असली मुद्दों को कस के पकड़ रहो और काल्पनिक मुद्दों के झूठ को समझो।

राजकुमार

आज देश की मुनाफ़ा केन्द्रित लूट का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि जनवरी 2018 की ऑक्सफ़ेम इण्टरनेशनल संस्था की एक रिपोर्ट के अनुसार 2017 में देश में पैदा हुई कुल सम्पत्ति का 73 प्रतिशत हिस्सा देश के 1 प्रतिशत अमीरों ने हाथों में केन्द्रित हो गया है। इसके साथ 2016 के आँकड़े देखें तो पूँजीवादी नीतियों ने ग़रीब मज़दूरों की मेहनत से पैदा होने वाली देश की कुल सम्पत्ति का 58.4 फ़ीसदी हिस्सा 1% अमीरों के हाथों में केन्द्रित कर दिया है। 2010 से 2014 के बीच यूपीए के कार्यकाल में 3 सालों के दौरान देश की कुल सम्पत्ति का अमीरों के हाथों में केन्द्रीकरण 40.3% से 49% हो गया था, जो 2014 से 2016 के बीच मोदी सरकार के 3 सालों में 9.4% और बढ़ चुका है (1)। एक ऐसे देश में जहाँ 5 साल से कम उम्र का हर दूसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है, जहाँ नौजवान महिलाओं की आधी से अधिक आबादी एनेमिक है (2), जहाँ ग़रीबी और भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या दुनिया में सबसे ज़्यादा है (3), और जो देश ग़रीबी रेखा की सूची में 119 देशों में 100वें स्थान पर हो (4), उस देश में सम्पत्ति का ऐसा केन्द्रीकरण कोई स्वभाविक प्रक्रिया नहीं है। बल्कि पूँजी संचय के हर एक फ़ीसदी बढ़ोत्तरी के लिए देश के करोड़ों मज़दूरों की एक-एक हड्डी को निचोड़ लिया जाता है और करोड़ों और नौजवानों को बेरोज़गारी में भटकने के लिए सड़क पर धकेल दिया जाता है। आज़ादी से आज तक जनता का सारे संसाधनों से बेदख़ली और खुले निजीकरण का परिणाम यह है कि भारत जैसे अति-पिछड़े पूँजीवादी देश में 90 प्रतिशत से अधिक मज़दूर आबादी अनियमित मज़दूरी में लगी है, जो अनिश्चित भविष्य के ख़ौफ़ में हिंसक कार्य परिस्थितियों में काम करने के लिए मज़बूर है, जिनके पास कोई नियमित रोज़गार नहीं है (5)। देश की आम जनता की सापेक्ष जीवन परिस्थितियाँ लगातार बद से बदतर हो रही हैं, इसके हालिया उदाहरण मार्च 2017 में जारी मानवीय विकास सूचकांक है। लगातार “विकास” कर रहा भारत 188 देशों की इस सूची में 131वें स्थान पर खिसक गया है। मानवीय विकास  के जो मानक ध्यान में रखे गये हैं, उनमें मुख्य हैं एक लम्बा और स्वस्थ जीवन, ज्ञान की पहुँच, और एक सम्माननीय जीवन स्तर। और इन मानकों के आधार पर भारत अपने नागरिकों को एक अच्छा जीवन स्तर देने में श्रीलंका से भी पिछड़ा हुआ है। जबकि पूँजी की आपराधिक लूट के दम पर मज़दूरों के परजीवी के रूप में अरबपतियों की संख्या यहाँ सबसे तेज़ी से बढ़ रही है (6)।

आँकड़ों में व्यक्त इस घोर असमानता का व्यावहारिक रूप से समाज की व्यापक आबादी पर क्या प्रभाव पड़ता है उसके एक उदाहरण पर नज़र डालते हैं। गुड़गाँव के एक औद्योगिक क्षेत्र के पास एक मज़दूर बस्ती में हज़ारों मज़दूर रहते हैं, जो मारुती और होण्डा जैसी बड़ी कम्पनियों और उनके लिए पुर्जे बनाने वाली अनेक छोटी-छोटी कम्पनियों में मज़दूरी करते हैं। इस बस्ती में अन्दर जाने पर हम देखेंगे कि यहाँ बनी लाॅजों के 10×10 फि़ट के गन्दे कमरों में एक साथ 4 से 6 मज़दूर रहते हैं जो कमरे पर सिर्फ़ खाने और सोने के लिए आते हैं। इसके सिवाय ज़्यादातर मज़दूर दो शिफ़्टों में काम करने के लिए सप्ताह के सातों दिन 12 से 16 घण्टे कम्पनी में बिताते हैं, जिसके बदले में उन्हें 6 से 14 हज़ार मज़दूरी मिलती है जो गुड़गाँव जैसे शहर में परिवार के साथ रहने के लिए बहुत कम है। इन मज़दूर इलाक़ों में कोई सरकारी सुविधाएँ नहीं होतीं और ये इलाक़े डेंगू-चिकनगुनिया से सैकड़ों मज़दूरों की जान निगल जाते हैं। इस इलाक़े के सामने मुख्य गली में हर समय गन्दे नाले का पानी और कूड़े का ढेर पड़ा रहता है, जिससे अपनी महँगी कारें ले जाते समय मध्यवर्ग के कई व्यक्ति नाक-भौं सिकोड़ते दिखते हैं, क्योंकि उनकी कार उस नाले के पानी से गन्दी हो जाती है। लेकिन हज़ारों मज़दूर उसी कूड़े के ठेर के ऊपर से नाले के पानी को पैदल पार कर मारुति और होण्डा में बड़ी-बड़ी लग्ज़री कारें बनाने के लिए 12 से 16 घण्टे काम करने जाते हैं। ऊपर देश की सम्पत्ति के केन्द्रीकरण और समाज में व्याप्त असमानता के जो आँकड़े हम देख चुके हैं, यह तस्वीर इन आँकड़ों की ज़मीनी सच्चाई की एक छोटी-सी झलक है।

ऐसी हैं “विकासशील” देश के “स्वतन्त्र” उजरती गुलामों के जीवन स्तर की परिस्थितियाँ। और इन्हीं परिस्थितियों से उत्पन्न होते हैं व्यापक जनता के राजनीतिक मुद्दे। लेकिन कहीं भी इन मुद्दों का कोई जि़क्र होता नहीं दिखता। टीवी, अख़बारों और मध्यवर्ग की चाय-पर-चर्चा में इनमें से एक भी मुद्दा कभी नहीं उठता। सम्पत्ति और देश के सभी साधन पैदा करने वाले इन करोड़ों मज़दूरों की बदहाल जि़न्दगी का चेहरा कभी हमें अख़बारों, टीवी और अन्ना-केजरीवाल जैसे मध्यवर्ग-केन्द्रित राजनीतिक धड़ों या जातीय मुद्दों को उठाने वाले आन्दोलनों में सामने नहीं आने दिया जाता। यहाँ तक कि प्रतिक्रियावादी संगठन मज़दूरों की नयी पीढ़ी को व्हाट्सएप, फ़ेसबुक जैसी सोशल मीडिया, या प्रत्यक्ष सभाओं और प्रचार के अन्य माध्यमों से मज़दूर बस्तियों में इन मुद्दों से बेख़बर रखने के हर कोशिश में लगे हैं। पूँजी की चापलूसी करने वाले ये गुट जनता को दिग्भ्रमित करने के लिए हर स्तर पर झूठे प्रेपोगेण्डा में लगे हुए हैं। काल्पनिक समस्याओं के समाधान के लिए गढ़ी जा रही खोखली व्याख्याओं से अपनी वैचारिक समझ को भ्रष्ट होने से बचाने के लिए यह ज़रूरी है कि व्यापक स्तर पर लोग राजनीतिक चेतना और समाज के वास्तविक हालात की समझ से लैस हों, जिन्हें प्रतिक्रियावादी प्रेपोगेण्डा से गुमराह न किया जा सके। जो यह समझ सकें कि देश और समाज की बहुसंख्यक आबादी के जीवन की परिस्थितियाँ क्या हैं, और उन्हें सुधारने के लिए वास्तविक मूलभूत मुद्दे क्या हैं, ग़रीबों की गाढ़ी मेहनत से बने देश में उन्हें सभी सुविधाओं से बेदख़ल होकर क्यों रहना पड़ रहा है, बढ़ती ग़रीबी और अमीरी की खाई के बीच देश की आर्थिक और सामाजिक असमानता का मूल कारण क्या है, देश में बेरोज़गारी की स्थिति क्या है, देश की व्यापक मेहनतकश मज़दूर और किसान आबादी की दयनीय जीवन स्थिति का कारण क्या है और शहरों में काम करने वाले करोड़ों मज़दूरों की परिस्थितियाँ कितनी वीभत्स हैं, करोड़ों बेरोज़गार कितना मानसिक उत्पीड़न झेल रहे हैं और किसी भी शर्त पर पूँजी की गुलामी करने पर मज़बूर हैं।

चुने गये नेताओं द्वारा गढ़े जाने वाले खोखले चुनावी नारों की जुमलेबाजी और सरकारों द्वारा लागू की जाने वाली  नीतियों और राजनीतिक स्टण्ट्स में क्या एक भी ऐसी नीति है जिससे मेहनत के सहारे जीने वाली व्यापक ग़रीब जनता की जीवन परिस्थितियों में कोई सुधार होगा और आने वाली पीढ़ियों को एक ऐसा भविष्य मिल सकेगा, जहाँ रोज़गार की अनिश्चितता न हो और हर एक व्यक्ति को एक सम्मानित जीवन जीने का मौक़ा मिले सके। थोड़ी भी राजनीतिक चेतना रखने और सबके लिए समानता एवं स्वतन्त्रता के हिमायती जागरूक नागरिक यह महसूस कर सकते हैं कि पूरे समाज में एक ऐसा माहौल बन रहा है जिसमें तर्क करने वालों और असमानता भरे पूरे सामाजिक ढाँचे पर सवाल उठाने वाले विचारों को दबाया जा सके। सच को चाहे कितना भी तोड़ने-मरोड़ने की कोशिश की जाये, उसे छुपाया नहीं जा सकता, करोड़ों मज़दूरों की जीवन परिस्थितियाँ उन्हें स्वयं उनके मुद्दों के बारे में शिक्षित कर देती हैं, जिन्हें भटकाने के लिए भिन्न-भिन्न मनगढ़न्त तर्क और मुद्दे गढ़े जा रहे हैं।

मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2018


 

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