धन्नासेठों के चन्दे पर निर्भर पूँजीवादी संसदीय चुनाव – जिसका खायेंगे उसका गायेंगे

 नमिता

यह बात किसी से छुपी नहीं है कि सभी राजनीतिक दलों को पैसा ज़्यादातर कारपोरेट घरानों से आता है, लेकिन कितना आता है, कोई पार्टी किसी-किसी व्यापारिक घराने की ख़ास क्यों बन जाती है, ये चीज़ें कभी-कभी किसी रिपोर्ट से सामने आ जाती हैं।

आज देश की राजनीति में भ्रष्टाचार को सबसे बड़ा मुद्दा बनाकर उछाला जा रहा है। यह दीगर बात है कि भ्रष्टाचार पूँजीवाद की ही देन है। ख़ैर, नरेन्द्र मोदी और भाजपा सरकार लगातार यह दावा कर रही है कि काले धन पर सर्जिकल स्ट्राइक करके उसे सरकारी ख़ज़ाने में डाल चुके हैं और भ्रष्टाचार लगभग ख़त्म हो गया है। लेकिन हालत यह है कि सबसे ज़्यादा भ्रष्टाचारी भाजपा में हैं। और सबसे ज़्यादा चन्दा भी भाजपा को ही कारपोरेट घराने बिना पते बिना पैन की जानकारी के दे रहे हैं। इसका खुलासा चुनाव सुधार पर काम कर रही संस्था एडीआर की रिपोर्ट से सामने आया।

एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने चन्दे का ब्यौरा जारी करते हुए कहा है कि बड़े वाणिज्यिक और व्यापारिक कारोबारी घरानों से चन्दा पाने वाली पार्टियों में भाजपा सबसे ज़्यादा दुलारी रही है। 2012-13 से लेकर 2015-16 तक पाँच राष्ट्रीय पार्टियों को कुल 956.77 करोड़ रुपये का चन्दा मिला। इसमें सबसे ज़्यादा 705.81 करोड़ भाजपा को मिले यानी लगभग 92% प्रतिशत। भाजपा को चार साल में कुल 2987 कारपोरेटों ने चन्दा दिया।

रिपोर्ट के अनुसार भाजपा को 159.59 करोड़ यानी 99 प्रतिशत ऐसे चन्दे दिये गये हैं, जिनमें न तो पैन की जानकारी है और न ही पता। मतलब भाजपा को जिताने के लिए सारे क़ायदे-क़ानून ताक पर रख दिये गये। ख़ास बात यह है कि भाजपा के कुल स्रोत का 92% चन्दा कारपोरेट घरानों से मिला, बाक़ी अन्य राजनीतिक दलों को भी कारपोरेट घरानों से चन्दा मिला, लेकिन उन्हें बहुत थोड़े में ही गुज़ारा करना पड़ा। इसमें एक ध्यान देने वाली बात यह भी है कि 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा को सबसे ज़्यादा 573.18 करोड़ रुपये चन्दा मिला। यहाँ यह बता देना ज़रूरी है कि यह वह चन्दा है जिसका हिसाब-किताब जमा किया जाता है। इससे कई गुना रकम वह होती है जो परदे के पीछे से ली-दी जाती है। पिछले लोकसभा चुनाव में सभी का अनुमान था कि अकेले भाजपा ने करीब 10 हज़ार करोड़ रुपये खर्च किये।

वैश्विक मन्दी की मार भारत के पूँजीपतियों पर भी पड़ी है। इसलिए लगातार आर्थिक संकट और मन्दी से जूझ रही अर्थव्यवस्था को एक ऐसे तानाशाह की ज़रूरत थी जो पूँजीपतियों के मुनाफ़े की दर को बनाये रखने के लिए करों में छूट, कौड़ियों के भाव ज़मीन, लगभग मुफ्त बिजली-पानी, श्रम क़ानूनों में छूट और मज़दूरों के आवाज़ उठाने पर उनका बर्बर दमन करने के लिए तैयार बैठा हो। और ऐसा व्यक्ति मोदी से बेहतर कौन हो सकता था। मोदी ने गुजरात में अपने शासन काल के दौरान यह साबित भी कर दिया था कि वह पूँजीपतियों, साम्राज्यवादियों के हित के लिए कुछ भी कर सकता है।

वैसे राजनीतिक दलों और कम्पनियों के बीच लेन-देन को लेकर अक्सर सवाल उठाये जाते हैं, इसीलिए उनके बीच लेन-देन में “पारदर्शिता” लाने के लिए सरकार ने 2013 में कम्पनियों के द्वारा चुनावी ट्रस्ट बनाने का प्रावधान किया। ये चुनावी ट्रस्ट कम्पनियों के द्वारा जितना चन्दा पाते हैं, उसका 95 प्रतिशत राजनीतिक दलों को देते हैं।  ऐसे ही एक ट्रस्ट ‘सत्या इलेक्टोरल ट्रस्ट’ को 2014-15 में कम्पनियों की तरफ़ से कुल 47.0015 करोड़ रुपये मिले, जिसमें से 45 करोड़ रुपये भाजपा को दिये गये, यानी 95.74 प्रतिशत और बाक़ी 2 करोड़ कांग्रेस को मिले।  इससे समझा जा सकता है कि क्यों मोदी के सत्ता में आने के एक साल के अन्दर ही एक तरफ़ तो अडानी की सम्पति में 48 फ़ीसदी बढ़ोतरी हो गयी, विजय माल्या जैसे बड़े-बड़े पूँजीपतियों के करोड़ों रुपये के क़र्ज़ माफ़ कर दिये गये, सरकारी ज़मीन को औने-पौने दामों में बेच दिया गया, श्रम क़ानूनों को “लचीला” कर दिया गया और दूसरी तरफ़ आम जनता लगातार महँगाई झेल रही है, बेरोज़गारी लगातार बढ़ती जा रही है, मज़दूरों से उनके रहे-सहे अधिकार छीने जा रहे हैं, उनके विरोध करने पर बर्बर दमन किया जा रहा है और देशद्रोही तक क़रार दिया जा रहा है।

एडीआर की रिपोर्ट से जो यह खुलासा हो पाया, वह भी आगे ना हो पाये, इसका इन्तज़ाम भाजपा सरकार कर रही है। मालूम हो कि कारपोरेट चन्दे से जुड़ी जानकारी हर वित्तीय वर्ष में चुनाव आयोग को देनी होती है। लेकिन अब ऐसे खुलासे आम लोगों तक नहीं पहुँच सकेंगे, क्योंकि एडीआर के संस्थापक प्रोफ़ेसर जगदीप छोकर ने बताया कि वित्त मन्त्री अरुण जेटली ने क़ानून पास करवा दिया है कि अब इलेक्टोरल बॉण्ड की ख़रीद करके कम्पनियों और राजनीतिक दलों को यह बताना ज़रूरी नहीं होगा कि किस कारपोरेट घराने ने किस पार्टी को कितना चन्दा दिया है और किसने कितना लिया है, यह पारदर्शिता के ि‍ख़लाफ़ है।

पूँजीवादी चुनाव पूँजीपतियों के चन्दे पर निर्भर है। इन चुनावों में अक्सर वही पार्टी सत्ता में आती है, जिसे बड़े पूँजीपतियों का समर्थन प्राप्त हो और सत्ता में आने के बाद हर पार्टी पूँजीपतियों की सेवा में जुट जाती है। इस तरह से पूँजीवादी चुनाव इस कहावत को सच साबित कर देते हैं कि जिसका खायेंगे उसका गायेंगे।

 

मज़दूर बिगुल,सितम्‍बर 2017


 

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