बेतहाशा बढ़ती बेरोज़गारी और ढपोरशंखी सरकारी योजनाएँ

– मीनाक्षी

सी.एम.आइ.ई. (सेन्टर फ़ॉर मॉनिटरिंग इण्डियन इकोनॉमी) की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक़ देश के शहरी क्षेत्र में बेरोज़गारी दर ने पिछले 45 सालों के सारे कीर्तिमान तोड़ डाले हैं। दिसम्बर 2019 में यह दर 9 फ़ीसदी थी। जनवरी 2020 तक, महज़ एक महीने में तेज़ रफ़्तार से बढ़ता हुआ यह आँकड़ा 9.9 फ़ीसदी तक जा पहुँचा। केवल 15 से लेकर 29 वर्ष के आयु वाले शहरी नौजवानों के बीच ही बेरोज़गारी की दर देखी जाये तो यह 22.5 फ़ीसद की ऊँचाई तक पहुँच चुकी है। कुल बेरोज़गारी दर में हालाँकि दिसम्बर 2019 के मुक़ाबले जनवरी 2020 में कुछ कमी आयी थी लेकिन यह 7 और 8 फ़ीसदी के बीच बनी रही, जबकि कुल औसत मासिक बेरोज़गारी दर 7.4 पर पहुँच गयी है। शहरी बेरोज़गारी दर में बढ़ोत्तरी ग्रामीण क्षेत्र के मुक़ाबले कहीं अधिक है। ये सारे आँकड़े उन बेरोज़गार नौजवानों को आधार बनाकर जुटाये गये हैं जो काम करने योग्य हैं और काम भी ढूँढ़ रहे हैं। पर देश के वे युवा जो काम करने योग्य हैं लेकिन काम ढूँढ़ ही न रहे हों उन्हें इस गणना में शामिल नहीं किया गया है। जैसेकि वे लड़के-लड़कियाँ जो अभी पढ़ाई कर रहे हैं या वे नौजवान जो कुछ साल काम ढूँढ़ने के बाद आजिज़ आ चुके हों और उन्होंने काम ढूँढ़ना बन्द कर दिया हो, या वे नौजवान जो साल में बमुश्किल कुछ ही दिन काम ढूँढ़ पाते हैं और जैसे-तैसे कुछ करके जीनेभर का थोड़ा-बहुत कमा लेते हैं, या फिर घरेलू औरतें जो घर का सारा कामकाज सँभालती हैं, परन्तु बदले में कोई वेतन नहीं पातीं क्योंकि उनका काम काम की श्रेणी में नहीं आता, उनकी गिनती बेरोज़गारों में नहीं की गयी है। यदि इन सभी लोगों को, यानी भागीदारी के लिए उपलब्ध पूरी श्रमशक्ति को ध्यान में रखकर बेरोज़गारी दर का हिसाब लगाया जाये तो जो आँकड़ा सामने आयेगा वह मौजूदा आँकड़े से कहीं अधिक भयावह होगा। यह यूँ ही नहीं है कि 40 सालों में पहली बार उपभोक्ता खपत में गिरावट दर्ज की गयी है।

अब आइए देखते हैं कि बेरोज़गारी की ऐसी विकराल समस्या को लेकर केन्द्र और राज्य स्तर पर सरकार क्या कहती है, कौन-सी स्कीम पारित करती है और उसके लिए कितना धन आवण्टित करती है। केन्द्र की मोदी सरकार ने हर साल दो करोड़ नौकरी देने का वायदा किया था। लेकिन रोज़गार बढ़ाने के लिए वास्तव में कोई क़दम नहीं उठाया गया। लाखों पद लम्बे समय से ख़ाली पड़े रहे, उन्हें भरने की कोई कोशिश नहीं की गयी। और न ही सरकार की ऐसी कोई मंशा ही दिखी जबकि अकेले केन्द्र में ही अभी 23 लाख से ज़्यादा पद ख़ाली पड़े हैं। उल्टे उन पदों को ही ख़त्म कर दिया गया जो 5 सालों से रिक्त पड़े थे। पहले ख़ाली पदों पर जानबूझकर भर्ती नहीं की गयी, फिर उन्हें समाप्त कर दिया गया, सरकारी फ़रेब का यह एक बेमिसाल नमूना है। अगर सरकार बेरोज़गारी दूर करने से सचमुच कोई वास्ता रखना चाहती तो वैसी योजनाएँ बनाती, बजट में उसके लिए फ़ण्ड रखती। पर वह केवल जुमलों और भाषणों से ज़रूरतमन्दों को सब्ज़बाग़ दिखाने में माहिर है। फ़रवरी 2020 के केन्द्रीय बजट में भी यह बात साफ़ दिखती है कि ज़ुबानी जमाख़र्च करने या कुछेक स्कीम की सतरंगी छटा दिखाने के अलावा रोज़गार के अवसर पैदा करने की दिशा में ठोस कुछ नहीं किया गया है। और ये सतरंगी योजनाएँ क्या हैं? छोटे और मध्यम उद्योगों के बेहतर काम करने के लिए और अधिक सहूलियत-केन्द्रों की स्थापना, मेक इन इण्डिया के तहत विदेशी निवेश, नये निवेशकों को कर में छूट आदि देने की व्यवस्था! ताकि वे आम नौजवानों और मेहनतकशों के बेटे-बेटियों के लिए रोज़गार पैदा करें। यानी बेरोज़गारी के ऊपर चढ़ते ग्राफ़ के बीच अब 4-4, 5-5 हज़ार पर खटने के लिए नौजवानों की पहले से कहीं अधिक भारी तादाद मालिकों को मिल जायेगी। और इधर सरकार अपनी ज़िम्मेदारी से छुटकारा भी पा लेगी। स्वरोज़गार का शोशा भी इसीलिए उछाला गया है। हींग लगे न फिटकरी और रंग चोखा! युवा आबादी को पक्की नौकरी देने के वास्ते कोई ठोस योजना नहीं, कोई फ़ण्ड नहीं, बस लफ़्फ़ाज़ी की गयी है। यहाँ तक कि रोज़गार देने वाली जो योजनाएँ पहले से ही मौजूद थीं, उन्हें भी बर्बाद करने की कोशिश शुरू हो गयी है। बजट में ग्रामीण रोज़गार योजना के मद में सीधे 9,500 करोड़ की कटौती कर दी गयी। इस योजना के तहत गाँव के ग़रीबों को, थोड़ा-बहुत ही सही, जो रोज़गार मनरेगा के ज़रिये मिल जाता है उसके फ़ण्ड को 71001.81 करोड़ से घटाकर 2020-21 में 61,500 करोड़ कर दिया गया है। इससे पता चलता है सरकार बेरोज़गारी को लेकर वास्तव में कितनी गम्भीर है।

राज्यवार भी देखा जाये तो बेरोज़गारी दर में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। सबसे बुरी स्थिति भाजपा शासित त्रिपुरा, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश की है। इसमें उत्तर प्रदेश भी पीछे नहीं है। बेरोज़गारी ने यहाँ तेज़ी से पाँव पसारा है और युवाओं पर इसकी ज़बर्दस्त मार पड़ रही है। आज हालत यह है कि 23 करोड़ की आबादी वाले इस राज्य के लगभग 1.5 करोड़ लोग रोज़गार ढूँढ़ रहे हैं। राज्य में पढ़े-लिखे युवा शहरी बेरोज़गारों की संख्या ही लगभग 34 लाख तक पहुँच चुकी है। ख़ुद योगी सरकार को यह स्वीकार करना पड़ा कि पिछले दो सालों में 12.5 लाख लोग बेरोज़गार हुए हैं। श्रम मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने हाल में ही विधान सभा में अपने लिखित जवाब के ज़रिये यह जानकारी दी कि श्रम विभाग के ऑनलाइन पोर्टल में दर्ज नामों के अनुसार 33.93 लाख बेरोज़गार हैं। ज़ाहिर है कि इस आँकड़े में वही शामिल हैं जो पढ़े-लिखे हैं और जिनके नाम दर्ज हैं लेकिन बहुतेरे कम पढ़े-लिखे या अशिक्षित लोग जिनके नाम दर्ज नहीं हैं या जो नाम नहीं दर्ज करा सके हैं वे इस आँकड़े में शामिल नहीं हैं। इस मायने में यह आँकड़ा सही तस्वीर पेश नहीं करता। अन्यथा शिक्षित शहरी बेरोज़गार नौजवानों की संख्या ही 50-55 लाख हो जाती। लेकिन अगर सरकारी आँकड़ों की ही बात की जाये तो भी पिछले दो सालों में बेरोज़गारी 58.53 फ़ीसदी बढ़ गयी है। राष्ट्रीय सांख्यिकी दफ़्तर की रिपोर्ट के अनुसार दिसम्बर 18 में ही प्रदेश के शहरी क्षेत्रों में बेरोज़गारी दर 16 फ़ीसदी थी जो पूरे भारत की 9.9 फ़ीसदी शहरी दर के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा थी। जहाँ तक प्रदेश की कुल औसत बेरोज़गारी का सवाल है सी.एम.आइ.ई. की रिपोर्ट के मुताबिक़ यह 2019 में लगभग दुगनी हो गयी। 2018 के 5.91 फ़ीसदी के मुक़ाबले 2019 में यह छलाँग लगाकर 9.95 तक पहुँच गयी थी। यह लगभग 10 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी थी। यानी 100 लोगों में लगभग 10 लोग बेरोज़गार हो गये थे। नौजवान रोज़गार की तलाश में दिन रात एक कर रहे हैं पर योगी सरकार है कि उसे मन्दिरों और गाय-गोबर से फ़ुरसत नहीं। 2020-21 वित्तीय वर्ष में उसने गाय के लिए 450 करोड़ का बजट रखा है। इसी तरह अयोध्या और काशी मन्दिरों के लिए भी करोड़ों का बजट है। अयोध्या में हवाईअड्डा बनाने के लिए ही 500 करोड़ की राशि जारी की गयी है। लेकिन रोज़गार के लिए योगी सरकार की योजनाएँ ढपोरशंखी हैं जो केवल शोर करती हैं। शिक्षुता प्रोत्साहन योजना और युवा उद्यमिता विकास योजना कहने को तो बेरोज़गारी दूर करनेवाली योजनाएँ हैं लेकिन बजट राशि देखकर ही यह अन्दाज़ा लग जायेगा कि प्रदेश सरकार की मंशा क्या है। शिक्षुता प्रोत्साहन का बजट सिर्फ़ 100 करोड़ है यानी गाय के लिए आवण्टित राशि से कहीं कम। शिक्षुता प्रोत्साहन योजना के तहत युवा उद्योगों में जाकर प्रशिक्षण लेंगे और सरकार की ओर से प्रतिमाह प्रशिक्षण भत्ता प्राप्त करेंगे। भत्ते की रक़म होगी महज़ 2500 रुपये। यह कितना बड़ा मज़ाक़ है उनकी ज़िन्दगी और सपनों के साथ! भत्ते का एक बड़ा हिस्सा तो उनके आने-जाने के किराये में ही निकल जायेगा। दूसरे, यह कोई पक्का रोज़गार नहीं है। और तीसरे, प्रशिक्षण देने के नाम पर उद्योगपतियों को मुफ़्त की श्रम शक्ति हासिल हो जायेगी। युवा उद्यमिता विकास स्कीम भी नौकरी की गारण्टी नहीं देता बल्कि ऋण मुहैय्या कराता है ताकि आप ख़ुद अपना धन्धा लगाएँ, चलाएँ। अब आपका धन्धा चले न चले यह आपकी ज़िम्मेदारी है सरकार की नहीं। तो यह रहा वह झुनझुना जो बेरोज़गारी से निपटने के लिए योगी सरकार ने नौजवानों के हाथों में थमाया है। अगर यह मान भी लिया जाये कि इससे कुछ रोज़गार पैदा हो जायेंगे तो वह प्रदेश की कुल शहरी बेरोज़गार आबादी का 3-4 प्रतिशत भी नहीं होगा। सबसे बड़ी बात तो यह है कि नौजवानों को भत्ते की यह मामूली राशि भी मिल पायेगी या नहीं, इसमें सन्देह है, क्योंकि ऐसी ढेरों काग़ज़ी योजनाएँ सरकारों के बस्ते में रखी होती हैं, जिससे जनता को ठगने का काम वह लगातार करती रहती हैं। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भी 4000 रुपये बेरोज़गारी भत्ता देने का वायदा किया था लेकिन अभी तक यह कोरा वायदा ही साबित हुआ है। बेरोज़गारी में वृद्धि वहाँ भी जारी है, एक साल में 7 लाख बेरोज़गार बढ़े हैं और उनकी संख्या बढ़कर अब 28 लाख तक पहुँच गयी है।

बेरोज़गारी में बेहिसाब इज़ाफ़ा पूँजीवाद के संकट के साथ ही साथ मोदी सरकार की तानाशाहाना और जनविरोधी नीतियों की देन है। नोटबन्दी और जीएसटी जैसी नीतियों ने पहले से जर्जर अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी। इनके चलते छोटे पैमाने के कारोबार तबाह हो गये और लाखों की संख्या में लोग बेकार होकर सड़क पर आ गये। पहले से ही बदहाल आम आबादी की कमर टूट गयी। कश्मीर में धारा 370 को ख़त्म करने के सरकार के क़दम ने इस संकट को और बढ़ाया। इसने कश्मीरियों के काम-धन्धे को चौपट कर दिया, उनके रोज़गार छीन लिये और उन्हें बेरोज़गारों की भीड़ में ढकेल दिया। जहाँ महीनों से इण्टरनेट सेवाएँ ठप रही हों और आपात जैसी स्थिति हो वहाँ मेहनत-मज़दूरी करनेवाले आम लोगों की रोज़ी-रोटी पर असर पड़ना लाज़मी है।

सरकार बेरोज़गारी के लिए अक्सर बढ़ती आबादी को ज़िम्मेदार ठहराती है। लेकिन यह पूरी तरह ग़लत है। अभी कुछ ही दिन पहले राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण दफ़्तर की रिपोर्ट आयी थी, जिसके मुताबिक़ 2011-12 से लेकर अब तक की अवधि में आबादी में 1.2 प्रतिशत की कमी आयी है। इस लिहाज़ से रोज़गार की उपलब्धता अधिक होनी चाहिए थी। लेकिन यह हक़ीक़त सामने है कि बेरोज़गारी इसी दौर में बढ़ी है। मोदी सरकार आज 5 मिलियन डॉलर अर्थव्यवस्था की जितनी भी बातें कर ले, लेकिन असलियत यह है कि जीडीपी खिसककर 4.5 पर आ चुकी है, रुपये का गिरना लगातार जारी है और अर्थव्यवस्था मन्द मन्दी के लगातार जारी दौर से होकर गुज़र रही है। साफ़ है, आनेवाले समय में बेरोज़गारी का संकट और गहराने वाला है। ऐसी स्थिति में बेरोज़गारी पैदा करनेवाली जनविरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ बेरोज़गार नौजवानों और मेहनतकशों के बेटे-बेटियों को संगठित होकर एक मज़बूत जनान्दोलन खड़ा करना आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है।

मज़दूर बिगुल, मार्च 2020


 

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