चुनाव में ईवीएम के इस्तेमाल को लेकर आपको क्यों चिन्तित होना चाहिए?

अभिजीत ए. एम. के विस्तृत लेख पर आधारित

(लेखक कम्प्यूटर और साइबर-सुरक्षा के जानकार हैं।)

लोकसभा चुनाव में भाजपा की भारी जीत के पीछे अहम भूमिका उस उन्मादी राष्ट्रवादी प्रचार की है जो मोदी-शाह के नेतृत्व में भाजपा और संघ ने पुलवामा और बालाकोट के बाद शुरू किया और ज़रख़रीद मीडिया के ज़रिये, अपनी सैन्य कार्रवाई की शर्मनाक असफलता के बावजूद, जनमानस में यह बात बैठा दी कि ‘मोदी घर में घुसकर मारता है!’ मोदी का राष्ट्रवाद न सिर्फ़ हिन्दू पहचान पर आधारित था, बल्कि वह पिछड़ी और दलित जातियों की पहचान को भी “हिन्दू” पहचान में समाहित करने और इन जातियों के मध्यवर्गीय हिस्सों और निराशा-जनित उन्माद से ग्रस्त युवाओं को अपने वोट बैंक में बदल पाने में सफल रहा। विपक्षी पार्टियाँ अपनी कमज़ोरी और अतीत के अपने काले कारनामों के चलते जनता में कोई प्रभावी विकल्प पेश करने में नाकाम रहीं। फिर भी यह सच नहीं कि नोटबन्दी, जी.एस.टी., खेती की तबाही, बेरोज़गारी, महँगाई और भ्रष्टाचार जैसे सारे मसले अन्धराष्ट्रवादी उन्माद की बाढ़ में एकदम किनारे लग गये थे।

इस बात को मानने के स्पष्ट कारण हैं कि भाजपा ने इस चुनाव में अत्यन्त कुशलता के साथ, और योजनाबद्ध ढंग से, चुनी हुई सीटों पर ईवीएम में गड़बड़ी का खेल खेला है। जिन लोगों ने फ़ासिस्टों के सिद्धान्त और आचरण का अध्ययन किया है, वे जानते हैं कि फ़ासिस्ट सत्ता तक पहुँचने के लिए धार्मिक-नस्ली-अन्धराष्ट्रवादी उन्माद उभाड़ने के साथ ही किसी भी स्तर तक की धाँधली और अँधेरगर्दी कर सकते हैं। अगर कोई धाँधली थी ही नहीं, तो इतनी बदनामी झेलकर सुप्रीम कोर्ट और केन्द्रीय चुनाव आयोग के सारे नख-दन्त तोड़कर बिल्कुल पालतू बना देने की ज़रूरत ही क्या थी? चुनाव आयोग विपक्षी दलों की सारी आपत्तियों को और अपने ही एक सदस्य अशोक लवासा की आपत्तियों को भी ख़ारिज करता हुआ भाजपा को क्लीन चिट पर क्लीन चिट देता रहा और हर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट भी यही रुख़ अपनाता रहा। सोचने की बात है कि जब सात चरणों के चुनाव में करीब डेढ़ महीने का समय ख़र्च किया जा सकता था, तो 50 प्रतिशत वीवीपैट की पर्चियों से मिलान कराने में अगर नतीजे घोषित करने में कुछ दिन और लग जाते तो क्या क़हर टूट पड़ता। फिर केवल नतीजों में देरी का तर्क देकर विपक्षी दलों की इस माँग को के.चु.आ. और सुप्रीम कोर्ट ने आनन-फ़ानन में क्यों ख़ारिज कर दिया है?

भारत में 2004 से सभी लोकसभा और विधानसभा चुनाव ईवीएम से ही हुए हैं, हालाँकि चुनाव में इसका इस्तेमाल तो 1998 में ही शुरू हो गया था। शुरू से ही इसे लेकर विवाद रहा है और बाल ठाकरे (शिवसेना), आडवाणी व सुब्रमण्यम स्वामी (भाजपा), शरद पवार (राकांपा), चन्द्रबाबू नायडू (तेदेपा), ममता बनर्जी (तृणमूल), देवेगौड़ा (जद-एस), अखिलेश यादव (सपा), मायावती (बसपा), सीताराम येचुरी (माकपा), अरविन्द केजरीवाल (आप) कपिल सिब्बल (कांग्रेस) सहित लगभग सभी प्रमुख चुनावी पार्टियों के नेता ईवीएम से मतदान की प्रक्रिया को लेकर सवाल उठाते रहे हैं। यह बात अलग है कि जब परिणाम उनके पक्ष में आये तो उनका रुख़ बदल गया या वे चुप्पी साध गये।

ईवीएम के बिना भी चुनावी जालसाज़ियाँ दुनिया के किसी भी पूँजीवादी जनतन्त्र में कोई नयी बात नहीं हैं। जनसांख्यिकीय डेटा में फेरबदल, फ़र्ज़ी वोटर जोड़कर या सही वोटरों के नाम ग़ायब करके मतदाता सूचियों में मनचाहे तरीक़े से बदलाव करना, बूथ कैप्चरिंग, लोगों को ज़बरन वोट देने से रोकना, मतपेटियाँ लूट लेना, विरोधी के वोट काटने के लिए पैसे देकर डमी उम्मीदवार खड़े करना, वोट ख़रीदने जैसे तमाम तरीक़े यह बताते हैं कि पूँजीवादी पार्टियों में चुनाव जीतने के लिए हर तरह के हथकण्डे अपनाने को तैयार रहती हैं। ईवीएम के इस्तेमाल से उनकी नीयत पर कोई असर नहीं पड़ता। बल्कि जब भाजपा और आरएसएस जैसे फ़ासिस्ट संगठन हर हाल में चुनाव जीतने के लिए ज़बदस्त सा‍ज़िशाना तरीक़े से काम करते हैं, तो ‍वे ईवीएम मशीनों की धाँधली के साथ ही साथ दूसरे तमाम तरीक़ों का इस्तेमाल भी ज़्यादा संगठित ढंग से और ज़्यादा बड़े पैमाने पर करते हैं। जैसे, इस चुनाव में अकेले मध्यप्रदेश में 60 लाख फ़र्ज़ी वोटर होने का आरोप लगा जो किसी भी चुनाव की दिशा बदलने के लिए काफ़ी है। इससे पहले आन्ध्र प्रदेश और कई अन्य राज्यों में लाखों मतदाताओं के नाम मतदान सूची से ग़ायब कर दिये थे। इनमें ज़्यादातर मतदाता उन समूहों के थे, जिनके बारे में माना जाता था कि वे भाजपा के विरोधी हैं।

फ़ासीवाद के दौर में, जब अदालतों से लेकर पुलिस, और मीडिया से लेकर चुनाव आयोग तक तमाम जनतान्त्रिक संस्थाओं को एक पार्टी का ग़ुलाम बना दिया है, उनमें अपने कारिन्दे भरे जा रहे हैं, फ़ासिस्ट संगठन ज़ोर-ज़बरदस्ती, दबाव और भयादोहन से उनसे काम ले रहे हैं, जब आतंकवाद के आरोपी संसद में पहुँच रहे हैं और उन पर से मुक़दमे हटाये जा रहे हैं, जजों की हत्याएँ हो रही हैं और गौ-गुण्डे अपना क़ानून चलाने के लिए आज़ाद हैं, तो ऐसे में इस बात पर सवाल उठना बिल्कुल लाज़ि‍मी है कि वह चुनाव प्रक्रिया कितनी साफ़-सुथरी है जिससे देश पर राज करने वालों का फ़ैसला होता है।

चुनाव आयोग का यह दावा कि ईवीएम बिल्कुल पवित्र हैं और उनसे छेड़छाड़ सम्भव ही नहीं, इन दो बातों पर आधारित है कि ईवीएम को हैक नहीं किया जा सकता (यानी उसमें इलेक्ट्रॉनिक रूप से छेड़छाड़ नहीं की जा सकती) और वे पूरी तरह सुरक्षित रखी जाती हैं।

ईवीएम मशीनों के भण्डारण, इस्तेमाल, लाने-ले जाने, मरम्मत, मतगणना आदि को लेकर बहुत विस्तृत नियम-क़ायदे बनाये गये हैं। लेकिन कम्प्यूटर और साइबर सिक्योरिटी की दुनिया से वाकि़फ़ कोई भी व्यक्ति यह जानता है कि सुरक्षा में अगर सुई बराबर भी छेद हुआ तो उससे हाथी बराबर घातक कोड प्रवेश कर सकता है! ईवीएम के मामले में, छेद केवल तकनीकी या कम्प्यूटर-प्रोग्रामिंग से सम्बन्धित हों, यह ज़रूरी नहीं। प्रशासकीय प्रक्रिया में झोल या फेरबदल या मानवीय कमज़ोरियों के कारण छूट गये छेद भी गड़बड़ी के लिए काफ़ी हैं।

ईवीएम में गड़बड़ी कैसे की जा सकती है, इसे समझने के लिए ऐसे व्यक्ति के नज़रिये से देखना होगा जो चुनावी धोखाधड़ी करना चाहता हो, जो पूरी चुनाव प्रक्रिया को जानता हो और ऐसी तकनीकी या मानवीय चूकों को तलाश सकता हो जिनसे होने वाले सुई बराबर छेद से गड़बड़ी का हाथी भीतर घुसा जा सकता हो। अगर वह व्यक्ति या संगठन सत्ता में हो, और पूरी चुनाव मशीनरी नहीं, पर उसके कुछ या अनेक हिस्सों को प्रभावित कर सकता हो, तो काम आसान हो जाता है।

विश्वसनीयता घटाने वाले झूठे दावे

यह भी ध्यान देना ज़रूरी है कि ईवीएम फ़्रॉड के बारे में तमाम तरह के झूठे दावे भी किये जाते रहे हैं जिनके कारण उन व्यक्तियों और संगठनों की ओर से उठाये गये गम्भीर सवालों पर भी भ्रम पैदा हो जाता है जो ईवीएम को लेकर संजीदगी और वाजिब तर्कों के साथ अपनी बात कह रहे हैं। जैसे, यह दावा कि ईवीएम मतगणना के समय इण्टरनेट से जुड़ी रहती हैं और भाजपा से जुड़े हैकर रिलायंस और वोडाफ़ोन की टॉवरों से मैसेज भेजकर परिणाम बदल देते हैं। यह ग़लत है क्योंकि ईवीएम कभी इण्टरनेट से नहीं जोड़ी जाती हैं। इसी तरह, शुजा नाम के एक सन्दिग्ध व्यक्ति ने दो बार दावा किया (एक बार कांग्रेसी नेता कपिल सिब्बल के साथ) कि वह ईवीएम बनाने वाली सरकारी कम्पनी बीईएल/ईसीआईएल में रहा है और दिखा सकता है कि ईवीएम में छेड़छाड़ कैसे होती है। लेकिन काफ़ी प्रचार से किये गये उसके दोनों प्रदर्शन फ़्लॉप रहे और कुछ भी साबित नहीं कर पाये।

संजीदगी के साथ उठाये गये गम्भीर सवाल

कुछ प्रतिष्ठित कम्प्यूटर विशेषज्ञों द्वारा प्रकाशित एक पेपर में दावा किया गया कि “विस्तृत सुरक्षा उपायों के बावजूद भारत की ईवीएम गम्भीर हमलों का शिकार बनायी जा सकती हैं। अपराधी तत्वों या सत्तारूढ़ पार्टी के एजेण्टों की मशीनों तक पहुँच हो सकती है जिससे वे उनमें वोटों में गड़बड़ी करने वाले हार्डवेयर लगा सकते हैं। मतदान और मतगणना के बीच के समय में मशीनों तक पहुँच सकने वाले हमलावर मतदान की संख्या बदल सकते हैं और जान सकते हैं कि हर वोटर ने किस उम्मीदवार को वोट दिया। मज़े की बात यह है कि इस शोध का समर्थन भाजपा के प्रमुख नेता सुब्रमण्यम स्वामी और जीवीएल नरसिम्हा राव ने भी किया था, जो दोनों भाजपा के सांसद हैं।

के.चु.आ. ने सुरक्षा सम्बन्धी जो भी तर्क दिये हैं, उनसे दो चुनावों के बीच पूरी ईवीएम को ही बदल देने की सम्भावना ख़त्म नहीं हो जाती, जिस समय राजनीतिक दलों के लोग ईवीएम के भण्डारगृहों पर निगरानी नहीं करते रहते हैं। पेपर के लेखक हरिप्रसाद को ईवीएम चुराने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया था, यही तथ्य साबित करने के लिए काफ़ी है कि ईवीएम की सुरक्षा के अचूक प्रशासनिक इन्तज़ामों का दावा ग़लत है!

मई 2017 में आम आदमी पार्टी के विधायक सौरभ भारद्वाज ने अपने हिसाब से बनवायी हुई एक ईवीएम के प्रयोग से यह दिखाया कि मशीनों और उम्मीदवारों की सूचियों के बेतरतीबीकरण सम्बन्धी तमाम सुरक्षा उपायों को दरकिनार करके मतदान के समय मनचाहे उम्मीदवार को जिताया जा सकता है। मशीन को इस तरह प्रोग्राम किया गया था कि व‍ह बिल्कुल सामान्य काम करती थी लेकिन जैसे ही कोई वोटर एक ख़ास क्रम में कुछ नम्बरों को दबाता, तो एक विशेष कोड चालू हो जाता जिससे मशीन एक या अधिक उम्मीदवार के कुछ या सभी वोट किसी दूसरे उम्मीदवार के खाते में भेज देती। के.चु.आ. ने इस दावे को महज़ यह कहकर खा़रिज कर दिया कि यह चुनाव आयोग की ईवीएम नहीं है। के.चु.आ. का यह भी कहना है कि इस तरह से ईवीएम को बदलना मुमकिन नहीं है क्योंकि उसमें लगी माइक्रोचिप को एक ही बार प्रोग्राम किया जा सकता है। लेकिन इससे यह सम्भावना ख़त्म नहीं होती कि पहले बने प्रोग्राम में ही यह ट्रोजन हॉर्स (खुफ़िया कोड) डाल दिया गया हो। यह भी हो सकता है कि बाद में मशीन का मदरबोर्ड और/या ‍माइक्रोचिप ही बदल दिया जाये। एक ख़बर में आरोप लगाया गया था कि ईवीएम के लिए माइक्रोचिप बनाने वाली अमेरिकी कम्पनी का मालिक एक ख़रबपति अनिवासी भारतीय है और ये वही लोग हैं जिन्हें गुजरात राज्य पेट्रोलियम कॉरपोरेशन में हुए अरबों के घोटाले से फ़ायदा पहुँचाया गया था। इसलिए ऐसी सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता। ख़ुद अपनी ही तकनीकी आकलन कमेटी की सिफ़ारिश के बावजूद के.चु.आ. माइक्रोचिप और उसमें दर्ज सॉफ़्टवेयर की जाँच की इज़ाज़त नहीं देता जिससे सन्देहों को और बल मिलता है।

हाल की अनेक घटनाओं ने ईवीएम मशीनों की अभेद्य सुरक्षा के के.चु.आ. के दावों की हवा निकाल दी है। उदाहरण के लिए, आरटीआई से मिली जानकारी के आधार पर 20 लाख ईवीएम लापता हैं। बीसीएल/ईसीआईएल से भेजी गयीं और के.चु.आ. को मिलीं ईवीएम की संख्या में इतना भारी अन्तर है। इससे यह सन्देह उठना लाज़िमी है कि लापता मशीनें किसी राजनीतिक सत्ता के क़ब्ज़े में हैं और उनका इस्तेमाल चुनाव या मतगणना के समय ईवीएम को बदलने के लिए किया जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि जब इस आरटीआई कार्यकर्ता मनोरंजन राय ने के.चु.आ. से अलग-अलग राज्यों को भेजी गयी ईवीएम के आईडी नम्बर और ट्रांसपोर्ट चालान की प्रतियाँ माँगीं, तो उन्हें केवल ईवीएम के सालाना बजट और ख़र्च की जानकारी दे दी गयी। के.चु.आ. ने लापता ईवीएम के बारे में कोई सफ़ाई नहीं दी और बस यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि यह ख़बर इकतरफ़ा है। श्री राय की याचिका सुप्रीम कोर्ट में लम्बित है।

हाल में यह ख़बर भी आयी है कि अब इस्तेमाल हो रही एम3 मशीनों की मेमोरी ऐसी है जिसे दोबारा प्रोग्राम किया जा सकता है। यह के.चु.आ. के अब तक के दावों पर गम्भीर सवाल उठाती है।

ध्यान देने की बात है कि केवल 10 प्रतिशत या उससे भी कम मशीनों में छेड़छाड़ करना मनचाहे नतीजे पाने के लिए पर्याप्त है। हरि प्रसाद आदि ने भी अपने पेपर में यही दावा किया है। अगर चुनाव में 16 लाख मशीनें इस्तेमाल हो रही हैं तो 10 प्रतिशत भी 1.6 लाख मशीनें हो जाती हैं। कुछ लोगों ने सवाल उठाया कि यह सम्भव नहीं है कि किसी का ध्यान खींचे बिना इतनी बड़ी संख्या में मशीनों में गड़बड़ी कर दी जाये। हालाँकि 1.6 लाख की संख्या अपने में बड़ी लगती है लेकिन प्रति लोकसभा क्षेत्र के हिसाब से, यह औसतन केवल 300 मशीनें बनती हैं। एक निर्वाचन क्षेत्र में 300 मशीनों के मदरबोर्ड बदलने में कुशल इंजीनियरों को 50 से 100 घण्टे लगेंगे। लेकिन अगर ‘आप’ विधायक के केवल 90 सेकण्ड के दावे को मानें तो 7 घण्टे में सारी ईवीएम के मदरबोर्ड बदले जा सकते हैं।

ईवीएम की पहले स्तर की जाँच के दौरान बीसीएल/ईसीआईएल के इंजीनियर मशीनों के सॉफ़्टवेयर की जाँच नहीं करते, एम3 मशीनों में दोबारा प्रोग्राम करने योग्य मेमोरी है, न केवल माइक्रोचिप बल्कि ईवीएम का पूरा मदरबोर्ड बदला जा सकता है, और चुनावों के बीच ख़ासा समय होता है जब उनके भण्डारण पर पार्टियों की निगरानी नहीं होती है। इन सारे तथ्यों को ध्यान में रखें तो ईवीएम के माइक्रोचिप या मदरबोर्ड को बदले जाने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता। जब भाजपा जैसी पार्टी ऐसा करने की योजना बना रही हो, जिसके पीछे आरएसएस के फ़ासिस्ट कैडरों की ताक़त हो जिन्हें गोपनीय ढंग से काम करने और अफ़वाहें फैलाने में महारत हो, और सरकारी मशीनरी में ऊपर से लेकर नीचे तक उनकी घुसपैठ हो, तो ऐसी छेड़छाड़ की सम्भावना बहुत अधिक हो जाती है।

इस चुनाव में के.चु.आ. के इस दावे की भी हवा निकल गयी कि सभी ईवीएम की आवाजाही की जीपीएस से निगरानी की जाती है। एक आरटीआई प्रश्न के जवाब में के.चु.आ. ने बताया कि जीपीएस डेटा और ईवीएम लेकर जाने वाली गाड़ियों के बारे में उसके पास कोई “ठोस जानकारी” नहीं है। यानी ईवीएम ट्रैकिंग सिस्टम (ईटीएस) के बारे में किया गया दावा बस काग़ज़ पर ही है। पूरे चुनाव के दौरान ईवीएम कभी किसी होटल में, कभी अधिकारी के घर पर, तो कभी सड़क पर मिलने की ख़बरें आती रहीं। कई जगहों पर ईवीएम बहुत देर से कलेक्शन सेण्टरों पर पहुँचीं। उत्तर प्रदेश के चन्दौली में 20 मई को एक नागरिक ने एक वीडियो डाला जिसमें ईवीएम बिना किसी सुरक्षा के मतगणना केन्द्र के परिसर में एक कमरे में रखी हुई थीं जबकि के.चु.आ. के निर्देशों के अनुसार मतदान में प्रयुक्त और रिज़र्व, सभी मशीनें हर समय सशस्त्र पुलिस के पहरे में रहनी चाहिए। उत्तर प्रदेश के ही डुमरियागंज में तहसीलदार राजेन्द्र अग्रवाल को लोगों ने अपनी जीप में ईवीएम लेकर जाते हुए पकड़ा। झाँसी में वीवीपैट लेकर जाती दो प्राइवेट गाड़ियाँ और ईवीएम लेकर जाती सिटी मजिस्ट्रेट की दो गाड़ियाँ पायी गयीं। चुनाव आयोग के दिशा-निर्देशों के उल्लंघन की ऐसी कई घटनाएँ हैं।

इसी के साथ यह गम्भीर ख़बर भी आयी कि 370 चुनाव क्षेत्रों में ईवीएम से मिले वोटों और निर्वाचन अधिकारियों द्वारा रिपोर्ट किये गये वोटों की संख्या में अन्तर है। इनमें उत्तर प्रदेश और बिहार की 120 में से 119 सीटें शामिल हैं। इस सम्बन्ध में भी के.चु.आ. की सफ़ाई बहुत लचर है।

गुजरात के मुख्य चुनाव अधिकारी के हवाले से एक समाचार में कहा गया है कि प्रथम स्तर की जाँच के दौरान ईवीएम की1154 बैलट यूनिटों और 3565 कण्ट्रोल यूनिटों में ख़राबी पायी गयी। इसके अलावा, 2594 वीवीपैट भी गड़बड़ पायी गयीं। 2017 में गुजरात विधानसभा चुनाव के पहले 3550 वीवीपैट ख़राब पाये थे। कुल 62,666 में से 5245 कण्ट्रोल यूनिटें और 75,000 में से 2970 बैलट यूनिटें भी ख़राब पायी गयी थीं और वापस लौटा दी गयी थीं। इतनी भारी संख्या (लगभग 5%) में ईवीएम और वीवीपैट में गड़बड़ी पाया जाना बेहद आश्चर्यजनक है। इससे लगता है कि या तो ईवीएम बनाने वाली कम्पनी बेहद घटिया काम कर रही है या फिर यह ईवीएम में गड़बड़ी की कोशिश है।

ईवीएम के विरुद्ध जनआन्दोलन संगठित करना होगा

कांग्रेस या दूसरी विपक्षी पार्टियाँ ईवीएम के विरुद्ध कोई मज़बूत आन्दोलन नहीं खड़ा कर सकतीं। एक तो संसदीय वामपन्थियों सहित तमाम बुर्जुआ पार्टियाँ सत्ता की मलाई चाटते-चाटते इतनी कमज़ोर और ठस्स हो चुकी हैं और उनका नेतृत्व इस कदर कायर और नैतिक रूप से कमज़ोर हो चुका है कि वे चाहें भी तो अपने कार्यकर्ताओं को लाठी खाने और जेल जाने के लिए सड़कों पर नहीं उतार सकती हैं। दूसरे वे डरती हैं कि इस सवाल पर लोगों को अगर उन्होंने जगा दिया तो उन्हें वे नियंत्रित नहीं कर पायेंगी और अगर यह आन्दोलन आगे बढ़ गया तो कहीं वे सवाल भी न उठने लग जायें जिन पर भाजपा सहित सभी पूँजीवादी पार्टियों की आम सहमति है। इसलिए अब मेहनतकश वर्गों को ही इस सवाल को उठाना होगा और मतदान के उस अधिकार की सुरक्षा की लड़ाई अपने हाथों में लेनी होगी जिसे लम्बे संघर्ष के बाद हासिल किया गया था।


 

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