देश के मज़दूरों की दशा

(राजनीति और पत्रकारिता के क्षेत्र में क़दम रखते ही गणेशशंकर विद्यार्थी ने किसानों और मज़दूरों के मोर्चे पर ध्यान केन्द्रित कर दिया था। दिसम्बर, 1919 में उन्होंने कानपुर के 25 हज़ार कपड़ा-मिल मज़दूरों की ऐतिहासिक हड़ताल का नेतृत्व किया था। उन्होंने कानपुर में कपड़ा मिल-मज़दूरों को संगठित किया और 1927 से मृत्युपर्यन्त तक कानुपर मिल मज़दूर सभा के अध्यक्ष रहे। ‘सभा’ का मुख्य पत्र ‘मज़दूर’ भी उन्हीं की पहलक़दमी से निकला था। 1919 में वाशिंगटन में आयोजित मज़दूर कॉन्फ्रेंस में भारत की ब्रिटिश सरकार संयुक्त प्रान्त के चीफ़ सेक्रेटरी ए. सी. चटर्जी व भारत सेवक समिति के जोशी को भेजने पर विचार कर रही थी। उसी प्रसंग में विद्यार्थीजी ने 15 सितम्बर, 1919 को यह लेख लिखा था। 25 मार्च 1931 को कानपुर में साम्प्रदायिक दंगों की आग बुझाते हुए वे शहीद हो गये थे।– सं.)

‘मज़दूर’ शब्द से हमारा मतलब उन मज़दूरों से है जो मिल और कारख़ानों मे काम करते हैं। बम्बई, कलकत्ता, अहमदाबाद, नागपुर, कानपुर, देहली आदि देश के अनेक नगरों में सैकड़ों बड़े और छोटे मिल और कारख़ानें हैं और उनमें लाखों मज़दूर काम करते हैं। लोगों की यह धारणा है कि इन मज़दूरों की दशा अच्छी है, बँधा रोज़गार है, सवेरे गये और शाम को चले आये, महीना पूरा हुआ और तनख्वाह मिल गयी। परन्तु यह भ्रम है। इन मज़दूरों की हालत साधारण मज़दूरों की हालत से बुरी है। इनको 12 घण्टे मेहनत करनी पड़ती है। बीच में केवल आधे घण्टे की छुट्टी खाने-पीने के लिए मिलती है। सवेरे 6 बजे की हाजि़री, देरी होने पर जुर्माना, और कहीं-कहीं तो वह जुर्माना बे-हिसाब होता है। एक मिनट की देरी हुई और दस दिन का बोनस (एक प्रकार का भत्ता) जुर्माने में काट लिया गया। दोपहर को आधे घण्टे की छुट्टी मिली। अपनी-अपनी झोपड़ियों की ओर भागे। खाने बैठे कि कारख़ाने की सीटी बजी। हाथ का कौर हाथ में और मुँह-का-मुँह में रह गया और कारख़ाने की ओर लपके। पहुँचते-पहुँचते कारख़ाना चल पड़ा और हाँफते-हाँफते काम में लग गये। फिर छह बजे या साढ़े छह बजे छुट्टी मिली।

थके-माँदे घर पहुँचे, फिर खा-पीकर पड़ रहने के सिवा उन्हें और कुछ करने-धरने या सोचने-समझने का ध्यान नहीं रहता। बम्बई और मद्रास के मज़दूरों ने तंगदस्ती से परेशान होकर हड़तालें कीं, और अपनी उजरतें कुछ-कुछ बढ़वा ली हैं। परन्तु अन्य स्थानों में मज़दूरों की उजरतें उतनी ही हैं जितनी कि युद्ध के पहले थीं। उनकी मानसिक और आर्थिक उन्नति के कोई साधन नहीं। बहुत से कारख़ानों में उनके साथ असभ्य व्यवहार होता है। छोटी-छोटी बातों पर उनका अपमान होता है। उन्हें ठोकरें लगाई जाती हैं। उन्हें मारा जाता है। कारख़ाने के मालिकों और बड़े नौकरों का यह क्रूर, शुष्क और हाकिमाना बर्ताव मज़दूरों की आत्माएँ दाब देता है, उनकी स्वाधीनता मार देता है, उनमें भय पैठ जाता है, और वे डरपोक, कायर, झूठे और आत्मसम्मान के भाव से शून्य हो जाते हैं। कारख़ाने वालों की असभ्यता और लापरवाही से मज़दूरों के चरित्र में और भी दूषण उत्पन्न हो जाते हें। बहुत से स्थानों में स्त्री और पुरुष एक साथ काम करते हैं। स्त्रियों की लज्जा का कोई ख्याल नहीं किया जाता है। वे अपढ़, मूर्ख और आचरण सम्बन्धी हर प्रकार की दाब से वंचित पुरुषों के बीच में पड़ जाती हैं। इसका असर स्त्री और पुरुष दोनों समुदायों के लिए खराब होता है।

लाखों स्त्री-पुरुषों का आचरण इस प्रकार नष्ट हो चुका और इस समय भी लाखों का आचरण इसी प्रकार नष्ट हो रहा है। मिलों और कारख़ानों की ड्योढ़ी पर अपने शरीर और आत्मा दोनों का बलिदान करके हमारे लाखों भाई और बहन जिस प्रकार अपना पेट पाल रहे हैं, वह किसी प्रकार अच्छा नहीं कहा जा सकता। परन्तु उसके सुधार के लिए क्या हो रहा है? जब हमें हज़ारों मील दूर पड़े हुए द. अफ़्रीका और फीज़ी के क़बाइली भाइयों पर अत्याचार होने का समाचार मिलता है तब पढ़े-लिखे भारतवासी उस पर हमसे जो कुछ बनता है उसका करना अपना धर्म समझते हैं।

परन्तु द. अफ़्रीका और फीज़ी में जो कुछ हो रहा है, उससे अधिक भयंकर काण्ड हमारी आँखों के सामने हो रहा है। फीज़ी में हम कुछ सहस्र स्त्रियों के अपमान पर अपनी हतक समझते हैं, परन्तु देश की मिलों में दुराचरण को जो दिन दूना और रात चौगुना बढ़ता हुआ राज्य है और जिसमें पड़कर हमारे लाखों युवकों और युवतियों का आचरण भ्रष्ट होता है, उस पर हमारी भूलकर भी नज़र नहीं पड़ती। हम प्रवासी भाइयों की दुर्दशा पर दुःखी होते हैं, परन्तु कारख़ानों में गुलामी का जीवन व्यतीत करने वाले लाखों भाई-बहनों की दशा पर हमारा ध्यान तक नहीं जाता। अछूत जातियों पर हमें दया आती है, हम उन्हें कुलीनता और कट्टरता के अत्याचार से पीड़ित समझते हैं, और इसलिए उनके उद्धार और मानसिक और आत्मिक कल्याण के लिए यत्न करते हैं परन्तु इन लाखों आदमियों पर हमारी दृष्टि नहीं पड़ती, जिनका शारीरिक, नैतिक और आत्मिक अस्तित्व पददलित होता रहता है।

इस देश ने बड़े-बड़े कारख़ानों की रचना-प्रणाली पाश्चात्य देशों से पायी है। परन्तु पाश्चात्य देशों में इस प्रणाली में जो सुधार हुए या जो सुधार हो रहे हैं, वे यहाँ नहीं आने पाये, या नहीं आने पाते। वहाँ भी मज़दूरों के सुख-दुःख का कोई ख्याल नहीं किया जाता था। वे धन उत्पन्न करने की मशीन समझे जाते थे। उनसे कसकर काम लिया जाता था। वे मरें चाहे जियें, बीमार पड़ें, चाहे चोट खाकर लूले या लंगड़े और सदा के लिए अपाहिज हो जायें, परन्तु कारख़ाने वालों को मतलब न था। उन्हें तो केवल अपने लाभ की चिन्ता रहती थी। शिक्षा के प्रचार ने मज़दूरों को जगाया और वे समझ गये कि केवल स्वार्थी लोगों के लिए मेहनत करके मरते-खपते रहना हमारा काम नहीं है। उन्होंने अपने उद्धार के लिए बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ लड़ीं और लड़ रहे हैं। बड़ी-बड़ी कठिनाइयों और तपस्या के पश्चात उनकी दशा अब जाकर कहीं कुछ सुधरी है। इस देश के मज़दूर भी अन्त में उसी ठिकाने पर पहुँचेंगे, जिस पर पाश्चात्य देशों के मज़दूर आज से बहुत पहले पहुँच चुके हैं। यदि वर्तमान अवस्था में कोई परिवर्तन न हुआ तो यह अवश्यम्भावी है। परन्तु अच्छा हो कि अपने ही कल्याण की दृष्टि से वे लोग, जो मज़दूरों की लाचारी और मूर्खता से बेजा लाभ उठा रहे हैं और वे लोग जिनके हाथों में करने-धरने की कुछ शक्तियाँ हैं, अपना वर्तमान ढंग बदलकर देश के मज़दूरों की बुरी अवस्था पर पूरा-पूरा विचार करें और उन्हें ऐसी सुविधाएँ दें, जिससे लाभ उठाकर वे भी अपने को मनुष्य कह और कहला सकें।

पाश्चात्य देशों में मज़दूरों के बच्चों की शिक्षा का अच्छा प्रबन्ध है। उनके रहने के लिए हवादार और स्वच्छ मकान बनाये जाते हैं। उनसे आठ घण्टा प्रतिदिन से अधिक काम नहीं लिया जाता। बीमार पड़ने पर उनका इलाज होता है और उनके मनोरंजन के लिए खेल-तमाशे होते हैं। इसके विपरीत भारतीय मज़दूरों के निवास के लिए कहीं भी कोई नियमित प्रबन्ध नहीं है। जिस नगर में कारख़ाने होते हैं बहुधा मज़दूर तंग और मैली कोठरियों में रहते हैं। उनमें हवा का गुज़र नहीं और एक-एक कोठरी में दस-पन्द्रह आदमी तक रहते हैं। उन पर व्यवहार में सख्ती का करना इसलिए आवश्यक समझा जाता है लोगों के मन में यह बात बैठ गयी है कि यदि इतनी सख्ती न की जाये तो मज़दूर काम ही न करें। कारख़ानेवालों को इस समय बहुत लाभ हैं, परन्तु मज़दूरों की उजरत बढ़ाने का सवाल जब उनके सामने आता है तब वे यह भय दिखाते हैं कि यदि उजरत बढ़ाई गयी तो हिन्दुस्तान में बनने वाला माल महँगा पड़ने लगेगा और फिर हम विदेशी व्यापारियों का मुकाबला न कर सकेंगे। यही बात वे उस समय भी कहते हैं जब उनसे कहा जाता है कि मज़दूरों के काम का समय कुछ कम रहने दो। इस विषय में तो कहीं-कहीं यह हास्यास्पद बात भी कही जाती है कि जितनी देर मज़दूर से काम न लिया जायेगा, उतना समय वे लोग किसी बदमाशी के काम में लगावेंगे। कितनी बड़ी हितैषिता है! यदि मज़दूरों से 24 घण्टे लगातार काम लिया जाये तो बिलकुल विशुद्ध ही बने रहें, उनके हृदयों तक में बुरे विचार न आने पावें। वे व्यापारी जो इस प्रकार के विचार के हैं, सरकार के सामने यह प्रस्ताव क्यों नहीं पेश कर देते कि मज़दूरों को दूध का धुला हुआ रखने में यह बात बहुत सहायक होगी, यदि फै़क्ट्रीज़ ऐक्ट में बारह घण्टे के बजाय उनसे चौबीस घण्टे काम लेने का नियम बना दिया जाये!

जापान की ओर इशारा किया जाता है कि वहाँ भी तो मज़दूरों से उतनी ही मेहनत ली जाती है, जितनी कि हिन्दुस्तान में, लेकिन जापान की ओर अंगुली उठाना अब बिलकुल भूल है। संसार में परिवर्तन ने जापान पर भी अपना प्रभाव डाला है और वहाँ के मज़दूर भी हड़तालों द्वारा इस बात को स्पष्ट रूप से प्रकट कर रहे हैं कि हम भी मनुष्य हैं, पशु नहीं। मज़दूरों के समय की कमी के सम्बन्ध में एक आपत्ति यह भी उठाई जाती है कि भारतीय मज़दूर सुस्ती के साथ काम करता है। जितना काम एक दिन में लंकाशायर का एक अंग्रेज़ मज़दूर अकेला करता है, उतना ही काम तीन भारतीय मज़दूर मिलकर एक दिन में करते हैं। पता नहीं, बात कहाँ तक ठीक है। यदि ठीक भी हो तो मज़दूरों के समय के घटाने में बाधक नहीं होनी चाहिए। यहाँ के कारख़ानों में अधिकांश मज़दूर तनख्वाहों पर काम नहीं करते, वे ठेकों पर काम करते हैं। जितना काम करते हैं उतना ही दाम पाते हें, उससे अधिक नहीं। आगे की विपदाओं से बचने के लिए हमें देश के निवासियों, देश की गवर्नमेण्ट और देश के कारख़ाने वालों का ध्यान इस आवश्यक समस्या की ओर खींचना है। वाशिंगटन की मज़दूर कॉन्फ्रेंस में गवर्नमेण्ट की ओर से इस प्रान्त के चीफ़ सेक्रेटरी मि. ए. सी. चटर्जी और भारत सेवक समिति के मि. जोशी भेजे जाने वाले हैं, परन्तु इस कॉन्फ्रेंस में योग देने के लिए आगे बढ़ना उसी समय उचित हो सकता था, जब वह देश के मज़दूरों के कल्याण के लिए उन बातों को कर चुकी होती, जो वह आसानी से कर सकती है। अब भी समय है, गवर्नमेण्ट इन कामों को करे और कारख़ाने वाले उसे मदद दें। देश के समझदार आदमी, यदि गफ़लत करेंगे तो लाखों आदमियों के पददलित किये जाने और देश की एक बड़ी शक्ति के अविकसित रह जाने के पाप के भागी होंगे।

 

मज़दूर बिगुल, मार्च 2017


 

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