भारतीय अर्थव्यवस्था का गहराता संकट और झूठे मुद्दों का बढ़ता शोर
आने वाले कठिन दिनों में जूझने के लिए एकजुटता मज़बूत करो!

सम्पादक मण्डल

भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से है, इसका शोर काफी दिनों से मचाया जा रहा है। हालाँकि इसका मतलब यह कतई नहीं होता कि अर्थव्यवस्था संकट में नहीं है। बढ़ने की उम्र हो तो बीमारी के बावजूद शरीर बढ़ता रह सकता है। विश्व पूँजीवाद की बुढ़ापे की सन्तान भारतीय पूँजीवाद में देश की जनता को बुरी तरह निचोड़कर कुछ समय तक फैलने की गुंजाइश बची हुई थी, इसीलिए जब दुनिया भर के उन्नत पूँजीवादी देशों में विकास दर एक-डेढ़ प्रतिशत पर अटक गयी है तो भी भारत जैसे ”विकासशील” देशों में 7-8 प्रतिशत की दर से विकास हो रहा था। यह अलग बात है कि इस विकास का मतलब एक छोटी-सी आबादी के लिए ही सुख-समृद्धि था, देश की भारी बहुसंख्‍या तो अब भी भीषण ग़रीबी और जीवन की बुनियादी सुविधाओं की कमी के बीच जी रही है।
मगर यह तेज़ विकास भी बहुत समय तक चलने वाला नहीं है। पिछले एक दशक के दौरान बीच-बीच में अर्थव्यवस्था की गाड़ी सुस्त पड़ती रही है। पूरी विश्व अर्थव्यवस्था में लम्बे समय से बने हुए संकट का भी असर इस पर पड़ता रहा है। तमाम देशी पूँजीपतियों ने मिलकर नरेन्द्र मोदी की फ़ासिस्ट पार्टी को सत्ता में इसीलिए पहुँचाया था ताकि किसी भी तरह के विरोध को कुचलकर, लोगों को बाँटकर, मेहनतकशों को और भी बुरी तरह निचोड़कर धन्नासेठों के मुनाफ़ों को बचाये रखा जा सके। पिछले तीन साल में मोदी सरकार सिर्फ़ और सिर्फ़ यही काम करती रही है। बाकी सबकुछ सिर्फ़ जुमलेबाज़ी है। लेकिन अर्थव्यवस्था फिर से गम्भीर संकट में फँस चुकी है!
तात्कालिक तौर पर इसे पिछले वर्ष हुई नोटबन्दी का झटका लगा है। वित्तमंत्री ‘झूठली’ द्वारा आँकड़ों में हेरफेर करने के तमाम हथकण्डों ‍के बावजूद सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में भारी गिरावट आयी है। वित्तीय वर्ष 2017 की चौथी तिमाही में स्थिर मूल्यों पर सकल मूल्य-वर्धित विकास (जीवीए) की दर घटकर 5.6 प्रतिशत पर आ गयी। वास्तविक गिरावट इससे भी ज़्यादा है। अगर ”सार्वजनिक प्रशासन, रक्षा और अन्य सेवाओं” में हुए भारी खर्च को निकाल दिया जाये, तो विकास दर मात्र 4.1 प्रतिशत रह जायेगी। और अगर पिछले वर्ष अच्छी बारिश के कारण खेती में हुई अच्छी पैदावार को देखते हुए कृषि को इस हिसाब से बाहर करके जोड़ा जाये तो शेष अर्थव्यवस्था की विकास दर केवल 3.8 प्रतिशत रह जाती है। इसका असर समझने के लिए, अगर हम पिछले वर्ष, यानी वित्तीय वर्ष 2016 की चौथी तिमाही में इसी प्रकार सरकारी खर्च और कृषि को हटाकर हिसाब लगायें तो उस वक्त शेष अर्थव्यवस्था में विकास की दर 10.7 प्रतिशत थी। यानी एक वर्ष में करीब 7 प्रतिशत की भारी गिरावट आयी है।
नौकरियों में भारी गिरावट, छँटनी, बेहिसाब महँगाई, ये सब गिरती अर्थव्यवस्था की जनता के लिए सौगातें हैं। आने वाले समय में इनमें और बढ़ोत्तरी ही होनी है। अर्थव्यवस्था का ग्राफ़ जैसे-जैसे नीचे आ रहा है, झूठे मुद्दों और जुमलों का शोर वैसे-वैसे बढ़ता जा रहा है। आने वाले दिन अच्छे नहीं होने वाले हैं।
आँकड़े बताते हैं कि पिछले वित्तीय वर्ष की चौथी तिमाही में सकल विकास में प्रशासन, रक्षा और अन्य सेवाओं पर हुए खर्च का हिस्सा 35.6 प्रतिशत रहा जोकि पिछले वर्ष से करीब एक तिहाई ज्‍़यादा है। देश में सबसे अधिक रोज़गार देने वाले क्षेत्रों में से एक, निर्माण क्षेत्र में 5.5 प्रतिशत की गिरावट आ गयी। बड़े पूँजीपतियों द्वारा लाखों करोड़ रुपये के कर्ज़े दबा लेने के कारण खस्ताहाल और नोटबंदी के दौरान लगे झटकों की मार खाये बैंकों की हालत का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि जीवीए में वित्तीय, रियल एस्टेट और पेशेवर सेवाओं का हिस्सा घटकर सिर्फ़ 7.6 प्रतिशत रह गया।
जो भी विकास हुआ उसमें दो-तिहाई हिस्सा, 66.2 प्रतिशत, निजी उपभोग का रहा। सरकारी उपभोग 23.8 प्रति‍शत रहा, मगर पूँजी निर्माण पिछले वर्ष के मुकाबले कम हो गया, जो निवेश की घटती माँग को दिखाता है। इन आँकड़ों का मतलब क्या है? चौथी तिमाही में विकास की दर में आयी भारी गिरावट से साफ़ है कि वर्तमान तिमाही में भी दर धीमी ही रहेगी।
बात महज़ आँकड़ों की नहीं है। मन्दी का आलम अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में महसूस किया जा सकता है। मोदी सरकार से साँठगाँठ करके हज़ारों करोड़ रूपये की लूट मचाने वाले कुछ घरानों को छोड़ दिया जाये तो बड़ी कम्पनियों की भी हालत खराब है। पिछले दिनों टाटा समूह के रतन टाटा भागे-भागे आर.एस.एस. के मुख्यालय नागपुर क्या करने गये थे, इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। छोटे व्यापारियों-उद्योगपतियों के कारोबार में भारी गिरावट का रोना आप चौतरफ़ा सुन सकते हैं। इस स्थिति की सबसे बड़ी मार जिन मेहनतकशों पर पड़ी है, उनकी व्यथा कथा कहने वाला कोई नहीं है। करोड़ों रोज़गार छिन गये हैं। आईटी सेक्‍टर और बड़ी कम्पनियों में छँटनी की ख़बरें तो मीडिया में आ रही हैं लेकिन देश के तमाम औद्योगिक इलाक़ों में जाकर देखें तो पता चलेगा कि मज़दूरों पर मन्दी की मार कैसी पड़ रही है।
नये रोज़गार पैदा होने में भारी गिरावट और नौकरियों की कमी से बढ़ते जनता के असन्तोष से घबरायी मोदी सरकार ने इस मामले पर सोचना तो शुरू किया है। लेकिन उनके सोचने की दिशा रोज़गार पैदा करने के बारे में नहीं बल्कि कुछ और ही है। इसे समझने के लिए नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया का बयान आँखें खोलने वाला है, “नौकरियों पर हो रही बहस शून्य में हो रही है क्योंकि लेबर ब्यूरो के सर्वे के जिन तिमाही रोज़गार की स्थिति के आँकड़ों का ज़िक्र हो रहा है, उनमें गंभीर समस्या है।” नीति आयोग का कहना है कि खुद उनकी सरकार द्वारा जारी नौकरियों के आँकड़े भरोसे लायक़ ही नहीं है| पनगढ़िया ने यह भी कहा कि नीति आयोग जल्दी ही ऐसी पद्धति विकसित करने वाला है जिससे नौकरियों और रोज़गार के भरोसेमंद आँकड़े प्रस्तुत किये जायें और इससे सिद्ध हो जायेगा कि भारत में ‘रोज़गार विहीन वृद्धि’ जैसी कोई स्थिति नहीं है! जाहिर है कि नीति आयोग नौकरियाँ कैसे बढ़ायी जायें इस पर विचार करने के बजाय इस जुगत में भिड़ा हुआ है कि आँकड़े जुटाने का ऐसा कोई तरीका कैसे निकाला जाये जो बताये कि देश में बेरोज़गारी की समस्या है ही नहीं और मोदी सरकार के दौर में नौकरियों की बहार आयी हुई है!
दरअसल, आर्थिक संकट के चक्र में घिरे पूँजीपति वर्ग के सामने एक ही रास्ता बचता है कि वह ज़्यादा पूँजी लगाकर नयी तकनीक लाये और उत्पादन में श्रम का हिस्सा कम करे। विश्वव्यापी मन्दी के दौर में पूँजीवादी अर्थशास्त्री यही उपाय लेकर आये कि पूँजी की लागत कम करो, जब संकट हो तो बाजार में और नक़दी लाओ, ब्याज दर कम करो। जापान में तो ब्याज ख़त्म ही हो गया और अमेरिका-यूरोप में केंद्रीय बैंकों ने खरबों डॉलर/यूरो वहाँ के पूँजीपतियों को लगभग शून्य ब्‍याज दर पर मुहैया कराये। खूब पूँजी लगाओ, तकनीक से श्रम पर खर्च कम करो। मगर इसका नतीजा क्‍सा होगा? और बेरोजगारी, माँग में और कमी, यानी मुनाफ़ा फिर भी नहीं बढ़ता और संकट पहले से भी ज्‍़यादा तीखा हो जाता है।
भारत में भी यही चल रहा है। एक रिपोर्ट कहती है कि पिछले 35 साल में रोज़गार 2% से कम सालाना बढ़े हैं जबकि पूँजी का उपयोग सालाना 14% की दर से बढ़ा है। नतीजा प्रति फैक्ट्री श्रमिक 80 से घटकर 60 रह गए जबकि पूँजी 50 लाख से बढ़कर 10 करोड़ रुपये हो गयी क्योंकि जहाँ पहले पूँजी बढ़ाना श्रमिक बढ़ाने के मुकाबले महँगा पड़ता था, वहीं अब पूँजी बढ़ाना सस्ता पड़ता है। ऊपर से निजी क्षेत्र लगातार ब्याज दरें घटाने और नक़दी की उपलब्धता बढ़ाने का दबाव बनाये ही रहता है। हाल में भी रिजर्व बैंक ने ऐसे कुछ कदम उठाये हैं। इसलिए ‘इकोनॉमिक टाइम्स’ अख़बार की रिपोर्ट साफ़ कहती है कि मोदी कुछ भी कहें, नये रोज़गार पैदा होने की बात भूल ही जाइये।
इसी माह, रिजर्व बैंक ने बैंकों को होम लोन देने के लिए ज़रूरी पूँजी की मात्रा को घटा दिया और कर्ज डूबने की स्थिति में नुकसान को झेलने की व्यवस्था के लिए रखी जाने वाली राशि को भी कम कर दिया। अब बैंक कम पूँजी रख कर ज़्यादा होम लोन दे सकते हैं अर्थात ब्याज दर में थोड़ी और कमी करेंगे। 1990 के समय से आर्थिक वृद्धि के संकट से निपटने की यही नीति अमेरिकी फ़ेडरल रिज़र्व ने अपनाई थी और 2001 के वित्तीय संकट के बाद तो बैंकों के लिए होम लोन देने की लागत बहुत ही कम कर दी थी। खूब होम लोन दिये गये, तो खूब मकान बनाये-ख़रीदे भी गए। इसके बल पर सबको अर्थव्यवस्था में तेज़ी दिखायी भी दी। मगर लिया हुआ कर्ज़ कभी तो चुकाना ही पड़ता है, आमदनी के बगैर वह होता नहीं, और आमदनी रोज़गार के बिना नहीं बढ़ती। यह बात बड़ी सीधी सी है लेकिन प्रचार की चकाचौंध में अक्सर समझ में नहीं आती। अमेरिका में बैंकों का फुलाया बुलबुला 2008 में आकर फूटा जिसका ख़ामियाजा दुनिया भर के गरीब लोगों ने भुगता, बुलबुला फुलाने वालों ने नहीं| अब जैसे-जैसे भारत की अर्थव्यवस्था में तेज़ी के प्रचार का बुलबुला फूट रहा है, होम लोन बढ़ाने की कवायद से और भी बड़ा, भयंकर बुलबुला फुलाये जाने की तैयारी हो रही है। यह बुलबुला भी फूटना तय है।
ऐसे में, पूँजीपति वर्ग के सामने उदार जनतंत्र का नाटक बन्‍द कर फासीवादी जुल्म और नग्न लूट का रास्ता ही बच रहा है। प्रॉक्टर एंड गैम्बल कम्पनी के पूर्व सीईओ और भारतीय पूँजीपति वर्ग में चिंतक जैसी हैसियत रखने वाले गुरचरण दास ने हाल में टाइम्स ऑफ़ इंडिया में अपने एक लेख में लिखा कि मोदी दंगों, हत्याओं, साम्प्रदायिकता से जुड़े हैं, तानाशाह, प्रतिक्रियावादी हैं; पर सब कुछ के बावजूद आर्थिक तरक्की (पूँजीपतियों की तरक्की!) के लिए वही एकमात्र विकल्प हैं। यानी, आपको आर्थिक तरक्की चाहिए (जिसके फल ऊपर की 5-6 प्रतिशत आबादी को ही मिलेंगे) तो दंगों, दमन, लोगों के बीच नफ़रत और फूट के लिए तैयार रहिए।
पिछले तीन सालों में मोदी सरकार के कारनामे क्या रहे हैं? पब्लिक सेक्टर की मुनाफ़ा कमाने वाली कम्पनियों का निजीकरण किया गया है, जिसका अंजाम है बड़े पैमाने पर सरकारी कर्मचारियों की छँटनी। ठेका प्रथा को ‘अप्रेण्टिस’ जैसे नये नामों से बढ़ावा दिया गया है। पेट्रोलियम उत्पादों की अन्तरराष्ट्रीय कीमतें आधी से भी कम हो जाने के बावजूद मोदी सरकार ने तमाम टैक्स और शुल्क बढ़ाकर उसकी कीमतों को ज़्यादा नीचे नहीं आने दिया है। विदेशों से काला धन वापस लाने को लेकर तरह-तरह के बहाने बनाये जाते रहे हैं और देश में काला धन और बढ़ता ही रहा है। विदेशों में जमा काला धन की एक पाई भी नहीं आयी। नोटबन्दी से काले धन पर ‘सर्जिकल स्‍ट्राइक’ के जुमले की सच्‍चाई लोगों ने देख ली है। रुपये की कीमत में रिकार्ड गिरावट के चलते महँगाई और ज़्यादा बढ़ रही है। दूसरी तरप़फ, अम्बानी, अदानी, बिड़ला, टाटा जैसे अपने आकाओं को मोदी सरकार एक के बाद एक तोहफ़े दे रही है! तमाम करों से छूट, लगभग मुफ़्त बिजली, पानी, ज़मीन, ब्याजरहित कर्ज़ और मज़दूरों को मनमाफिक ढंग से लूटने की छूट दी जा रही है। देश की प्राकृतिक सम्पदा और जनता के पैसे से खड़े किये सार्वजनिक उद्योगों को औने-पौने दामों पर उन्हें सौंपा जा रहा है। ‘स्वदेशी’, ‘देशभक्ति’, ‘राष्ट्रवाद’ का ढोल बजाते हुए सत्ता में आये मोदी ने अपनी सरकार बनने के साथ ही बीमा, रक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों समेत तमाम क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को इजाज़त दे दी है। ‘मेक इन इण्डिया’ के सारे शोर-शराबे का अर्थ यही है कि ”आओ दुनिया भर के मालिको, पूँजीपतियो और व्यापारियो! हमारे देश के सस्ते श्रम और प्राकृतिक संसाधनों को बेरोक-टोक जमकर लूटो!” ‘‘श्रम सुधरों’’ के नाम पर मज़दूरों के रहे-सहे अधिकार भी छीनने की तैयारी हो चुकी है। असंगठित मज़दूरों के अनुपात में और अधिक बढ़ोत्तरी हो रही है। बारह-चौदह घण्टे सपरिवार खटने के बावजूद मज़दूर परिवारों का जीना मुहाल है। औद्योगिक क्षेत्रों में व्यापक स्तर पर मज़दूर असन्तोष बढ़ रहा है और जगह-जगह फूटते मज़दूर आन्‍दोलनों का दमन किया जा रहा है।
विश्वव्यापी मंदी और आर्थिक संकट की जिस नयी प्रचण्ड लहर की भविष्यवाणी दुनिया भर के अर्थशास्त्री कर रहे हैं, उससे भारतीय अर्थतंत्र और भी गहरे संकट के भँवर में फँसेगा। मँहगाई और बेरोज़गारी तब विकराल हो जायेगी। मोदी की तमाम धावा-धूपी और देशी-विदेशी लुटेरों के आगे पलक-पाँवड़े बिछाने की कोशिशों के बावजूद असलियत यह है कि निवेशक पूँजी लेकर आ ही नहीं रहे हैं। लगातार गहराती मन्दी के कारण विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के सारे सरगना ख़ुद ही परेशान हैं। अति-उत्पादन के संकट के कारण दुनियाभर में उत्पादक गतिविधियाँ पहले ही धीमी पड़ रही हैं और तमाम उपायों के बावजूद बाज़ार में माँग उठ ही नहीं रही है, तो ‘मेक इन इंडिया’ करने के लिए पूँजी निवेशकों की लाइन कहाँ से लगने लगेगी? जो आयेगा भी, वह चाहेगा कि कम से कम लगाकर ज़्यादा से ज़्यादा निचेड़ ले जाये। मोदी यही लुकमा फेंकने की कोशिश करते रहे हैं कि किसी भी तरह आप पूँजी लगाओ तो सही, हम आपको यहाँ लूटमार मचाने की हर सुविधा की गारंटी करेंगे। पिछले वर्ष भारतीय पूँजीपतियों के संगठन एसोचैम ने कहा था कि निजी क्षेत्र में निवेश बढ़ने की सम्भावना ही कहाँ है जबकि बहुत से उद्योगों में पहले ही सिर्फ़ 30-40 प्रतिशत उत्पादन हो रहा है। अब तमाम पूँजीपति सरकार से खर्च बढ़ाने की गुहार लगा रहे हैं और सरकार जनता के ज़रूरी खर्चों में कटौती करके उनकी माँग पूरी भी कर रही है।
लुब्बेलुआब यह है कि आर्थिक संकट मोदी के तमाम लच्छेदार भाषणों की हवा निकालने में लगा हुआ है। ऐसे में लोगों का असन्तोष बढ़ना लाज़िमी है। भविष्य के ‘‘अनिष्ट संकेतों’’ को भाँपकर मोदी सरकार अभी से पुलिस तंत्र, अर्द्धसैनिक बलों और गुप्तचर तंत्र को चाक-चौबन्द बनाने पर सबसे अधिक बल दे रही है। मोदी के अच्छे दिनों के वायदे का बैलून जैसे-जैसे पिचककर नीचे उतरता जा रहा है, वैसे-वैसे हिन्दुत्व की राजनीति और साम्प्रदायिक तनाव एवं दंगों का उन्मादी खेल जोर पकड़ता जा रहा है ताकि जन एकजुटता तोड़ी जा सके। अन्‍धराष्ट्रवादी जुनून पैदा करने पर भी पूरा जोर है। पाकिस्तान के साथ सीमित या व्यापक सीमा संघर्ष भी हो सकता है क्योंकि जनाक्रोश से आतंकित दोनों ही देशों के संकटग्रस्त शासक वर्गों को इससे राहत मिलेगी। मोदी सरकार की नीतियों ने उस ज्वालामुखी के दहाने की ओर भारतीय समाज के सरकते जाने की रफ़्तार को काफ़ी तेज़ कर दिया है, जिस ओर घिसटने की यात्रा गत लगभग तीन दशकों से जारी है। भारतीय पूँजीवाद का आर्थिक संकट ढाँचागत है। यह पूरे सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर रहा है। बुर्जुआ जनवाद का राजनीतिक-संवैधनिक ढाँचा इसके दबाव से चरमरा रहा है। मोदी सरकार पाँच वर्षों के बाद लोगों के सामने अलफ़ नंगी खड़ी होगी। भारत को चीन और अमेरिका जैसा बनाने के सारे दावे हवा हो चुके रहेंगे। भक्तजनों को मुँह छुपाने को कोई अँधेरा कोना नहीं नसीब होगा। आम लोग ”अच्छे दिनों” की असलियत को समझ रहे हैं और उनके भीतर नाराज़गी और गुस्सा बढ़ रहा है। यही कारण है कि आर.एस.एस. से जुड़े संगठनों द्वारा देशभर में साम्प्रदायिक तनाव भड़काया जा रहा है। गाय के नाम पर हत्‍याएँ की जा रही हैं। कुछ वर्षों में सारे भारत को हिन्दू बनाने का एलान किया जा रहा है।
भारतीय अर्थव्यवस्था की वर्तमान चाल-ढाल बता रही है कि आने वाले दिनों में इसका संकट और गहरायेगा। यह संकट भारत के मेहनतकश अवाम के लिए भी ढेरों मुसीबतें लेकर आयेगा। गरीबी, बेरोज़गारी, महँगाई में और अधिक इज़ाफ़ा होगा। भारत के मेहनतकशों को भी इस हालत का सामना करने के लिए अभी से तैयारी शुरू कर देनी होगी। आने वाले वर्षों में व्यवस्था के निरन्तर जारी असाध्य संकट का कुछ-कुछ अन्तराल के बाद सड़कों पर विस्फोट होता रहेगा। जब तक साम्राज्यवाद विरोधी- पूँजीवाद विरोधी सर्वहारा क्रान्ति की नयी हरावल शक्तियाँ नये सिरे से संगठित होकर एक नये भविष्य के निर्माण के लिए आगे नहीं आयेंगी, देश अराजकता के भँवर में गोते लगाता रहेगा और पूँजीवाद का विकृत से विकृत, वीभत्स से वीभत्स, बर्बर से बर्बर चेहरा हमारे सामने आता रहेगा। ऐसे में हम तमाम मेहनतकश लोगों का आह्वान करते हैं कि ‘अच्छे दिनों’ के भरम से बाहर निकलो और आने वाले कठिन दिनों के संघर्षों के लिए ख़ुद को तैयार करें।

 

मज़दूर बिगुल, जून 2017


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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