नागरिकता संशोधन क़ानून का बवाना जे.जे. कॉलोनी के ग़रीब मेहनतकशों की ज़िन्दगी पर असर!

मोदी सरकार अपनी फ़ासीवादी नीति को विस्तारित करते हुए जो एनआरसी और सीएए क़ानून लेकर आयी है, उसके परिणाम मेहनतकश आबादी के लिए भयानक होंगे। इसी वजह से आज ख़ासतौर पर अल्पसंख्यक समुदाय में डर का माहौल है।

बवाना जे.जे. कॉलोनी दिल्ली के उत्तर-पश्चिमी इलाक़े के बाहरी छोर पर स्थित है। बवाना जे.जे. कॉलोनी बवाना औद्योगिक क्षेत्र के निकट है जिस वजह से एक बड़ी मज़दूर-मेहनतकश आबादी यहाँ रहती है, जो बवाना के कारख़ानों में अपनी श्रम शक्ति बेचती है। यह एक मुस्लिम बहुल इलाक़ा है। यहाँ पर रहते हैं फूल मोहम्मद और जेनेसा। फूल मोहम्मद ऑटो चलाते हैं और जेनेसा  बवाना में चप्पल बनाने की फ़ैक्टरी में काम करती हैं। इनको यहाँ बसे क़रीब 20 साल हो गये। तब यह कॉलोनी भी नयी थी। फूल मोहम्मद की झुग्गी दिल्ली के मध्य में स्थित कनॉट प्लेस से तोड़ी गयी थी। यह दिल्ली 1996 के मास्टर प्लान का हिस्सा था, जिसमें दिल्ली को चमकाने के लिए मध्य में स्थित झुग्गियों को तोड़ा गया और झुग्गी के लोगों को एक बाहरी छोर पर फेंक दिया गया और औद्योगिक क्षेत्र भी यहीं बसाया गया। इसी कारण मज़दूरों को योजनाबद्ध रूप से स्थानान्तरित किया गया।

जेनेसा और फूल मोहम्मद के पूरे परिवार में 6 लोग हैं चार बच्चे और दो वे ख़ुद। दो बच्चे अभी छठी और सातवीं में सरकारी स्कूल में पढ़ रहे हैं व बड़ा बेटा भी फ़ैक्टरी में काम करता है। जेनेसा को 8 घण्टे काम करने के एवज में रु. 5000 मिलते हैं और वहीं बड़े बेटे को उतने ही घण्टे काम करने के रु. 8000। फूल मोहम्मद का ऑटो का काम भी मन्दी में चल रहा है और रोज़ाना रु. 300-400 की ही कमाई होती है। इस प्रकार परिवार के सभी सदस्यों के 12-12 घण्टे खटने के बाद घर का ख़र्च बस किसी तरह से चल पा रहा है।

यही हालात बवाना जे.जे. कॉलोनी की अधिकतर आबादी के हैं। बवाना जे.जे. कॉलोनी में सड़कों से लेकर नालियाँ टूटी हुई हैं। पानी के लिए आज भी किल्लत रहती है (वहीं केजरीसाहब कहते हैं कि वे सभी दिल्लीवासियों को रोज़ 700 लीटर पानी मुफ़्त दे रहे हैं।) अस्पताल जाने के लिए भी क़रीब 13 किलोमीटर का रास्ता तय करना पड़ता है। रात-बेरात कोई बीमार हुआ तो उसे लेकर जाने का कोई साधन नहीं मिलता।

जेनेसा और फूल मोहम्मद नागरिकता संशोधन विधेयक के क़ानून बनने के बाद से सहमे हुए थे। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि भारत में पीढ़ियों से रहने के बाद भी उन्हें नागरिक होने का सबूत दिखाना होगा। आनन-फ़ानन में अगले ही दिन वे गाँव को रवाना हो गये ताकि अपने पुराने काग़ज़ात इकट्ठा कर सकें। गाँव जाने के बाद जेनेसा की नौकरी भी छूट गयी और फूल भाई के ऑटो से घर का ख़र्च चलना अब असम्भव प्रतीत होता है।

यह हाल सिर्फ़ जेनेसा-फूल मोहम्मद का नहीं बल्कि पूरी कॉलोनी का है जहाँ डर का माहौल है। कारख़ानों के शोषण को सहते हुए मज़दूर किसी तरह रह रहे थे और अब ऐसे हिटलरशाही क़ानून इनका दोहरा दमन कर रहे हैं। यह दमन मज़दूर वर्ग का दमन होगा। इसे रोकने का विकल्प एक ही है और वह है वर्ग एकजुटता। आज पूँजीवादी व्यवस्था का संकट अपने पालतू कुत्ते यानी फ़ासीवाद की ज़ंजीर को खुला छोड़ चुका है, ठीक इसी कारण से हिटलर का भी उभार हुआ था। पर हिटलर को भी मज़दूर वर्ग ने ही नेस्तनाबूद किया था और आज भी मज़दूर वर्ग ही फ़ासीवादी मोदी सरकार को सबक़ सिखा सकता है।

मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2019


 

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