स्त्रियों को पहली बार वास्तविक आज़ादी की राह पर आगे बढ़ाने का काम अक्टूबर क्रान्ति के बाद स्थापित सोवियत समाजवाद ने किया

(अक्टूबर क्रान्ति शतवार्षिकी समिति की ओर से कात्यायनी का व्याख्यान)

 बिगुल संवाददाता

अक्टूबर क्रान्ति शतवार्षिकी समिति द्वारा 6 मई को पटना के आईएमए हॉल में ‘सोवियत समाजवाद और स्त्रियाँ : एक समकालीन पुनरावलोकन’ विषय पर व्याख्यान का आयोजन कराया गया। इस कार्यक्रम में प्रसिद्ध लेखिका, कवि‍यित्री एवं राजनीतिक कार्यकर्ता कात्यायनी को मुख्य वक्ता के तौर पर आमन्त्रित किया गया था।
कात्यायनी ने अपनी बात की शुरुआत करते हुए कहा कि आज जब तमाम बुर्जुआ शासकों द्वारा हमारी स्मृतियों को हमसे छीना जा रहा है, हमारे वर्तमान को धूमिल कर हमारे भविष्य को हमसे छीना जा रहा है, तो ऐसे समय में अक्टूबर क्रान्ति को याद करने का यही अर्थ हो सकता है कि हम इस क्रान्ति के प्रासंगिक तत्वों को आत्मसात करें व इससे प्रेरणा लेकर आज की चुनौतियों से संघर्ष करें और भविष्य की सर्वहारा क्रान्तियों के मार्ग की तरफ़ आगे बढ़ें। पूँजीवाद के बर्बरतम अनाचार का जो भूमण्डलीय दुष्चक्र है, वह इतिहास का अन्त नहीं है, अपितु इतिहास को तो इससे अभी आगे जाना है, रूसी क्रान्ति की शिक्षाएँ आने वाले भविष्य की सर्वहारा क्रान्तियों का मार्ग प्रशस्त करेंगी।
आगे अपनी बात में उन्होंने विस्तार से कहा कि अक्टूबर क्रान्ति पूरी दुनिया में एक नये युग के आगमन की घोषणा थी। पूरी दुनिया के ज्ञात इतिहास में युग प्रवर्तक घटनाओं में से एक थी। इस क्रान्ति में मेहनतकश आबादी ने लेनिन और बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में पूँजीपतियों और सम्पत्तिशाली लोगों की सत्ता को जड़ से उखाड़ कर सर्वहारा सत्ता की स्थापना की। इस क्रान्ति के बाद दुनिया वैसी नहीं रह गयी, जैसे वो पहले थी। यह कहा जा सकता है कि अक्टूबर क्रान्ति के तोपों के गोलों के धमाके पूरी दुनिया में गूँज उठे थे। पूरी दुनिया के जनमानस को इस क्रान्ति ने कितना गहराई से प्रभावित किया था, इसका प्रमाण उस समय की पत्र-पत्रिकाओं को देखकर लग जाता है। भारत में भी उस दौर में निकलने वाली पत्र-पत्रिकाओं में रूसी क्रान्ति और सोवियत सत्ता द्वारा किये जा रहे तमाम प्रयोगों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते लेख मिलते हैं। केवल मार्क्सवादियों द्वारा ही नही, अपितु गाँधीवादी चिन्तकों, यहाँ तक कि स्वतन्त्र बुद्धिजीवियों द्वारा ये लेख लिखे जा रहे थे।
अक्टूबर क्रान्ति को सम्पन्न और उसके बाद सोवियत सत्ता द्वारा किये जा रहे प्रयोगों को सफल करने के प्रयासों में वहाँ की स्त्रियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अगर हम यह कहें कि उन स्त्रियों के बिना हम समाजवादी क्रान्ति और सोवियत समाजवाद की कल्पना नहीं कर सकते हैं, तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी।
आज तमाम बुर्जुआ नारीवादी, उत्तर आधुनिकतावादी, अस्मितावादी चिन्तक, वर्ग-अपचयनवादी सूत्रीकरण पेश करते हुए स्त्री-प्रश्न पर मार्क्सवादी चिन्तन को गुज़रे ज़माने की चीज़ बताते हैं। अकादमिक हलक़ाें में भी इस तथ्य का उल्लेख हमें नहीं मिलता है कि रूसी क्रान्ति के बाद इतिहास में सोवियत सत्ता ने पहली बार, स्त्रियों को बराबरी का अधिकार दिया, इसे न केवल क़ानूनी धरातल पर बल्कि आर्थिक-राजनीतिक व सामाजिक धरातल पर इसे सम्भव बनाया। ज्ञात इतिहास में पहली बार स्त्रियों को चूल्हे-चौखट की गुलामी से मुक्त किया गया। विवाह, तलाक व सहजीवन जैसे मामलों में राज्य, समाज और धर्म के हस्तक्षेप को ख़त्म किया गया। भारी पैमाने पर स्त्रियों की उत्पादन और समस्त आर्थिक-राजनीतिक कार्यवाहियों में बराबरी की भागीदारी को सम्भव बनाया। यह कहा जा सकता है कि प्रबोधन कालीन मुक्ति और समानता के आदर्शों को पहली बार इतिहास में वास्तविकता के धरातल पर उतारने का काम अक्टूबर क्रान्ति ने किया। हालाँकि इस तरह के पहले महान सामाजिक परिवर्तन के प्रयोगों की तरह इसमें भी कुछ कमियाँ, विचलन और ग़लतियाँ थीं। इसके वस्तुपरक मूल्यांकन के लिए हमें कुछ बातों पर ध्यान देने की अावश्यकता है। यह क्रान्ति असमान्य, विशिष्ट राजनीतिक-ऐतिहासिक परिस्थितियों में सम्पन्न हुई थी। वैज्ञानिक समाजवाद की शिक्षाओं को अमल में लाने का यह पहला प्रयोग था। वैसे भी समाजवादी समाज साम्यवाद की ओर संक्रमण का एक लम्बा दौर होता है। इसमें अभी भी बुर्जुआ विचार, मूल्य-मान्यताएँ समाज में बनी रहती हैं। इस दौरान तमाम तरह के उतार-चढ़ाव व पराजयों की सम्भावनाएँ बनी रहती हैं।
हज़ारों सालों से जो पुरुष सत्तात्मक प्रवृतियाँ हैं, जो विवाह, परिवार जैसी वर्ग संस्थाओं के रूप में मौजूद हैं, उनको एक झटके में ही तो नहीं ख़त्म किया जा सकता है, समाजवादी संक्रमण की लम्बी प्रक्रिया के दौरान ही इसका ख़ात्मा हो सकता है। इस परिप्रेक्ष्य पर सोचे बिना हम रूसी क्रान्ति का सन्तुलित मूल्यांकन नहीं कर सकते हैं।
आगे कात्यायनी ने कहा कि इतिहास में पहले भी विवाह, परिवार आदि के उन्मूलन की बातें की जाती रही थीं, पर पहली बार सुसंगत ढंग से प्रबोधनकालीन दार्शनिकों जैसे रूसो, दिदेरो और वोल्तेयर ने परिवार, विवाह और सामाजिक सम्बन्धों की सन्तुलित आलोचना प्रस्तुत की। फ़्रांसीसी क्रान्ति में तो स्त्रियों ने भी भागीदारी की। इस क्रान्ति के बाद स्त्रियों को सम्पत्ति का अधिकार, तलाक देने का अधिकार आदि प्राप्त हुए थे, हालाँकि नेपोलियन सिविल कॉड के आने के बाद ये आधिकार छीन लिये गये। हालाँकि इसके बाद भी यूरोप में कई बुर्जुआ नारीवादी आन्दोलन हुए जिसमें मताधिकार, शिक्षा और रोज़गार का अधिकार आदि प्रमुख माँगें रहीं। इन बुर्जुआ नारीवादी आन्दोलनों की अपनी सीमाएँ थीं। ये आन्दोलन सिर्फ़ पढ़ी-लिखी अभिजात व कुलीन वर्ग से आने वाली महिलाओं तक ही सीमित थे। ये आन्दोलन स्त्रियों की पराधीनता का कारण, वर्ग समाज पर आधारित सामाजिक व्यवस्था में न देखकर स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में देखती थी। जिसके कारण ये आन्दोलन आगे चलकर अराजकतावादी उच्छृंखल आन्दोलन बन कर रह गये।
19वीं सदी के मध्य में जब मार्क्स व एंगेल्स ने इतिहास की भौतिकवादी अवधारणा पेश की। जिसमें उन्होंने सामाजिक उत्पादन सम्बन्धों की तर्कसंगत व्याख्या दी और यह बताया कि परिवार कोई जैविक सम्बन्धों का अपरिवर्तनशील शाश्श्वत समुच्चय नहीं है, बल्कि यह निरन्तर एेतिहासिक रूप से परिवर्तनशील सामाजिक सम्बन्ध है और स्त्री की गुलामी और पराधीनता का केन्द्र है। पहली बार इस बात को मार्क्स ने अपनी पुस्तक “जर्मन विचारधारा” में रखा। फिर एंगेल्स ने अपनी पुस्तक परिवार, निजी सम्पत्ति व राज्य सत्ता की उत्पत्ति में उस समय के नृतत्वशास्त्रीय अध्ययनों के आधार पर यह बताया कि परिवार व राज्य सत्ता की उत्पत्ति वर्ग- समाज के उदय होने के साथ शुरू हुई और जब मानव समाज उत्पादन प्रक्रिया के दौरान अधिशेष पैदा करने लगा, तो उसके विनियोजन की प्रक्रिया में एक परजीवी व फ़ुर्सतिया शासक वर्ग पैदा हुआ, इसके बाद मानव समाज समानता पर आधारित वर्गविहीन समाज से असमानता पर आधारित वर्ग समाज में रूपान्तरित हो गया, इस दौरान सम्पत्ति के विरासती अधिकार के लिए स्त्रियों की सामाजिक पराधीनता ज़रूरी थी। इसे एंगेल्स स्त्रियों की गुलामी और पराधीनता का शुरुआती बिन्दु मानते हैं। वे आगे कहते हैं कि यह परिवार ही है जो सत्ता की आज्ञाकारिता का प्रशिक्षण केन्द्र होता है। यह परम्पराओं और रूढ़ियों की घुट्टी पिलाकर स्त्रियों को वैचारिक तौर पर अक्षम बना देता है।
पूँजीवाद के आगमन के बाद स्त्रियों को एक हद तक शिक्षा और रोज़गार के अवसर मिलते हैं, परन्तु पूँजीवाद को हमेशा बेरोज़गारों की फ़ौज की आवश्यकता होती है। इसलिए सचेतन तौर पर पूँजीवाद परिवार संस्था और स्त्रियों की दोहरी गुलामी को बनाये रखता है।
हालाँकि, इस दौर में बुर्जुआ नारीवाद की धाराएँ थीं, इनमें से एक धारा यह कहा करती थी कि स्त्री-पुरुष के कामों का पुन बँटवारा कर देना चाहिए, परन्तु मार्क्सवाद यह बताता है कि सारे घरेलू कामों का समाजीकरण कर देना चाहिए। एक धारा और थी जो यह कहती थी कि विवाह व परिवार जैसी संस्थाओं का ही उन्मूलन कर देना चाहिए, वहीं दूसरी ओर मार्क्सवाद यह बताता है कि मौजूदा वर्ग समाज में यह सम्भव नहीं है। वर्ग समाज के ख़ात्मे के बाद ही इसका उन्मूलन हो सकता है। समाजवाद के आने के बाद ही वर्ग-समाज के ख़ात्मे की परिस्थितियाँ तैयार होंगी।
19वीं सदी के उत्तरार्ध में जब रूस में क्रान्तिकारी आन्दोलनों का उभार होता है, तो यूरोप के स्त्री आन्दोलन पर भी इसका प्रभाव पड़ता है। रूस उस वक़्त एक किसानी समाज था, स्त्रियाें के प्रति काफ़ी रूढ़ीग्रस्त था। वहाँ के गाँवों में “पात्राचिका” नामक एक कुप्रथा प्रचलित थी, जिसमें ज़मींदार व धनी किसान दूसरी स्त्रियों को मज़दूर और पत्नी के रूप में एक अवधि के लिए रख लेते थे। उनके गर्भवती हो जाने के बाद उन्हें फिर निकाल दिया जाता था। उस समय के बौद्धिकों ने इन रूढि़यों और कुप्रथाओं के खि़लाफ़ आवाज़ उठायी। वहाँ स्त्रियों के कई ऐसे गुट भी बने जो स्त्री मुक्ति के लिए आन्दोलनरत थे, हालाँकि उन पर अराजकतावादी विचारक बकुनिन का प्रभाव था। कई स्त्रियाँ उस दौर में प्रचलित क्रान्तिकारी संगठन नारोद्ननाया वोल्या से भी जुड़ीं।
20वीं सदी के पहले दशक में बोल्शेविक पार्टी ने बड़े स्तर पर महिलाओं को संगठित करने का प्रयास शुरू किया। कई रूसी स्त्रियाँ बोल्शेविक पार्टी से जुड़ी और नेतृत्वकारी भूमिकाएँ भी निभायीं। इनमें क्रुप्स्काया, कोल्लोन्ताई व समाइलोवा प्रमुख थीं। जब लेनिन मेंशेविकों के साथ कई सैद्धान्तिक और राजनीतिक मसलों पर बहस चला रहे थे, तब इस बहस का असर रूस के स्त्री-मुक्ति आन्दोलन पर भी पड़ता है। लेनिन कहते हैं कि महज़ कुछ क़ानूनी अधिकारों की लड़ाई व संसदीय संघर्ष से स्त्री मुक्ति के प्रश्न का समाधान नहीं हो सकता है। स्त्रियों की मुक्ति समाजवाद के अन्तर्गत ही सम्भव है। हालाँकि कई बोल्शेविक क्रान्तिकारी अब भी बुर्जुआ नारीवादी आन्दोलन के प्रभाव में थे, परन्तु लेनिन ने पार्टी के भीतर इन विचलनों के खि़लाफ़ सतत संघर्ष चलाकर इससे दूर किया। इन्हीं प्रयासों का नतीजा होता है कि 1907 आते-आते स्त्री मज़दूरों का पहला संगठन अस्तित्व में आता है। 1908 मे अलेक्सान्द्रा कोल्लोन्ताई के नेतृत्व में अखिल रूसी महिला सम्मलेन होता है। हालाँकि इसमें कोल्लोन्ताई द्वारा पेश किये गये प्रस्तावों को ख़ारिज़ कर दिया जाता है, इससे वे इस निष्कर्ष पर पहुँचती है़ कि स्त्रियों के अन्तरवर्गीय संगठन सम्भव नहीं हैं, क्योंकि अपने वर्ग-बोध के कारण ये अभिजात वर्ग की औरतें कभी भी मज़दूर औरतों के साथ उनकी माँगों को लेकर खड़ी नहीं हो सकती हैं।
आगे वर्गीय आधार पर स्त्री संगठनों की शुरुआत की जाती है। 1911 में 8 मार्च के दिन को अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाने का प्रस्ताव पारित किया जाता है। बोल्शेविक पार्टी के कामों का प्रचार-प्रसार इस दौरान गाँव की महिलाओं तक हो जाता है।
1914 में जब द्वितीय विश्वयुद्ध की शुरुआत होती है, तब काउत्स्की एक अन्धराष्ट्रवादी अवस्थिति अपनाते हैं और मज़दूरों को इस सम्राज्यवादी युद्ध में अपने देश के शासक वर्ग का साथ देने की अपील करते हैं, जिसका लेनिन खुलकर विरोध करते हैं। वे कहते हैं कि यह युद्ध बाज़ार के पुन: बँटवारे के लिए साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा लड़ा जा रहा युद्ध है, अपने देश शासक का साथ देने की बजाय उसे शासक वर्ग के खि़लाफ़ अपना संघर्ष तेज़ कर देना चाहिए।
इस दौरान बोल्शेविक पार्टी मज़दूरों के बीच जाकर बड़े पैमाने पर युद्ध विरोधी प्रचार करती है। इसमें औरतें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती हैं। उन स्त्रियाँ के बीच भी इस तरह के प्रचार को किया जाता है, जिनके घरों से फ़ौजी इस युद्ध में लड़ने जा रहे होते हैं। जो काफ़ी हद तक सफल रहता है, व सेना का एक बड़ा हिस्सा बोल्शेविक क्रान्ति का समर्थक बनता है।
1917 में घटित रूसी क्रान्ति में महिलाएँ जिस पैमाने पर भाग लेती हैं, वह अविश्वसनीय प्रतीत होता है। क्रान्ति के दौरान महिलाएँ अग्रिम क़तारों में शामिल होकर इसे अंजाम देती हैं। क्रान्ति के सम्पन्न होने के बाद रूस में सामाजिक जीवन में स्त्रियों की अवस्थिति पर चर्चाएँ होनी आरम्भ हो जाती हैं। क्रान्ति के ठीक एक महीने बाद विवाह, सहजीवन व अलगाव पर से राज्य व धर्म का हस्तक्षेप ख़त्म कर दिया जाता है। वेश्यावृति को अपराध की श्रेणी से हटा दिया जाता है। क्यूँकि बोल्शेविक यह मानते थे कि ऐसे अपराधों को महज़ क़ानून बनाकर ख़त्म नहीं किया जा सकता है। इसके लिए वह भौतिक-आर्थिक आधार तैयार करना होगा, उसके बाद ही इन अपराधों को ख़त्म किया जा सकता है। पीली पर्ची की व्यवस्था ख़त्म कर दी गयी। वेश्याओं को समाज की मुख्यधारा में लाने के प्रयास किये गये। उनकी इन नीतियों का ही परिणाम था कि 1930 तक रूस से वेश्यावृति का ख़ात्मा हो गया।
मज़दूर स्त्रियों के जीवन में भी काफ़ी बदलाव आये, उस वक़्त फ़ैक्टरियों में काम करने वाली ऐसी औरतें जिनके शिशु हुआ करते थे, उन्हें अपने शिशुओं को स्तनपान कराने के लिए हर 3 घण्टे के बाद आधे घण्टे के लिए सवैतनिक छुट्टी दी जाती थी। मासिक धर्म के समय उन्हें भारी काम करने से छुट्टी दी जाती थी। स्त्रियों का मातृत्व सुरक्षा बीमा करवाया जाता था, जिसमें गर्भावस्था के समय से शिशु के जन्म तक हर कि़स्म की निशुल्क स्वास्थ्य सुविधा उन्हें मुहैय्या करायी जाती थी। छोटे-छोटे बच्चों वाली स्त्रियों को रात की पाली में काम करने से मनाही थी। तमाम कठिनाइयों जैसे गृहयुद्ध व साम्राज्यवादी देशों द्वारा की जा रही घेरेबन्दी आदि के बावजूद स्त्री-मुक्ति की दिशा में ये सारे सुधार कार्य किये जाते रहे। उन्नत पूँजीवादी देशों में भी बहुत बाद में और काफी संघर्ष के बाद स्त्रियों को ये अधिकार मिल पाये।
स्तालिन के नेतृत्व में सिर्फ़ कुछ वर्षों के भीतर सोवियत रूस ने विकसित बुर्जुआ राष्ट्रों को पीछे छोड़ दिया था। 1930 के दशक तक रूस में स्त्रियों के सामाजिक हालात बाक़ी अन्य बुर्जुआ राष्ट्रों से कही बेहतर हो चुके थे।
स्त्रियों को चूल्हे-चौखट की गुलामी से आज़ादी दिलाने के लिए घरेलू कामों का समाजीकरण किया गया। बड़े-बड़े शिशुघर, भोजनालय, लॉण्ड्रि‍याँ खोली गयीं, ताकि घरेलू कामों की गुलामी से स्त्रियाँ मुक्त हो सकें।
महिलाओं को सोवियत सरकार में महत्वपूर्ण पद भी दिये गयेा सोवियतों में भी महिलाओं की भागीदारी रहती थी। कृषि उद्योग में तो महिलाएँ अग्रणी भूमिका में रहती थीं, बड़े-बड़े हार्वेस्टर और ट्रैक्टर तक महिलाएँ चलाती थीं। एक तरह से कृषि उद्योग उन्हीं महिलाओं पर निर्भर था।
आँकड़ों की रौशनी में इस बात को अच्छी तरह समझा जा सकता है कि स्त्री मुक्ति की दिशा में कितने कार्य किये गये। 1929 तक स्त्री कामगारों की संख्या 30 लाख से बढ़कर 1934 तक 70 लाख हो गयी। 1929 में कामगारों की संख्या 25% से बढ़कर 1934 तक 45% हो गयी। शिक्षा के क्षेत्र में इनकी भागीदारी 1930 के दशक तक 35% से बढ़कर 72% हो गयी।
बोल्शेविक पार्टी ने 1929 में जेनोत्देल का गठन किया, जिसका मुख्य उद्देश्य महिलाओं को समाजवाद के करीब लाना था। व्यावहारिक कामों के ज़रिये स्त्रियों को समाजवाद की शिक्षा देना था। इस संगठन ने भी महिलाओं के बीच समाजवाद का प्रचार-प्रसार करने में महती भूमिका निभायी। जेनोत्देल पूरी तरह स्त्रियों द्वारा संचालित संगठन था जिसमें अच्छी-खासी संख्या में ग़ैर-पार्टी स्त्रियाँ भी थीं।
रूसी क्रान्ति के प्रयोग ने सिद्ध करके दिखाया कि अगर स्त्रियों को घर की चारदीवारी से निकलने का मौक़ा दिया जाये, उन्हें निर्बन्ध किया जाये तो कैसे-कैसे अविश्वसनीय कारनामे कर सकती हैं। स्त्रियाें ने न सिर्फ़ क्रान्ति के संघर्ष में महती भूमिका निभायी, बल्कि समाजवादी निर्माण के कार्यों के विभिन्न मोर्चों पर सक्रिय रहीं।
हालाँकि स्तालिन काल में कुछ ग़लतियाँ भी हुईं, जैसे जेनोत्देल को ख़त्म कर दिया गया। पूँजीवादी परिवारों के बरक्स समाजवादी परिवारों को महिमामण्डित करते हुए तलाक की प्रक्रिया को कठिन बना दिया गया। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद महिलाओं को बच्चे पैदा करने पर पुरस्कृत किया जाने लगा। ऐसी कई और भी ग़लतियाँ हुईं।
लेकिन फिर भी यह नहीं भूलना चाहिए कि रूस में हुआ समाजवादी प्रयोग अपनी तरह का पहला प्रयोग था। लेकिन सिर्फ़ चार दशकों के समय में इसने सिद्ध कर दिया की पूँजीवादी दायरे के भीतर स्त्री-मुक्ति सम्भव नहीं है, यह सिर्फ़ समाजवाद में ही सम्भव है।
उन्होंने अपनी बात का अन्त एंगेल्स द्वारा मार्क्स से बातचीत में कही गयी एक उक्ति से किया कि आगे आने वाले काल में एक नयी मानवता का जन्म होगा, तब पुरुषों की एक ऐसी पीढ़ी आयेगी, जिसे यह मालूम भी नहीं होगा कि धन या किसी दूसरी शक्ति से स्त्री को ख़रीदा जा सकता है, तब स्त्रियों को भी यह नहीं मालूम होगा कि सच्चे प्रेम के अलावा किसी और कारण से दूसरे पुरुष को समर्पित किया जा सकता है।
इस व्याख्यान में पटना के कई लेखक, कवि, बुद्धिजीवी, नागरिक व छात्र उपस्थित रहे। जिनमें प्रो. अरुण कमल, प्रो. तरुण कुमार, पार्थ सरकार , सतीश, अरविन्द सिन्हा, अजय सिन्हा, निवेदिता शकील ,मीरा दत्त, प्रीति‍ सिन्हा, जीतेन्द्र राठौर, शेखर, पुष्पेन्द्र, नन्दकिशोर सिंह आदि प्रमुख रहे।

 

मज़दूर बिगुल, मई 2017


 

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