तटीय आन्ध्र में जाति‍ व्यवस्था के बर्बर रूप की बानगी
चार महीने से भी अधिक समय से जारी है माला जाति के 1200 दलितों का साामाजिक बहिष्कार

 आनन्द सिंह

राम नाथ कोविन्द के राष्ट्रपति बनने के बाद कारपोरेट मीडिया भारतीय गणतन्त्र के महिमामण्डन में व्यस्त था और नवनिर्वाचित राष्ट्रपति महोदय हमें बता रहे थे कि किस तरह से इस गणतन्त्र में उन्होंने एक मिट्टी के घर से राष्ट्रपति भवन तक की यात्रा तय करने का मौक़ा मिला। ठीक उसी समय इसी गणतन्त्र के एक कोने के एक गाँव में भूस्वामी उच्च जातियों द्वारा लगभग 400 दलित परिवारों के 1200 लोगों का बर्बर सामाजिक बहिष्कार जारी था, लेकिन कारपोरेट मीडिया ने भारतीय गणतन्त्र के इस घिनौने रूप को प्रमुखता नहीं दी, क्योंकि उससे गणतन्त्र के रंग में भंग पड़ जाता।

घटना तटीय आन्ध्र के पश्चिम गोदावरी जि़ले के गरगापर्रू नामक गाँव की है, जहाँ गत 5 मई से राजू नामक भूस्वामी जाति के नेतृत्व में गाँव की 13 अन्य जातियों ने साथ मिलकर माला नामक दलित जाति के लगभग 400 परिवारों का सामाजिक बहिष्कार कर रखा है। माला जाति के अधिकांश लोग खेतिहर मज़दूर हैं। इस साामाजिक बहिष्कार के बाद से गाँव का कोई भी भूस्वामी उन्हें खेत में काम नहीं दे रहा है। ट्रैक्टर और ऑटो रिक्शा ड्राइवर, घरेलू नौकर, मत्स्य पालन उद्योग में मज़दूर का काम करने वाले माला जाति के लोगों को भी काम से निकाल दिया गया है। माला लोगों के पशुओं को गाँव के साझा चारागाहों में चरने पर भी रोक लगा दी गयी। एक आरएमपी डॉक्टर ने इस बहिष्कार के दौरान माला लोगों का इलाज करने की ज़ुर्रत की तो उसकी क्लीनिक उच्च जाति के भूस्वामियों ने बन्द करवा दी। अगर गाँव का कोई व्यक्ति इस बहिष्कार को तोड़ने की कोशिश करता है तो उस पर भारी जुर्माना लगा दिया जाता है। माला जाति के जो कुछ लोग काश्तकार किसान हैं, उनसे भी भूस्वामियों ने ज़मीन वापस ले ली है। इस प्रकार इस गाँव के 400 माला परिवारों के सामने अस्तित्व का संकट उठ खड़ा हो गया है।

माला जाति के इस बर्बर सामाजिक बहिष्कार का तात्कालिक कारण इस जाति के कुछ युवाओं द्वारा 23 अप्रैल की रात को गाँव के तालाब के किनारे महात्मा गाँधी, अल्लूरी सीताराम राजू और पोट्टी श्रीरामुलू की मूर्तियों के बग़ल में अम्बेडकर की मूर्ति स्थापित करना था। गाँव की उच्च जातियों को दलितों की यह ज़ुर्रत फूटी आँखों नहीं भायी और उन्होंने उसी रात मूर्ति तालाब से दूर हटा दी। अगले दिन माला लोगों ने विरोध स्वरूप ‘रास्ता रोको’ का आयोजन‍ किया, जिसके दबाव में इलाक़े के उप-कलेक्टर ने हस्तक्षेप करके मूर्ति को ग्राम पंचायत के ऑफि़स ‍ में स्थानान्तरित कर दिया। इससे नाराज़ होकर गाँव के राजू भूस्वामियों ने 13 अन्य जातियों के साथ बैठक करके 5 मई 2017 से माला जाति के लोगों का बहिष्कार करने का फ़ैसला किया। उस बैठक में यह भी तय किया गया कि यदि कोई व्यक्ति इस बहिष्कार का उल्लंघन करके माला लोगों का किसी भी प्रकार से सहयोग करता है तो उस पर 1000 रुपये का जुर्माना लगाया जायेगा। यही नहीं उच्च जातियों ने माला लोगों की बस्ती के पास सीसीटीवी कैमरा भी लगा दिया, ताकि इसकी निगरानी रखी जा सके कि कौन से लोग माला जाति से सम्पर्क कर रहे हैं।

कुछ स्थानीय दलित संगठनों व अन्य जन संगठनों द्वारा माला लोगों के इस बर्बर सामाजिक बहिष्कार के मुद्दे को उठाने के बाद प्रशासन हरकत में आया। राजू जाति के कुछ लोगों के ि‍ख़लाफ़ आईपीसी की धारा 341 (सदोष प्रतिबन्ध), 506 r/w 34 (आपराधिक अभित्रास) और अनुसूचित जाति/जनजाति (अत्याचार की रोकथाम) अधिनियम के तहत मुक़दमा दर्ज़ किया गया और कुछ गिरफ़्तारियाँ भी हुईं। हालाँकि कुछ ही दिनों के भीतर उन्हें जमानत भी मिल गयीं और बह‍िष्कार बदस्तूर जारी है। इस बीच गाँव के एक दलित की एक दुर्घटना में मौत हो गयी। जिस तरीक़े से वह दुर्घटना घटी उसके आधार पर दलितों को शक है कि उसे उच्च जाति के लोगों ने ही मरवाया था। माला लोगों की बस्ती की पुलिस ने चारों ओर नाकेबन्दी कर दी है जिसकी वजह से उनकी आवाजाही पर बन्दिशें लग गयी हैं जो उनके सामाजिक बहिष्कार को और भी ज़्यादा पीड़ादायी बना रही हैं। ग़ौरतलब है कि माला जाति के अधिकांश लोगों ने आज़ादी के बाद ही ईसाई धर्म अपना लिया था। तमाम सामाजिक संस्थाओं की मदद से गाँव में स्थित लूथरवादी चर्च के पास ही माला लोगों का सामूहिक भोजनालय चल रहा है, क्योंकि माला लोगों के पास अपने घर में खाना बनाने लायक पैसे भी नहीं बचे हैं।

इस सामाजिक बहिष्कार के पीछे के कारणों को गहराई समझने के लिए तटीय आन्ध्र की जातिगत और वर्गीय संरचना को समझना ज़रूरी है। तटीय आन्ध्र में कम्मा, रेड्डी, कापु, और राजू आदि जातियों के लोग भूस्वामी हैं और माला व मादिगा दलित जातियाँ हैं जो अधिकांशत: भूमिहीन हैं व खेतों व लघु उद्योगों में मज़दूरी का काम करती हैं। आज़ादी के बाद हुए भूमि सुधारों का लाभ कम्मा, रेड्डी, कापु, और राजू जैसी किसान जातियों को मिला क्योंकि उन्हें ज़मीन का मालिकाना हक़ मिला। माला व मादिगा लोगों को या तो कोई ज़मीन मिली या फिर अगर मिली तो बहुत ही कम गुणवत्ता वाली व चारागाह की थोड़ी-बहुत ज़मीन मिली। हरित क्रान्ति का असर गोदावरी व कृष्णा नदियों के डेल्टा वाले तटीय आन्ध्र में भी हुआ जिसकी बदौलत भूस्वामी जातियों ने पूँजी-सघन खेती की शुरुआत की। इसकी वजह से खेती में बाज़ार में बेचने लायक बेशी उत्पाद पैदा हुआ जिसकी बदौलत ज़मीन, श्रम, और कृषि उत्पादों के बाज़ार अस्तित्व में आये और ग्रामीण अर्थव्यवथा के जिंसीकरण में तेज़ी आयी। इस पूँजीवादी कृषि के फलस्वरूप गाँवों में किसानों के विभेदीकरण की प्रक्रिया ने तेज़ी पकड़ी। धनी किसान मुख्यत: कम्मा और रेड्डी और कुछ हद तक कापु और राजू जातियों से आये। इसके साथ ही साथ कास्तकारी की परिघटना में भी गिरावट देखने में आयी। कास्तकार भी खेतिहर मज़दूरों की जमात में शामिल होते गये। ये खेतिहर मज़दूर पहले के ‘वतना’ नामक सामन्ती व्यवस्था की तरह बन्धक नहीं बल्कि मुक्त थे और उन्हें कैश में मज़दूरी मिलने की प्रवृत्ति ने भी ज़ोर पकड़ा। इसके साथ ही साथ पुराने श‍िल्प और हैण्डलूम तबाह होने की प्रक्रिया में भी तेज़ी आयी जिसका सीधा असर माला और मादिगा जैसी दलित जातियों पर पड़ा जिनके पास खेतिहर मज़दूर बनने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा। कृषि में पूँजीवादी विकास का एक नतीजा गाँवों में जातिगत पारस्परिक निर्भरता पर आधारित पुरानी ‘जजमानी’ व्यवस्था के पतन के रूप में भी सामने आया जिसकी वजह से जातिगत सरपरस्ती वाली पुरानी व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी।

देश के अन्य हिस्सों की ही तरह तटीय आन्ध्र के गाँवों में भी पूँजीवादी खेती के विकास के बाद उभरी भूस्वामी कुलक जातियों ने भूमिहीन मज़दूरों पर प्रभुत्व क़ायम करने के लिए जातिगत गोलबन्दी का सहारा लिया। दूसरी ओर ख़ासकर 1980 के दशक से दलितों के बीच भी अपने अधि‍कारों को लेकर जागरूकता आयी है और वे अपने आप को असर्ट कर रहे हैं। दलितों के साथ होने वाली बर्बर उत्पीड़न की घटनाओं को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए।

1980 के दशक में आन्ध्र की कुलक जातियों विशेषकर कम्मा जाति के उभार का राजनीतिक प्रतिबि‍म्बन तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) के अस्तित्व में आने और एनटी रामाराव के मुख्यमन्त्री बनने के रूप में सामने आया। आन्ध्र की कुलक जातियों 1980 के दशक से ही आन्ध्र में दलितों के ि‍ख़लाफ़ होने वाली उत्पीड़न की घटनाओं में भी ज़बरदस्त वृद्धि भी देखने में आयी। करमचेडू, नीरूकोण्डा और चुण्डूर इलाक़ों में 80 के दशक में हुई दलित उत्पीड़न की बर्बर घटनाएँ आज भी लोगों के ज़ेहन में ताज़ा हैं।

1990 के दशक में नवउदारवादी नीतियों के लागू होने के बाद कम्मा, रेड्डी, राजू और कापु जैसी कुलक जातियों की आर्थिक शक्तिमत्ता में और इज़ाफ़ा हुआ क्योंकि इन जातियों से आने वाले धनी किसानों ने अपने मुनाफ़े का एक हिस्सा मत्स्य पालन, नारियल के विशाल फ़ार्म, राइस मिल और तटीय आन्ध्र के शहरी इलाक़ों में होटल-रेस्तराँ व सिनेमा जैसे उद्योगों में लगाना शुरू किया। बाद में इस पूँजीपति वर्ग ने अपने अधि‍शेष को हैदराबाद में आईटी व फ़ार्मा कम्पनियों में तथा रियल एस्टेट, शिक्षा व चिकित्सा के क्षेत्रों में निवेश करना शुरू किया। इस प्रकार आन्ध्र की राजनीति व अर्थव्यवस्था में इन जातियों का प्रभुत्व और सशक्त हुआ। वहीं दूसरी ओर माला और मादिगा लोगों की हालत बद से बदतर होती गयी। इसकी वज़ह से कुलक जातियों द्वारा दलितों के ि‍ख़लाफ़ की जाने वाली उत्पीड़न की घटनाओं में तेज़ी देखने को मिल रही है।

यह वो ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है जिसमें तटीय आन्ध्र के पश्चिम गोदावरी जि़ले के गरगापर्रू गाँव में माला जाति के दलितों का सामाजिक बहिष्कार पिछले 4 महीने से जारी है। इस गाँव में राजू जाति के पास सबसे ज़्यादा ज़मीन है। राजुओं ने अपने दबदबे का इस्तेमाल करते हुए अन्य जातियों के लोगों को भी माला लोगों का बहिष्कार करने के लिए राजी कर लिया है। विडम्बना यह है कि माला जाति के लोगों का बहिष्कार करने वाली जातियों में माडिगा जाति भी शामिल हैं जो स्वयं एक दलित जाति है। अस्मितावादी राजनीति के असर की वजह से माला और मादिगा जातियों के बीच भी ख़ुद को दूसरे से श्रेष्ठ समझने की भावना काम करती है। क्रान्तिकारी ताक़तों की कमज़ोरी की वजह से लोग वर्गीय आधार पर एकजुट व लामबन्द होने की बजाय जातिगत आधार पर लामबन्द हो रहे हैं, जिसका ख़ामियाज़ा दलित जातियों को ही भुगतना पड़ रहा है।

इस प्रकार गरगापर्रू जैसी घटनाओं के सतह पर दिखने वाले जातीय संघर्ष को गहराई से पड़ताल करने पर हम पाते हैं कि यह पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों के अन्तरविरोधों की परिणति है जो भारत की विशेष परिस्थिति में जातीय संघर्षों के रूप में घटित होती हुई प्रतीत होती है। गाँवों में धनी पूँजीवादी किसानों को जाति के रूप में ऐतिहासिक रूप से चली आ रही एक ऐसी व्यवस्था मिली है जिसका इस्तेमाल वे ग्रामीण सर्वहारा को बाँटने में और उसको नियन्त्रित करने के लिए कर रहे हैं। ऐसे में कोई भी जाति-विरोधी आन्दोलन तब तक कारगर नहीं साबित हो सकता जब तक कि वह वर्ग पर आधारित न हो। वर्ग-आधारित जाति-विरोधी आन्दोलन ही द‍ेश के विभिन्न हिस्सों में जारी दलित-विरोधी अत्याचारों का प्रभावी प्रतिकार भी कर सकता है और जाति-उन्मूलन के दूरगामी लक्ष्य को भी हासिल कर सकता है।

मज़दूर बिगुल,सितम्‍बर 2017


 

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