भीषण बेरोज़गारी और तबाही झेलती दिल्ली की मज़दूर आबादी

दिल्ली में 29 औद्योगिक क्षेत्र हैं, जिनमें अधिकतर छोटे व मध्यम आकार के कारख़ाने हैं। इन औद्योगिक क्षेत्रों में दिल्ली की कुल 80 लाख मज़दूर आबादी का बड़ा हिस्सा काम करता है। इसके अलावा निर्माण से लेकर लोडिंग, कूड़ा बीनने व अन्य ठेके पर काम हेतु तमाम इलाक़ों में लेबर चौ‍क पर मज़दूर खड़े रहते हैं। परन्तु आज इन सभी इलाक़ों में कामों में सुस्ती छायी हुई है, बल्कि यह मन्दी पिछले तीन सालों से छायी है। देश एक बड़े आर्थिक संकट की आगोश में घिर रहा है और इन इलाक़ों में काम की परिस्थिति और बिगड़ने जा रही है।

नोटबन्दी और जीएसटी व सीलिंग का पहला झटका

नोटबन्दी और जीएसटी से 2016 और 2017 में सबसे ज़्यादा बर्बादी असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों को ही झेलनी पड़ी। इसके बाद बड़ी संख्या में मज़दूरों की कारख़ानों से छँटनी हुई। वज़ीरपुर से लेकर बवाना, झिलमिल, मायापुरी, ओखला से लेकर तमाम जगहों पर फ़ैक्टरियाँ बन्द हुईं। फ़ैक्टरियों में एक लम्बे समय तक तो एक ही शिफ़्ट पर काम होता रहा। वज़ीरपुर में मालिकों ने उत्पादन कम कर दिया और जो काम पहले दो शिफ़्ट में चलता था, वह अब केवल एक शिफ़्ट में चल रहा था। इलाक़े में एक बड़ी आबादी की छँटनी हुई जो गाँव चली गयी और जब वापस आयी भी तो हालात नहीं सुधरे। इस क्रम में सस्ती मशीनरी के उपयोग के कारण व प्रदूषण सम्बन्धी सभी नियमों को ताक पर रखकर उत्पादन जारी रखा गया। 2017 से ही एनजीटी के छापे पड़ने शुरू हुए जो फ़ैक्टरियों के बन्द होने या एक शिफ़्ट चलने के पीछे एक और कारक सिद्ध हुआ। मायापुरी, चाँदनी चौक से लेकर वज़ीरपुर में ये छापे पड़े। इन तीनों कारणों के चलते कई फ़ैक्टरियों में काम बन्द हो गया। कई मालिकों ने केवल रात की शिफ़्ट में ही काम करवाना शुरू किया। यही वह दौर था जब बेरोज़गारी बढ़ती ही जा रही थी और सरकार इन्हें झूठला रही थी। मालिकों की एक संस्था ऑल इण्डिया मैन्युफ़ैक्चरर्स ऑर्गेनाइज़ेशन के 2018 में कराये एक सर्वे के अनुसार रोज़गार की संख्या एक तिहाई से कम हो गयी। मज़दूरों को यह आस थी कि नोटबन्दी और जीएसटी का असर ख़त्म होने के बाद फिर से काम बहाल हो जायेगा और एक बार फिर काम में तेज़ी आयेगी लेकिन इस साल में भी सभी औद्योगिक क्षेत्रों में अभी तक कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा है। इसके पीछे पूरी अर्थव्यवस्था का डाँवाडोल होना जि़म्मेदार है। वहीं तमाम मज़दूर जो रोज़ ही ठेके पर काम पाते थे, उनको भी काम मिलने में दिक़्क़त रहने लगी है। 2018 तक मज़दूर दिल्ली के इन बड़े लेबर चौकों को छोड़कर नोएडा की तरफ़ जा रहे थे। वहीं तमाम छोटे लेबर चौकों का भी लम्बे समय तक यही हाल रहा है, नोटबन्दी के बाद से ही मज़दूरों को काम नहीं मिल रहा है। मज़दूर काम की होड़ में पहले 350 की दिहाड़ी को आज 200 रुपये तक में करने को तैयार हैं, परन्तु तब से अब तक यह परिस्थिति सुधरने का नाम ही नहीं ले रही है। इण्डिया स्पैण्ड को दिये गये साक्षात्कार में रिक्शा चालक सोनू ने कहा कि वो पहले महिपालपुर में निर्माण मज़दूर की तरह काम करता था और उसे 25 दिन काम मिल जाता था जिससे कि महीने का 12000 रुपये कमा लेता था, परन्तु अब यहाँ केवल रिक्शे ही खड़े होते हैं। बवाना से लेकर जीटी करनाल रोड तक मौजूद तमाम लेबर चौक पर मज़दूर बताते हैं कि नोटबन्दी और जीएसटी के बाद से काम मन्दा है। परन्तु इस क्षेत्र में भी 2019 आते-आते भी कोई तेज़ी नहीं आयी है। और अब इस क्षेत्र में भी मन्दी का असर दिख रहा है। न सिर्फ़ निर्माण क्षेत्र में बल्कि नोटबन्दी, जीएसटी और सीलिंग की मार करावल नगर के बादाम गोदामों, खारी बावली बाज़ार तक थी और 2019 में भी इन क्षेत्रों में भी मन्दी छायी है।

 2019 की आर्थिक मन्दी विकराल रूप ग्रहण कर रही है

जैसा कि हमने पिछले अंक में जि़क्र किया कि आर्थिक मन्दी के शुरुआती संकेत ग़ैर-बैंकीय फ़ाइनेंस सेक्टर में प्रकट हुए जिसका पहला शिकार आईएल एण्ड एफ़एस बनी थी और अब लगभग हर ऐसी फ़ाइनेंस कम्पनी संकट से जूझ रही है। एनपीए से जुझ रहे बैंकों ने रियल स्टेट में लोन देने में हाथ खड़े कर दिये जिस कारण इन्होंने फ़ाइनेंस कम्पनी की ओर रुख़ किया। परन्तु इनका ऋण चुकाने में असमर्थ रहे और ग़ैर-बैंकीय फ़ाइनेंस सेक्टर बर्बाद होना शुरू हो गया। रियल स्टेट सेक्टर भी तबाह है। इस कारण ज़्यादातर जगह बड़े निर्माण कार्य ठप्प पड़े हैं। ऑटोमाबाइल सेक्टर की गाडि़यों की बिक्री फ़ाइनेंस कम्पनी पर निर्भर थी और यहाँ इसलिए ही भयंकर तबाही मच रही है। साथ ही तमाम छोटे उद्योग-धन्धे भी तबाह हो रहे हैं। छोटे उद्योग, जिन्हें एमएसएमई कहा जाता है, भारत में इनकी कुल संख्या क़रीब 6 करोड़ है जिसमें लगभग 12 करोड़ मज़दूर कार्यरत थे। इन्हें चालीस प्रतिशत ऋण प्राइवेट बैंक और फ़ाइनेंस कम्पनी से मिलता था। इनमें भी छोटी इकाइयों को फ़ाइनेंस कम्पनी से ही लोन मिलता था और अब यहाँ भी ऋण न मिल पाने के कारण इनका संकट गहरा रहा है। इसके कारण छोटे फ़ैक्टरी मालिकों ने अपना उत्पादन कम कर दिया है और नोटबन्दी और जीएसटी और सीलिंग के बाद यह मन्दी बेरोज़गारी का कारण बन रही है। वज़ीरपुर में काम कर रहे विष्णु ने बताया कि वो अपने परिवार को लेकर इस साल मई माह में घर गया था और जून अन्त में वापस आया तो उसे स्टील लाइन में काम नहीं मिल रहा था। उसकी पत्नी को भी 1000 रुपये कम वेतन पर प्लास्टिक लाइन में काम मिला। विष्णु को आख़ि‍रकार वज़ीरपुर में ही प्लास्टिक लाइन में काम मिला परन्तु कम पैसे और अलग कि़स्म के काम के कारण वह ज़्यादा काम नहीं कर पाया। ख़ैर उसे एक महीने की मशक्कत के बाद स्टील लाइन के ठण्डा रोला में काम मिल गया परन्तु पहले से कम वेतन पर। बवाना में गाँव से लौटे भगवान भाई को 20 दिन भी काम नहीं मिला तो वे रोहतक चले गये। संगम विहार का कपड़ा उद्योग लगभग तबाह हो चुका है। द्वारका में रौनक सेक्टर के अपार्टमेण्ट में जिस रेट पर गाड़ी साफ़ करता था, उससे कम में काम करने को कई नौजवान तैयार हैं। खजुरी में कारपेण्टर का काम कर रहे शफीक़ को अब महीने में मुश्किल से 10 दिन ही काम मिल पाता है। इस मन्दी की मार समूचे मज़दूर वर्ग पर पड़ रही है। चाहे मज़दूर खारी बावली में मसाला ट्रक से उतारता हो, वज़ीरपुर में गर्म रोला में काम करता हो, बवाना में प्लास्टिक के दाने से चप्पल बनाता हो या झिलमिल में कॉपर के तार ढालता हो – मन्दी की मार सब पर है। सरकार इस मन्दी का बोझ मज़दूर पर डाल रही है और अगर मज़दूर संगठित होकर संघर्ष नहीं करते तो हम और अधिक तबाह-बर्बाद होंगे। पूरी दिल्ली में अलग-अलग क्षेत्रों में मौजूद मज़दूर आबादी को एकजुट होकर बेरोज़गारी और कम वेतन व काम की परिस्थिति के ि‍ख़‍लाफ़ सड़कों पर उतरना ही होगा। बुरा वक़्त अपने आप नहीं ढल जायेगा, उसे मज़दूरों को लड़कर बदलना ही होगा।

 

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त 2019


 

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