मोदी सरकार द्वारा श्रम क़ानूनों में किये गये मज़दूर-विरोधी बदलावों के मायने

– वृषाली

मोदी सरकार ने पिछले कार्यकाल से ही जनता के अधिकारों पर हमले करते हुए कई क़ानूनों में बदलाव किये थे। इन हमलों में सबसे बड़ा निशाना देश की मज़दूर आबादी रही है। श्रम क़ानूनों को लचीला कर मालिकों के हक़ में करने की प्रक्रिया में मोदी सरकार ने 44 श्रम क़ानूनों को ख़त्म करने का फ़ैसला लिया है। इन 44 श्रम क़ानूनों की जगह अब 4 श्रम संहिताएँ (लेबर कोड) – मज़दूरी संहिता, औद्योगिक सुरक्षा और कल्याण संहिता, सामाजिक सुरक्षा संहिता और औद्योगिक सम्बन्ध संहिता – लागू की जायेंगी। मोदी सरकार के इस फ़ैसले को मज़दूर हित में लिया फ़ैसला साबित करने के लिए भाजपा के नेता और दलाल मीडिया एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाये हुए हैं। श्रम संहिताओं के प्रचार का बीड़ा उठाये केन्द्रीय श्रम और रोज़गार मन्त्री संतोष गंगवार वही महानुभाव हैं जिनका मानना है कि देश में ‘बेरोज़गारी’ कोई मसला ही नहीं है और यह कि उत्तर भारत में ‘नौकरी की नहीं, योग्य लोगों की कमी है’। ज़ाहिर है ये श्रम संहिताएँ मन्दी के इस दौर में मज़दूरों की हितों की नुमाइन्दगी करने के लिए नहीं बल्कि उनके श्रम की लूट को और आसान बनाने को क़ानूनी जामा पहनाना मात्र हैं।

श्रम संहिताएँ मालिकों के लिए इस हक़ को सुनिश्चित करेंगी कि मालिक अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ मज़दूरों को काम पर रख सकें और जब चाहें उन्हें मशीन के पुर्ज़े की तरह काम से बाहर निकाल सकें। साथ ही श्रमिकों को बेरोज़गारों की एक रिज़र्व आर्मी में बदल दिया जायेगा जो सस्ते दरों पर भी काम करने को तैयार हो। स्थायी प्रकृति के रोज़गार को ख़त्म कर ठेकेदारी प्रथा को और भी धड़ल्ले से लागू किया जायेगा। ओवरटाइम के घण्टों पर कोई पाबन्दी नहीं होगी। नये कारख़ानों को अब पंजीकरण के लिए अलग-अलग दफ़्तरों के चक्कर नहीं काटने पड़ेंगे। इन श्रम संहिताओं के तहत कार्यस्थल निरीक्षण की पूरी प्रणाली को ख़त्म किया जाएगा। निरीक्षण मज़दूरों की शिकायतों के आधार पर नहीं होंगे। निरीक्षण की प्रक्रिया पूरी तरह से तकनीकी तौर पर होगी और यह कम्प्यूटर द्वारा तय किया जाएगा कि किस फैक्ट्री का निरीक्षण किया जाना है। यही नहीं, ‘निरीक्षक अथवा फैसिलिटेटर का काम मालिकों द्वारा श्रम क़ानूनों के उल्लंघन पर कार्रवाई करना नहीं बल्कि श्रम क़ानूनों का पालन करने में उनकी ‘मदद’ होगा। श्रम क़ानूनों की अवमानना करने पर मालिकों को दण्ड देने या माफ़ करने का अधिकार भी इन निरीक्षकों के पास ही होगा। जिन निरीक्षकों के रहते पहले से ही व्यवस्था में भ्रष्टाचार के ज़रिये ऐसे तमाम ‘निरीक्षणों’ को नाटकीय रूप दिया जाता था वहाँ भ्रष्टाचार को खुली छूट ही सौंप दी गयी है।

सरलता की रट लगाते हुए एक नये प्राधिकरण के गठन का फैसला लिया गया है जो न्यायालय से पहले मामले के निबटारे के लिए हस्तक्षेप करेगा। न्यायालयों से कभी-कभार मज़दूरों के हक़ में फैसले आने की रही-सही उम्मीद की भी अब कोई जगह नहीं है। वहीं अन्तिम ज़िम्मेदारी अब प्रमुख नियोक्ता की जगह ठेकेदार की होगी। मतलब, न्यूनतम वेतन, बोनस आदि का भुगतान न होने पर ठेकेदार ही ज़िम्मेदार माना जायेगा। औद्योगिक दुर्घटनाओं से लेकर तमाम मामलों में मालिकों के जेल जाने का प्रावधान ही ख़त्म कर दिया गया है। साथ ही मज़दूर हितों की स्वयम्भू ‘हिमायती’ भाजपा सरकार ने राष्ट्रीय स्तर का न्यूनतम वेतन 10 जुलाई 2019 को घोषणा करके 178 रुपये प्रतिदिन कर है! सांसदों-विधायकों और अफ़सरों को गठरी भर-भर के तनख्वाहें और भत्ते देने वाली भाजपा चाहती है कि श्रमिक मात्र 178 रुपयों में अपनी हड्डियाँ गलायें। सरकार की विशेषज्ञ समिति ने जबकि अपनी ओर से 375 रुपये प्रतिदिन की सिफ़ारिश की थी।

श्रम संहिताओं का सबसे बुरा असर अनौपचारिक क्षेत्र के मज़दूरों, भवन निर्माण व प्रवासी मज़दूरों पर पड़ेगा। भवन एवं अन्य सन्निर्माण कर्मकार अधिनियम, 1996 को निरस्त कर सामाजिक सुरक्षा बिल में जोड़ने का मतलब 4 करोड़ भवन निर्माण मज़दूरों का पंजीकरण रद्द करना है। साथ ही 36 भवन एवं अन्य सन्निर्माण कर्मकार मण्डल ख़त्म कर दिए जायेंगे और पंजीकरण का काम निजी हाथों में सौंप दिया जायेगा। सामाजिक सुरक्षा के लिए मज़दूरों से ही ली जाने वाली राशि उनके सामर्थ्य से ही बाहर होगी। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार भारत में औसतन रोज़ाना 38 भवन निर्माण मज़दूरों की दुर्घटनाओं में मौत होती है। नयी श्रम संहिताओं के लागू होने के बाद मालिकों को मज़दूरों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी से पूरी राहत मिलने के बाद ये संख्या और भी बढ़ जायेगी। वहीं प्रवासी मज़दूरों की बात करें तो सबसे ज्यादा शोषण उनका ही होता है क्योंकि उनका श्रम सबसे सस्ता होता है और मोलभाव की क्षमता सबसे कम।

इन तथाकथित श्रम सुधारों के क्या परिणाम होने वाले हैं इसका अन्दाज़ा राजस्थान सरकार द्वारा वर्ष 2014-15 में श्रम क़ानूनों में किये गये बदलावों के हश्र से लगया जा सकता है। इस वर्ष के आर्थिक सर्वेक्षण में राजस्थान सरकार द्वारा किये गये श्रम सुधारों की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी है। लेकिन सरकार के ख़ुद के ही आँकड़े बता रहे हैं कि इन सुधारों के बाद से मज़दूरों की स्थिति बद सक बदतर हो गयी है। मज़दूरों की मज़दूरी, नौकरी की सुरक्षा और काम के दबाव सहित सभी पैमाने यह साबित कर रहे हैं कि इन सुधारों के बाद से मज़दूरों का जीवन और भी ज़्यादा असुरक्षित हो गया है। ग़ौरतलब है कि राजस्थान सरकार ने ठेका मज़दूर क़ानून की सीमा 20 से बढ़ाकर 50 मज़दूर कर दी थी। इस ‘सुधार’ के बाद से ठेके पर काम करने वाले मज़दूरों की संख्या में बहुत तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है। जहाँ 2014-15 में ठेका मज़दूरों की संख्या कुल मज़दूरों की 39.1 फ़ीसदी थी, वहीं 2016-17 में यह बढ़कर 42.5 प्रतिशत हो गयी। यही नहीं, इन ‘सुधारों’ के लागू होने के बाद राजस्थान में बेरोज़गारी की दर भी तेज़ी से बढ़ी है। जुलाई 2019 में जब देश में बेरोज़गारी की दर 7.5 फ़ीसदी थी, वहीं राजस्थान में बेरोज़गारी की दर 10.6 फ़ीसदी थी। इसके अलावा नेट मूल्य संवर्धन में मज़दूरी के हिस्‍से में लगातार गिरावट देखने में आयी है। ये आँकड़े साफ़ दिखाते हैं कि राजस्थान के श्रम सुधारों से मज़दूरों की हालात बेहतर होने की बजाया ख़राब ही हुए हैं।
विश्व बैंक के ‘व्यापार की सुगमता’ की सूची में भारत 2014 में 142वें स्थान से 2019 में 77वें स्थान पर पहुँच चुका है। मोदी सरकार इस सूची के पहले 50 में भारत का नाम दर्ज कराने के लिए पूरी ताक़त लगा रही है। ‘व्यापार की सुगमता’ हासिल करने का एक ही मतलब है- मज़दूरों की लूट को और आसान बनाना। देश में आर्थिक मन्दी ने प्रमुख तौर पर ऑटोमोबाइल और गारमेण्ट सेक्टर में भयंकर रूप ले लिया है। इसके अलावा मन्दी ने हर क्षेत्र में असर दिखाना शुरू कर दिया है।

आर्थिक वृद्धि दर घटने से लेकर ग़ैर-निष्पादित सम्पत्ति (नॉन-परफॉर्मिंग एसेट) में बढ़ोत्तरी पूँजी के गहराते संकट का इशारा भर हैं। ऐसे में श्रम क़ानूनों को लचीला कर लेबर कोड में बदलना देश के पूँजीपतियों के मुनाफ़े को हर हाल में बरक़रार रखने की तैयारी है। मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल पर पूँजीपतियों द्वारा किये गए ‘निवेश’ का फल उन्हें मिलना शुरू हो चुका है।

श्रम क़ानूनों पर हमला इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। श्रम क़ानूनों पर इस हमले का जवाब सिर्फ़ एक या दो दिवसीय राष्ट्रव्यापी हड़ताल से नहीं दिया जा सकता। आने वाले समय में वर्ग-संघर्ष और तीखे होने वाले हैं। मज़दूरों को व्यवस्था जनित इस शोषण के खात्मे के लिए अपनी लड़ाई मजबूत करनी होगी। मज़दूर-विरोधी फ़ासीवादी भाजपा सरकार को हराने का असली रास्ता जनान्दोलनों और राष्ट्रव्यापी हड़तालों के रूप में देश की सड़कों पर होगा।

मज़दूर बिगुल, अक्तूबर 2019


 

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