मीना किश्‍वर कमाल : वर्जनाओं के अंधेरे में जो मशाल बन जलती रही

सपनों पर पहरे तो बिठाये जा सकते हैं लेकिन उन्‍हें मिटाया नहीं जा सकता। वर्जनाओं के अंधेरे चाहे जितने घने हों, वे आजादी के सपनों से रोशन आत्‍माओं को नहीं डुबा सकते। यह कल भी सच था, आज भी है और कल भी रहेगा। अफगानिस्‍तान के धार्मिक कठमुल्‍लों के “पाक” फरमानों का बर्बर राज भी इस सच का अपवाद नहीं बन सका। मीना किश्‍वर कमाल की समूची जिन्‍दगी इस सच की मशाल बनकर जलती रही और लाखों अफगानी औरतों की आत्‍माओं को अंधेरे में डूब जाने से बचाती रही।

मीना किश्‍वर कमाल – जिसे कठमुल्‍लों ने “नापाक” औरत, “बदकार” औरत और न जाने क्‍या-क्‍या कहा, और आखिर में उन्‍होंने उसकी आखिरी सांस भी छीन ली, लेकिन क्‍या वे उसके सपनों को छीन सके? नहीं कतई नहीं। यह मुमकिन भी नहीं।

मीना के सपने आज भी जिंदा हैं – हजारों-लाखों अफगानी औरतों के दिलों में -आजादी, सम्‍मान और बराबरी के सपने। धार्मिक कठमुल्‍ले काले बुर्के से औरत के शरीर तो ढंक सकते हैं पर उसकी आत्‍मा की आवाज को दबाना – यह कतई मुमकिन नहीं।

20 वर्षीया मीना किश्‍वर, 1977 में, काबुल विश्‍वविद्यालय में तालीम हासिल कर रही थीं, जब स्त्रियों को समाज में बराबरी और सम्‍मान दिलाने के लिए संघर्ष का विचार उनके मन में पका। अफगानी स्त्रियों को संगठित करने के लिए अफगानिस्‍तान की स्त्रियों का क्रांतिकारी संघ ( रिवोल्‍यूशनरी एसोसियेशन आफ द वीमेन आफ अफगानिस्‍तान, ‘रावा’ ) की स्‍थापना के लिए पहलकदमी ली। ‘रावा’ का शुरूआती मकसद उस समय की निरंकुशशाही के खिलाफ संघर्ष कर एक जनतांत्रिक सरकार की स्‍थापना करना था। हालांकि, 1979 में अफगानिस्‍तान पर सोवियत कब्‍जे के बाद अफगानी स्त्रियों को जो अधिकार मिले थे वे पहले कभी नहीं मिले थे लेकिन इसके बावजूद ‘रावा’ ने अपने देश में विदेशी कब्‍जे का विरोध कर राष्‍ट्रों की सम्‍प्रभुता और अपना भविष्‍य खुद तय करने की जनता की आजादी के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का इजहार किया। मीना किश्‍वर ‘रावा’ के बैनर तले सोवियत कब्‍जे के विरोध में प्रदर्शन आदि जनकार्रवाइयां संगठित करने में जुट गयीं। लेकिन सोवियत साम्राज्‍यवादी हमलावरों के अफगानी पिट्ठुओं के दमन कार्रवाईयों और ‘जिहादियों’ के कहर से उनके लिए अफगानिस्‍तान में रहना सम्‍भव नहीं रहा और वह पाकिस्‍तान में शरण लेने पर मजबूर हुई। लेकिन यहां आकर भी न तो मीना किश्‍वर की गतिविधियां थमीं न ‘रावा’ की।

मीना किश्‍वर ने पाकिस्‍तान में कायम अफगानी शरणार्थी शिविरों (सोवियत कब्‍जे के बाद अफगानिस्‍तान में शुरू हुए गृहयुद्ध के कारण पलायन कर आने वाले शरणार्थी) में स्त्रियों के बीच आम शिक्षा के प्रचार-प्रसार, स्त्रियों व बच्‍चों के स्‍वास्‍थ्‍य रक्षा सम्‍बन्‍धी शिक्षा के प्रचार-प्रसार व स्‍त्री अधिकारों की चेतना के लिए जनशिक्षण के काम में ‘रावा’ के संगठनात्‍मक कामों को संगठित करना शुरू किया। लेकिन यहां भी कठमुल्‍लों को उनकी कार्रवाईयां – स्त्रियों को पढ़ाना-लिखाना – नापाक और बदकारी भरी लगीं। नतीजतन, 1987 में क्‍वेटा स्थित उनके घर में परिवार के दो सदस्‍यों सहित उन्‍हें गोली मार दी गयी।

मीना किश्‍वर की हत्‍या के बाद भी पिछले पन्‍द्रह वर्षों के दौरान ‘रावा’ की गतिविधियां थमी नहीं। उनकी जलाई मशाल का हजारों दूसरी बहादुर औरतों ने आज भी जलाये रखा है। अफगानिस्‍तान में तालिबानों के आने के बाद जब औरतों को बुर्का पहनना अनिवार्य बना दिया गया, बच्चियों की पढ़ाई पर रोक लगा दी गयी और औरतों पर जुल्‍मों का नया अंधेरा दौर शुरू हुआ, तब भी ‘रावा’ की गतिविधियां थमी नहीं। ‘रावा’ की कार्यकर्ताओं ने बेहद सूझ-बूझ और बहादुरी के साथ भूमिगत रूप से अपनी कार्रवाईयां जारी रखीं। उन्‍होंने बुर्के को ढाल की तरह इस्‍तेमाल करना शुरू कर दिया – अब बुर्के के भीतर किताबें छिपायी जा सकती थीं, कैमरे छिपाये जा सकते थे। अफगानिस्‍तान के भीतर भी और पाकिस्‍तान स्थित शरणार्थी शिविरों में भी – ‘रावा’ की गतिविधियां बदस्‍तूर जारी रहीं।

आज तालिबानों के पतन और नयी सरकार बनने के बाद अफगानी औरतों की बदकिस्‍मती का खात्‍मा हो गया है, ऐसा मानना भूल होगी – यह ‘रावा’ कार्यकर्ताओं का स्‍पष्‍ट मानना है। अमेरिकी साम्राज्‍यवादियों की नयी पिट्ठू सरकार में शामिल नार्दन एलाएंस वालों की काली करतूतों के बारे में भी अफगानी औरतें भूली नहीं हैं। पिछले दिनों भारत आयी एक ‘रावा’ कार्यकर्ता ने अखबार वालों को यह बताया था कि ‘नार्दन एलाएंस’ वाले सूट-टाई पहनकर अपने पश्चिमी आकाओं को खुश कर सकते हैं लेकिन हम अफगानी औरतों को इससे बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता है। वे तालिबानों से भी गये-बीते हैं, जालिम हैं। पिछली बार जब उनकी हुकूमत थी तो 70 साल की बूढ़ी औरतों तक से एलाएंस के सैनिकों ने बलात्‍कार किया था।

जाहिर है अभी अफगानी औरतों की राहें आसान नहीं हुई हैं। उन्‍हें अपनी आजादी, बराबरी और सम्‍मान हासिल करने की लड़ाई के लम्‍बे सफर से गुजरना है। लेकिन, आज मीना किश्‍वर कमाल जैसी हजारों औरतें वहां पैदा हो चुकी हैं जो “जाग उठी हैं” और उन्‍हें अपनी राहें मिल गयी हैं, जो अब कभी पीछे नहीं लौटेंगी।

यहां दी जा रही मीना किश्‍वर कमाल की कविता में उभर रहा संकल्‍प आज हजारों-लाखों अफगानी औरतों का संकल्‍प बन चुका हैं।

कविता इस लिंक से पढ़ी जा सकती है

बिगुल, जनवरी 2002


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments