आधुनिकीकृत मदरसा और शिक्षक बर्बादी और बदहाली के कगार पर

प्रमोद

मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से शिक्षा तंत्र बुरी तरह से चौपट किया जा रहा है। इसका एक नमूना आधुनिकीकृत मदरसे भी हैं। ग़ौरतलब है कि 1992 में केन्द्र सरकार द्वारा मदरसों के आधुनिकीकरण हेतु उनमें हिन्दी, गणित, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान आदि आधुनिक शिक्षा देने के लिए अल्पसंख्यक मंत्रालय द्वारा मानदेय पर शिक्षकों की व्यवस्था की गयी। इन आधुनिकीकृत मदरसों के शिक्षकों के मानदेय के लिए एक छोटा-सा अंश राज्य सरकार को और बाक़ी केन्द्र सरकार को देना था। राज्य सरकार द्वारा ग्रेजुएट शिक्षकों को 2000 रुपये एवं पोस्ट ग्रेजुएट शिक्षकों को 3000 रुपये जैसी मामूली राशि मानदेय के रूप में वहीं केन्द्र सरकार द्वारा ग्रेजुएट शिक्षकों को 6000 एवं पोस्ट ग्रेजुएट शिक्षकों को 12000 प्रतिमाह दी जाने की व्यवस्था की गयी थी।

उत्तर प्रदेश में कुल 19000 मदरसे संचालित हो रहे हैं। इन मदरसों में 25550 आधुनिक शिक्षक कार्यरत हैं। जिसमें 40% हिन्दू शिक्षक हैं। उत्तर प्रदेश के इन मदरसों में क़रीब 10 से 11 लाख ग़रीब बच्चे पढ़ते हैं। मोदी सरकार के आने के बाद से इन मदरसों की स्थिति ख़राब होती गयी। बीते चुनाव में जुमलेन्द्र  बहादुर के शिष्य और अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने ट्रिपल टी (टीचर, टिफि़न, टॉयलेट) का एक जुमला उछाला था। लेकिन इस जुमले के उलट मदरसा आधुनिकीकरण के बजट में भारी कटौती की गयी। वित्त वर्ष 2016\17 में जो बजट 370 करोड़ था, उसे बढ़ाने के बजाय 2017/18 में घटाकर 120 करोड़ कर दिया गया। मदरसों के आधुनिक शिक्षकों को तय मानदेय भी नहीं दिया जा रहा है। अनेक मदरसा शिक्षक भुगखमरी के कगार पर हैं। ज्ञात हो कि उन्हें मिलने वाला मानदेय पिछले 40 से 60 माह तक नहीं दिया गया है। कई लड़ाइयाँ लड़ने के बाद मुश्किल से उनको राज्य सरकार द्वारा मिलने वाला 2000 मानदेय तीन-चार महीने पर मिल पाता है। केन्द्र सरकार का अंशदान 40 से 60 महीने तक का बकाया है। टिफि़न यानी मिड डे मील की कोई व्यवस्था नहीं है। टॉयलेट भी कहीं पर नहीं बनवाया गया है। बदहाली का आलम यहाँ तक है कि राज्य सरकार ने सरकारी किताबें पढ़ाए जाने का प्रावधान किया है। मगर इन विद्यालयों को कोई किताबें नहीं दी जातीं। किताबों की व्यवस्था आधुनिक मदरसों के शिक्षक व अभिभावक अपने स्तर पर करते हैं। क्योंकि सरकारी किताबें बाज़ार में बिक्री के लिए उपलब्ध नहीं होती हैं। अतः इधर-उधर से जुगाड़ करके पुस्तकों की व्यवस्था की जाती है। इन शिक्षकों ने जि़ला मुख्यालय से लेकर के राज्य मुख्यालय व केन्द्र मुख्यालय पर कई बार धरना-प्रदर्शन व आन्दोलन संगठित किया। लेकिन इसके बावजूद सरकार के कानों पर जूँ तक नहीं रेंग रही है। उल्टा आन्दोलन करने वाले कर्मचारी नेताओं को फ़र्ज़ी मुक़दमे लगा करके जेल में डाल दिया गया था। आज भी उन पर मुक़दमे चल रहे हैं। कई जगह पर तो मजबूर होकर प्राइवेट स्कूलों की किताबें पढ़ाई जा रही हैं।

मदरसा शिक्षकों के बीच अमिता, मास, आई मास, नमास, समास, एमटीयू, ममास, जैसी 7 यूनियन सक्रिय हैं। मगर इन यूनियनों की आपसी खींचतान व ग़लत तरीक़े से आन्दोलन चलाने की वजह से भारी निराशा है। एकजुटता न होने के चलते और सरकार द्वारा तमाम आन्दोलनों के दमनात्मक रवैया के कारण डर का माहौल क़ायम है। हालाँकि कुछ शिक्षकों ने सारे तथाकथित यूनियनों के बन्धनों को तोड़ करके “आम मदरसा शिक्षक” नाम का एक मंच बनाया है जिसके बैनर तले वे अपनी लड़ाई को नये सिरे से शुरू करने की तैयारी कर रहे हैं। लेकिन बहुत सकारात्मक माहौल अभी भी नहीं बन पाया है।

‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के कार्यकर्ताओं द्वारा सम्पर्क में आने वाले यूनियन के नेताओं को सलाह दी गयी कि उन्हें सबसे पहले इस लड़ाई में गुटबाज़ी तोड़कर एक होना होगा। दूसरे उन्हें यह बात समझनी होगी कि वर्तमान पूँजीवादी संकट के दौर में भाजपा की फ़ासीवादी सरकार अन्धाधुँध निजीकरण पर आमादा है। इसके लिए वह डण्डे का ज़ोर लगाने के लिए पूरी तरह तैयार है। इसलिए बहुत योजनाबद्ध, व्यापक और जुझारू आन्दोलन के बिना कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता। आज के अधिकांश आन्दोलन की तरह इस आन्दोलन में भी यही कमी है कि वे इसे व्यापक जनता का मुद्दा नहीं बना सके। अख़बारों, टीवी चैनलों के भरोसे बैठे रहने से कुछ नहीं होने वाला है क्योंकि मौजूदा दौर में वे भी कॉरपोरेट घरानों के क़ब्ज़े में हैं। मदरसा आधुनिक शिक्षकों की यूनियनों को न केवल एक होना होगा बल्कि व्यापक जनता में इस मुद्दे को पर्चे, पैम्फ़लेट, बुलेटिन, सभाओं-नुक्कड़ सभाओं आदि के ज़रिये जाना होगा। इस तरह के अन्य आन्दोलनों से अपनी एकता क़ायम करनी होगी। माँगों में भी मुख्य रूप से मानदेय दिये जाने व परमानेण्ट किये जाने की माँग के साथ-साथ बच्चों के लिए पुस्तकें, ड्रेस व मिड डे मील की भी माँग को शामिल करना चाहिए। शिक्षकों को अपने परिवार के अलावा अभिभावकों को भी इस आन्दोलन का हिस्सा बनाने की कोशिश करनी चाहिए।

 

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त 2019


 

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