कोरोना काल में मनरेगा के बजट में वृद्धि के सरकारी ढोल की पोल
– अनुपम
अब यह दिन के उजाले की तरह साफ़ हो चुका है कि पहले से ही संकट के भँवर में फँसी भारतीय अर्थव्यवस्था की कमर कोरोना महामारी के दौर में पूरी तरह से टूट चुकी है। अब सरकारी आँकड़े भी इसकी गवाही दे रहे हैं। लेकिन भयंकर मन्दी और बेरोज़गारी के इस दौर में भी चाटुकार मीडिया मोदी सरकार का चरण-चुम्बन करने से बाज़ नहीं आ रही है। कोरोना संक्रमण को रोकने के नाम पर आनन-फ़ानन में थोपे गये लॉकडाउन के बाद जब मज़दूरों के पलायन को लेकर दुनियाभर में मोदी सरकार की छीछालेदर होने लगी थी तब भी अधिकांश मीडिया घराने सरकार की वाहवाही में जुटे थे। हमें बताया जा रहा था कि नये रोज़गार पैदा करने के लिए कांग्रेस सरकार की तुलना में मनरेगा का बजट तीन गुना बढ़ा दिया गया है। लेकिन मोदी काल में किये गये दावों के हवाई किलों की तरह इस दावे की इमारत भी आँकड़ों की बाज़ीगरी की नींव पर टिकी है। असलियत तो यह है कि कोरोना काल में गाँवों में हुई मनरेगा के तहत मिलने वाले कामों की बढ़ती माँग की तुलना में सरकारी बजट में बढ़ोत्तरी ऊँट के मुँह में जीरे के समान थी।
ग़ौरतलब है कि 2020-2021 के बजट में मनरेगा के लिए लगभग 60 हज़ार करोड़ रुपये का ही आवण्टन किया गया था और कोरोना महामारी के मद्देनज़र मई में चौथे लॉकडाउन के दौरान केन्द्र सरकार द्वारा मनरेगा के लिए 40 हज़ार करोड़ रुपये अतिरिक्त देने की घोषणा की गयी। इस प्रकार मौजूदा वित्तीय वर्ष में मनरेगा के तहत कुल लगभग एक लाख करोड़ रुपये देने का प्रावधान किया गया है जिसमें से दस हज़ार करोड़ रुपये पिछले वर्ष के बक़ाया भुगतान पर ख़र्च होने हैं। इस प्रकार, इस वित्तीय वर्ष में मनरेगा के तहत क़रीब नब्बे हज़ार करोड़ रुपये ख़र्च होने को हैं। इसी राशि को लेकर मीडिया में मोदी सरकार की तारीफ़ के पुल बाँधे जा रहे हैं।
मोदी सरकार के 6 वर्षों में मनरेगा के तहत आवण्टित राशि में प्रभावी रूप से लगातार कमी आती रही है। इसलिए इस साल आवण्टित राशि देखने में पिछले वर्षों की तुलना में ज़्यादा लगती है। लेकिन इस राशि की तुलना पिछले वर्षों के आवण्टित बजट से करना सरासर बेमानी है क्योंकि इस वर्ष कोरोना महामारी की वजह से अभूतपूर्व हालात पैदा हो गये हैं। 24 मार्च को आनन-फ़ानन में थोपे गये लॉकडाउन की वजह से समूची अर्थव्यवस्था ठप पड़ गयी थी, बेरोज़गारी दर जो मार्च में 8.75 प्रतिशत थी वह अप्रैल में बढ़कर 27 प्रतिशत तक पहुँच चुकी थी और लॉकडाउन के दौरान क़रीब 15 करोड़ लोग बेरोज़गार हो गये थे। ख़ास तौर पर अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाली करोड़ों की आबादी के सामने भुखमरी का संकट पैदा हो गया था। साथ ही छोटे और सीमान्त किसानों की खेती-बाड़ी में भी लॉकडाउन के चलते बर्बादी हुई थी।
लॉकडाउन के शुरुआती एक महीने में मनरेगा के तहत काम भी पूरी तरह से बन्द हो गये थे। इस बीच शहरों से बड़ी संख्या में मज़दूरों का गाँवों की ओर पलायन हुआ और गाँवों में जब अप्रैल के अन्त में मनरेगा के तहत काम शुरू हुआ तो मनरेगा के काम की माँग में ज़बर्दस्त छलाँग देखने में आयी। मौजूदा वित्तीय वर्ष के पहले ढाई महीने में ही क़रीब साढ़े सात करोड़ लोगों ने मनरेगा के तहत काम के लिए आवेदन किया। लेकिन महामारी के दौर में इसे त्रासदी ही कहा जायेगा कि इनमें से दो करोड़ से ज़्यादा लोगों को काम देने से इन्कार कर दिया गया। ग़ौरतलब है कि पिछले वित्तीय वर्ष में क़रीब डेढ़ करोड़ लोगों को काम देने से इन्कार किया गया था। यानी जितने लोगों को पिछले पूरे साल में काम देने से इन्कार किया गया था उससे ज़्यादा लोगों को इस वित्तीय साल के शुरुआती ढाई महीने में इन्कार किया जा चुका था। इससे स्पष्ट है कि केन्द्र सरकार की ओर से आवण्टित 40 हज़ार करोड़ रुपये नाकाफ़ी हैं।
मनरेगा के कामों की बढ़ती माँग को देखते हुए उसके बजट को कम से कम दोगुना किये जाने की ज़रूरत थी। इसके लिए ‘पीएम केयर फ़ण्ड’ और ‘राष्ट्रीय आपदा कोष’ से धनराशि निकालना भी जायज़ होता लेकिन आपदा में अवसर तलाशकर पूँजीपतियों के वारे न्यारे किये गये और आम जनता को “लाख करोड़ रुपये” के आँकड़े से पेट भरने के लिए छोड़ दिया गया।
ग़ौरतलब है कि मनरेगा के लिए आवण्टित बजट का आधा हिस्सा जुलाई के महीने तक ही खप गया। अप्रैल से अब तक मनरेगा में 83 लाख से भी अधिक नये कार्डधारक हो चुके हैं जबकि 2019-20 में पूरे साल में केवल 64 लाख नये मनरेगा कार्ड बने थे। अकेले उत्तर प्रदेश में इस वर्ष पिछले साल के मुक़ाबले दोगुने से अधिक नये मनरेगा कार्ड बने।
ये चन्द आँकड़े दिखाते हैं कि कारोना काल में शहरों में ही नहीं गाँवों में भी आम मेहनतकश आबादी के जीवन के हालात बद से बदतर हो रहे हैं। मनरेगा योजना को लागू करवाने की ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों की होती है। लेकिन राज्य सरकारों की अक्षमता और संवेदनहीनता ने समस्या को और गम्भीर बना दिया है। हालात ये हैं कि कहीं फ़र्ज़ी कार्ड बन रहे हैं तो कहीं कार्ड होने के बावजूद काम ही नहीं मिल रहा। इस नंगी सच्चाई पर पर्दा डालने के मक़सद से सरकार के तलवे चाटने वाली मीडिया में मनरेगा के बजट में इस साल हुई वृद्धि को बढ़ाचढ़ाकर सरकार के नगाड़े बजाये जा रहे हैं। एक टीवी चैनल ने तो मूर्खता और संवेदनहीनता की ज़बर्दस्त मिसाल पेश करते हुए यहाँ तक डींग हाँक दी कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ प्रदेश में मनरेगा के तहत 300 करोड़ रोज़गार देंगे जबकि उत्तर प्रदेश की कुल आबादी ही लगभग 23.7 करोड़ है!
शासकों की डींगों पर फ़िदा होने की बजाय आज ज़रूरत इस बात की है कि मौजूदा अभूतपूर्व परिस्थिति में सरकारों की जवाबदेही तय की जाये। ज़मीनी हालात ये चीख़-चीख़कर बता रहे हैं कि केन्द्र व राज्य सरकारें महामारी के दौर में आम जनता की तकलीफ़ों को कम करने में फिसड्डी साबित हुई हैं।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2020