लुधियाना के पॉवरलूम मज़दूरों का विजयी संघर्ष
उपलब्धियों को मज़बूत बनाते हुए, कमियों-कमज़ोरियों से सबक़ लेकर आगे बढ़ने की ज़रूरत

विशेष संवाददाता

टेक्सटाइल मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में लुधियाना के 150 टेक्सटाइल कारख़ानों के मज़दूर 22 सितम्बर 2011 से नवम्बर 2011 के अन्त तक लगभग दो महीने हड़ताल पर रहे। मज़दूर अपनी कुछ माँगें मनवाने में सफल रहे और विजयी अन्दाज़ में कारख़ानों में लौटे।

लुधियाना के टेक्सटाइल सेक्टर में लाखों मज़दूर काम करते हैं। अन्य सभी सेक्टरों के कारख़ानों की तरह ही टेक्सटाइल कारख़ानों में मालिकों का जंगलराज क़ायम है। श्रम क़ानूनों का यहाँ नामोनिशान नहीं है। काम के घण्टों की कोई सीमा नहीं है। मालिक मज़दूरों से मनमर्ज़ी से काम लेते हैं और मनमर्ज़ी से ही वेतन देते हैं। मज़दूरों की आमदनी इतनी कम है कि वे न तो अच्छी ख़ुराक़ ले सकते हैं, न ही ढंग का दवा-इलाज़ करा पाते हैं और न ही अपने बच्चों को पढ़ा पाते हैं। कम आमदनी के चलते लाखों मज़दूर गन्दी बस्तियों में या मुर्ग़ीख़ानों की तर्ज़ पर बने गन्दे बेड़ों में, एक कमरे में चार-चार लोग रहने को मज़बूर हैं। मालिकों द्वारा गाली-गलौच, मारपीट, काम करा कर पैसे न देने की घटनाएँ आम बात हैं। ऐसी दमघोंटू परिस्थितियों में जीते हुए मज़दूरों में रोष पैदा होना स्वाभाविक ही है।

Ludhiana strike

2010 में भी टेक्सटाइल मज़दूरों ने अपने हक़ के लिए लगभग 36 दिन लम्बी विजयी हड़ताल की थी। इस बार टेक्सटाइल मज़दूर यूनियन ने मज़दूरों के अधिकारों की माँगें मनवाने के लिए योजनाबद्ध संघर्ष करने का फ़ैसला लिया। सबसे पहले एक पर्चा छाप कर मज़दूरों की पंचायत बुलायी गयी। बारिश के बावजूद लगभग 800 मज़दूर इस पंचायत में शामिल हुए। मज़दूरों की माँगें सूत्रबद्ध की गयीं, जिनमें मुख्य माँगें थीं: 1) वेतन/पीस रेट में बढ़ोत्तरी; 2) ई.एस.आई. कार्ड बनवाना; 3) बोनस और छुट्टियों के पैसे लेने आदि। एक माँगपत्रक बनाकर मज़दूरों के विभिन्न कारख़ानों के मालिकों को दिया गया। श्रम अधिकारियों की हाज़िरी में दो बार मालिकों और यूनियन के दरमियान वार्ता हुई, लेकिन असफल रही। मालिक कोई भी माँग मानने को तैयार नहीं थे और वार्ता की प्रक्रिया को लटकाकर टेक्सटाइल सीज़न को निकालना चाहते थे। वार्ता टूटने के बाद मज़दूर हड़ताल पर चले गए। बाद में अन्य इलाक़ों के मज़दूर भी इस संघर्ष में शामिल होते गए। एक बार तो हड़ताल में शामिल कारख़ानों की संख्या 160 तक जा पहुँची थी।

मालिकों ने हड़ताल शुरू होते ही अपनी एसोसिएशन बना ली। पुलिस-प्रशासन, श्रम विभाग, सब कारख़ाना मालिकों की सेवा में तैयार थे। मालिकों ने हड़ताली मज़दूरों से किसी भी प्रकार की बातचीत से इनकार करके हड़ताल को लटकाने की राह अपनायी। उन्हें उम्मीद थी कि भूखे मरते मज़दूर जल्द ही निराश होकर काम पर लौट आयेंगे, लेकिन ऐसा न हुआ। मज़दूर हड़ताल पर डटे रहे। आख़िर दो महीने लम्बी हड़ताल के बाद मालिक झुकने के लिए मजबूर हुए। इस लम्बी लड़ाई में मज़दूर विजयी रहे।

हड़ताल की उपलब्धियाँ, कमियाँ, कमज़ोरियाँ और सबक़

(1) मज़दूर दो महीने तक हड़ताल जारी रख पायेंगे इसकी न तो मालिकों को उम्मीद थी और न ही यूनियन के नेतृत्व को। मज़दूरों ने इतना लम्बा संघर्ष करके मालिकों के भ्रम को तोड़ा है और यूनियन नेताओं की भी समझ बढ़ायी है। इस संघर्ष में मज़दूरों की सबसे बड़ी प्राप्ति तो यह रही है कि उनका संगठन इस संघर्ष में और भी मज़बूत होकर निकला है। मज़दूरों का अपने नेताओं की ईमानदारी, साहस और समझदारी पर भरोसा और भी बढ़ा है। मज़दूरों ने भी इस लड़ाई में अपनी सचेतनता और बहादुरी दिखायी। न तो उन्हें मालिकों द्वारा फ़ैलाई अफ़वाह प्रभावित कर पायी कि यूनियन के नेता बिक चुके हैं, और न ही उन्हें इस संघर्ष पर मालिकों द्वारा लगाया गया आतंकवाद का ठप्पा डरा पाया। साथ ही मज़दूरों की कुछ माँगें भी मानी गयीं। इस संघर्ष में मज़दूरों के हौसले बुलन्द हुए जबकि मालिकों के हौसले पस्त हुए। इस संघर्ष में तीन तरह के मज़दूर शामिल थे। एक तो उन इलाक़ों के मज़दूर थे जहाँ यूनियन का पुराना आधार था और 2010 की हड़ताल के बाद इन इलाक़ों के मज़दूरों का एक हिस्सा यूनियन की साप्ताहिक मीटिंगों में लगातार शामिल होता रहा। और बाक़ी काफ़ी बड़ी संख्या में मज़दूर यूनियन के सदस्य थे, लेकिन न तो वे यूनियन की साप्ताहिक मीटिंगों में आते थे और न ही किसी अन्य माध्यम से यूनियन से जीवन्त सम्पर्क रखते थे। तीसरे, नए इलाक़ों के मज़दूर थे जो हड़ताल शुरू होने पर इस में शामिल हुए थे। इन मज़दूरों की संख्या कम थी और हड़ताल लम्बी खिंचते देखकर अपने कारख़ानों के मालिकों से ज़ुबानी समझौता करके जल्द ही काम पर लौट गए। लेकिन ये मज़दूर फिर भी यूनियन से जुड़े रहे। क्योंकि इन मज़दूरों की राजनीतिक शिक्षा के लिए कोई काम नहीं हुआ था, इसलिए इनका वापस जाना स्वाभाविक था। यूनियन नेताओं ने भी समझदारी दिखायी, इन मज़दूरों के ख़िलाफ़ कुत्साप्रचार करने की बजाय इन्हें अपने साथ जोड़े रखा। दूसरे, यूनियन के पुराने आधार वाले इलाक़ों के मज़दूर थे, जो संघर्ष लम्बा खिंचता देख या तो गाँवों को चले गये, या कमरों में बैठे रहते, या कहीं इधर-उधर काम करने लगे और समय-समय पर संघर्ष के कार्यक्रमों में शामिल होते रहते। इस संघर्ष की रीढ़ वे मज़दूर थे जिनके साथ राजनीतिक शिक्षा का काम पूरे साल चला था। ये मज़दूर अन्त तक डटे रहे और अन्य डोलते-लड़खड़ाते मज़दूरों के लिए भी प्रेरणा का स्रोत बने रहे। यहाँ यूनियन नेतृत्व की कमी रही कि वह हड़ताली मज़दूरों से जीवन्त सम्पर्क में नहीं रही। जागरूक मज़दूरों की टीमें बनाकर कमरों पर बैठे रहने वाले मज़दूरों के साथ जीवन्त सम्पर्क क़ायम रखना चाहिए था और उन्हें रोज़-रोज़ के संघर्ष कार्यक्रमों में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित करना चाहिए था।

(2) 2010 के संघर्ष की तरह इस बार टेक्सटाइल मज़दूरों के संघर्ष की बड़ी कमी यह रही कि इसमें स्त्री मज़दूरों और मज़दूरों की पत्नियों की भागीदारी नाममात्र की रही। इस कमी का एक कारण मज़दूरों का सांस्कृतिक पिछड़ापन भी है। इस दिशा में मज़दूर नेताओं को अधिक सचेतन प्रयास करने पड़ेंगे ताकि आने वाले समय में मज़दूर वर्ग के आधे हिस्से (स्त्रियों) को संघर्ष की अगली क़तारों में लाया जा सके।

(3) इस संघर्ष की तीसरी कमी यह रही है कि इसका टेक्सटाइल सेक्टर के अन्य क्षेत्रों में फैलाव नहीं हुआ। यूनियन नेतृत्व ने इस दिशा में कोई ख़ास कोशिश भी नहीं की। अगर अन्य क्षेत्रों के मज़दूरों का हड़ताल में जाना सम्भव नहीं भी था तो भी उनसे (टेक्सटाइल सेक्टर के अलावा अन्य मज़दूरों से भी) हड़ताली मज़दूरों के लिए आर्थिक सहयोग जुटाने और धरना-प्रदर्शनों में समय-समय पर उनकी भागीदारी की कोशिशें की जानी चाहिए थीं।

(4) टेक्सटाइल मज़दूर इस बार भी 2010 की हड़ताल में हुई जीत से बहुत अधिक उत्साहित थे। जबकि मालिक यूनियन से वार्ता लटका रहे थे और मज़दूर, यूनियन नेतृत्व पर जल्द से जल्द अनियतकालीन हड़ताल के लिए दबाव बना रहे थे। यूनियन नेतृत्व भी अनुभव की कमी के कारण मज़दूरों के इस दबाव के आगे झुक गया। नहीं तो अनियतकालीन हड़ताल पर जाने की बजाए मालिकों पर संघर्ष का दबाव बनाने के लिए संघर्ष के अन्य रूप जैसेकि टूल डाउन, कुछ समय बाद एक दिवसीय हड़ताल, धरना-प्रदर्शन आदि भी अपनाये जा सकते थे। लेकिन यूनियन नेतृत्व के लिए यह सीखने के लिए इस हड़ताल के अनुभव से गुज़रना ज़रूरी था। सब कुछ किताबें पढ़कर नहीं सीखा जा सकता। सीखने के लिए व्यवहारिक अनुभव की भी ज़रूरत होती है।

(5) इस संघर्ष ने कारख़ाना मालिकों, श्रम अधिकारियों, पुलिस-प्रशासन के गठबन्धन को भी मज़दूरों की नज़रों में नंगा किया। मज़दूरों ने बार-बार श्रम विभाग के कार्यालय और डिप्टी कमिश्नर के कार्यालय पर धरने दिये, प्रदर्शन किये, लेकिन मज़दूरों को झूठे वायदों के सिवा कुछ न मिला। मज़दूरों को यह समझदारी हासिल हुई कि उनकी एकमात्र उम्मीद उनकी एकता व संगठन है। अब मज़दूर नेताओं की यह ज़िम्मेदारी है कि वे मज़दूरों की इस समझदारी को और विकसित करें। मज़दूरों को शिक्षा दी जानी चाहिए कि मज़दूर वर्ग की अन्तिम मुक्ति इस लुटेरी पूँजीवादी व्यवस्था को बदलकर समाजवादी व्यवस्था के निर्माण से ही सम्भव होगी।

मज़दूर अपनी छोटी-छोटी आर्थिक लड़ाइयों (जो कि बेहद ज़रूरी हैं) से ख़ुद-ब-ख़ुद समाजवाद के लिए लड़ना नहीं सीख लेंगे। बल्कि मज़दूरों को समाजवादी चेतना से लैस करना मज़दूर नेताओं का काम है। आर्थिक संघर्ष की जीत की ख़ुशी में मगन होने के बजाए लेनिन की यह शिक्षा हमेशा याद रखनी चाहिए कि आर्थिक संघर्ष, मज़दूरों की समाजवादी शिक्षा के अधीन होने चाहिए न कि इसके विपरीत। मज़दूरों में समाजवादी चेतना के प्रचार-प्रसार की कार्रवाई संघर्ष के दौरान भी (अगर सम्भव हो तो) और उसके बाद भी लगातार जारी रखनी चाहिए।

लुधियाना के टेक्सटाइल कारख़ाना मालिक दो बार मज़दूरों से हार चुके हैं। मज़दूरों की एकता और संगठन उनके हितों पर निरन्तर चोट कर रहे हैं। निश्चित ही मालिक हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे रहेंगे, वे भी जवाबी हमला करेंगे। इसके प्रति मज़दूरों और यूनियन नेतृत्व को हर वक़्त चौकन्ना रहने की ज़रूरत है। इस चुनौती का सामना करने के लिए मज़दूरों की चेतना, उनकी फौलादी एकता और विशाल संगठन वक़्त क़ी ज़रूरत है।

रोबाचाया मीस्ल की याद ताज़ा करते ही यह बात साफ़ हो जाएगी कि वे इस काम में किस हद तक डूब गये थे। यहाँ तक कि वे इस बात को भी भूल गये कि यह काम अभी ख़ुद अपने में, अपने सारतत्व की दृष्टि से, सामाजिक-जनवादी काम नहीं, बल्कि ट्रेड-यूनियनवादी काम है। सच्‍चाई यह है कि इन भण्डाफोड़ों में महज किसी ख़ास व्यवसाय के मज़दूरों तथा मालिकों के सम्बन्धों की चर्चा रहती थी और उनका केवल यह परिणाम निकलता था कि अपनी श्रम-शक्ति को बेचनेवाले अपना ”माल” ज़्यादा बेहतर दामों में बेचना और एक शुद्ध व्यापारिक सौदे को लेकर ख़रीदारी से लड़ना-झगड़ना सीखते थे। इन भण्डाफोड़ों से (यदि क्रान्तिकारियों का संगठन उनका सही उपयोग करता है, तो) सामाजिक-जनवादी कार्य का श्रीगणेश किया जा सकता था और वे इस काम का एक अंग बन सकते थे। परन्तु उनके फलस्वरूप ”शुद्ध ट्रेड-यूनियनवादी” संघर्ष और ग़ैर सामाजिक-जनवादी मज़दूर आन्दोलन भी खड़ा हो सकता था (और स्वयंस्फूर्ति की पूजा करने की हालत में यह नतीजा निकलना लाज़िमी था)। सामाजिक-जनवाद केवल श्रम-शक्ति की बिक्री के वास्ते बेहतर दाम हासिल करने के लिए ही नहीं, बल्कि उस सामाजिक व्यवस्था को मिटाने के लिए भी मज़दूर वर्ग के संघर्ष का नेतृत्व करता है, जो सम्पत्तिहीन लोगों को धनिकों के हाथ बिकने के लिए मजबूर करती है। सामाजिक-जनवाद मज़दूर वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है केवल मालिकों के किसी एक दल विशेष के साथ उसके सम्बन्ध के मामले में ही नहीं, बल्कि आधुनिक समाज के सभी वर्गों के साथ और एक संगठित राजनीतिक शक्ति के रूप में राज्यसत्ता के साथ उसके सम्बन्ध के मामले में भी। यहाँ यह स्पष्ट है कि सामाजिक-जनवादी केवल आर्थिक सम्बन्ध पर नहीं रुक सकते, वे तो आर्थिक भण्डाफोड़ों को संगठित करने के काम को अपनी गतिविधियों का प्रमुख हिस्सा बनने की इजाज़त भी नहीं दे सकते। हमें मज़दूर वर्ग को राजनीतिक शिक्षा देने और उसकी राजनीतिक चेतना को विकसित करने के काम को बहुत सक्रिय रूप से हाथ में लेना होगा।

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