बढ़ते जन असन्तोष से तिलमिलाये भगवाधारी
विकास का मुखौटा धूल में, नफ़रत से सराबोर ख़ूनी चेहरा सबके सामने

संपादक मंडल 

जैसे-जैसे केन्द्र की राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन की सरकार अपना कार्यकाल पूरा होने की ओर बढ़ रही है, वैसे-वैसे अगले लोकसभा चुनाव में किसी अनहोनी के होने की आशंका से भारतीय जनता पार्टी और उसके भगवाधारी कुटुम्ब की नींद हराम होती जा रही है। गुजरात विधानसभा चुनाव और राजस्थान उपचुनाव में पार्टी के ख़राब प्रदर्शन के मद्देनज़र उसके वैचारिक धर्मगुरुओं को भविष्य के ग्रह-नक्षत्र अच्छे नहीं दिखायी दे रहे हैं। यही वजह है कि समूचा भगवा कुटुम्ब अगले साल मतदान की फ़सल काटने के लिए ख़ून की बारिश करवाने में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रहा है। अर्थव्यवस्था में छायी मन्दी और बढ़ती बेरोज़गारी के काले बादल दिन-ब-दिन घने होते जा रहे हैं और भगवाधारियों के दरबारी अर्थशास्त्री भी एक साल के भीतर उम्मीद की कोई किरण नहीं देख पा रहे हैं। यही वजह है‍ कि सट्टा बाज़ार के कारोबारी सूचकांक में भले ही गिरावट देखने को मिल रही हो, लेकिन नफ़रत के कारोबारी सूचकांक में ज़बरदस्त उछाल देखने में आ रहा है। अल्पसंख्यकों, दलितों और महिलाओं के ख़िलाफ़ विषवमन की अपनी गौरवशाली (कु)संस्कृति के नित-नये नमूने पेश हो रहे हैं। अन्धराष्ट्रवाद की दुकान भी ख़ूब चल रही है। पाकिस्तान और कश्मीर फिर से सुर्खियों में लौट आये हैं। नये साल की शुरुआती दिनों में ही संघ परिवार की वानर सेना के उपद्रवी उन्माद से आने वाले दिनों में उनकी आक्रामकता बढ़ने के संकेत स्पष्ट दिखायी दे रहे हैं।

अच्छे दिन लाने और हर साल 2 करोड़ नौकरियाँ पैदा करने के जुमलेबाजी भरे वायदे करके प्रधानमन्त्री की कुर्सी पर पहुँचे नरेन्द्र मोदी अब अपने फिसड्डीपन का ठीकरा कांग्रेस की पिछली सरकारों पर मढ़कर लोगों का गुस्सा कांग्रेस की ओर मोड़ने की हास्यास्पद कोशिशें कर रहे हैं। प्रति वर्ष 2 करोड़ नौकरियाँ तो दूर मोदी सरकार पिछले 5 सालों से ख़ाली पड़े लगभग 5 लाख पदों को ख़त्म करने की क़वायद में लगी है। वर्तमान सरकार के पौने चार साल के कार्यकाल में लगभग 5 लाख नयी नौकरियाँ ही जोड़ी गयी हैं। नयी नौकरियाँ पैदा करना तो दूर इस सरकार के कार्यकाल में रोज़गार सृजन की दर लगातार गिरती गयी है। कुल नौकरियों की संख्या भी साल-दर-साल कम होती जा रही है। वर्ष 2014 में मैन्युफ़ैक्चरिंग क्षेत्र में कुल 48 करोड़ नौकरियाँ थीं जो 2016 में गिरकर 46.7 करोड़ रह गयीं। बेशर्मी की हद तो तब हो गयी जब देश का प्रधानमन्त्री पकौड़े बेचने को भी रोज़गार का सृजन बताने लगा और सत्तारूढ़ पार्टी का अध्यक्ष इस शर्मनाक बयान के पक्ष में संसद में कठदलीली करता नज़र आया।

टि्वटर पर एकतरफ़़ा संवाद करने में माहिर प्रधानमन्त्री को पौने चार साल में एक प्रेस काॅन्फ्रें़स के ज़रिये जनता से मुख़ातिब होने तक का साहस नहीं हुआ। कुछ दरबारी पत्रकारों को इण्टरव्यू देकर अपने फिसड्डीपन पर पर्दा डालने की हास्यास्पद कोशिश करके नरेन्द्र मोदी ने अपनी छीछालेदर ही करवायी। संसद में अपनी सरकार की हर मोर्चे पर विफलता को ढँकने के लिए कांग्रेस और नेहरू तक को दोषी ठहराने की घिसी-पिटी क़वायद से लोग अब ऊबते जा रहे हैं। जहाँ एक ओर आम जनता की ज़ि‍न्दगी की मुश्किलें  बढ़ती जा रही हैं, वहीं दूसरी ओर धनपतियों की सम्पत्ति में इज़ाफ़ा होने की रफ़्तार भी दिन-दूनी रात-चौगुनी बढ़ती जा रही है। आर्थिक असमानता की खाई के चौड़ा होने पर साम्राज्यवादी थिंकटैंक भी जमकर घड़ि‍याली आँसू बहा रहे हैं। ऑक्सफ़ैम की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक़ वर्ष 2017 में देश में उत्पादित कुल सम्पदा का 73 प्रतिशत हिस्सा शीर्ष के 1 प्रतिशत धनपशुओं के हिस्से में चला गया। अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन की एक हालिया रिपोर्ट यह आशंका जता रही है कि 2019 तक देश की सक्रिय कार्यशील आबादी का 77 प्रतिशत असुरक्षित रोज़गार की श्रेणी में आ जायेगा। ग़ौरतलब है कि इस रिपोर्ट में बेरोज़गारों और तथाकथित स्वरोज़गार में लगी करोड़ों की आबादी नहीं शामिल है। इसके अतिरिक्त अर्थव्यवस्था में पसरी मन्दी के काले बादल छँटने की सम्भावना दूर-दूर तक नहीं दिखायी दे रही है। विकास की गर्जना अब शान्त हो चुकी है और साम्प्रदायिक विद्वेष व अन्धराष्ट्रवाद का उन्मादी शोरगुल देश-भर में फैल रहा है।

जहाँ एक ओर नरेन्द्र मोदी विकास की दहाड़ पर लगाम लगाकर अपने फिसड्डीपन का ठीकरा अतीत की सरकारों पर मढ़ने में मशगूल हैं, वहीं दूसरी ओर उनके संघी कुटुम्ब के उपद्रवी बिरादर सड़कों पर आतंक से लेकर टीवी स्टूडियो और सोशल मीडिया, व्हाट्सऐप जैसे माध्यमों से अल्पसंख्यकों, दलितों और स्त्रियों के विरुद्ध निकृष्टतम स्तर के घृणि‍त विचारों का विषवमन करते दिख रहे हैं। आतंक और नफ़रत के इस माहौल की गवाही ख़ुद गृह मन्त्रालय के आँकड़े ही दे रहे हैं। लोकसभा में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए गृह राज्य मन्त्री हंसराज अहिर ने बताया कि अकेले वर्ष 2017 में देश में कुल 822 साम्प्रदायिक वारदातें हुईं जिनमें 111 लोग मारे गये और 2384 लोग ज़ख़्मी हुए। वर्ष 2016 में साम्प्रदायिक हिंसा की 703 घटनाएँ घटी थीं जिनमें 86 लोग मारे गये थे और 2321 लोग घायल हुए थे जबकि 2015 में साम्प्रदायिक वारदातों की संख्या 751 थी, जिनमें 97 लोग मारे गये और 2264 लोग घायल हुए थे। वर्ष 2017 में उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक 195 साम्प्रदायिक वारदातें हुईं जिनमें 44 लोग मारे गये और 542 लोग घायल हुए। उत्तर प्रदेश इस समय योगी ब्राण्ड हिन्दुत्व की प्रयोगशाला बना हुआ है। इस प्रयोगशाला में इस साल का पहला प्रयोग हिन्दुत्ववादी उपद्रवियों ने कासगंज में गणतन्त्र दिवस पर अपने चिर-परिचित अन्दाज़ में तिरंगा यात्रा की आड़ में मुस्लिम आबादी को उकसाने की घिनौनी क़रतूत के रूप में किया जिससे उपजी साम्प्रदायिक हिंसा में चन्दन गुप्ता नामक एक शख़्स की मौत हो गयी जिसके बाद पूरे क़स्बे में मुसलमानों की दुकानों और घरों को चुन-चुनकर जलाया गया। संघी दंगाइयों को अच्छी तरह से पता है कि उनकी उकसावेबाजी से इस्लामिक कट्टरपन्थी ताक़तों की मज़हबी ठेकेदारी भी चल निकलती है जिसका लाभ अन्तत: हिन्दुत्ववादियों को ही होता है। कासगंज के अलावा इसका एक नमूना दिल्ली के रघुबीर नगर में अंकित सक्सेना नामक युवक की ‘ऑनर किलिंग’ के रूप में सामने आया जिसकी मुस्लिम प्रेमिका के परिजनों ने निर्मम हत्या कर दी। हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों के कट्टरपन्थी ठेकेदार ऊपरी तौर पर एक-दूसरे के ख़ि‍लाफ़ कितनी भी गर्मागर्म बातें करें, असलियत तो यह है कि वे एक-दूसरे के पूरक हैं। एक की राजनीति चमकती है तो दूसरे की भी बाँछें खिल जाती हैं क्योंकि उसको भी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए आग मिल जाती है।

सड़कों पर आतंक के अतिरिक्त भगवा फ़ासिस्टों के प्रवक्ताओं ने टीवी स्टूडियो में ज़हरीले बयान देकर देश के साम्प्रदायिक परिवेश को प्रदूषित करने की घिनौनी रणनीति के अमल में तेज़ी ला दी है। राकेश सिन्हा, विनय कटियार, ज्ञानदेव आहूजा जैसे संघी बड़बोलों ने हाल के दिनों में अल्पसंख्यकों के ख़ि‍लाफ़ खुली धमकी भरे ज़हरीले बयान दिये हैं जिनका मक़सद समाज में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण में तेज़ी लाना है ताकि रोज़ी-रोटी के ज्वलन्त मुद्दे दब जायें। इसके अलावा राम मन्दिर की आग को एक बार फिर भड़काने के लिए संघ परिवार के अनुषंगिक संगठन एक रामराज्य रथ यात्रा चला रहे हैं जो साम्प्रदायिक धुँआ छोड़ती हुई 6 राज्यों से होकर गुज़रेगी। साम्प्रदायिक नफ़रत के अलावा जातिगत तनाव बढ़ने के संकेत भी साफ़ नज़र आ रहे हैं जिसका नतीजा भीमा कोरेगाँव की घटना और हाल ही में इलाहाबाद में एक दलित युवक की बर्बर हत्या के रूप में सामने आया। पद्मावत फ़िल्म पर प्रतिबन्ध लगाने के पीछे की राजनीति भी जातिगत दरारों को चौड़ा करने की घृणित कोशिशों का ही विस्तार थी। निक्करधारियों द्वारा महिलाओं के ख़ि‍लाफ़ विषवमन और वैलेण्टाइन्स डे के विरोध के नाम पर प्रेम की आज़ादी पर हमले को भी समाज में दक़ि‍यानूसी मानसिकता को बढ़ावा देकर अपने वोटबैंक को सुदृढ़ करने की कोशिशों की निरन्तरता में ही देखा जाना चाहिए।

पूरे समाज को साम्प्रदायिक नफ़रत की आग में झोंकने के अतिरिक्त फ़ासिस्टों की दूसरी रणनीति अन्धराष्ट्रवाद की हवा चलाने की है। पाकिस्तान और कश्मीर के मसले इन दोनों रणनीतियों के बीच सेतु का काम करते हैं। हाल ही में दक्षिण कश्मीर के शोपियाँ में आर्मी जवानों की फ़ायरिंग में तीन नागरिकों की मौत को जायज़ ठहराने और गढ़वाल राइफ़ल्स के मेजर आदित्य कुमार पर की गयी एफ़आईआर को रद्द करवाने के लिए एक मुहिम चलायी गयी। मामले को सर्वोच्च न्यायालय ले जाया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने भी भारतीय राज्य के प्रति पक्षधरता दिखाते हुए एफ़आईआर पर स्टे लगा दिया। इसके अलावा हाल में जम्मू और कश्मीर में सीआरपीएफ़ कैम्पों पर हुए आतंकी हमलों के लिए रोहिंग्या मुसलमानों को जि़म्मेदार ठहराते हुए संघ परिवार के लग्गू-भग्गुओं ने रोहिंग्या मुसलमानों को भारत से खदेड़ने के लिए शुरू की गयी मुहिम तेज़ कर दी है। हाल में जम्मू में सुजवान स्थित आर्मी कैम्प पर हमले के बाद भाजपा नेता कविन्दर गुप्ता के नेतृत्व में निक्करधारियों ने जम्मू में रोहिंग्या मुसलमानों के शरणार्थी शिविरों के आसपास तनाव का माहौल बनाया जिससे संघ परिवार की रणनीति की झलक मिलती है।

उपरोक्त घटनाक्रमों से स्पष्ट है कि कर्नाटक, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्यों में आगामी विधानसभा चुनावों में अपना जनाधार सुदृढ़ करने और आगामी लोकसभा चुनावों से पहले वर्तमान सरकार के ख़ि‍लाफ़ बढ़ते जन असन्तोष की दिशा मोड़ने के लिए हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्ट किसी भी हद तक गुज़र सकते हैं। सत्ता हाथ से खोने के भय से वे और भी अधिक आक्रामक मुद्रा में आकर किसी बड़े षड्यन्त्र को अंजाम देने से भी नहीं चूकेंगे। ऐसे में उनकी घिनौनी साज़ि‍शों का पर्दाफ़ाश करना पहले से कहीं ज़्यादा ज़रूरी हो जाता है। लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। साम्प्रदायिक नफ़रत और अन्धराष्ट्रवाद की आग में देश को झोंकने की हिन्दुत्ववादी साज़ि‍शों को रचनात्मक तरीक़े से जनता के सामने उजागर करने के अलावा आज सकारात्मक तौर पर रोज़गार, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी जीवन की बुनियादी ज़रूरतों के आधार पर आन्दोलन संगठित करने की सख़्त ज़रूरत है। इस प्रक्रिया में जनता वर्तमान पूँजीवादी ढाँचे के सीमान्तों को भी समझ सकेगी और इस ढाँचे को आमूलचूल तौर पर बदलकर बराबरी, आज़ादी और इंसाफ़ पर आधारित नये सामाजिक ढाँचे की नींव तैयार करने की प्रक्रिया भी तेज़ होगी। यानी फ़ासीवाद-विरोधी आन्दोलन को चुनावी गठबन्धन तक सीमित करने की बजाय उसे पूँजीवाद-विरोधी व्यापक आन्दोलन से जोड़ना बेहद ज़रूरी है।

मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2018


 

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