”यह सबकुछ जनता की सम्पत्ति है!”

अल्बर्ट रीस विलियम्स

अल्बर्ट रीस विलियम्स उन पाँच अमेरिकी लोगों में से एक थे जो अक्टूबर क्रान्ति के तूफ़ानी दिनों के साक्षी थे। अन्य चार लोग थे जॉन रीड, बेस्सी बिट्टी, लुइस ब्रयान्त और एलेक्स गाम्बोर्ग। उनकी दो पुस्तकें ‘अक्टूबर क्रान्ति के दौरान’ और ‘लेनिन: व्यक्तित्व और कार्य’ क्रान्ति के दिनों का आँखों देखा ब्योरा प्रस्तुत करती हैं। उस दौर की युगान्तरकारी उथल-पुथल से गुज़रते हुए लेखक इस सत्य को रेखांकित करता है कि क्रान्ति का असली नायक वस्तुतः सामान्य जन-समुदाय ही होता है। उनकी पहली पुस्तक से यहाँ प्रस्तुत अंश में पूँजीपतियों की सरकार के हेडक्वाटर ज़ार के महल ‘शीत प्रासाद’ पर कब्ज़े के समय की घटनाओं और जनता के अलग-अलग वर्गों की भावनाओं का रोचक वर्णन है।

इस महल और इसकी वस्तुओं पर उनके अधिकार को कौन अस्वीकार कर सकता था? यह सबकुछ उनके और उनके पूर्वजों के परिश्रम का फल था। ये रचना के अधिकार से उनकी चीज़ें थीं। विजय की दृष्टि से भी ये वस्तुएँ उन्हीं की थीं। अपने हाथों में आग उगलने वाली बन्दूक़ें लिये हुए और हृदय में साहस बटोरकर उन्होंने इस महल पर अपना अधिकार स्थापित किया था। मगर कितने समय तक वे इस पर अपना क़ब्ज़ा क़ायम रख सकेंगे। एक सदी तक यह ज़ार का था। कल इस पर केरेन्स्की का प्रभुत्व था। आज यह सर्वहारा वर्ग का है। कल यह किसके अधिकार में होगा? इस बारे में कोई कुछ नहीं कह सकता। आज के दिन क्रान्ति ने इसे सर्वहारा वर्ग के हाथ में सौंप दिया था। हो सकता है कि कल प्रतिक्रान्ति इसे इनके हाथ से छीन ले। अब चूँकि विजय के बाद उन्हें यह सुनहरा मौक़ा मिला है, तो वे अधिक से अधिक माल हस्तगत क्यों न कर लें? यही वह महल था, जहाँ एक शताब्दी तक दरबारियों ने गुलछर्रे उड़ाये थे, तो क्या वे एक रात भी यहाँ मनोविनोद नहीं कर सकते? बर्बर अत्याचारों एवं उत्पीड़नों से भरा उनका अतीत, आकुल वर्तमान और अनिश्चित भविष्य – यह सब उन्हें जो कुछ हाथ लगे, उसे हथियाने को प्रेरित कर रहा था।

महल में हुड़दंग का बोलबाला था। बेशुमार व्यक्तियों की आवाज़ों की प्रतिध्वनि गूँज रही थी। कपड़े और परदे फाड़े जा रहे थे। लकड़ी की वस्तुएँ तोड़ी जा रही थीं, टूटी खिड़कियांे के शीशे चूर-चूर होकर फ़र्श पर गिर रहे थे, लकड़ी के चित्रकारी-युक्त आकर्षक फ़र्श पर भारी बूटों की धप-धप सुनायी दे रही थी और हज़ारों कण्ठों का स्वर छत से टकरा-टकराकर गूँज रहा था। हर्षोन्मत्त आवाज़ें और ि‍फर लूट-पाट की वस्तुओं के बँटवारे के प्रश्न पर वाग्युद्ध भी सुनायी देता। खरखरी-फटी आवाज़ें, चीख़-चिल्लाहट, भुनभुनाहट और गाली-गलौज भी सुनायी पड़ती थी।

इस हंगामे के बीच एक दूसरी आवाज़ – क्रान्ति की स्पष्ट और ज़ोरदार आवाज़ सुनायी दी। यह आवाज़ थी क्रान्ति के परमनिष्ठावान समर्थकों – पेत्रोग्राद के मज़दूरों की। वे मुट्ठीभर थे, मुरझाये हुए, मगर लम्ब-तडं़ग कृषक सैनिकों के इस बड़े समूह के बीच घुसकर वे ज़ोरों से कह उठे, ”यहाँ से कुछ मत उठाओ! क्रान्ति इसका निषेध करती है! लूट-पाट बिल्कुल नहीं होनी चाहिए! यह सबकुछ जनता की सम्पत्ति है!”

इस दृश्य को देखकर ऐसा लगा मानो बच्चे प्रचण्ड चक्रवात के विरुद्ध सीटी बजा रहे हों, भीमकाय सैनिकों के बड़े समूह पर बौने चढ़ आये हों। वे शब्दों से, विजय के दर्प से फूले हुए और लूट-पाट करने पर उतारू सैनिकों को रोकना चाहते थे, किन्तु बेसूूद, लूट-पाट जारी रही। आखि़र भीड़ थोड़े मज़दूरों के विरोध की क्यों परवाह करती?

क्रान्ति में संयम लाने वाला मज़दूर वर्ग का हाथ

परन्तु इन मज़दूरों की बातों पर ध्यान देना ही पड़ा। उन्हें मालूम था कि उनके शब्द क्रान्ति के दृढ़संकल्प को व्यक्त करते हैं। इसी कारण वे निडर और दबंग थे। वे बड़े क्रोध में भीमकाय सैनिकों पर बरस पड़ते, उन्हें जली-कटी सुनाते और उनके हाथों से लूट-पाट की चीज़ें़ छीन लेते। उन्होंने बहुत जल्द ही सैनिकों को अपनी सफ़ाई देने की स्थिति में डाल दिया।

एक लम्ब-तड़ंग किसान एक भारी ऊनी कम्बल लिये भागा जा रहा था। एक नाटे मज़दूर ने उसे रास्ते मंे ही घेर लिया। उसने लपककर कम्बल पकड़ा और एक सिरे को ज़ोर से खींचते हुए किसान को उसी प्रकार फटकारना शुरू किया, जैसे ग़लत काम करने पर बच्चे को डाँटा जाता है। तीव्र आवेश से किसान का चेहरा तमतमा उठा और उसने गुर्राते हुए कहा :

”कम्बल छोड़ दो! यह मेरा है!”

मज़दूर ने ज़ोर से कहा, ”नहीं, यह तुम्हारा नहीं है। यह जनता का है। आज रात महल से कोई भी चीज़ कोई बाहर नहीं ले जा सकता।”

”तो आज रात मैं इस कम्बल को ज़रूर ले जाऊँगा। बैरक में बड़ी सर्दी है।”

”कामरेड, मुझे दुख है कि तुम्हें सर्दी से कष्ट है। मगर तुम्हारी लूट-पाट से क्रान्ति कलंकित हो, इससे बेहतर यही है कि तुम जाड़ा बरदाश्त करो।”

किसान ने झल्लाकर कहा, ”तुम पर शैतान की मार! आखि़रकार हमने क्रान्ति की किसलिए? क्या यह लोगों को वस्त्र और भोजन देने के लिए नहीं की गयी?”

”हाँ, कामरेड, आज रात नहीं, परन्तु उपयुक्त समय पर क्रान्ति आपकी ज़रूरत के अनुसार आपको हर चीज़ प्रदान करेगी। यदि इस महल से बाहर कोई भी चीज़ गयी, तो हमें सच्चा समाजवादी नहीं, बल्कि आवारा और लुटेरा कहा जायेगा। हमारे शत्रु यह कहेंगे कि हम क्रान्ति के लिए नहीं, बल्कि लूट-पाट के लिए यहाँ आये थे। इसलिए हमें यहाँ की कोई चीज़ नहीं लेनी चाहिए। यह जनता की सम्पत्ति है। क्रान्ति की प्रतिष्ठा के लिए हमें यहाँ की चीज़ों की रक्षा करनी चाहिए।”

समाजवाद, क्रान्ति, जनता की सम्पत्ति – इनके नाम पर कम्बल उससे छीन लिया जायेगा। सदा ऐसे ही शब्दों, इसी प्रकार की अस्पष्ट बातों के नाम पर उसकी चीज़ें़ उससे छीनी जाती रही हैं। कभी ”ईश्वर की महिमा-स्वरूप ज़ारशाही” के नाम पर यह काम हुआ करता था। अब ”समाजवाद, क्रान्ति, जनता की सम्पत्ति” के नाम पर वही हो रहा था।

परन्तु इसके बावजूद इस अन्तिम धारणा में कुछ ऐसी बात थी, जिसे किसान समझ सकता था। यह उसकी सामुदायिक मानसिक गठन के अनुकूल थी। जब यह धारणा उसके मस्तिष्क में बैठ गयी, तो ऊनी कम्बल हथियाने का विचार उसके दिमाग़ से ग़ायब होने लगा और अपनी बहुमूल्य निधि पर अन्तिम मर्मभेदी निगाह डालकर वह वहाँ से धीरे-धीरे चल पड़ा। बाद में मैंने उसे एक अन्य सैनिक को यही बात विस्तृत रूप से समझाते देखा। वह ”जनता की सम्पत्ति” की चर्चा कर रहा था। मज़दूरों ने लूट-पाट रोकने के लिए अनुनय-विनय किया, समझाया-बुझाया और ज़रूरत पड़ने पर धमकी भी दी और वे सफल हुए। महल के एक शयन-कक्ष में एक बोल्शेविक मज़दूर ग़ुस्से से अपना एक हाथ हिलाकर तीन सैनिकों को धमका रहा था और उसका दूसरा हाथ उनकी पिस्तौल पर था। उसने ज़ोर से कहा :

”यदि तुम लोगों ने उस मेज़ को स्पर्श किया, तो तुम्हें मुझे इसका जवाब देना होगा।”

सैनिकों ने उसका मज़ाक़ उड़ाते हुए कहा, ”ओहो, तुम्हें जवाब देना होगा! तुम हो कौन? हमारी ही तरह तुम भी महल में घुस आये हो। हम और किसी के सामने नहीं, केवल अपने ही सामने जवाबदेह हैं।”

मज़दूर ने सख़्ती से प्रत्युत्तर में कहा, ”तुम लोग क्रान्ति के सामने जवाबदेह हो।” वह अपने कर्तव्य के प्रति इतना अधिक निष्ठावान था कि इन तीनों सैनिकों ने उसमें क्रान्ति के अधिकार को महसूस किया। उन्होंने उसकी बातें सुनीं और उसके आदेश का पालन किया।

क्रान्ति ने जन-समुदाय में साहस और जोश पैदा किया था। इसने उन्हें शीत प्रासाद पर धावा बोलने के लिए उत्प्रेरित किया था। अब वह उन्हें नियन्त्रित कर रही थी। वह गुल-गपाड़े की जगह शान्ति और व्यवस्था क़ायम करने, भीड़ की भावना को नियन्त्रित करने की दिशा में प्रयत्नशील थी; जगह-जगह सन्तरी तैनात किये जा रहे थे।

गलियारों में यह आवाज़ गूँज उठी, ”सभी लोग बाहर चले जायें, महल से भीड़ बिल्कुल हट जाये,” और इस निर्देश के अनुसार भीड़ दरवाज़ों की ओर बढ़ने लगी। सभी दरवाज़ों पर तलाशी और निरीक्षण के निमित्त आत्म-नियुक्त समिति के सदस्य खड़े थे। वे बाहर निकलने वाले प्रत्येक व्यक्ति की तलाशी लेते थे, उनकी जेबों, क़मीज़ों और यहाँ तक कि जूतों को भी पैर से निकलवाकर देखते थे। इस तलाशी के फलस्वरूप विविध प्रकार की स्मारिकाएँ जैसे छोटी-छोटी मूर्तियाँ, मोमबत्तियाँ, कपड़े टाँगने की खूँटियाँ, बेल-बूटेदार रेशमी वस्त्र, सजावटी गिलास, फूलदान आदि वहाँ जमा हो गये। इन च़ीजों को हथियाने वाले बच्चों की भाँति इन्हें ले जाने की अनुमति देने के लिए अनुनय-विनय करते, मगर उक्त समिति अपने निश्चय पर अडिग रहती और उसके सदस्य लगातार यही कहते जाते, ”आज रात इस महल से कोई भी चीज़ बाहर नहीं जायेगी।”

और उस रात लाल गार्डों द्वारा रक्षित महल से कोई कुछ भी बाहर न ले जा सका, गोकि चोर-लुटेरे बाद में बहुत-सी बहुमूल्य वस्तुएँ लेकर चम्पत हो गये।

अब कमिसारों ने अस्थायी सरकार और उसके समर्थकों की ओर ध्यान दिया। उन्हें पकड़कर बाहर लाया गया। सबसे आगे-आगे मन्त्री थे, जिन्हें राजकीय हाॅल में हरे रंग के ऊनी कपड़े से सज्जित मेज़ के चारों ओर बैठे पकड़ा गया था। वे चुपचाप पंक्तिबद्ध बाहर निकले। भीतर जो भीड़ रह गयी थी, उसने न तो एक शब्द कहा और न इनका मज़ाक़ उड़ाया। मगर बाहर जब एक नौसैनिक ने मोटरगाड़ी लाने को कहा, तो एकत्र भीड़ ने भयभीत मन्त्रियों को धकियाते हुए ज़ोरों से चिल्लाकर कहा, ”उन्हें पैदल ले जाओ। बहुत दिनों तक मोटरों पर सवारी कर चुके हैं।” तनी हुई संगीनों के साथ लाल नौसैनिक अपने बन्दियों को चारों ओर से घेरकर उन्हें नेवा नदी के पुलों के पार ले गये। बन्दियों के इस समूह में लम्बे क़द के उक्रइनी पूँजीपति तेरेश्चेन्को का सिर सबसे ऊपर दिखायी दे रहा था, जिसे नौसैनिक अब विदेश मन्त्रालय से पीटर-पाॅल जेल में डालने के लिए ले जा रहे थे और उसके स्थान पर बोल्शेविक त्राॅत्स्की को विदेश मन्त्रालय लायेंगे।

जब नौसैनिक नतशिर युंकरों को बन्दी बनाकर ले जा रहे थे, तो भीड़ चिल्ला उठी, ”उत्तेज़क! ग़द्दार! हत्यारे!” उसी दिन सुबह प्रत्येक युंकर ने यह शपथ ली थी कि वे एक गोली शेष रह जाने तक बोल्शेविकों के खि़लाफ़ लड़ते रहेंगे। बोल्शेविकों के सम्मुख आत्मसमर्पण करने की जगह वे इस आखि़री गोली से अपना काम तमाम कर लेंगे। मगर अब युंकर बोल्शेविकों को अपने हथियार सौंप रहे थे और गम्भीरता के साथ यह वादा कर रहे थे कि वे बोल्शेविकों के विरुद्ध कभी हथियार नहीं उठोयेंगे। (बदकि़स्मत झूठे! उन्हें अपनी क़सम तोड़नी पड़ी!)

सबसे बाद में महिला बटालियन की सदस्याओं को महल से बाहर लाया गया। उनमें से अधिकांश सर्वहारा वर्ग की थीं। लाल गार्डों ने उन्हें देखते ही चिल्लाकर कहा, ”महिला बटालियन हाय, हाय! शर्म की बात है कि मज़दूरिनें ही मज़दूरों के खि़लाफ़ लड़ती रहीं!” अपने आक्रोश को प्रकट करने के लिए कुछ लोगों ने लड़कियों के हाथ पकड़कर उन्हें खींचा और डाँटा-फटकारा।

सैनिक लड़कियों को इससे अधिक और कोई हानि नहीं पहुँचाई गयी, यद्यपि बाद में एक सैनिक लड़की ने आत्महत्या कर ली। दूसरे दिन विरोधी समाचारपत्रों ने लाल गार्डों द्वारा शीत प्रासाद में लूट-पाट करने की ख़बरों के साथ महिला बटालियन के विरुद्ध जघन्य अत्याचार करने की मनगढ़न्त कहानियाँ प्रकाशित कीं।

मज़दूर वर्ग के लिए विनाशकारी कृत्यों से बढ़कर उनके सहज-स्वभाव के प्रतिकूल और कोई बात नहीं है। यदि यह न होता, तो इतिहास में 26 अक्टूबर (8 नवम्बर) की सुबह से सम्बन्धित सम्भवतः कुछ भिन्न घटनाएँ ही दर्ज की जातीं। शायद इतिहास यह वृत्तान्त प्रस्तुत करता कि ज़ार का शानदार महल ध्वस्त पत्थरों का ढेर बन गया और दीर्घकाल से उत्पीड़ित लोगों की प्रतिहिंसा के फलस्वरूप आग की लपटों में राख होकर रह गया।

यह निष्ठुर और हृदयहीन महल एक सदी से नेवा के तट पर खड़ा था। जनता ने प्रकाश पाने की आशा से इस ओर देखा, परन्तु उसे अन्धकार मिला। लोगों ने अनुकम्पा की भीख माँगी, परन्तु उन्हें कोड़े मिले, उनके गाँव फूँके और उन्हें निष्कासन की सज़ा देकर साइबेरिया भेज दिया गया, नारकीय यन्त्रणाएँ दी गयीं। 1905 की शीत ऋतु में एक दिन सुबह ठिठुरते हुए हज़ारों निहत्थे लोग अन्याय को दूर कराने के लिए ज़ार से अनुनय-विनय करने के ख़याल से यहाँ जमा हुए थे। मगर महल ने इस प्रार्थना के उत्तर में उन पर गोली-वर्षा की और उन्हें तोपों से भून डाला; उनके ख़ून से बर्फ़ लाल हो गयी थी। जन-समुदाय के लिए यह प्रासाद निर्दयता एवं उत्पीड़न का स्मारक बन गया था। यदि उन्होंने इसे भूमिसात कर दिया होता, तो यह केवल अपमानित जनता के ग़ुस्से का एक और दृष्टान्त होता, जिसने सदा के लिए अपने उत्पीड़न के घृणास्पद प्रतीक को मिटाकर आँखों से ओझल कर दिया होता।

इसके विपरीत, उन्होंने इस ऐतिहासिक स्मारक को किसी भी तरह की क्षति से बचाने की कोशिश की।

केरेन्स्की ने सर्वथा भिन्न बात की थी। उसने शीत प्रासाद को अपने मन्त्रिमण्डल की बैठकों और अपनी रिहायश का स्थान बनाकर इसे मुठभेड़ों का केन्द्र बना दिया था। परन्तु इस पर धावा करके इसे अपने अधिकार में करने वाले जन-समुदाय के प्रतिनिधियों ने यह घोषणा की कि यह महल न तो उनका है, न सोवियतों का, बल्कि सारी जनता की विरासत है। सोवियत आज्ञप्ति के अनुसार शीत प्रासाद को लोक-संग्रहालय घोषित करके कलाकारों की एक प्रबन्ध-समिति के हवाले कर दिया गया।

मज़दूर बिगुल,अक्‍टूबर-दिसम्‍बर 2017


 

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