मज़दूर आन्दोलन में मज़दूर अख़बार की भूमिका की एक शानदार मिसाल (ज़ार की दूमा में बोल्शेविकों का काम-7)

प्रसिद्ध पुस्तक ‘ज़ार की दूमा में बोल्शेविकों का काम के कुछ हिस्सों की इस श्रृंखला में सातवीं कड़ी प्रस्तुत है। दूमा रूस की संसद को कहते थे। एक साधारण मज़दूर से दूमा में बोल्शेविक पार्टी के सदस्य बने बादायेव द्वारा क़रीब 100 साल पहले लिखी इस किताब से आज भी बहुत–सी चीज़़ें सीखी जा सकती हैं। बोल्शेविकों ने अपनी बात लोगों तक पहुँचाने और पूँजीवादी लोकतन्त्र की असलियत का भण्डाफोड़ करने के लिए संसद के मंच का किस तरह से इस्तेमाल किया इसे लेखक ने अपने अनुभवों के ज़रिए बख़ूबी दिखाया है। इस बार हम जो अंश प्रस्तुत कर रहे हैं उसमें हम देख सकते हैं क‍ि रूस में भयंकर दमनकारी परिस्थितियों के बीच मज़दूर आन्दोलन को संगठित और एकजुट करने में मज़दूर अख़बार ने कैसी शानदार भूमिका निभायी थी। आज भी मज़दूर आन्दोलन में काम कर रहे लोगों के लिए यह बहुत उपयोगी है। उस वक़्त रूस में जारी मज़दूर संघर्षों का दिलचस्प वर्णन भी इसमें हमें मिलता है। इसे पढ़ते हुए पाठकों को लगेगा मानो इसमें जिन स्थितियों का वर्णन किया गया है वे हज़ारों मील दूर रूस में नहीं बल्कि हमारे आसपास की ही हैं। ‘मज़दूर बिगुल’ के लिए इस श्रृंखला को सत्यम ने तैयार किया है।

(सातवीं किश्त)

क्रान्तिकारी आन्दोलन में प्राव्दा  का स्थान

प्राव्दा ने युद्ध से पहले क्रान्तिकारी आन्दोलन के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा की और, इसकी स्थापना के साथ ही, यह हमारे पार्टी कार्य के संचालन का प्रमुख माध्यम था। छपाई तथा वितरण से सम्बन्धित सम्पादक व कार्यकर्ता जनता को संगठित करने के काम में सीधे तौर पर जुड़ चुके थे। चाहे जितनी भी मुश्किलें आ जायें, प्रत्येक क्रान्तिकारी कार्यकर्ता उनका बोल्शेविक अख़बार हर रोज़ पाना और पढ़ना अपनी जि़म्मेदारी समझता था। प्रत्येक कॉपी हाथो-हाथ बाँटी जाती और तमाम मज़दूरों द्वारा पढ़ी जाती थी। इस अख़बार ने उनकी वर्ग-चेतना को अभिव्यक्ति प्रदान की, उन्हें शिक्षित और संगठित किया।

मज़दूरों के बीच प्राव्दा की लोकप्रियता का विवरण इस तथ्य से मिल जाता है कि इसने निरन्तरता के साथ एक मज़बूत बोल्शेविक नीति का पालन किया और, अवसरवादी विसर्जनवादी अख़बार (लच तथा अन्य अख़बार) के तरीक़ों से अलग, इसने समस्याओं को हमेशा साधारण, सीधी-साधी भाषा में बताया। एक ओर जहाँ लच की वितरण संख्या कभी भी 16,000 कॉपियों से अधिक नहीं पहुँच सकी, वहीं प्राव्दा की वितरण संख्या एक दिन में 40,000 तक पहुँच गयी। मज़दूरों के बीच समर्थन की मात्रा में एक समरूप सम्बन्ध अख़बारों के बदले इकट्ठा की गयी राशि में देखा जा सकता था। प्राव्दा मज़दूरों के पैसे से शुरू किया गया और पूरी तरह मज़दूरों की सदस्यता द्वारा समर्थित था, मगर विसर्जनवादी अपना अख़बार मुख्य रूप से मेन्शेविकों के प्रति संवेदना ज़ाहिर करने वाले व्यक्तियों के बड़े चन्दों के बलबूते पर प्रकाशित करते थे। 1913 में प्राव्दा ने मज़दूरों के समूहों से कम से कम 2,180 सहयोग हासिल किये जबकि लच ने उस दौरान केवल 660 हासिल किये। अगले साल (मई तक) प्राव्दा ने 2,873 और लच ने 671 हासिल किये।

प्रत्येक राजनीतिक घटना, मज़दूर वर्ग की प्रत्येक लड़ाई के सम्बन्ध में मज़दूरों ने प्राव्दा को पत्र, संकल्प, और रिपोर्टें भेजीं। हम इन सभी सामग्री को अख़बार के चार पन्नों में प्रकाशित नहीं कर पाते थे, यहाँ तक कि इसके बड़े रूप में भी नहीं, और बहुत कुछ सेंसरशिप के कारणों से नहीं छापे जा सकते थे। मज़दूर ज़ारशाही और इसके ि‍ख़‍लाफ़ क्रान्तिकारी संघर्ष से जुड़ने के बारे में अपने विचारों को एकदम सीधे तौर पर व्यक्त करते थे और, जब सम्पादक जोखिम उठाने तथा ऐसे पत्राचार को प्रकाशित करने का फ़ैसला करते थे, अख़बार पर निरपवाद रूप से जुर्माना लगाया और ज़ब्त कर लिया जाता था। ऐसा होना इतनी आम बात हो चुका था कि मज़दूर इसके लिए अग्रिम निवेदन भेज दिया करते थे : “अगर अख़बार को ज़ब्त कर लिया जाता है तो कृपया हमारी ख़बर एक बार फिर अगले अंक में छाप दें।”

प्राव्दा सम्पादकीय कार्यालयों में कई आगन्तुकों के माध्यम से भी मज़दूरों के साथ अपना नज़दीकी सम्पर्क बनाये रखता था, जो सांगठनिक कार्यों के लिए एक प्रमुख केन्द्र बन गये। वहाँ स्थानीय पार्टी इकाइयों के प्रतिनिधियों के बीच बैठकें होती थीं। फै़क्टरियों व वर्कशॉपों से सूचना प्राप्त की जाती थी और फिर वहाँ से दिशानिर्देश दिये जाते तथा गुप्त बैठक-स्थलों की व्यवस्था वापस इलाक़ों में की जाती थी।

ज़ार की गुप्त पुलिस को यह अच्छे से मालूम था कि बोल्शेविक प्राव्दा राजसत्ता का बहुत ही ख़तरनाक दुश्मन था। हालाँकि, सेण्ट पीटर्सबर्ग के मज़दूरों के बढ़ते क्रान्तिकारी स्वभाव के कारण, प्राव्दा को कुचलने का फ़ैसला करने से दो साल पहले पुलिस हिचकिचाती रही। उन्होंने इसकी ताक़त को कम करने के लिए डिज़ाइन किये गये मामूली उत्पीड़न से इसे लगातार चिन्ता में डाले रखा। जब तक अख़बार का अस्तित्व बना रहा, प्रत्येक अंक एक संघर्ष के बाद निकलता था और प्रत्येक लेख एक लड़ाई के बाद। गिरफ़्तारियाँ, जुर्माने, ज़ब्तियाँ और छापे – पुलिस ने हमें आराम का कोई मौक़ा नहीं दिया।

प्राव्दा और दूमा धड़ा

पार्टी ने अपना अख़बार बहुत ही मुश्किल परिस्थिति में तैयार किया और केन्द्रीय कमेटी ने क्रान्तिकारी आन्दोलन में इसकी भूमिका के साथ काफ़ी ज़्यादा महत्व जोड़ दिया। इसके लिए जि़म्मेदार कॉमरेडों के समूह को उनके मुश्किल काम में दूमा के बोल्शेविक हिस्से द्वारा सहायता दी जाती थी। प्राव्दा और इस हिस्से ने हाथ से हाथ मिलाकर काम किया और इस अख़बार की मदद से ही यह हिस्सा पार्टी तथा क्रान्तिकारी आन्दोलन द्वारा दिये गये काम कर पाता था। हमने दूमा व्याख्यान-मंच का इस्तेमाल विभिन्न पृष्ठभूमि के सांसदों के सिर के ऊपर से जनता तक अपनी बात पहुँचाने के लिए किया। लेकिन यह हमारे मज़दूरों के छापेख़ाने के अस्तित्व द्वारा ही हो सका, क्योंकि तथाकथित उदारवादी अख़बारों ने हमारे भाषणों को बस कुछ ही लाइनों की जगह दी और कभी-कभी उन पर चुप्पी साध ली। अगर मज़दूरों का बोल्शेविक अख़बार नहीं होता, तो हमारे भाषण टौरिडा पैलेस की दीवारों के बाहर नहीं जाने जा सकते थे।

हमें प्राव्दा से केवल यही एक सहायता नहीं मिलती थी। सम्पादकीय कार्यालय में हम सेण्ट पीटर्सबर्ग फ़ैक्टरी और कार्यस्थलों के प्रतिनिधियों से मिले, कई सवालों पर चर्चा की और उनसे जानकारी हासिल की। कम शब्दों में कहें तो, प्राव्दा एक केन्द्र था जिसके चारों ओर क्रान्तिकारी कार्यकर्ता इकट्ठा हो सकते थे और जो दूमा वाले हिस्से के काम में सहायता प्रदान करता था।

जब से यह हिस्सा तैयार किया गया, इसने अख़बार के काम को अपने महत्वपूर्ण कार्यों में शामिल कर लिया। तुरन्त चौथा दूमा शुरू हो गया, बोल्शेविक “छह:” ने प्राव्दा में निम्नलिखित अपील प्रकाशित की :

इस बात से पूरी तरह सहमत होते हुए कि वर्तमान समय में प्राव्दा सर्वहारा की ताक़तों को जोड़ने का काम जारी रखेगा, हम आपसे अपील करते हैं, साथियो, इसका समर्थन करें, वितरण करें और इसके लिए सामग्री भेजें। निश्चित रूप से प्राव्दा की अपनी ख़ामियाँ हैं, सभी नये अख़बारों की तरह जिनके पास मज़बूती हासिल करने के लिए समय या अनुभव नहीं होता, मगर इनसे छुटकारा पाने का एक ही तरीक़ा है कि इसे नियमित रूप से अपना समर्थन दें।

जब पार्टी द्वारा मुझे प्राव्दा के प्रकाशन में उपस्थित होने के काम की जि़म्मेदारी मिली तो मैंने सेण्ट पीटर्सबर्ग के मज़दूरों के सामने निम्नलिखित सन्देश रखा :

मज़दूरों का नुमाइन्दा और मज़दूरों का अख़बार एक ही तरह के काम करते हैं। दोनों के बीच बिल्कुल नज़दीकी सहयोग होना चाहिए; इसीलिए, साथियो, मैं सबसे ज़्यादा सक्रिय रूप से हमारे मज़दूर अख़बार, प्राव्दा निकालने के काम में हिस्सेदारी करना अपना कर्तव्य मानता हूँ। साथियो! हमारी ख़ुद की कोशिशों से, हमारी मेहनत की कमाई से, हमने रूस में पहला मज़दूरों का दैनिक अख़बार निकालना शुरू किया। हमने, सेण्ट पीटर्सबर्ग के मज़दूरों ने, इस काम में आगे बढ़कर हिस्सा लिया। मगर एक अख़बार की स्थापना काफ़ी नहीं है, हमें इसकी ताक़त और बढ़ानी ही होगी, और इसे अपने पैरों पर सुरक्षित खड़ा करने के लिए बहुत कुछ करना पड़ेगा। प्रत्येक मज़दूर एक नियमित पाठक ज़रूर बने और प्रत्येक पाठक दूसरे नियमित पाठकों को ज़रूर जोड़े। हमें प्राव्दा के लिए चन्दे इकट्ठा करने होंगे और सुनिश्चित करना होगा कि जितना अधिक हो सके वितरित किया जाये। साथियो! आइए श्रम के हितों की सेवा करने वाले इस अख़बार को तैयार करने के लिए साथ मिलकर काम करें।

पुलिस के साथ दिनप्रतिदिन का संघर्ष

मगर प्राव्दा के लिए समर्थन जुटाने और इसका प्रकाशन जारी रखने के लिए संसाधनों की व्यवस्था करने में मुझे लगातार पुलिस के उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ता था। हम निरन्तर अख़बार की ज़ब्ती के ि‍ख़‍लाफ़ लड़ते रहते थे और तरह-तरह के दाँव-पेंच का सहारा लेना पड़ता था, ताकी किसी भी दिन का अंक इसके पाठकों तक पहुँच सके।

क़ानून का पालन करने के लिए जब अख़बारों को बेचने के लिए निकाला जाता था, उसी समय अख़बार की एक कॉपी प्रिंटिंग शॉप से प्रेस कमेटी को भेजी जाती थी। क्योंकि कमेटी आम तौर पर तुरन्त उस अंक की ज़ब्ती का आदेश जारी कर देती थी, हमें विक्रेताओं के बीच वितरण के लिए अख़बार के प्रिण्टिंग शॉप से निकलने और कमेटी के हाथों तक पहुँचने तक के छोटे से समय अन्तराल का इस्तेमाल करना पड़ता था।

फ़ैक्टरियों और कार्यस्थलों के प्रतिनिधि अख़बारों को प्रेस से सीधे प्राप्त कर लेने और तुरन्त अपने क्षेत्रों को वापस लौट जाने के लिए तैयार होकर प्रकाशन कार्यालय के बाहर प्रांगण में सुबह होने से पहले ही इकट्ठा हो जाते थे। बाद में पुलिस हमारे प्रयासों के बारे में जान गयी और प्रकाशन संस्थान को जासूसों ने घेर लिया तथा आस-पास की सड़कें घुड़सवार और पैदल पुलिस की टुकडि़यों से भर गयी। अकसर, क़ानून का उल्लंघन करके, प्रेस कमेटी के अफ़सर प्रिण्टिंग शॉप आ जाते थे और अख़बारों को प्रेस से बाहर निकलते ही ज़ब्त कर लेते थे। तब हम अख़बारों के कुछ बण्डलों को अटारी या सीढ़ियों में छिपाने की कोशिश करते थे ताकि पुलिस के जाने के बाद कम से कम कुछ कॉपियाँ छुपाकर बाहर ले जायें।

दूमा में प्राव्दा पर पूछताछ

स्टेट दूमा का सदस्य होने के नाते मुझे जो “सुरक्षा” मिली उसने अधिकारियों के साथ इस निरन्तर संघर्ष में हमारे काम को कुछ हद तक फ़ायदा पहुँचाया मगर, कहने की ज़रूरत नहीं कि, उसने किसी भी तरह पुलिसी अभियोग तथा क़ानूनी अभियोग से ना मेरे साथियों को ना मुझे बचाया। जाँच करने वाले मजिस्ट्रेटों ने मेरे ि‍ख़‍लाफ़ एक के बाद एक मामले इकट्ठा कर रखे थे और, जब उन्हें लगता था कि एक अनुकूल समय आ गया, वे अपना बिल पेश कर देते थे – मुझ पर अख़बार को लेकर कई बार अभियोग लगाये गये। सरकार मज़दूरों के नुमाइन्दे को गिरफ़्तार करने का जोखिम नहीं उठाती थी, मगर कार्यवाही के दौरान दूसरे अधिक लिप्त लोगों को शामिल करने की कोशिश करती थी।

मुझसे बहुत बार पूछा गया : “प्राव्दा अख़बार का सम्पादन कौन करता है?” और कोर्ट के प्रत्येक अफ़सर ने वही निश्चित जवाब पाया : “सम्पादक का नाम अख़बार के हर कॉपी पर छपा है और सहयोगी हैं सेण्ट पीटर्सबर्ग के हज़ारों मज़दूर।”

मई 1913 में, प्राव्दा बन्द कर दिया गया और कुछ दिनों बाद यह एक नया नाम प्राव्दा ट्रूडा के साथ सामने आया। इस ज़ाहिर-से छद्मावरण का सहारा कई दूसरे अवसरों पर भी लिया गया; सम्पादकों के पास अनेक नाम रहते और उन सभी में प्राव्दा शब्द होता था, जैसे: ज़ा प्राव्दाई, प्रोलेतार्स्काया प्राव्दा, सेवेर्नाया प्राव्दा और पुत प्राव्दा* एक के बाद एक इस्तेमाल किया जाता था। गुप्त पुलिस प्राव्दा को दबाने का कोई भी मौक़ा नहीं गँवाती थी, फिर भी हमारा काम इतना व्यवस्थित ढंग से होता था कि सेण्ट पीटर्सबर्ग के मज़दूर शायद ही कभी अपने दैनिक अख़बार के बिना रहे हों।

* ऊपर दिये गये नामों का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार हैं : मज़दूरों का प्राव्दा (सच); प्राव्दा (सच) के लिए; सर्वहारा प्राव्दा; उत्तरी प्राव्दा; प्राव्दा का रास्ता।सम्पादक

हमारी बड़ी कठिनाइयों में एक थी पैसे की कमी। पैसे का मुख्य स्रोत था फ़ैक्टरियों तथा कार्यस्थलों में नियमित चन्दा इकट्ठा करना, मगर कभी-कभी हम उन व्यक्तियों से सहायता पाते थे जो मज़दूरों के क्रान्तिकारी आन्दोलन के साथ सहानुभूति रखते थे, जिनमें महान लेखक मैक्सिम गोर्की भी शामिल थे, जिन्होंने जब भी हो सका, हमारी मदद की। गोर्की सभी बोल्शेविक प्रकाशनों को नियमित रूप से सहयोग करते थे और वे केवल ख़ुद ही सहायता नहीं देते थे बल्कि अख़बार के लिए दूसरों के पास से भी पैसे इकट्ठा करने के लिए क़दम उठाते थे।

जब वे विदेश से लौटे तो गोर्की फिनलैण्ड में बस गये, जो सेण्ट पीटर्सबर्ग से ज़्यादा दूर नहीं है, और मैं वहाँ उनके पास 1913 के बसन्त में गया था। उनकी मदद की ज़रूरत अख़बार के सम्बन्ध में और साथ ही साथ पार्टी के दूसरे कामों के सम्बन्ध में भी थी और मैं पार्टी केन्द्र के अनुरोध पर उनसे मिलने गया। यह ध्यान रखते हुए कि हमारी वजह से उन्हें पुलिस की फिर से प्रताड़ना न झेलनी पड़े।

गोर्की ने पार्टी जीवन, क्रान्तिकारी आन्दोलन की स्थिति, भूमिगत कार्य, दूमा हिस्से की गतिविधि इत्यादि के बारे में सवाल करके मुझे अभिभूत कर दिया और संघर्ष की सभी जानकारी में काफ़ी दिलचस्पी दिखायी। उनका आग्रह ख़ास तौर पर उन सभी बातों को लेकर था जो फ़ैक्टरी के काम से सम्बन्धित थीं और जितनी तेज़ी से वे एक के बाद एक सवाल किये जा रहे थे, उतनी तेज़ी से जवाब देने में मैं असफल रहा। विशेष निवेदन को ध्यान में रखते हुए, गोर्की ने अपनी क्षमता के अनुसार जितना कर सके, उतना करने का वादा किया और प्राव्दा के लिए ज़रूरी सम्पर्क तथा साधन प्राप्त करने में हमारी मदद करने के लिए काफ़ी समय दिया।

प्राव्दा पर छापा

प्राव्दा की सख़्त पकड़ से नाराज़, पुलिस क्रूर हो गयी और सभी क़ानूनी औपचारिकताओं को दरकिनार कर दिया। हालाँकि उनके पास ज़ब्ती का कोई आदेश नहीं था, फिर भी उसने अख़बार विक्रेताओं को गिरफ़्तार किया, प्राव्दा की बण्डल ले गयी, और प्रेस कमेटी द्वारा उनकी कार्रवाई क़ानून के दायरे में रखने के पूर्वव्यापी फ़ैसले से चिन्तित भी नहीं थी।

1914 के अन्त में, एक उच्च अधिकारी की कमाण्ड में एक पुलिस टुकड़ी, मगर बिना किसी आदेश के, देर रात सम्पादकीय दफ़्तर पर छापा मार दिया। दरवाज़ों के ताले तोड़ दिये गये, हर चीज़ उलट-पुलट दी गयी और हस्तलेखों तथा पत्र-व्यवहार फ़र्श के बीचोबीच ढेर में फेंक दिये गये। मुझे इस छापे के बारे में टेलीफ़ोन से बताया गया और तुरन्त दफ़्तर की ओर दौड़ पड़ा और पुलिस द्वारा छानबीन करने के ग़ैरक़ानूनी तरीक़े का विरोध किया। मगर, क्योंकि मैं अब तक अख़बार के अधिकारिक सम्पादक के रूप में नहीं जाना जाता था, पुलिस अधिकारी ने जवाब दिया : “आप बीच में क्यों आ रहे हैं? आप इस दफ़्तर में एक अजनबी हैं, इससे आपका कोई मतलब नहीं।”

“ज़रूर है, मैं मज़दूरों का नुमाइन्दा हूँ, और यह एक मज़दूरों का अख़बार है। हम एक ही कारण से सेवा कर रहे हैं,” मेरा जवाब था।

पुलिस ने अपनी छानबीन पूरी की और जो भी सामग्री उन्हें चाहिए थी, अपने साथ ले गयी। अगले दिन सम्बन्धित मंत्री के सामने एक और विरोध जताया, मगर इसका कोई असर नहीं हुआ; मंत्री और पुलिस साथ मिलकर काम कर रही थी।

इस समय, सरकार स्टेट दूमा में एक नया प्रेस क़ानून लायी, जिसे 1905 में हासिल की गयी “आज़ादी” के अन्तिम अवशेष भी छीन लेने के लिए बनाया गया था। प्राव्दा पर पुलिस के छापे इस क़ानून के इरादे की एक झलक थी। दूमा धड़े ने प्राव्दा की क़ानूनी ज़ब्ती से निपटने के लिए सवाल-जवाब का एक खाका तैयार किया और 4 मार्च को मैंने सदन में इस मुद्दे पर तुरन्त चर्चा की सख़्त ज़रूरत के समर्थन में बात उठायी। मैंने पूरे रूस में मज़दूरों के प्रेस  के हालात की बात की और मेरा भाषण एक तरह से सभी मज़दूरों के नाम प्राव्दा के बचाव में आगे आने की एक अपील था। ब्लैक हण्ड्रेड के बहुमत ने हमारे प्रस्ताव का बहिष्कार किया, मगर मेरे भाषण का मक़सद पूरा हुआ – मज़दूरों ने हमारी पुकार सुनी; प्राव्दा के लिए चन्दे की राशि और सदस्यता की संख्या दोनों में रोज़ाना बढ़ोत्तरी होने लगी।

1914 की जुलाई के दिनों में प्राव्दा बहुत ज़्यादा ज़रूरी हो गया। संघर्ष के विकास की पूरी रिपोर्ट हर दिन छापी जाती थी और इसके सम्पादक हड़ताल कमेटी से लगातार सम्पर्क में रहते थे, उनकी मदद करते थे तथा हड़ताल की ज़रूरतों के लिए चन्दे इकट्ठा करते थे। परिणामस्वरूप, पुलिस का अत्याचार और बढ़ गया, जुर्माने, ज़ब्तियाँ और गिरफ़्तारियाँ बढ़ गयीं और दफ़्तरों को दिन-रात जासूसों और हर तरह के पुलिस वालों द्वारा निगरानी में रखा जाने लगा। प्रत्येक अंक ख़तरे में था और उन्हें सबसे ज़्यादा मशक्कत के बाद ही पुलिस से बचाया जा सका। हमें बहस करनी पड़ती थी कि क्या ऐसा क़ानून या क़ानून का ऐसा कोई अनुच्छेद अख़बार को जि़म्मेदार मानता है। मैंने ज़्यादा समय सम्पादक दफ़्तर में सम्पादकों की मदद करने में बिताया और मैं हमेशा अपने साथ प्रासंगिक विधान की कॉपियाँ ले जाता था, ताकी असल बातों के साथ पुलिस अधिकारियों का सामना किया जा सके।

जब सेण्ट पीटर्सबर्ग का क्रान्तिकारी आन्दोलन मज़दूरों द्वारा बैरिकेड बनाये जाने के स्तर तक पहुँचा, सरकार ने कार्रवाई करने का फ़ैसला लिया। गुप्त पुलिस को आदेश दिया गया कि हमारे संगठन को नष्ट कर दिया जाये ताकि क्रान्तिकारी आन्दोलन अपने मुख्य हथियार, प्रेस को खो दे।

इस बार अख़बार पर छापा मारने की योजना उस समय की बनायी गयी जब प्राव्दा पर आने वाले मुख्य आगन्तुक और साथ ही साथ पूरे सम्पादकीय बोर्ड को गिरफ़्तार किया जा सके। 8 जुलाई को अख़बार के दफ़्तर में शाम होने के तुरन्त बाद पुलिस आयी, जब काम पूरे ज़ोर-शोर से चल रहा था और जब मज़दूर अपने पत्र-व्यवहार तथा वर्कशॉप में हुए धनसंग्रह और पार्टी या ट्रेड यूनियन से सम्बन्धित अन्य मामलों के साथ पहुँचे ही थे। मैं तुरन्त दफ़्तर की ओर गया और पाया कि इमारत चारों तरफ़ से पुलिस से घिरी हुई थी। थोड़ी मुश्किल से अपने लिए रास्ता बनाने के बाद, मैंने देखा कि वह जगह पूरी तरह से अस्त-व्यस्त थी, पुलिस अधिकारी सभी दराज़ों तथा अलमारियों की छान-बीन कर रहे थे और अख़बार के सभी सहयोगियों के साथ आगन्तुकों को भी गिरफ़्तार कर लिया गया और एक कमरे में ठूस दिया गया। मुझे उन लोगों तक पहुँचने नहीं दिया गया और एक खुले दरवाज़े के माध्यम से ही बात करनी पड़ी।

मैंने तुरन्त तलाशी तथा गिरफ़्तारियों का विरोध किया और कहा कि मैं इस मामले को स्टेट दूमा में उठाऊँगा। पुलिस ने अपने उच्च अधिकारी को फ़ोन किया और, बिना शिष्टाचार काम जारी रखने को कहे जाने पर, उन्होंने मुझे उस जगह से तुरन्त निकल जाने का आदेश दिया। मैं डटा रहा, मगर उन्होंने मुझे बाहर निकाल दिया, और पुलिस की कार्यवाही में हस्तक्षेप करने के लिए मुझ पर सामान्य आरोप लगाये।

प्राव्दा की यह छान-बीन मज़दूर संगठनों पर हमलों की एक श्रृंखला का संकेत थी। युद्ध की घोषणा के पहले के कुछ ही दिनों के दौरान पुलिस ने मज़दूर-वर्ग के सभी अख़बार, शैक्षणिक व ट्रेड यूनियन संगठन बर्बाद कर दिये। सेण्ट पीटर्सबर्ग में बड़े पैमाने पर गिरफ़्तारियाँ की गयीं और क़ैदियों के समूहों को उत्तरी प्रान्तों तथा साइबेरिया में निर्वासित किया गया।

प्रथम विश्व युद्ध शुरू होने के बाद पुलिस के क़दम और अधिक सख़्त हो गये और पार्टी पूरी तरह से भूमिगत होने पर मजबूर हो गयी। हमारे गुट ने एक मज़दूर अख़बार का प्रकाशन फिर से शुरू करने के सवाल पर लगातार चर्चा की और मामला नवम्बर सम्मेलन की कार्यसूची में शामिल था जब बोल्शेविकों के पूरे दूमा हिस्से को गिरफ़्तार कर लिया गया था।

पूरे युद्ध के दौरान, हम प्राव्दा के प्रकाशन को फिर से शुरू करने में असमर्थ रहे।

अंग्रेज़ी से अनुवाद : अभिषेक

 


 

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