पश्चिम बंगाल में भाजपा की सफलता और संसदीय वाम राजनीति के कुकर्म

अभिषेक

पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को मिली भारी सफलता बहुत से लोगों को हैरान करने वाली लग सकती है लेकिन पिछले कुछ वर्षों के दौरान बंगाल की राजनीतिक घटनाओं पर अगर नज़र डालें तो इसे समझा जा सकता है।

2014 के बाद से ही संघ और भाजपा ने त्रिपुरा, बंगाल और केरल में वाम मोर्चे को उखाड़ फेंकने के प्रोजेक्ट पर ख़ासा ज़ोर लगाया हुआ था। संघ के स्वयंसेवकों के अतिरिक्त बड़े पैमाने पर भाजपा कार्यकर्ताओं को वहाँ लगाया गया था और बेहिसाब पैसा झोंका गया था। त्रिपुरा में पिछले विधानसभा चुनाव में उसे सफलता मिल गयी जिसके कारणों के बारे में हम ‘मज़दूर बिगुल’ में विस्तार से लिख चुके हैं। बंगाल में वाम मोर्चा, और ख़ासकर माकपा का संगठन तो 2011 के बाद से ही बुरी तरह बिखराव और पस्ती का शिकार था, और कोई वैचारिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक प्रतिरोध करने की स्थिति में था ही नहीं, न ही इसके कायर व अकर्मण्य नेतृत्व के पास ऐसी कोई योजना या समझ थी। वे तो तृणमूल की गुण्डई से अपने संगठन का बचाव करने की हालत में भी नहीं रह गये थे। ममता बनर्जी की राजनीति ने भाजपा को अपना प्रभाव फैलाने का और भी मौक़ा दे दिया।

इस चुनाव में भाजपा की भारी सफलता का एक बहुत बड़ा कारण यह था कि वाम पार्टियों के समर्थकों के वोट बड़ी संख्या में भाजपा के खाते में चले गये। भाजपा के वोट 2014 में 16.8 से बढ़कर इस बार 40.25 पर पहुँच गये और सीटें 2 से बढ़कर 18 पर पहुँच गयीं जबकि वाम मोर्चे के वोट 22 प्रतिशत से घटकर 7.8 ही रह गये और उसका खाता भी नहीं खुल सका। बंगाल के उत्तरी इलाक़ों में वाम के लोगों के बीच एक नारा चल रहा था “आगे राम तारपोर बाम”, यानी पहले राम को आने दो, उसके बाद वाम आयेगा। ‘काँटे से काँटा निकालना” का मुहावरा इस्तेमाल किया जा रहा था। कमोबेश यही सोच सभी जगह वाम के लोगों में छायी हुई थी। चुनाव के बाद माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी ने स्वीकार भी कर लिया कि उनकी पार्टी के बहुत से समर्थकों ने इस बार भाजपा को वोट दिया। चुनाव में तृणमूल के बैकफ़ुट पर जाने के बाद माकपा के नेताओं ने बेशर्मी के साथ यह भी कहना शुरू कर दिया कि अब तृणमूल की हार के बाद हम अपने दफ़्तर खोल सकते हैं।

उधर भाजपा ने चुनावी सफलता के बाद तृणमूल सरकार और पार्टी पर हमले और भी तेज़ कर दिये हैं। तृणमूल के बहुत से नेता भाजपा में शामिल हो रहे हैं। वैसे तो माकपा का भी एक विधायक भाजपा में छलाँग लगा चुका है। वाम पार्टियों को ठिकाने लगाने के बाद अब भाजपा ममता बनर्जी की पार्टी और सरकार को कमज़ोर करने में जुट गयी है ताकि अगले विधानसभा चुनाव में बंगाल पर क़ब्ज़ा कर सके।

ममता सरकार की बुरी हालत के पीछे उद्योग-धन्धों को चौपट कर देने, मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति, गुण्डागर्दी, बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और तानाशाही के कारण लोगों में फैला असन्तोष है जिसका भाजपा ने अपने ज़हरीले प्रचार से ख़ूब फ़ायदा उठाया। हिन्द मोटर्स जैसा ऑटोमोबाइल का बड़ा कारख़ाना बन्द हो गया। बची-खुची कई जूट मिलों में से भी कई बन्द हो गयीं। इनके बदले नये उद्योग नहीं लगे। विकास के नाम पर कोलकाता सहित कई जगहों पर बस्तियों को उजाड़ा गया। बेरोज़गारी की हालत पहले से भी बदतर हो गयी। पंचायती चुनावों में तृणमूल के लोगों की ज़बर्दस्त गुण्डई ने लोगों की नाराज़गी को और बढ़ाया। इमामों को भत्ता देने जैसे मुस्लिम वोट बटोरने के लिए उठाये गये क़दमों को भाजपा ने जमकर भुनाया।

माकपा और वाम मोर्चा इस समय बिल्कुल लाचार और पस्त दिख रहे हैं। अपने शासन काल में बूथ-कैप्चरिंग, गुण्डागर्दी, मज़दूर आन्दोलनों के दमन, ट्रेड यूनियन नौकरशाही, सिंगुर-नन्दीग्राम घटनाओं के कारण जनता के बीच बुरी तरह बदनाम होकर सत्ता से हटने के बाद उसके द्वारा वापसी का आधार तैयार करने की कोशिश भी नहीं दिख रही है। माकपा के एक कैडर ने मुझे यह बताया कि 2040 के पहले इसके वापस सत्ता में लौट आने के कोई आसार नहीं दिख रहे इसीलिए अभी ज़्यादा प्रयास करने से कोई फ़ायदा नहीं होगा। अब भी वे सारा दोष मीडिया पर मढ़ कर अपना पल्ला झाड़ लेने की प्रवृत्ति पाले हुए हैं। बहुत से कैडर लोकसभा चुनाव के परिणामों के बाद बुर्जुआ लिबरलों की तरह कह रहे हैं कि देश की जनता जैसी होती है, उसे वैसी ही सरकार नसीब होती है। कई पुराने कैडर दूसरों को नसीहतें देते फिरते हैं कि सारी ज़िम्मेदारी पार्टी के नेताओं पर डालने के बजाय ख़ुद को नेता बनाइए।

दूसरी ओर, भाजपा और संघ ने 2014 के बाद से लगातार प्रचार और संगठन फैलाने पर ज़ोर दिया। 2011 तक पश्चिम बंगाल में आरएसएस की 580 शाखाएँ लगती थीं, जिनकी संख्या लगभग तीन गुना बढ़कर 2016 में 1492 तक पहुँच चुकी थी। इनमें से बहुत सी शाखाएँ आदिवासी इलाक़ों में लग रही थीं। भाजपा के आईटी सेल ने प्रचार में व्हॉट्सऐप के इस्तेमाल के बारे में करीब डेढ़ साल पहले बंगाल में वर्कशॉप आयोजित करने शुरू कर दिये थे। बंगाल की 9 करोड़ आबादी में करीब 3 करोड़ लोगों के पास स्मार्टफ़ोन हैं जिन तक पहुँचने के लिए आईटी सेल की सीधी देखरेख में 55,000 व्हॉट्सऐप ग्रुप बनाये गये जो लगातार तमाम तरह की प्रचारात्मक सामग्री प्रसारित करते रहते थे। इसके अलावा फ़ेसबुक और ट्विटर का भी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया गया। बताया जाता है कि बंगाल में फ़ेसबुक पर भाजपा ने 50 करोड़ रुपये ख़र्च किये और इससे कई गुना ज़्यादा व्हॉट्सऐप पर। राष्ट्रीय स्तर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से भाजपा के पक्ष में अन्धाधुन्ध प्रचार का असर तो था ही।

बंगाल में चुनाव के दौरान हिंसा कोई नयी बात नहीं है लेकिन इस बार भाजपा और तृणमूल के बीच गुण्डागर्दी की होड़ में आम जनता बुरी तरह पीसी गयी। कुछ साल पहले तक चुनावी हिंसा की एक बड़ी भागीदार रहने वाली माकपा इस बार मूक दर्शक की भूमिका में ही रही। सबसे ज़्यादा संवेदनशील रहा उत्तर चौबीस परगना का भाटपाड़ा इलाक़ा जो बैरकपुर लोकसभा क्षेत्र में आता है। भाटपाड़ा के पुराने एमएलए, अर्जुन सिंह के टीएमसी से निकल कर भाजपा में शामिल हो जाने और उसके टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ने के कारण वहाँ 19 मई को विधानसभा उपचुनाव भी था, जिसमें भाजपा के तरफ़ से अर्जुन सिंह का बेटा पवन सिंह और टीएमसी के तरफ़ से मदन मित्रा मैदान में थे। बैरकपुर में लोकसभा चुनाव 6 मई को हुआ जिसमें बीजेपी से अर्जुन सिंह और टीएमसी से दिनेश त्रिवेदी आमने-सामने थे। मगर इस दौरान यह इलाक़ा दहशत के चंगुल में फँसा रहा। कई दिनों तक गोली-बम चलते रहे। इसी क्षेत्र में कांकिनारा रेलवे स्टेशन पर भी बमबारी हुई जिसके कारण 13 मई को पूरा दिन और 14 मई को दोपहर 12 बजे तक सियालदह लाइन की ट्रेनें ठप्प रहीं। हिन्दू-मुसलमान के नाम पर दंगे भड़काये गये। कुछ झुण्ड हिन्दुओं के घरों में जाकर लूट-पाट मचाते तो दूसरी तरफ़ कुछ झुण्ड यही काम मुसलमानों के घरों में जाकर करते। इन घटनाओं में एक महिला की मौत हो गयी और कई घायल हुए। सैकड़ों लोगों को इलाक़ा छोड़कर दूसरी जगहों पर जाना पड़ा।

कहने को माकपा एक कैडर-आधारित पार्टी है लेकिन बंगाल में लम्बे समय तक केवल सरकार चलाते रहने से इसका कैडर वैचारिक रूप से खोखला, कायर और पलीद हो चुका था। एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा ऐसे कैडर का भी था जो सत्ता की मलाई चाटने और पार्टी के नाम पर तमाम तरह की वसूली और दूसरे धन्धों में लगा हुआ था। यही वजह थी कि 2011 में ममता बनर्जी के सत्ता में आने के बाद बड़ी संख्या में माकपा के निचले और मँझोले स्तर के कार्यकर्ता तृणमूल में चले गये। जो पार्टी के साथ बचे रह गये थे, वे लगातार तृणमूल के हमलों और दबाव का सामना कर रहे थे। तृणमूल सरकार की नाकामियों और अत्याचार के ख़िलाफ़ कोई जुझारू आन्दोलन खड़ा करना तो दूर, सत्ता से बाहर होते ही माकपा अपने कार्यकर्ताओं और कार्यालयों का बचाव करने लायक़ भी नहीं रह गयी थी। राज्य में भाजपा की ताक़त बढ़ने के साथ ही भारी संख्या में माकपा के कार्यकर्ताओं और समर्थकों ने तृणमूल को बाहर करने के लिए भाजपा का दामन पकड़ लिया। ऐसा सिर्फ़ इसी बार नहीं हुआ है। बंगाल में स्थानीय निकायों के चुनावों में भी यह बात देखने में आयी थी। कुछ लोगों का कहना है कि ग्रामीण इलाक़ों में माकपा के निचले स्तर के कार्यकर्ताओं और समर्थकों के एक बड़े हिस्से ने तो माकपा के सांगठनिक ढाँचे के बिखराव और नेतृत्व की कायरता के कारण अपने बचाव के लिए स्थानीय तौर पर भगवा गुटों का समर्थन करना शुरू कर दिया। लेकिन बात इतनी ही नहीं है। इतने लम्बे समय तक राज्य में सत्ता में रहने के बावजूद माकपा ने अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों के बीच वैचारिक-सांस्कृतिक काम नहीं के बराबर किया था। सच तो यह है कि वाम समर्थकों का अच्छा-ख़ासा हिस्सा भी भाजपा के साम्प्रदायिक प्रचार के प्रभाव में आ चुका है। शहरी भद्रलोक वाम समर्थकों का पाला बदलना और कैसे समझा जा सकता है, जिन्हें अपने बचाव के लिए ऐसा करने की कोई ज़रूरत नहीं थी।

भाजपा अपने निरन्तर प्रचार और कार्यकर्ताओं के दम पर तृणमूल सरकार के कामकाज से उपजे जन-असन्तोष को अपने ढंग से भुनाने में सफल रही और लगातार बढ़ती संख्या में युवाओं को गोलबन्द करती रही, जबकि तीन दशकों तक प्रदेश में राज करने के बाद भी वाम पार्टियाँ मैदान से ग़ायब रहीं। अपने समर्थकों को जुटाकर कोलकाता में साल-दो साल में एकाध रैलियाँ कर देने के अलावा ये पार्टियाँ तृणमूल सरकार के तमाम जनविरोधी कामों और उसकी गुण्डागर्दी व भ्रष्टाचार के विरुद्ध कोई आन्दोलन नहीं खड़ा कर सकीं। भाजपा और संघ के हिन्दुत्ववादी प्रचार ने बंगाल में फैली बेरोज़गारी और आर्थिक बदहाली को ममता बनर्जी के “मुस्लिम तुष्टिकरण” से जोड़कर एक ओर निचले तबक़ों में यह भ्रम फैलाया कि उनकी समस्याओं क‍ा कारण यह है कि सारा फ़ायदा मुसलमानों को चला जा रहा है, और दूसरी ओर सवर्ण हिन्दुओं के बड़े हिस्से को उनकी सामाजिक हैसियत खोने का भय दिखाकर अपनी ओर किया। लेकिन वाम पार्टियाँ न तो इस झूठे प्रचार की काट कर सकीं और न ही बंगाल की जनता के वास्तविक मुद्दों को सामने ला सकीं। शायद उनके अन्दर ऐसा करने का नैतिक साहस भी नहीं रह गया है क्योंकि आज बंगाल की जनता जिन समस्याओं से जूझ रही है – ग़रीबी-बदहाली, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, गुण्डागर्दी – ये सब तो वाम मोर्चा के शासन काल से ही चली आ रही हैं। ऐसे में भाजपा के लिए अपना घनघोर साम्प्रदायिक प्रचार चलाना और ध्रुवीकरण करना और भी आसान हो गया।

संसदीय वामपन्थियों की लम्बी अकर्मण्यता, यथास्थितिवाद और गलीज़ सामाजिक जनवादी राजनीति के कुकर्मों का ही यह फल है कि बंगाल में पहले ममता बनर्जी जैसी घोर जनविरोधी और निरंकुश सरकार आयी और अब फ़ासिस्टों को वहाँ ऐसी सफलता मिली है। त्रिपुरा और पूरे देश की ही तरह बंगाल में भी संसदीय वाम राजनीति की परिणतियाँ उजागर होकर सामने आयी हैं। यह बात एक बार फिर साफ़ हुई है कि क्रान्तिकारी वाम राजनीति के पुनरुत्थान के बिना और सभी मेहनतकश वर्गों का एक जुझारू सामाजिक आन्दोलन खडा किये बिना, और सड़कों पर मोर्चा लेने की एक लम्बी तैयारी किये बिना फ़ासिस्टों को पीछे क़तई नहीं धकेला जा सकता।


 

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