सेठों को मज़दूर की लूट की छूट देने में सारी पार्टियाँ एक हैं!

– सुरेश चौहान

कोरोना संकट ने एक बार फिर यह उजागर कर दिया कि इस पूँजीवादी व्यवस्था का असली चरित्र क्या है। सरकार ने एक ओर जहाँ आनन-फ़ानन में बिना किसी तैयारी के लॉकडाउन करके करोड़ो मज़दूरों को अपने हाल मरने के लिए छोड़ दिया, तो वहीं अब ‘अर्थव्यवस्था बचाने’ के नाम पर मज़दूरों की सुरक्षा और पहले से जर्जर श्रम क़ानूनों में अहम बदलाव कर उन्हें और कमज़ोर रही है।
8 मई को पूँजीपति-संगठनों के 12 प्रतिनिधियों ने सरकार से कहा कि कम से कम अगले 2 से 3 साल के लिए श्रम क़ानूनों को ख़ारिज कर दिया जाये ताकि ‘उद्योग संकट से बाहर आ सके’। केन्द्रीय श्रम मंत्री सन्तोष गंगवार ने उन्हें आश्वासन दिया कि वे पूँजीपतियों से पूरी ‘हमदर्दी रखते हैं’ और उनका ख़याल रखेंगे।
इससे एक दिन पहले ही उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने 7 मई को क़ानून पास कर राज्य के उद्योगों में श्रम क़ानूनों से तीन साल तक के लिए छूट दे दी थी। इसमें काम के घण्टे, ओवर-टाइम मेहनताना, यूनियन आदि से जुड़े प्रावधान शामिल हैं। हालाँकि काम के घण्टे 8 से 12 करने के बदलाव को मई में ही उच्च न्यायालय ने ख़ारिज कर दिया लेकिन अगस्त में कैबिनेट ने सरकार को यह हक़ दे दिया कि वह इस आदेश में कई अहम बदलाव कर सकती है।
कांग्रेस शासित राजस्थान व पंजाब सरकारें भी इसमें पीछे नहीं रही हैं। यहाँ भी सरकार ने काम के घण्टे 8 से 12 बढ़ाने का फ़ैसला लिया है। जब अपने मालिकों के लिए मज़दूर के शोषण को बढ़ाने की बात आती है तब सारी पार्टियाँ एक हो जाती हैं। मध्य प्रदेश सरकार ने भी काम के घण्टों को बढ़ाने के साथ श्रम मंत्रालय द्वारा फै़क्टरियों के निरीक्षण से छूट व मनमाने ढंग से ठेके पर किसी भी रेट पर मज़दूरों को रखने व निकालने की खुली छूट दी है। बता दें कि कुछ राज्यों में कार्य-काल बढ़ने के साथ ओवर-टाइम के रेट से मेहनताने का प्रावधान है तो वहीं कुछ राज्यों ने इससे भी निजात पा ली है।
गुजरात, हिमाचल प्रदेश, असम, कर्नाटक, गोवा, आदि अन्य राज्यों ने भी ऐसे ही बदलाव किये हैं जिन्हें बेशर्मी के साथ “सुधार” का नाम दिया जा रहा है। इन सारे बदलावों को लेकर अभी कुछ अस्पष्टता बनी हुई है और प्रक्रिया अभी जारी ही है। बहुत सी बातें सरकारें जानबूझकर साफ़-साफ़ नहीं बता रही हैं। लेकिन केन्द्र की मोदी सरकार ने साफ़ कर दिया है कि वह पूँजीपतियों के हित में हर मुमकिन बदलाव करेगी।
कुल मिलाकर ये बदलाव हमेशा की तरह संकट का बोझ मेहनत-मज़दूर आबादी पर डालेंगे। हालाँकि सभी को पता है श्रम क़ानून पहले भी काग़ज़ी ज़्यादा और ज़मीनी कम ही थे। मज़दूरों की क़रीब 93 प्रतिशत आबादी अनौपचारिक क्षेत्र में या फिर संगठित उद्योगों में अनौपचारिक तरीक़े से काम करती है जिन पर ये क़ानून वैसे भी लागू नहीं होते हैं। फिर भी, इस व्यवस्था के भीतर अपनी लड़ाई लड़ने के लिए मज़दूरों को जो क़ानूनी आधार मिलता था, उन्हें भी ख़त्म किया जा रहा है ताकि मज़दूर न तो ख़ुद संगठित होकर लड़ सकें और न ही कोई दूसरा उनके हक़ के लिए आवाज़ उठा सके।

मज़दूर बिगुल, अप्रैल-सितम्बर 2020


 

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