एनआरसी का आर्थिक पहलू

– सुरेश चौहान

सीएए क़ानून बनने के पहले और बाद तक गृह मंत्री अमित शाह बार-बार कहते रहे हैं कि इसके बाद राष्ट्रीय स्तर पर एनआरसी ज़रूर आयेगा। तभी से इसको लेकर विभिन्न पहलुओं पर चर्चा और प्रदर्शन होते रहे हैं। जिस एक राज्य असम में इसको लागू किया गया है, वहाँ इसे लागू करने की जिन मुख्य लोगों ने माँग की थी, वे ही अब इसे एक व्यर्थ और जोश में होश खोने वाली क़वायद बता रहे हैं। इसके दूसरे विनाशकारी पहलुओं पर तो अलग से चर्चा हो ही रही है, आइए एक बार इसके आर्थिक पहलू पर भी एक नज़र डालते हैं।

अब तक केवल असम में इस प्रक्रिया का पहला चक्र पूरा हुआ है। असम जहाँ की आबादी लगभग 3.5 करोड़ है और पूरे भारत का लगभग 2.2 क्षेत्रफल घेरता है, वहाँ इस प्रक्रिया के पूरे होने में 10 साल लगे, जिसमें 5200 सरकारी कर्मचारियों को केवल इसी काम में लगे रहना पड़ा। पूरा ख़र्च 1600 करोड़ आया। यह केवल सरकारी ख़र्च था। माना जा रहा है कि आम लोगों को अपनी जेब से करीब 8000 करोड़ रुपये ख़र्च करने पड़े। तब भी दो करोड़ विदेशी घुसपैठियों के हौवे के बजाय केवल 19 लाख 6 हज़ार 657 लोगों का नाम ही सूची से बाहर रहा। अभी इसको दूसरी बार करने की भी योजना है क्योंकि पूर्व सेनाकर्मी से लेकर पूर्व राष्ट्रपति के परिजनों के नाम भी सूची में नहीं आ पाये थे। दूसरे, भाजपा द्वारा मुस्लिम घुसपैठियों का हो-हल्ला मचाने के बावजूद एनआरसी से बाहर रह गये 19 लाख में से 13 लाख से ज़्यादा हिन्दू हैं। इसलिए भी भाजपा सरकार दोबारा जाँच करने के लिए कह रही है।

अब चलिए इसी को पूरे देश पर लागू करते हैं। ऊपर दिये डाटा से हिसाब लगाने पर प्रति व्यक्ति सरकारी ख़र्च लगभग 450 रुपये बैठता है। इसको देश की 130 करोड़ आबादी से गुणा करने पर लगभग 60 हज़ार करोड़ रुपये का ख़र्च बैठता है। और इस प्रक्रिया में कितना समय लगेगा और सरकारी कामकाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। फिर जनता का जो समय व पैसा काग़ज़ात ढूँढ़ने-बनवाने में लगेगा और सरकारी दफ़्तरों में जो भ्रष्टाचार होगा वह अलग।

दिल्ली में 22 दिसम्बर के अपने भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने हमेशा की तरह झूठ बोलने की महारत का प्रदर्शन करते हुए कहा कि भारत में डिटेंशन सेण्टर है ही नहीं। असलियत यह है कि असम में अब तक का सबसे बड़ा डिटेंशन सेण्टर गोलपाड़ा में बनकर तैयार हो गया है, और इकोनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार केन्द्र सरकार ने सभी राज्यों को ऐसे डिटेंशन सेण्टर बनाने के आदेश दिये हैं। असम में जो डिटेंशन सेण्टर बनकर तैयार हुआ है उसकी क्षमता 3000 लोगों की है। केवल असम में ही अभी दस और डिटेंशन सेण्टर बनाने का आदेश है। एक सेण्टर को बनाने में 45 करोड़ का ख़र्च आया है। सरल गणित लगाने पर समझ आ जाता है कि अगर मात्र 30,000 हज़ार लोगों के लिए भी डिटेंशन सेण्टर बनाने होंगे तो उसमें 450 करोड़ का ख़र्च आयेगा। देश के स्तर पर यह ख़र्च अरबों में होगा। फिर इसे नियमित रूप से चलाने में जो अतिरिक्त ख़र्च आयेगा उसका अभी हिसाब ही नहीं है। और इस पूरी प्रक्रिया में लोगों को जिस मानसिक प्रताड़ना से गुज़रना पड़ेगा उसका गणित से हिसाब भी नहीं किया जा सकता।

ग़ौरतलब है कि यह सब उस समय हो रहा है जब पूँजीवादी व्यवस्था का ढाँचागत संकट अपने चरम पर है और उसी की राजनीतिक अभिव्यक्ति फ़ासीवाद के रूप में सामने आ रही है। असम में एनआरसी की प्रक्रिया से सम्बन्धित डिजिटल और ऑनलाइन काम का कॉन्ट्रैक्ट अज़ीम प्रेमजी के कॉर्पोरेशन ‘विप्रो’ को मिला था जिसमें उसे करोड़ों की कमाई हुई थी। इसके अलावा, डिटेंशन सेण्टरों को बनाने और बन जाने के बाद सुचारू रूप से चलाने का ठेका भी किसी ऐसी प्राइवेट कम्पनी को मिलेगा, जैसे हिटलर के समय में यातना शिविरों का ठेका आईबीएम जैसी कम्पनी को मिला था।

जो लोग इन सेण्टरों में रखे जायेंगे उनसे सस्ते में काम भी कराया जा सकेगा क्योंकि उनके पास कोई सामाजिक-राजनीतिक अधिकार नहीं होंगे। इस तरह यदि देशभर में ऐसी सस्ती श्रम-शक्ति की उपलब्धता होगी तो यह न केवल डिटेंशन सेण्टरों में रह रहे लोगों के लिए नारकीय होगा बल्कि आम मज़दूर आबादी के लिए भी ख़तरनाक सिद्ध होगा। कारण यह कि इसके चलते आम मज़दूर का वेतन भी नीचे जायेगा क्योंकि उससे सस्ते में श्रम-शक्ति उपलब्ध होगी। इसीलिए एनआरसी का असर केवल मुसलमानों या जो लोग डिटेंशन सेण्टर भेजे जायेंगे उन पर ही नहीं, पूरी मेहनतकश-मज़दूर आबादी पर ही भयंकर होगा। दूसरी ओर, पूँजीपति इससे भी मुनाफ़ा पीटेंगे।

इस सीधे आर्थिक हिसाब-किताब से ही पता चलता है कि एनआरसी – इसके सामाजिक-राजनीतिक पहलुओं के अलावा भी – देश की आम जनता पर एक भयंकर आर्थिक बोझ डालेगा। वह भी ऐसे समय में, जब अर्थव्यवस्था की हालत ख़स्ता है, रोज़गार नहीं है, शिक्षा-स्वास्थ्य-सार्वजनिक सुविधाओं को लगातार पूँजीपतियों के मुनाफ़े के लिए बेचा जा रहा है, और जनता बिल्कुल त्रस्त है। लोग इन मुद्दों पर सरकार से सवाल न करें, और बस हिन्दू-मुस्लिम में उलझे रहें, इसके लिए यह पूरा बवाल खड़ा किया गया है, जिससे आम जनता को हासिल कुछ नहीं होगा लेकिन वह अपनी ही नागरिकता साबित करने के लिए लाइन में ज़रूर लगी होगी।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2020


 

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