वाम गठबंधन की भारी जीत के बाद : नेपाल किस ओर?

आलोक रंजन

नेपाल में भारी बहुमत पाकर वाम गठबन्धन सत्तारूढ़ होने जा रहा है। के.पी. ओली का प्रधानमंत्री बनाना लगभग तय है। कयास इस बात के लगाये जा रहे हैं कि माधव नेपाल और प्रचण्ड में से एक देश का राष्ट्रपति बनेगा और दूसरा ने.क.पा. (ए.मा.ले.) और ने.क.पा. (माओवादी केन्द्र) के प्रस्तावित विलय के बाद अस्तित्व में आने वाली पार्टी का अध्यक्ष।

इस घटना-क्रम पर दो कोणों से विचार किया जाना चाहिए। पहला, राजनीतिक कोण और दूसरा विचारधारात्मक कोण।

राजनीतिक दृष्टिकोण से देखें तो पूरे एशिया के परिदृश्य में इस घटना से, वस्तुगत तौर पर, कुछ सकारात्मक बदलाव आयेंगे। नेपाल में लम्बे समय बाद एक स्थिर सरकार बनने के बाद नेपाल ज़्यादा सन्तुलित कूटनीति के द्वारा भारत और चीन में सन्तुलन स्थापित करेगा, अपने आर्थिक विकल्पों का विस्तार (मुख्यतः चीन की ओर) करके भारत पर अपनी निर्भरता को कम करेगा, भारतीय क्षेत्रीय विस्तारवाद का ज़्यादा प्रभावी ढंग से मुक़ाबला करेगा और पिछले दिनों मधेस प्रश्न पर विवाद के दिनों में भारतीय नाकेबन्दी से पैदा हुई दुश्वारियों जैसी किसी स्थिति से निपटना उसके लिए आसान हो जायेगा। वैसे, उस घटना का ही नतीज़ा था कि चीन के साथ नेपाल ने सम्बन्ध मज़बूत करने शुरू किये और आज नेपाल का चीन के साथ व्यापार भारत के साथ व्यापार की तुलना में आगे निकल चुका है। नेपाल चीन की महत्वाकांक्षी ‘वन रोड वन बेल्ट’ परियोजना में भी शामिल हो चुका है। चीन के सहयोग से नेपाल में सड़क और रेल की अति महत्वाकांक्षी परियोजनाओं के लिए बातचीत और सर्वेक्षण पहले ही शुरू हो चुका है। वाम गठबन्धन ने नेपाल में बिजली उत्पादन में भारी बढ़ोत्तरी और भारी उद्योगों की अवस्थापना के लक्ष्य की पहले से ही घोषणा कर दी है। चीन के आर्थिक-तकनीकी सहयोग से इन लक्ष्यों को प्राप्त करना ज़्यादा कठिन नहीं है। चीन से प्रतिस्पर्द्धा के कारण, आसान शर्तों पर सहयोग करना भारत की भी मजबूरी होगी और पहले की तरह धौंसपट्टी का व्यवहार अब उसके लिए सम्भव नहीं हो सकेगा।

हालाँकि एशिया के पैमाने पर इस राजनीतिक घटना-क्रम का एक दूसरा पहलू भी है। “बाज़ार समाजवाद” के मुखौटे वाला, उभरता हुआ चीनी साम्राज्यवाद पूरे एशिया के पैमाने पर तेज़ी से अपना प्रभुत्व-विस्तार कर रहा है और इस मामले में भारतीय पूँजीवाद उसके मुकाबले कहीं नहीं ठहरता। ‘वन बेल्ट वन रोड प्रोजेक्ट’, दक्षिण चीन सागर पर एकछत्र प्रभुत्व का दावा, श्रीलंका में हम्बनटोटा और पाकिस्तान में ग्वादर जैसे बन्दरगाहों का निर्माण (म्यांमार के साथ भी ऐसी ही परियोजना पर बात जारी है), ईरान और मध्य-एशियाई देशों के साथ घनिष्ठ व्यापार-सम्बन्ध आदि चीनी महत्वाकांक्षा के संकेत मात्र हैं। नेपाल में भी चीन कोई ‘सांता क्लाॅज़’ बनकर नहीं आ रहा है। उसकी निगाह नेपाल की सस्ती श्रम-शक्ति और सस्ते कच्चे माल के अकूत भण्डार पर है। यही नहीं, पूँजीवादी विकास के गति पकड़ने और मुद्रा-अर्थव्यवस्था के मज़बूत होने के बाद नेपाल चीनी उत्पादों का भी एक बड़ा बाज़ार होगा।

इस तरह, नेपाल दूरगामी तौर पर ज़्यादा गहरे साम्राज्यवादी शोषण और देशी पूँजीवादी शोषण की गिरफ़्त में जकड़ जायेगा। लेकिन वस्तुगत रूप से, नेपाल इतिहास की यात्रा में आगे कदम बढ़ा देगा, क्योंकि वहाँ पूँजीवादी विकास और नये सिरे से पूँजीवादी वर्ग-ध्रुवीकरण की गति तेज़ हो जायेगी और आधुनिक औद्योगिक सर्वहारा वर्ग का तेज़ी से विस्तार होगा। नेपाल का पूँजीवादी रूपान्तरण साम्राज्यवादी शक्तियाँ भी चाहती हैं (क्योंकि नेपाल में प्राक-पूँजीवादी अवशेषों की समाप्ति और राष्ट्रीय बाज़ार के सुदृढ़ीकरण के बाद ही वहाँ नव-उदारवाद की नीतियों को प्रभावी ढंग से लागू किया जा सकता है) और नेपाल का पूँजीपति वर्ग भी यही चाहता है। इस काम को मौजूदा वाम गठबन्धन की सरकार नेपाली कांग्रेस से अधिक प्रभावी ढंग से कर सकती है, इसलिए वाम गठबन्धन के सत्तारूढ़ होने से, चीन ही नहीं, बल्कि दुनिया की अन्य साम्राज्यवादी शक्तियों को भी कोई आपत्ति नहीं, बल्कि ख़ुुशी ही है। भारत के शासक वर्गों की नाख़ुशी का कारण नेपाल में उनके हितों का सिकुड़ना है।

वाम गठबन्धन क्रमिक गति से, ऊपर से, पुराने भूस्वामियों को रियायतें देते हुए ही सही, लेकिन बुर्जुआ भूमि-सुधार के बचे हुए कामों को भी पूरा करने के लिए बाध्य होगा, क्योंकि श्रम के सामन्ती बन्धनों से मुक्ति के बिना पूँजीवादी राष्ट्रीय बाज़ार का निर्माण सम्भव नहीं होगा। इस तरह नेपाल का पूँजीवाद के रास्ते पर तेज़ी से आगे बढ़ना अपरिहार्य हो गया है। कहा जा सकता है कि बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के बचे-खुचे कार्यों का पूरा हो जाना सुनिश्चित हो जाने के साथ ही नेपाल का अब नयी समाजवादी क्रान्ति (साम्राज्यवाद-विरोधी पूँजीवाद-विरोधी क्रान्ति) की मंज़ि‍ल में प्रविष्ट होना सुनिश्चित हो चुका है। इस गति को न तो रोका जा सकता है और न ही वापस घुमाया जा सकता है।

अब हम इस नये बदलाव के विचारधारात्मक पक्ष की ओर आते हैं। वाम गठबन्धन की भावी सरकार संसदीय मार्ग से बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के बचे-खुचे कार्यभारों को तो पूरा कर ही लेगी (सरकार आगे नेपाली कांग्रेस या किसी और गठबन्धन की भी बने, तो उसे यह काम करना ही होगा) लेकिन इसके साथ ही नेपाल भूमण्डलीकृत विश्व-अर्थतंत्र के साथ ज़्यादा आर्गेनिक ढंग से जुड़ जायेगा और उसकी वैसी ही दशा कालान्तर में होगी जो लातिन अमेरिका और अफ्रीका के कई पिछड़े पूँजीवादी देशों की आज है। इससे बचना तभी सम्भव होता, यदि बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के कार्यभार क्रान्तिकारी तरीके से पूरे किये जाते और फिर वहाँ समाजवादी संक्रमण की शुरुआत हो जाती। लेकिन क्रान्तिकारी वाम के संशोधनवादी विपथ-गमन के चलते नेपाल ने वह अवसर खो दिया।

संसदीय मार्ग से पूँजीवादी जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों को तो पूरा किया जा सकता है, लेकिन समाजवाद की दिशा में संक्रमण कदापि नहीं किया जा सकता। न मार्क्सवाद की विचारधारा इसके पक्ष में गवाही देती है, न ही दुनिया का इतिहास। इसीलिए हमारा यह स्पष्ट और दृढ़ मत है कि नेपाल के क्रान्तिकारी वाम आन्दोलन को विगत एक दशक के दौरान भारी धक्का लगा है। ने.क.पा. (ए-मा-ले) तो पहले से ही देङ श्याओ-पिङ  के “बाज़ार समाजवाद” और ख्रुश्चेवी शान्तिपूर्ण संक्रमण के मार्ग की राही रही है। मदन भण्डारी के समय ही यह पार्टी बहुदलीय जनवाद की बात करते हुए सर्वहारा अधिनायकत्व की लेनिनवादी अवधारणा को छोड़ चुकी थी। प्रचण्ड की पार्टी ने भी एक दशक से भी अधिक पहले समाजवादी संक्रमण के दौरान बहुदलीय शासन-प्रणाली की अवधारणा प्रस्तुत करके वही राह पकड़ ली थी। लेकिन कम राजनीतिक चेतना के कारण कतारों में फिर भी लम्बे समय तक विभ्रम बना रहा। अब लेकिन विभ्रम का कुहासा काफी हद तक छँट चुका है। ने.क.पा. (माओवादी केन्द्र) का विचारधारात्मक विचलन पूरी पार्टी के निचले स्तर के नेतृत्व और कतारों के एक हिस्से तक भ्रष्ट राजनीतिक-सामाजिक-व्यक्तिगत आचरण के रूप में प्रकट होने लगा है। पार्टी ढाँचे का क्रान्तिकारी चरित्र तबाह हो चुका है, सदस्यता एकदम चवन्निया हो गयी है, 4००० लोगों की (!!!) तो केन्द्रीय कमेटी है, नयी कतारों की राजनीतिक शिक्षा का स्तर शून्य है और उनमें असामाजिक तत्व भी घुस गये हैं। अब ने.क.पा. (ए-मा-ले) से एकता के फैसले की घोषणा के बाद ने.क.पा. (माओवादी केन्द्र) के “माओवाद” का पूरा पर्दाफ़ाश हो चुका है। संसदीय वाम बुर्जुआ जनवाद की दूसरी सुरक्षा-पंक्ति का काम करता है, लेकिन नेपाल में तो इसने अपनी वफ़ादारी इस कदर प्रमाणित की है कि पहली सुरक्षा-पंक्ति बन गया है।

समस्या यह है कि प्रचण्ड को संशोधनवादी कहते हुए अलग राह लेने वाले किरण वैद्य या विप्लव जैसे लोगों से भी कोई उम्मीद नहीं हैI अतीत में ऐसी तमाम पार्टियों के नेतृत्व ने अवसरवाद, उदारतावाद या बचकानेपन का परिचय दिया है। इनके व्यवहार का अनुमान नहीं लगाया जा सकता और इनका भविष्य संदिग्ध है। न तो इन संगठनों में नेपाल के क्रान्तिकारी वाम का नया केन्द्र बनाने की सामर्थ्य है, न ही उन तमाम अपरिपक्व छोटे-छोटे संगठनों में जो संशोधनवाद के विरोध और माओवाद/माओ विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता का अनुष्ठानिक दावा करते रहते हैं। इस मायने में नेपाल के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन को एक ऐतिहासिक धक्के का सामना करना पडा है।

बहुत सारे भावुकतावादी कम्युनिस्टों में संशोधनवादी वाम गठबन्धन की भारी जीत से यदि कुछ ज़्यादा ही उम्मीदें पैदा हो गयी हैं तो यह अच्छी बात नहीं है क्योंकि मिथ्या उम्मीद नाउम्मीदी से भी बुरी चीज़ होती है। एक अच्छी बात यह है कि संघर्षों में तपी-मंजी नेपाल की कम्युनिस्ट कतारों का एक अच्छा-खासा हिस्सा इस बात को समझता जा रहा है और आने वाले दिनों में इसे वह और बेहतर तरीके से तथा और तेज़ी से समझेगा।

नेपाल में कम्युनिस्ट आन्दोलन की जड़ें बहुत गहरी हैं और अभी भी विभिन्न संगठनों में कर्मठ क्रान्तिकारी कतारों की संख्या बहुत विशाल है। मौजूदा कोई भी सांगठनिक केन्द्र इन्हें ऐक्यबद्ध करने और नेतृत्व देने की क्षमता नहीं रखता।

लेकिन कतारों के बीच से किसी नयी क्रान्तिकारी पहल और किसी नए क्रान्तिकारी केन्द्र के उदय की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता। बल्कि भविष्य तो इसी दिशा में इंगित कर रहा है।

 

मज़दूर बिगुल,अक्‍टूबर-दिसम्‍बर 2017


 

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