कारख़ानों में काम करने वाली स्त्री मज़दूरों के बुरे हालात

रविन्दर

भारतीय समाज में कुल आबादी का 48.5 प्रतिशत हिस्सा औरतों का है। कुल उत्पादन में भाग लेने वालों में से 28.5 प्रतिशत हिस्सा औरतों का है। उत्पादन में औरतों की हिस्सेदारी को लेकर विश्व स्तर पर 131 देशों में से भारत का स्थान 120वें नम्बर पर है और यहाँ पर औरत मज़दूरों के काम के घण्टे मर्द मज़दूरों के मुक़ाबले में ज़्यादा हैं और उसी काम के लिए दिया जाने वाला वेतन मर्द मज़दूरों के मुक़ाबले में 62 प्रतिशत कम है। उत्पादन में करोड़ों स्त्रियाँ और मर्द लगे हैं। हालात तो सबके बदतर हैं लेकिन मर्दों के मुक़ाबले स्त्री मज़दूरों के हालात तो और भी बदतर हैं।

सूरत की एक कपड़ा फ़ैक्टरी में काम करने वाली स्त्री मज़दूर ने बीबीसी को बताया कि काम की जगह पर शौचालय तो है पर उसे ताला लगा रहता है। उसे दिन में सिर्फ़ दो बार ही खोला जाता है। वे हमें पेशाब करने जाने से रोकते हैं। इसलिए हम पानी नहीं पीते और पेशाब का ज़ोर पड़ने पर उसे रोके रखना पड़ता है। माहवारी के दिनों में औरतें काम पर नहीं आतीं, जब वे छुट्टी माँगने जाती हैं तो उनके पैसे काट लिये जाते हैं।  वड़ोदरा के एक कारख़ाने में लक्ष्मी 10 घण्टों की शिफ़्ट में काम करती है। उसका कहना है कि “मर्दों और औरतों के साथ अलग-अलग व्यवहार किया जाता है। हमें सिर्फ़ 150 रुपये दिये जाते हैं, जबकि साथ काम करने वाले मर्दों को 300 रुपये दिये जाते हैं। औरतों के लिए अलग से शौचालय भी नहीं है।

सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ तमिलनाडु के 40,000 कपड़े और कताई के कारख़ानों में 3 लाख मज़दूर औरतें काम करती हैं। थॉमसन रिट्रीयूज़ फाउण्डेशन की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार तमिलनाडु के कपड़ा कारख़ानों में ग़ैर-क़ानूनी ढंग से मज़दूर औरतों को माहवारी के वक़्त दर्द-निवारक गोलियाँ दी जाती हैं, ये गोलियाँ उन्हें निगरानी में ही खानी पड़ती हैं। फाउण्डेशन की तरफ़ से 15 से 25 साल की उम्र की 100 औरतों से बातचीत की गयी। उनका कहना था कि उन्हें ये गोलियाँ खाते हुए महीनों से सालों बीत गये हैं। उनके पास गोलियाँ खाने के बिना और कोई रस्ता नहीं क्यूँकि उन्हें तनख़्वाह काटने की धमकी दी जाती है। ये गोलियाँ उस वक़्त तो दर्द को रोक देती हैं, पर एक लम्बे वक़्त तक खाते रहने से मानसिक तौर पर बीमार होने से लेकर, बाँझ होना, गर्भ में ख़राबी होना और माहवारी के रुकने जैसे भयंकर नतीजे सामने आते हैं। ये गोलियाँ इसलिए नहीं दी जाती कि मालिकों को मज़दूर औरतों की सेहत का फ़िक्र है बल्कि इसलिए दी जाती हैं, ताकि माल जल्दी से जल्दी तैयार हो, कोई मज़दूर औरत छुट्टी न करे, काम बिना रोक-टोक के हो और मण्डी में वक़्त के साथ पहुँचाया जा सके। क्यूँकि मालिक मण्डी में बना रहना चाहता है और यह कम समय में ज़्यादा उत्पादन करके, सस्ती उजरतों पर काम करवाके ही सम्भव हो सकता है। इसीलिए मालिकों के बीच ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा हासिल करने की होड़ ने मज़दूर औरतों और बच्चों को कम तनख़्वाह वाले ग़ुलामों के रूप में बदल दिया है। जिस व्यवस्था में हम साँस ले रहे हैं उसकी जड़ें मुनाफ़े की चक्की में हैं जो मज़दूर वर्ग को पीसती रहती है और दौलत के अम्बार लगाती रहती है और मुट्ठी-भर लोग इस चक्की के मालिक हैं। इसे बदलने की सिर्फ़ एक शर्त है संगठित होना और अधिकारों के लिए लड़ना।

 

 

 

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त 2019


 

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