आज़ादी के सात दशक : किसकी आज़ादी – कैसी आज़ादी ?

वि. मलिक, महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक, हरियाणा

प्रिय सम्पादक महोदय मैं पिछले कुछ महीनों से ‘मज़दूर बिगुल’ अख़बार नियमित तौर पर पढ़ रहा हूँ। यह अख़बार आम जनता के बीच सही ख़बरें, सही विचार और सही विकल्प ले जाने का सराहनीय काम कर रहा है। इसके माध्यम से मैं आज़ादी के बारे में अपने कुछ विचार साझा करना चाहूँगा। इतिहासबोध से लैस और आम जन से जुड़े हुए साहित्यकार अकसर ऐसी बात कह जाते हैं जो आने वाली कई पीढ़ियों को हक़ीक़त से रूबरू कराती रहती हैं। जिस समय पूरा देश आज़ादी के जश्न में डूबा हुआ था, ठीक उसी समय मशहूर शायर अली सरदार ज़ाफ़री ने एक नज़्म पढ़ी थी, जिसके चन्द बोल निम्न हैं :

किसके माथे से ग़ुलामी की सियाही छूटी?

मेरे सीने में दर्द है महक़ूमी का

मादरे हिन्द के चेहरे पे उदासी है वही

कौन आज़ाद हुआ?

इस 15 अगस्त के अवसर पर जिन दिनों देश का खाया-पीया-अघाया वर्ग आज़ादी का सालाना जश्न मना रहा था, नेताशाही झूठे आँकड़ों के माध्यम से जनता का मन मोहने में मशगूल थी, ठीक उसी समय गोरखपुर के अस्पताल में जापानी बुखार के चलते वहाँ भर्ती सैकड़ों नौनिहालों ने ‘ऑक्सीजन सप्लाई’ बन्द होने की वजह से तड़प-तड़पकर दम तोड़ दिया। कम्पनी ने ऑक्सीजन की आपूर्ति इसलिए बन्द कर दी, क्योंकि सरकार के द्वारा 63 लाख का भुगतान नहीं किया गया था। गोरखपुर चूँकि महन्त आदित्यनाथ का संसदीय क्षेत्र रहा है, इसलिए सरकार की फ़ज़ीहत होती देख बेहूदा बयानबाजि़याँ की जाने लगीं, कहा गया कि अगस्त के महीने में तो बच्चे मरते ही हैं। कभी गन्दगी को मौतों का कारण ठहराया गया और जब बच्चों की मौतों का सिलसिला नहीं थमा तो योगी महाराज यहाँ तक कह गये कि सरकार का काम लोगों के बच्चों का पालन-पोषण करना नहीं है! गोरखपुर ही नहीं बल्कि बनारस और रांची में भी सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की अव्यवस्था का ख़ामियाज़ा मासूमों को अपनी जान देकर चुकाना पड़ा। किन्तु यह बात दर्शनीय है कि इन ह्रदय-विदारक घटनाओं के बाद भी आज़ादी के जश्न में कोई खलल नहीं पड़ा।

अगस्त माह के दौरान ही देश के कई राज्य बाढ़ की भयंकर चपेट में आये। जिस समय मीडिया नेताओं-मन्त्रियों द्वारा अगले चुनावों की तैयारियों में गोटियाँ ‘सेट’ करने के लिए मन्त्रीमण्डलों में हो रहे फ़ेरबदल, बाबाओं-डेरों, चीन, पाकिस्तान, ‘आतंकवाद’ और ब्रिक्स की बैठक की ‘धुँआधार रिपोर्टिंग’ में व्यस्त था, ठीक उसी समय देश की बहुत बड़ी आबादी बाढ़ के कारण बर्बादी झेल रही थी। बिहार, असम, उत्तरप्रदेश, बंगाल और झारखण्ड बाढ़ से बुरी तरह से त्रस्त हुए। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ देश के 1 करोड़ 20 लाख बच्चों समेत 3 करोड़ 10 लाख के क़रीब लोग बाढ़ से बुरी तरह से प्रभावित हुए। साढ़े 8 लाख से ज़्यादा घर तथा साढ़े 15 हज़ार से ज़्यादा स्कूल क्षतिग्रस्त हो गये। 10 लाख से ज़्यादा छात्रों की पढ़ाई बाढ़ के कारण प्रभावित हुई। 1 हज़ार से भी ज़्यादा लोगों ने बाढ़ में अपनी जान गँवा दी व कई लाख आबादी को विस्थापन का दंश झेलना पड़ा। यहाँ पर भी सही रूप में मदद करना तो दूर उल्टा जले पर नमक छिड़कने के लिए और अपनी काहिली-नाकामी को छिपाने के लिए नेता-मन्त्री ऊल-जुलूल बयान देते नज़र आये, जैसेकि बिहार के जल संसाधन मन्त्री ललन सिंह उर्फ़ राजीव रंजन ने कहा कि ‘बाढ़ का कारण चूहे हैं, क्योंकि चूहों ने नदी-नालों के पाट/पटरी को खोखला कर दिया!’ बाढ़ के बाद आने वाली बीमारियों-महामारियों से प्रभावित आबादी अब तक जूझ रही है।

उक्त दो घटनाएँ आज़ादी के बाद की सारी तरक़्क़ी और विकास का भेद खोलने के लिए काफ़ी हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि 15 अगस्त 1947 को देश की जनता को औपनिवेशिक गुलामी से आज़ादी मिली जिसे निश्चय ही एक प्रगतिशील क़दम कहा जा सकता है। समझौते के द्वारा सत्ता हथियाकर शासन की गद्दी पर बैठने वाले पूँजीपति वर्ग ने भी आम जन के शोषण-दमन-उत्पीड़न में कोई कौर-कसर नहीं छोड़ी। कोई भी पार्टी सत्ता में आये किन्तु जनता की लूट बदस्तूर जारी रहती है। जब मानवता चाँद और मंगल ग्रह तक अपनी पहुँच बना रही है, उस समय हमारे यहाँ पर प्राकृतिक आपदाओं और एकदम उन बीमारियों से लोग मर जाते हैं, जिनका इलाज बहुत पहले विज्ञान ने खोज निकाला था। सही मायने में यह जनता की सच्ची आज़ादी नहीं हो सकती और चन्द धन्नासेठों का विकास पूरे समाज का विकास नहीं हो सकता। सच्ची आज़ादी तभी मानी जायेगी, जब मेहनतकशों को उनके श्रम का फल प्राप्त होगा, छात्रों-युवाओं के लिए शिक्षा-रोज़गार का समुचित प्रबन्ध होगा और सबसे बढ़कर यदि शहीदेआज़म भगतसिंह के शब्दों में कहें तो एक ऐसे समाज का निर्माण होगा जिसमें एक देश के द्वारा दूसरे देश व एक इंसान के द्वारा दूसरे इंसान का शोषण असम्भव हो जायेगा। फ़ैज़ के शब्दों में कहें तो –

‘ये दाग़ दाग़ उजाला,

ये शबगज़ीदा सहर

वो इन्तज़ार था जिसका,

ये वो सहर तो नहीं …

चले चलो

कि वो मंजिल अभी नहीं आई…

 

मज़दूर बिगुल,अक्‍टूबर-दिसम्‍बर 2017


 

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