‘वादा ना तोड़ो अभियान’ के तहत पटना में हुआ ‘रोज़गार अधिकार महाजुटान’

इस बार के बिहार विधान सभा चुनाव में रोज़गार एक मुख्य मुद्दा बनकर उभरा था और हर पार्टी द्वारा रोज़गार के मुद्दे पर बड़े-बड़े चुनावी वादे किये गये थे। उनमें से नीतीश की गठबन्धन सरकार ने 19 लाख रोज़गार का वादा किया था। इसी के मद्देनज़र बिहार में ‘वादा न तोड़ो अभियान’ की शुरुआत की गयी जिसमें कि सरकार से यह माँग की गयी कि वह 19 लाख रोज़गार कैसे देगी इसकी रूप रेखा जनता के सामने प्रस्तुत करे। इसके अलावा इस अभियान में राज्य स्तर पर भगतसिंह रोज़गार गारण्टी क़ानून बनाने की माँग उठायी गयी व और भी अन्य माँगें शामिल की गयीं। यह अभियान बिहार के कई ज़िलों में चलाया गया। मुख्य रूप से पटना में और गया व जेहानाबाद के कुछ गाँवों में यह अभियान चलाया गया। ‘वादा ना तोड़ो अभियान’ के तहत दिहाड़ी मज़दूरों, छात्रों, नौजवानों, घरेलू कामगार महिलाओं के बीच जाकर मुख्य रूप से 19 लाख रोज़गार का वादा पूरा करने और रोज़गार की गारण्टी हेतु क़ानून बनाने की माँग की गयी।
31 जनवरी को पटना के चित्कोहरा गोलम्बर के आगे से लेकर गर्दनीबाग धरना स्थल तक एक जुलूस निकाला गया, जिसमें सैकड़ों की संख्या में लोग शामिल हुए। इसमें ज़्यादातर दिहाड़ी मज़दूर थे और घरेलू कामगार महिलाएँ थीं, इसके अलावा छात्र-युवा भी शामिल थे। यह जुलूस गर्दनीबाग धरना स्थल पर पहुँच कर धरना में तब्दील हो गया। विभिन्न वक्ताओं ने रोज़गार अधिकार क़ानून की ज़रूरत पर विचार रखे। प्रतिनिधिमण्डल के द्वारा सरकार को अपनी माँगों का ज्ञापन देने के साथ ही इन माँगों के समर्थन में जनता से जुटाये गये क़रीब 1000 हस्ताक्षर भी सरकार को सौंपे गये। इस धरने को बिगुल मज़दूर दस्ता की वारुणी पूर्वा ने सम्बोधित करते हुए कहा कि यह सिर्फ़ एक शुरुआत है। रोज़गार गारण्टी क़ानून को पारित कराने की लड़ाई लम्बी चलेगी। लेकिन जब तक यह माँग पूरी नहीं होगी जनता भी चुप नहीं बैठेगी। यदि यह सरकार अभी नहीं झुकती तो हमें और बड़े स्तर पर हर एक गाँव-कस्बों-मोहल्लों में इस माँग को उठाना होगा और इससे बड़े स्तर पर एकजुट होकर संघर्ष करना होगा।
इसके बाद नौजवान भारत सभा की तरफ़ से विवेक ने सभा को सम्बोधित करते हुए बताया कि न सिर्फ़ रोज़गार गारण्टी की माँग बल्कि इस दीर्घकालिक माँग के अलावा जो तात्कालिक माँग है उसपर हमें अपनी एकजुटता से सरकार को झुकाना होगा। इन माँगों में लेबर कार्ड, पी.एफ़., ई.एस.आई., पेंशन, न्यूनतम वेतन आदि की माँग शामिल है। इसे जल्द से जल्द पूरा करने के वादे पर सरकार को झुकाना होगा और साथ ही नितीश सरकार के 19 लाख रोज़गार के वादे का हिसाब भी लेना होगा। नहीं तो हर बार सरकारें बनती हैं और अपने वादे से मुकर जाती हैं क्योंकि जनता द्वारा उन्हें उनके वादे याद नहीं दिलाये जाते। इस बार हमें यह ग़लती नहीं दोहरानी है। यदि इन माँगों पर जल्द ही कार्रवाई नहीं की जाती तो हमें इससे बड़े स्तर पर एकजुट होना पड़ेगा। इसके बाद नितीश सरकार द्वारा छात्रों को किये गये वादे पर दिशा छात्र संगठन की तरफ़ से अजीत ने अपनी बात रखी। अन्त में भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी की तरफ़ से देबाशीष ने भगतसिंह रोज़गार गारण्टी क़ानून की माँग के समर्थन मे अपना वक्तव्य रखा। इस प्रदर्शन के दौरान सांस्कृतिक कार्यक्रम भी प्रस्तुत किया गया। सभा की समाप्ति इस प्रण के साथ की गयी कि अगर मौजूदा राज्य सरकार ज्ञापन मे लिखित माँगों पर कार्रवाई नहीं करती है तो निकट भविष्य मे रोज़गार के प्रश्न पर फिर से इससे भी बड़े पैमाने पर सरकार को घेरा जायेगा।
भगतसिंह रोज़गार गारण्टी क़ानून की माँग असल में छात्र-कर्मचारी-कामगार-मज़दूर सबकी माँग है।
देश का संविधान हरेक नागरिक को सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार देता है। परन्तु, वास्तव में यह अधिकार तभी अमल में आ सकता है, जब लोगों के पास रोज़गार हो व उन्हें सम्मानजनक मेहनताना भी मिले। यह सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह देश के नागरिकों के लिए रोज़गार के अवसर पैदा करे। पर यहाँ हालात ये हैं कि रोज़गार के प्रश्न से राज्य व केन्द्र सरकार दोनों ही अपने हाथ खींच रही हैं। भाजपा के नेतृत्व वाली मौजूदा केन्द्र सरकार, तमाम सरकारी उपक्रमों (रेलवे, बीएसएनएल आदि) को बेच रही है व जो बची-खुची सरकारी नौकरियाँ हैं, उन्हें भी ख़त्म कर रही है या ठेके पर दे रही है। असंगठित क्षेत्र मे काम करने वाले श्रमिकों की एक बड़ी आबादी पर भी अनिश्चितता की तलवार लटकती रहती है। एक तो उनके हितों की रक्षा के लिए पहले से ही कम क़ानून हैं, जो शायद ही धरातल पर कार्यान्वित होते हैं, पर अब तो मालिकों की जमात की सेवा करनी वाली यह सरकार उन क़ानूनों को भी ख़त्म कर रही है।
बिहार की बात की जाये तो यहाँ बेरोज़गारी और भी विकराल रूप धारण कर रही है। पिछले वर्ष आयी CMIE की रिपोर्ट के मुताबिक़ बिहार की बेरोज़गारी दर 10.2 % है । लॉकडाउन के वक़्त अप्रैल-मई में तो यह 46% पहुँच गयी थी। बड़ी संख्या में यहाँ की काम करने योग्य आबादी को रोज़गार की तलाश मे बाहरी राज्यों की तरफ़ पलायन करना पड़ता है। किसी भी क्षेत्र में काम करने वाली आबादी चाहे वो दिहाड़ी मज़दूर हो, कामगार महिलाएँ हों या छात्र-नौजवान आबादी हो, सभी के ऊपर अनिश्चितता की तलवार लटकी रहती है और किसी के भी पास साल के 365 दिन पक्के रोज़गार की गारण्टी नहीं है। इसी अनिश्चितता को ख़त्म करने के लिए रोज़गार गारण्टी क़ानून बनाने की माँग एक ज़रूरी माँग है। यह माँग असल में इस पूँजीवादी व्यवस्था का पर्दाफ़ाश करने का काम भी करती है। इसलिए यह माँग राष्ट्रीय स्तर पर विगत चार साल से बिगुल मज़दूर दस्ता, नौजवान भारत सभा व दिशा छात्र संगठन द्वारा उठायी जा रही है। पूरे देश में भगतसिंह राष्ट्रीय रोज़गार गारण्टी क़ानून अभियान चलाया जा रहा है। इस अभियान के तहत वर्ष 2018 व 2019 मे दिल्ली में रोज़गार अधिकार रैली का आयोजन किया गया था, जिसमें देश भर से हज़ारों की तादाद मे छात्र-युवा, असंगठित मज़दूर, आंगनबाड़ी कर्मी रोज़गार सम्बन्धित अपनी माँगों को लेकर शामिल हुए थे जहाँ केन्द्र सरकार के समक्ष पूरे देश में रोज़गार गारण्टी क़ानून लागू करने की माँग की गयी थी। भगतसिंह रोज़गार गारण्टी क़ानून की माँग को राज्य स्तर पर भी पूरे देश के अलग-अलग राज्यों में उठाया जा रहा है। और इस बार बिहार में चल रहे ‘वादा ना तोड़ो अभियान’ के तहत भी रोज़गार गारण्टी क़ानून बनाने की माँग एक प्रमुख माँग के बतौर रखी गयी।
चूँकि इस बार बिहार विधान सभा चुनाव मे रोज़गार के मुद्दे ने तूल पकड़ा था। ख़ुद नीतीश कुमार भी इस सवाल पर घिरते नज़र आ रहे थे, इसलिए आनन-फ़ानन में भाजपा-जदयू गठबन्धन को भी राज्य की जनता को 19 लाख रोज़गार देने का वादा करना पड़ा। हालाँकि, यह भी घोषित सत्य है कि बिहार में बेरोज़गारी पिछले डेढ़ लगभग दशक में सबसे ज़्यादा जदयू-भाजपा के शासनकाल में ही बढ़ी है। बेरोज़गारी की मार सबसे ज़्यादा छात्रों-युवाओं, दिहाड़ी मज़दूरों व घरेलू कामगारों पर ही पड़ी है। पिछले वर्ष लॉकडाउन ने यह दिखा भी दिया।
दिहाड़ी निर्माण मज़दूरों की एक बड़ी आबादी बिहार में रहती है। ज़्यादातर लोग ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की ओर आते हैं, शहर में दड़बों जैसे किराये के लॉजों में नारकीय हालात में रहते हैं। ये मज़दूर हर सुबह शहर के अलग-अलग हिस्सों में रोज़गार की तलाश में लेबर चौकों पर खड़े होते हैं, लेकिन महीने में औसतन 12 से 15 दिन ही इन्हें काम मिल पाता है, कोरोना संक्रमण के कारण हुए लॉकडाउन के बाद अब तो इन्हें बमुश्किल 7 से 8 दिन ही काम मिल पाता है। साल के सारे दिन रोज़गार की गारण्टी नहीं होने से इन मज़दूरों को कई दिक़्क़तों का सामना करना पड़ता है। इनके लिए न्यूनतम मज़दूरी भी सरकार द्वारा तय की गयी है, परन्तु शायद ही न्यूनतम मज़दूरी की दर पर इनको भुगतान किया जाता है। लॉकडाउन के दौरान ऐसे भी मामले आये जब इनके काम छूट गये व इनके नियोक्ताओं ने इन्हें इनका बकाया पैसा भी नहीं दिया। निर्माण मज़दूरों का लेबर कार्ड बनाने व पंजीकरण का भी प्रावधान है, पर अधिसंख्य मज़दूरों के पास वह भी नहीं है। अगर कोई मज़दूर काम के दौरान घायल हो जाये या कभी बीमार ही पड़ जाये तो उसे अपना इलाज कराना भी दूभर हो जाता है। मज़दूरों को किसी भी तरह की स्वास्थ्य बीमा व पेंशन सुविधा भी प्राप्त नहीं हो पाती है।
कुछ ऐसी ही हालत घरेलू कामगार महिलाओं की भी है। सिर्फ़ राजधानी पटना में हजारों की तादाद में ऐसी महिलाएँ हैं, जो दूसरों के घरों में झाड़ू-पोछा, बर्तन-कपड़े धोने व खाना बनाने का काम करती हैं। अक्सर इन घरेलू कामगार महिलाओं को शोषण व अपमान दोनों का सामना करना पड़ता है। अव्वल बात तो ये कि न तो केंद्रीय स्तर पर और न ही राज्य स्तर पर ऐसा ठोस क़ानूनी ढांचा मौजूद है, जिससे इन घरेलू कामगारों के हितों की रक्षा हो सके। वर्ष 2008 में घरेलू कामगार क़ानून को उस वक़्त की केन्द्र सरकार द्वारा प्रस्तावित किया गया था, परन्तु आज तक यह अधर में ही है। मौजूदा केन्द्र सरकार ने भी वर्ष 2018 में घरेलू कामगारों के लिए एक राष्ट्रीय नीति बनाने के बात कही थी, परन्तु लगभग तीन साल बीतने के बावजूद भी इस दिशा में अभी तक कोई सकारात्मक पहल नहीं ली गयी है। बिहार सरकार के श्रम विभाग ने भले ही घरेलू कामगारों के लिए विभिन्न तरह के कामों के लिए न्यूनतम वेतन तय किया है, परन्तु शायद ही घरेलू कामगारों के नियोक्ताओं द्वारा इसका पालन किया जाता है। लॉकडाउन के दौरान कई घरेलू कामगार महिलाओं को काम से निकाल दिया गया, कइयों को तो उनके बकाया पैसे भी नहीं मिले। ऐसे न जाने कितने उदाहरण हैं जो ये सिद्ध करते हैं कि इन घरेलू कामगारों के लिए 365 दिन रोज़गार की गारण्टी होना कितना ज़रूरी है।
बिहार में छात्रों-युवाओं की बड़ी आबादी है, जो एक अदद नौकरी की बाट जोहते हुए न जाने कितने वर्षों से प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रही है। वैसे तो पूरे देश में सरकारी नौकरियों के लिए होने वाली परीक्षाएँ व उनके परिणाम निकलने व बहाली पूरी होने में वर्षों का समय लगना एक सामान्य बात बन चुकी है। परन्तु बिहार के सन्दर्भ में नियुक्ति प्रक्रियाओं में यह समस्या बहुत गंभीर है। वर्ष 2015 में बीएससी की स्नातक स्तरीय बहाली के लिए प्राथमिक परीक्षा आयोजित हुई थी। आज पाँच वर्ष के बाद भी यह प्रक्रिया पूरी नहीं हुई है। यही हाल सिविल इंजीनियर की परीक्षा के साथ भी हुआ है, वर्ष 2017 में सिविल इंजीनियर की बहाली निकली थी तब से लेकर आज तक लगभग 4 साल बीत चुके हैं, पर अभी तक बहाली प्रक्रिया सम्पन्न नहीं हुई है। वहीं पिछले साल जनवरी में आयोजित एसटीईटी (STET) परीक्षा को धाँधली के कारण रद्द घोषित किया गया, उसके बाद फिर से सितम्बर में यह परीक्षा ली गयी, परन्तु अभी तक इसका परिणाम नहीं निकला है। ऐसे और भी कई उदाहरण हैं। अक्सर इन समस्याओं के ख़िलाफ़ अभ्यर्थियों का ग़ुस्सा भी फूटता है, वे विरोध प्रदर्शन करते हैं, पर सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगती है। छात्र अपने जीवन मे कई वर्ष तैयारी करते हुए बिता देते हैं, परन्तु उन्हें लम्बे इन्तज़ार व उपेक्षा के अलावा कुछ नहीं मिलता। इसलिए, छात्रों के लिए रोज़गार की माँग और सारे सरकारी पदों को जल्द भरने की माँग भी इस ‘वादा ना तोड़ो’ अभियान में शामिल किया गया था।
इन तमाम तबकों के बीच एक आम माँग रोज़गार गारण्टी क़ानून की माँग थी, उसके अलावा हर तबक़े की कुछ विशिष्ट माँगों को भी ज्ञापन में शामिल किया गया।
इस अभियान की कुछ मुख्य माँगें इस प्रकार थीं –
– ‘सबको स्थायी रोज़गार व सभी को समान व निःशुल्क शिक्षा’ के अधिकार को संवैधानिक संशोधन कर मूलभूत अधिकारों में शामिल करो ।
– बिहार में जिन भी पदों पर परीक्षाएँ हो चुकी हैं उनमें पास उम्मीदवारों को तत्काल नियुक्तियाँ दो। सभी खाली पदों को जल्द से जल्द भरो। रिक्तियाँ निकालने से लेकर नियुक्त करने का काम 6 महीने के अन्दर पूरा करो।
– ‘भगतसिंह रोज़गार गारण्टी क़ानून’ पारित करो; गाँव और शहर दोनों के स्तर पर 365 दिनों के पक्के रोज़गार की गारण्टी दो, रोज़गार ना दे पाने की सूरत में 10,000 रूपये प्रतिमाह गुज़ारे योग्य बेरोज़गारी भत्ता दो।
– स्थायी प्रकृति के कामों में ठेका प्रथा को प्रतिबन्धित किया जाये।
– सभी घरेलू कामगार महिलओं को मज़दूर का दर्जा दिया जाये । सरकार द्वारा तय न्यूनतम मज़दूरी के दर से उन्हें भुगतान करवाना सुनिश्चित किया जाये । इनके लिए सामाजिक सुरक्षा के अधिकार जैसे पी.एफ़., इ.एस.आई., लेबर कार्ड आदि दिये जायें।
– दिहाड़ी मज़दूरों के लिए भी न्यूनतम मज़दूरी तय की जाये और उसी मज़दूरी पर भुगतान सुनिश्चित करवाया जाये । इसके अलावा उनके लिए भी पी.एफ़., ई.एस.आई., लेबर कार्ड आदि सुविधाएँ दी जायें।
रोज़गार से सम्बन्धित माँगों के अलावा इस मुहिम में एक मुख्य माँग आवश्यक वस्तु अधिनियम में बदलाव वाले अध्यादेश को वापस करने की भी थी। चूँकि यह अधिनियम जन विरोधी है और एक तरीक़े से खाद्यानों की जमाख़ोरी को क़ानूनी मान्यता देता है, इस आधिनियम से खाद्यान की क़ीमतें बढ़ेंगी, इसलिए इसे निरस्त करना, मेहनतकश जनता की माँग है।
क़रीब डेढ़ महीने तक इन माँगों को लेकर राजधानी के अलग-अलग इलाक़ों में प्रचार अभियान चलाया गया। मुख्य रूप से दिहाड़ी मज़दूरों, कामगार माहिलाओं और छात्रों-नौजवानों की आबादी के बीच यह अभियान चला। लेबर चौकों पर जाकर निर्माण मज़दूरों के बीच प्रचार अभियान चलाया गया व उनके लॉजों में जाकर संध्या मीटिंगें आयोजित की गयीं। प्रचार अभियान के दौरान मिली घरेलू महिला कामगारों के साथ भी मीटिंगें आयोजित की गयीं व इस अभियान से उन्हें परिचित काराया गया। पटना के वे इलाके जैसे बाज़ार समिति, भिखना पहाड़ी जहाँ प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्रों की बड़ी आबादी रहती है, वहाँ जाकर नुक्कड़ सभाएँ की गयीं व पर्चा वितरण किया गया। इसके अलावा बिहार के नालंदा, गया, जहानाबाद के कुछ गाँवों में यह अभियान चलाया गया।
बिहार पुलिस प्रशासन ने तानाशाही फ़रमान जारी करते हुए हाल ही में कहा है कि विरोध प्रदर्शन में शामिल होने वाले लोगों पर अगर चार्जशीट दायर होती है, तो उन्हें सरकारी नौकरियों के लिए अयोग्य करार दे दिया जायेगा। यह तानाशाहपूर्ण फ़रमान यह स्पष्ट करता है कि यह सरकार जनता में फैलते असंतोष से कितनी कितनी ज़्यादा डरी हुई है व जनता को अपने हक़ – अधिकार के लिए एकजुट होने से रोकने के लिए तमाम तिकड़में भिड़ा रही है परन्तु यह फ़रमान भी बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ बिहार की जनता की लामबंदी को नहीं रोक सकता है। नितीश सरकार ऐसे फ़रमानों से जनता की एकजुटता और उसकी ताक़त को तोड़ नहीं सकती!

मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2021


 

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