे यह भी क्यों नहीं लिख दिये कि मज़दूर बिगुल लेता भर है पढ़ता नहीं। यही है मनोगतवादी बातें, ऐसे लोग मनोगतवादी होते हैं। ये मेंशेविकों के ही कुटुम्ब हैं।

 महोदय, उपरोक्त लिखित आलोचना कटु हो सकती है पर किसी भी हालत में व्यक्तिगत डाह, और ईष्या की दुर्भावना से प्रेरित नहीं है।बिगुल के लक्ष्य एवं स्वरूप पर स्वस्थ और कारगर बहस चलाया जाना चाहिए जिसमें व्यक्ति की आलोचना (व्यक्तिगत डाह) से ऊपर उठकर प्रवृत्तियों की व्याख्या हो। बिगुल की कमियों को व्यक्तिगत डाह-डंक मारे बिना भी रेखांकित किया जा सकता है। आशा है अगले पत्र में आप बिगुल के लक्ष्य एवं स्वरूप पर स्वस्थ एवं सार्थक आलोचना देंगे।

 

‘देहाती मज़दूर किसान यूनियन’

के ‘बिगुल’ से जुड़े कार्यकर्तागण,

मधुबन और मर्यादपुर (जि. मऊ)

बिगुल’ अक्टूबर 1999


 

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Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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