फैक्ट्रियों के अनुभव और मज़दूर बिगुल से मिली समझ ने मुझे
सही रास्ता दिखाया है

प्रिय सम्पादक महोदय और दोस्तो! मेरा नाम प्रेम है और मैं पिछले क़रीब एक साल से मज़दूर बिगुल अख़बार का नियमित पाठक हूँ। इसके प्रत्येक अंक का मुझे बेसब्री से इन्तज़ार रहता है। बिगुल तमाम मुद्दों पर तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ अपना स्टैण्ड रखता है। निश्चित रूप से देश-विदेश के तमाम ज़रूरी मुद्दों और समस्याओं पर आम मेहनतकश आबादी के साथ-साथ युवाओं की समझदारी बढ़ाने के लिए मज़दूर बिगुल अख़बार शानदार काम कर रहा है। यदि यह मासिक की बजाय पाक्षिक हो जायेे तो बहुत बेहतर हो किन्तु तब तक यह प्रत्येक महीने के शुरू में तो पाठकों के हाथ में आ ही जायेे, ताकि यह पुराना न लगे। मैं बिगुल के पन्नों पर अपने तमाम मेहनतकश भाइयों और पाठकों के समक्ष अपने जीवन के कुछ अनुभव भी साझा करना चाहता था जिसका कि मुझे अब मौक़ा मिला है।

मैंने गुड़गाँव ऑटोमोबाइल सेक्टर की ‘वाही संस प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी’ में तक़रीबन साल-भर काम किया है। यह कम्पनी केएसएस अभिषेक, ऑटोलिव और लैण्डर की वेण्डर कम्पनी है। यह कम्पनी बहुत ही तेज़ी से विस्तारित हो रही है। एक परिचित के माध्यम से मेरा ‘इण्टरव्यू’ कम्पनी में हुआ था। मैं बीटेक करके गया था जबकि मेरा ‘इण्टरव्यू’ लेने वाला सज्जन सिर्फ़ बीए पास था। जो ‘टेक्निकल इण्टरव्यू’ वह ले रहा था, उसके बारे में उसे ज़रा भी ज्ञान नहीं था। ‘इण्टरव्यू’ के बाद मुझे 10 दिन हेतु ‘ट्रेनिंग’ पर रख लिया गया उसके बाद काम देखकर ही आगे रखने का तय हुआ। मुझे गुणवत्ता जाँच विभाग (‘क्वालिटी कण्ट्रोल डिपार्टमेण्ट’) में रखा गया था। यहाँ पर उत्पाद (‘प्रोडक्ट’) यदि गुणवत्ता की सीमा से बाहर भी जा रहा हो किन्तु रिजेक्शन नहीं आ रही हो तो भी उत्पादन चलते रहने देना था। उत्पाद (‘प्रोडक्ट’) की सीमा (‘टोलरेंस’) को बदलने की बजाय उसे ऐसे ही चलते रहने देने की हिदायत थी। स्पष्ट शब्दों में कहा जायेे तो प्रोडक्शन मैनेजर को उत्पादन चाहिए होता था चाहे उसकी गुणवत्ता (‘क्वालिटी’) कैसी भी हो, किन्तु ‘क्वालिटी मैनेजर’ को उत्पाद की गुणवत्ता चाहिए होती थी फिर उत्पादन भले ही हो या न हो! किन्तु नौकरशाही के इस विचित्र ढंग-ढर्रे में पिस हमारे जैसे रहे थे। जब मशीन पर उत्पाद के गुणवत्ता सीमाओं से बाहर जाने पर या अन्य दोष आने पर हम इसे फ़िट बैठाने हेतु मशीन रोकने का प्रयास करते तो ‘प्रोडक्शन मैनेजर’ हमें बुरी तरह से धमकाता तथा यदि तैयार उत्पाद की गुणवत्ता ख़राब होती तो ‘क्वालिटी मैनेजर’ हमारा जीना हराम कर देता कि तुम लोग अपनी ड्यूटी अच्छी तरह से नहीं करते हो! यह साफ़ था कि हमारे हाथ में कुछ नहीं था और हम लोग मानसिक रूप से परेशान रहने लगे। इस प्रकार अपना हुनर चमकाने और इसे निखारने का भूत जल्द ही मेरे सिर से उतर गया। मेरा वेतन 8,000 रुपये था किन्तु काट-पीटकर मात्र 6,800 रुपये मुझे थमा दिये जाते थे। मानेसर जैसे शहर में इतनी कम तनख़्वाह से घर पर पैसे भेजने की तो कोई सोच भी नहीं सकता, अपना ही गुज़ारा चल जायेे तो गनीमत समझिए, बल्कि कई बार तो उल्टा घर से पैसे मँगाने भी पड़ जाते थे।

मैं तो हालाँकि स्टाफ़ में था, वहाँ पर काम कर रहे मज़दूरों के हालात तो बेहद ख़राब थे। उन्हें काफ़ी कम वेतन दिया जाता था। सरकार द्वारा तय न्यूनतम मज़दूरी व अन्य आर्थिक लाभ देने का तो मतलब ही नहीं है। कम्पनी को ज़रूरत पड़ने पर ज़बरदस्ती ओवरटाइम करवाया जाता था। वेतन में होने वाली बढ़ोत्तरी भी बहुत कम थी। वेतन भी इसी आधार पर बढ़ाया जाता था कि कौन किसका ख़ास है। कम्पनी का मुनाफ़ा करोड़ों में था तथा बढ़ता ही जा रहा था। जबकि काम कर रहे मज़दूरों को जीने-भर की ख़ुराक ही मुश्किल से नसीब होती थी। मज़दूरों के लिए रहने-खाने की व्यवस्था कम्पनी की ओर से थी। एक-एक कमरे में 4-5 मज़दूर किसी-न-किसी तरह से मुर्गी के दड़बों जैसे कमरों में रहते थे। खाने को खाना नहीं कहा जा सकता था। दिन को हालाँकि स्टाफ़ और मज़दूर साथ ही खाते थे तो खाने की गुणवत्ता अपेक्षाकृत ठीक होती थी, किन्तु अन्य समय मज़दूरों को बेहद घटिया खाना परोसा जाता था। शौचालय और स्नानागार भी लगातार बदबू करते रहते थे, क्योंकि इन्हें मालिक को तो इस्तेमाल करना होता नहीं था!

कम्पनी में मज़दूरों पर काम का दबाव बहुत ज़्यादा रहता था। शोषण की चक्की में मज़दूर सबसे निचले पायदान पर जो थे। ऊपर से लेकर डाँट-फटकार रिसती हुई स्टाफ़ तक आती थी, फिर यह गाली-गलौज बनकर मज़दूरों पर बरसती थी। मज़दूरों की कार्यस्थिति भी सुरक्षित नहीं थी। मशीनों पर सेंसर नहीं लगाये गये थे, क्योंकि यदि सेंसर लगाये जाते तो काम करते वक़्त यदि मज़दूर का हाथ या शरीर का कोई अंग आ जायेे तो उससे मशीन ख़ुद-ब-ख़ुद रुक जायेेगी और मशीन की उत्पादन रफ़्तार इससे धीमी हो जायेेगी। अब मशीनों पर कोई मालिक के घर का आदमी तो काम कर नहीं रहा होता था। सुरक्षा की बदइन्तज़ामी के चलते आये दिन दुर्घटनाएँ होती रहती थीं, जिनमें मज़दूरों की उँगलियाँ और हाथ तक दुर्घटनाग्रस्त होते रहते थे। इसके बावजूद मशीनों पर सेंसर नहीं लगाये गये, क्योंकि मालिक को सिर्फ़ मुनाफ़े की फ़िक़्र थी। मज़दूर तो जैसे उसके लिए मशीन के पुर्जे थे। एक बार तो मेरी आँखों के सामने ही दुर्घटना हो गयी। एक मज़दूर प्रोज़ेक्शन वेल्डिंग मशीन पर काम कर रहा था। मशीन की रफ़्तार तेज़ थी और मज़दूर अपना अँगूठा बाहर नहीं निकाल पाया जिससे इलेक्ट्रोड (वेल्डिंग में प्रयुक्त होने वाली लोहे की छड़) उसके अँगूठ के आर-पार हो गयी और इस कारण से अँगूठ से ख़ून टपकने लगा। मैं उस समय लाइन पर ही था। मेरी जैसे ही नज़र पड़ी तो मैंने उस मज़दूर से तुरन्त मशीन छोड़ने और पट्टी करवाने के लिए कहा, किन्तु उसकी आँखों में आँसू थे और वह कहने लगा कि मैं बाद में पट्टी करा लूँगा, अगर ऊपर वाले स्टाफ़ और मालिक को पता चल गया तो मेरी लापरवाही बताकर मुझे काम से निकाल देंगे। इन अमानवीय हालात में मज़दूर काम करने के लिए मजबूर हैं। इसके बावजूद भी मनमाने तरीक़े से छँटनी कर दी जाती है। न्यूनतम मज़दूरी, काम के घण्टे, सुरक्षा के इन्तज़ाम जैसे तमाम श्रम क़ानूनों की सरेआम धज्जियाँ उड़ायी जाती हैं। प्रशासन और श्रम विभाग इस अंधेरगर्दी की तरफ़ से बिलकुल आँखें मूँदे रहता है क्योंकि कम्पनी की तरफ़ से टुकड़े फेंक दिये जाते होंगे। कम्पनी के अन्दर भी मज़दूर एकजुट नहीं हो पाते। निजी स्वार्थ के चलते कुछ मज़दूर मालिक की चमचागिरी करने लगते हैं, जिससे मज़दूरों में अलग-अलग ग्रुप बन जाते हैं और प्रबन्धन आराम से इस फूट का फ़ायदा उठाता है। पहले मैं सोचता था कि आख़िर यहाँ पर मज़दूर इतने अमानवीय हालात में भी काम क्यों करते हैं? बाद में यह बात समझ में आयी कि क्योंकि उनको पता है कि बाहर बेरोज़गारों की बहुत बड़ी भीड़ खड़ी है। वे जानते हैं कि कुछ भी बोलने पर और आवाज़ उठाने पर उन्हें लात मारकर भगा दिया जायेेगा और फिर वे परिवार समेत भूखे मरने के लिए रोड़ पर आ जायेेंगे! इसलिए मज़दूर इस पूँजीवादी गुलामी को अपना भाग्य मानकर उम्र-भर इसे झेलते रहते हैं। उस समय तो बहुत-सी चीज़ें मेरी भी समझ में नहीं आयी थीं, किन्तु अब मैं समझ सकता हूँ और चीज़ों को जोड़कर देख सकता हूँ। मुझे लगता है कि आज भी मज़दूरों की एकजुटता ही वह हथियार बनेगी जिसके दम पर वे अपने हक़-अधिकार को लड़कर हासिल करेंगे। और सबसे बढ़कर मेहनतकशों के राज ‘समाजवाद’ को स्थापित करेंगे। उत्पादन के बदलते हुए हालात के अनुसार ही हमें अपने संगठन के तौर-तरीक़े भी बदलने पड़ेंगे। जिस तरह से हर व्यवस्था बदलती है वैसे ही यह शोषणकारी व्यवस्था भी बदलेगी और उस बदलाव में मज़दूर वर्ग की अहम भूमिका होगी। दुनिया-भर में मज़दूर वर्ग ने इकट्ठे होकर बड़े से बड़े चमत्कार किये हैं निश्चय ही भारत का मज़दूर वर्ग भी जागेगा और संगठित होकर लड़ेगा, तब ज़रूर सफलता उसके क़दम चूमेगी। धन्यवाद,

आपका अपना साथी, प्रेम

 

मज़दूर बिगुल,अगस्त 2017


 

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