संघी नेताओं के बच्चे ऐशो-आराम में पलेंगे : नेता, सेठ और अफ़सर बनेंगे
जनता के बच्‍चे ज़हरीले प्रचार के नशे में पागल हत्यारे बनेंगे

फ़ासिस्ट प्रचार की ज़हरीली ख़ुराक पर लम्बे समय तक पलकर तैयार हुए दो पगलाये हुए नौजवानों ने दिल्‍ली में शान्ति से प्रदर्शन कर रहे लोगों पर गोलियाँ चलायीं। जगह-जगह ऐसे ही नफ़रत से पागल नौजवानों की भीड़ इकट्ठा करके “गोली मारो सालों को” के नारे लगवाये जा रहे हैं। पुलिस चुपचाप तमाशा देख रही है और फिर उन हमलावरों को बेशर्मी के साथ बचाने में जुट जा रही है।

आरएसएस की शाखाओं में बच्चों को नफ़रत और हिंसा के पाठ पढ़ाये जाते हैं। मगर यही लोग आज सवाल उठा रहे हैं कि अपने अधिकारों की रक्षा के लिए हो रहे प्रदर्शनों में लोग बच्चों को लेकर क्यों आ रहे हैं!

इसी तरह तैयार किये गए जुनूनी हत्यारों ने कभी दाभोलकर, पानसारे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्या की, मॉब लिंचिंग में दर्ज़नों बेगुनाहों को बर्बरतापूर्वक सड़क पर घसीटकर मौत के घात उतारा, दंगों में वीभत्स कारनामों को अंजाम दिया और सड़कों पर, कैम्पसों में आतंक फैलाते रहे।

अब फासिस्ट मुहिम का अगला चरण हमारे सामने है। अब राज्य-सत्ता के सशस्त्र दस्ते भारतीय हिटलर, हिमलर, गोएबल्स और गोएरिंग के आतंकी हत्यारे दस्तों के साथ खुलेआम मिलकर काम कर रहे हैं। हत्यारे उनके संरक्षण में अपने कारनामों को अंजाम दे रहे हैं और आगे ऐसा खेल और खुलकर खेला जाएगा।

आरएसस अब बाक़ायदा सैनिक स्‍कूल खोलने जा रहा है। इसी वर्ष बुलन्‍दशहर में उसका पहला स्‍कूल शुरू हो जायेगा। कहने के लिए इसका उद्देश्‍य भारतीय सेना के लिए अफ़सर तैयार करना होगा, मगर आरएसएस से परिचित कोई भी व्‍यक्ति यह समझ सकता है कि इसके ज़रिए बच्‍चों में किसके विरुद्ध हिंसक मनोवृत्ति भरी जायेगी।

देशभर में आरएसएस की हज़ारों शाखाओं में बच्‍चों और युवाओं को किस तरह की सीख दी जाती है, यह किसी से छिपा नहीं है। यही शाखाएँ वे कारख़ाने हैं जहाँ गोपाल शर्मा और कपिल गुज्‍जर जैसे नफ़रत में पागल ज़ॉम्बी तैयार किये जाते हैं। छोटे-छोटे बच्चों को धर्मान्धता और अतिराष्ट्रवाद की ऐसी घुट्टी पिलाई जाती है कि वे उन्मादी भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं। इस तरह बर्बरों की एक फौज तैयार की जाती है जो विश्वविद्यालयों और पुस्तकालयों पर हमले करते हैं, दंगे और मॉब लिंचिंग करते हैं, पार्कों में प्रेमी जोड़ों को दौडाते हैं और गुजरात-2002 जैसी घटनाओं को अंजाम देते हैं। गोपाल और कपिल जैसे हज़ारों हैं और उनके पीछे संघ के थिंक टैंक और प्रचारक हैं, भाजपा के नेता हैं, मीडिया के उन्मादी, गोएबल्स की जारज संतानें हैं।

अब पुलिस बल, नौकरशाही और न्यायपालिका में भी संघी घुसपैठ हो चुकी है, इनके बड़े हिस्से का साम्प्रदायीकरण हो चुका है। इस तरह एक धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन खड़ा किया गया है, जिसके पीछे पूँजी और सत्ता की ताक़त मुस्तैद खड़ी है। इसीलिए, यह समझना ज़रूरी है कि फ़ासीवाद के विरुद्ध लड़ाई सरकार बदलने की नहीं, बल्कि व्यवस्था बदलने की है। यह लम्बी और कठिन लड़ाई है। हमें मेहनतकशों और मध्य वर्ग के जुझारू प्रगतिशील युवाओं के दस्ते संगठित करने होंगे। हमें फासीवाद के घोर प्रतिगामी सामाजिक आन्दोलन को शिकस्त देने के लिए आम मेहनतक़श अवाम का प्रगतिशील सामाजिक आन्दोलन तृणमूल स्तर से खड़ा करना होगा। देश एक ज्वालामुखी के दहाने की और लुढ़कता जा रहा है। इसे बचाने का रास्ता एक कठिन सामाजिक-राजनीतिक संघर्ष का रास्ता है जो मेहनत, क़ुरबानी और हिम्मत की माँग करता है।

जिन पीले बीमार चेहरे वाले मध्यवर्गीय युवाओं को, और मेहनतक़श आबादी की जिन विमानवीकृत, वर्ग-च्युत सन्तानों को दिमाग से खाली, फटी आँखों वाले प्रचार-सम्मोहित हत्यारों में तब्दील किया जा रहा है, उनके पीछे चमकते चर्बीले चेहरों वाले हिन्दुत्ववादी फासिस्ट नीति-निर्माता, प्रचारक और नेता बैठे हैं। वे ऐसे हत्यारे हैं जिनकी आस्तीनों पर लहू के सुराग़ कभी नज़र नहीं आते।

दंगाई और जुनूनी ज़ॉम्बी तैयार करने वाली फै़क्ट्री के मैनेजर, इंजीनियर, सुपरवाइज़र वे हैं जो नागपुर में बैठे चिंतन और नीति-निर्देश का काम कर रहे हैं, संसद में भगवा पटका डाले बुर्जुआ जनवाद का खेल खेल रहे हैं, चैनलों पर बकवास करते हुए ज़हरीले नागों की तरह ज़हर की पिचकारी छोड़ रहे हैं और मंचों से ड्रैगन की तरह आग की लपटें फेंक रहे हैं। इनके अपने बेटे-बेटियाँ सुरक्षित और विलासितापूर्ण माहौल में, देश या विदेश में पलते और पढ़ते हुए पूँजी और सत्ता का खेल खेलना सीख रहे हैं, क्योंकि उन्हें ज़ॉम्बी नहीं, ज़ॉम्बी को नियंत्रित करने वाला बनना है। फ़ासिस्ट ज़ॉम्बी बनाने के लिए चुनते हैं आम घरों के पीले-बीमार चेहरे वाले कुण्ठित, अवसादग्रस्त, अर्द्ध-मनोरोगी टाइप युवाओं को या समाज के तलछट में पालने वाले उन अमानवीकृत आवारा, लम्पटों और गुण्डों को जो इस सड़ी हुई सामाजिक व्यवस्था के ही उत्पाद होते हैं। सड़ी-गली पुरातन परम्पराओं-संस्थाओं के बाड़े में इन ज़ॉम्बी बनाये जाने वालों को पाला जाता है, इन्हें अतीत की प्रेत-पूजा, धर्मान्धता और अति-राष्ट्रवाद का चारा-चुग्गा खिलाया जाता है और बीच-बीच में इस बात की जाँच की जाती है कि इनके कायान्तरण की प्रक्रिया अभी पूरी हुई है या नहीं।

हमें किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए। अवाम पर कहर बरपा करने वाली फ़ासिस्ट नीतियों के ख़िलाफ़ जैसे-जैसे युवाओं, मज़दूरों, आम मध्य वर्ग के लोगों और स्त्रियों का सड़कों पर उतरना बढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे इन भारतीय हिटलरी दस्तों का ख़ूनी उत्पात भी बढ़ता जाएगा और सत्ता का शस्त्र-बल पूरी तरह से उनकी पीठ पर, और उनके साथ खड़ा होगा। निश्चय ही देश में हिन्दुत्ववादी फ़ासिज़्म के ख़िलाफ़ एक जन-उभार की शुरुआत हो चुकी है, पर लड़ाई अभी लम्बी चलेगी, फै़सला इतनी जल्दी नहीं होना है। हमें एक लम्बी लड़ाई के लिए मानसिक तौर पर तैयार रहना होगा और लोगों को तैयार करना होगा। फ़ासिज़्म के विरुद्ध संघर्ष कई चढ़ावों और उतारों से होकर आगे बढ़ेगा, ज्वार और भाटे की तरह। हमारे पास उतार के दौर के लिए भी रणनीति होनी चाहिए।

फ़ासिस्ट अगर सरकार में नहीं होंगे, तब भी वे ग्रासरूट स्तर पर अनवरत अपने काम में लगे रहेंगे और समय-समय पर आतंक और ख़ूनी उत्पात का खेल खेलते रहेंगे। इसलिए यह समझ लेना होगा कि फ़ासीवाद को केवल चुनाव में हराकर और सत्ता से हटाकर निर्णायक तौर पर नहीं हराया जा सकता। उन्हें नेस्तनाबूद कर देना ही एकमात्र विकल्प हो सकता है। इतिहास का भी यही सबक है।

फ़ासीवाद तृणमूल स्तर से एक कैडर-आधारित संगठन द्वारा खड़ा किया गया धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन है जो वित्तीय पूँजी की सेवा करता है। यह संकटग्रस्त पूँजीवाद की उपज है। इसका मुकाबला सिर्फ़ तृणमूल स्तर से व्यापक मेहनतक़श जनसमुदाय और रेडिकल प्रगतिशील मध्यवर्गीय युवाओं का एक जुझारू प्रगतिकामी सामाजिक आन्दोलन खड़ा करके, तथा, फ़ासिस्ट दस्तों का सड़कों पर मुकाबला करने के लिए मज़दूरों और क्रान्तिकारी युवाओं के दस्ते संगठित करके ही किया जा सकता है। बेशक, यह एक लम्बा और कठिन काम है, पर अन्तिम निर्णायक विकल्प यही है। इसलिए, फौरी तौर पर फ़ासिस्टों की सत्ता के ख़िलाफ़ जो भी मुद्दा-केन्द्रित जन-संघर्ष उठ खड़े होते हैं उनमें पूरी ताक़त से भागीदारी करते हुए हमें अपने दूरगामी लक्ष्य के लिए काम करते रहना होगा और आम लोगों को अपनी इस बात का कायल बनाना होगा कि तात्कालिक आन्दोलन के मुद्दों पर फ़ासिस्ट अगर पीछे भी हट जायें तो यह संघर्ष का अन्त नहीं है। संघर्ष निश्चय ही लम्बा होगा। यह याद रखना होगा कि अन्तिम निष्कर्ष के तौर पर, फ़ासीवाद-विरोधी संघर्ष पूँजीवाद-विरोधी संघर्ष की ही एक अविभाज्य कड़ी है, उसका जैविक अंग है।

आज देशव्यापी स्तर पर जो जन-ज्वार उठ खड़ा हुआ है, वह स्वतःस्फूर्त है। स्वतःस्फूर्त आन्दोलनों की अपनी एक सीमा होती है, पर यह सीमा लाँधी न जा सके, ऐसा नहीं होता है। अगर क्रान्तिकारी शक्तियाँ सूझ-बूझ, मेहनत और धीरज से स्वतःस्फूर्त जनान्दोलनों में शिरक़त करती हैं तो उन्हें वे राजनीति की पाठशाला और प्रशिक्षणशाला बनाकर सीखती हैं और जनता के बड़े, या कम से कम महत्वपूर्ण हिस्से को सही राजनीति की अगुवाई में लाने में कामयाब होती हैं। यह उपलब्धि संघर्ष के अगले चक्रों के लिए महत्वपूर्ण होती है।

हमें हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्टों के वर्तमान आतंक और ख़ूनी कार्रवाइयों को फ़ासीवाद की ऐतिहासिक भयंकरता के परिप्रेक्ष्य में समझना होगा, तभी हम लोगों को एक लम्बी और निर्णायक लड़ाई में उतरने के लिए कायल कर सकेंगे और उन्हें यह समझा सकेंगे कि अगर वे ऐसा नहीं करते तो सर्वनाश के लिए तैयार रहें। जर्मन चिन्तक वाल्टर बेन्यामिन की यह ऐतिहासिक चेतावनी आज भी सर्वथा प्रासंगिक है : “केवल उसी इतिहासकार को अतीत में से उम्मीद की चिनगारियों को हवा देने का वरदान प्राप्त होगा जो पुरज़ोर ढंग से इस बात का कायल है कि दुश्मन अगर जीत गया तो उससे हमारे मर चुके लोग भी सुरक्षित नहीं बचेंगे। और इस दुश्मन ने फ़तेहमन्द होना अभी बन्द नहीं किया है।”

मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2020


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments