फ़ाँसी के तख़्ते से

जुलियस फ़्यूचिक

आज पहली मई, सन 1943 है। इस विराम में मुझे लिखने का अवसर मिल गया है। फिर एक बार क्षण भर के लिए कम्युनिस्ट सम्पादक बनकर नयी दुनिया की रण-शक्ति की, मई दिवस की परेड की कहानी लिख सकना – कितने भाग्य की बात है!

लहराते हुए झण्डों की बात सुनने की आशा मत कीजिये, वैसी कोई चीज़ नहीं है। न मैं आपको किसी रोमांचकारी संघर्ष का हाल सुना सकता हूँ, जो लोगों को बहुत अच्छा लगता है। आज उससे बहुत ही साधारण चीज़ें थीं। दूसरे वर्षों में प्राग की सड़कों पर पहली मई को जुलूस में मार्च करने वालों की गरजती हुई लहरें उमड़ा करती थीं; आज वे नहीं हैं। न आज लाखों इंसानों का वह अपूर्व लहराता हुआ सागर ही है जो मैंने मास्को के लाल चौक में उमड़ता देखा है। यहाँ न लाखों हैं, न सैकड़ों; सिर्फ मुट्ठी-भर साथी हैं। पर तो भी ऐसा लगता है कि यह कम महत्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि यहाँ पर उस नयी शक्ति का दर्शन हो रहा है जो जलती हुई, दहकती हुई भट्ठी में से गुजर रही है, पर जो राख होकर नहीं, बल्कि फौलाद होकर निकलती है। यह जंग के मैदान की खन्दकों के अन्दर होने वाला प्रदर्शन है, ऐसी खन्दकें जहाँ हम भूरी वर्दियाँ पहनते हैं।

जुलियस फ़्यूचिक

जुलियस फ़्यूचिक

यह परीक्षा ऐसी छोटी-छोटी चीज़ों में होती है कि आप लोग, जो जंग की भट्ठी में से नहीं गुजरे हैं, सिर्फ पढ़कर ही शायद उसे न समझ सकें। या शायद आप समझ जायें। मेरा विश्वास कीजिये, शक्ति का यहीं जन्म होता है।

सबेरे ही अभिवादन के रूप में हमारे बगलवाली कोठरी के साथी ने बीथोवेन के संगीत की दो पंक्तियों की लय दीवार पर थपथपायी। आज उसमें अधिक ज़ोर, अधिक उत्साह है। आज दीवार ऊँचे स्वर से बोलती है।

हम अपने अच्छे से अच्छे कपड़े पहन लेते हैं। दूसरी सब कोठरियों में भी यही होता है।

हमारा शानदार कलेवा होता है। कोठरियों के खुले दरवाज़े के सामने नम्बरदार काली कॉफी, रोटी और पानी लिये हुए परेड कर रहे हैं। कॉमरेड स्कोरेपा अपने मई दिवस के अभिवादन के रूप में दो के बजाय तीन मीठी टिकिया दे जाता है। यह एक सावधान व्यक्ति का अभिवादन है जो बहुत साधारण कामों के द्वारा अपनी भावनाओं को प्रकट करना जानता है। टिकियों के नीचे एक दूसरे की उँगलियाँ परस्पर छू जाती हैं और हलका-सा दबाव हम दोनों अनुभव करते हैं। बोलने का साहस नहीं होता – वे हमारी आँखों में प्रकट होने वाले भाव तक को देखते रहते हैं। पर गूंगे अपनी उँगलियों से ही बहुत अच्छी तरह बातें कर सकते हैं।

हमारी खिड़की के नीचे क़ैदी स्त्रियाँ अपनी कसरत के लिए दौड़कर आ रही हैं। मैं मेज़ पर खड़ा होकर सींखचों में से नीचे देखने लगता हूँ। शायद वे लोग ऊपर देखें। वे मुझे देख लेती हैं और अभिवादन के लिए बँधी हुई मुट्ठियाँ तान लेती हैं। एक बार और। नीचे आँगन में बड़ी हलचल है –  दूसरे दिनों की अपेक्षा तो आज वहाँ सचमुच ज़्यादा खुशी मालूम होती है। सन्तरी देख नहीं रहा, या शायद देखना चाहता नहीं। यह भी मई दिवस की परेड का ही एक अंग है।

फिर हमारा कसरत का वक्त आता है, आज मुझे ही कसरत करानी है। साथियों, आज पहली मई है, आज किसी नयी चीज़ से शुरुआत करनी चाहिए, सन्तरी चाहे देख रहा हो या नहीं। पहली कसरत है लुहार के भारी हथौड़े का घुमाना – एक, दो, एक, दो। दूसरी है अनाज काटना। हथौड़ा और हँसिया – लोग समझने लगते हैं। सब लोगों के चेहरे पर एक मुस्कराहट दौड़ जाती है और वे और भी जोश में कसरत करने लगते हैं। साथियो, यह हमारा मई दिवस का प्रदर्शन है; यह मूक अभिनय हमारी मई दिवस की प्रतिज्ञा है कि हम दृढ़ रहेंगे – हम, जो मृत्यु की ओर बढ़ रहे हैं।

सब कोठरियों में लौट आये हैं। नौ बजे। क्रेमलिन के घण्टाघर में दस घण्टे बजे हैं और लाल चौक में परेड शुरू हो जाती है। आओ पापा, आओ, वे लोग इण्टरनेशनल गा रहे हैं। इण्टरनेशनल सारी दुनिया में गूँज रहा है; हमारी कोठरी में भी उसे गूँजना चाहिए। हम भी इण्टरनेशनल गाने लगते हैं और फिर एक के बाद एक क्रान्तिकारी गीतों का ताँता लग जाता है। हम लोग अकेलापन नहीं अनुभव करना चाहते – अकेले हम हैं भी नहीं। हम उन लोगों में से हैं जो बाहर दुनिया में स्वाधीनतापूर्वक गाने की हिम्मत रखते हैं। वे लड़ाई में जुटे हुए हैं, ठीक वैसे ही जैसे हम लोग—-

उन घृणित दीवारों के पीछे

जेल में बन्द साथियो,

                                तुम हमारे ही साथ हो

                                तुम हमारे ही साथ हो,

चाहे आज तुम हमारे साथ

कदम मिलाकर न चल सकते हो।

हाँ, हम लोग तुम्हारे ही साथ हैं।

कोठरी नम्बर 267 में हम लोग सोच रहे थे कि हमारे 1943 के मई दिवस समारोह के लिए यही अन्त बहुत उपयुक्त है। पर समारोह यहीं खत्म नहीं हुआ। स्त्रियों के बरामदे की नम्बरदारिन बाहर आँगन में “लाल सेना का मार्च” नामक गीत की धुन पर सीटी बजाती हुई टहल रही है। फिर वह छापेमारों का गीत तथा दूसरे सोवियत गीत सीटी पर बजाती है। इस तरह वह पुरुषों की कोठरियों के रहने वालों का साहस बढ़ा रही है। और चेक पुलिस की वर्दी पहने हुए जो व्यक्ति मेरे लिए काग़ज़ और पेंसिल लाया था, वह मेरे दरवाज़े के बाहर खड़ा पहरा दे रहा है ताकि लिखते वक्त कोई अचानक ही न आ जाय। और वह दूसरा चेक सन्तरी भी है जिसने मुझसे यह लिखना शुरू कराया था और जो लिखे काग़ज़ों को ले जाया करता है। ये काग़ज़ तब तक छिपे रहेंगे जब तक उन्हें छापने का ठीक मौका न आ जाये। इस काग़ज़ के टुकड़े की क़ीमत उसे अपने सिर से चुकानी पड़ सकती है। पर वह सींखचों के पीछे के आज तथा स्वाधीन कल के बीच काग़ज़ का पुल बनाने के लिए अपनी जान जोखिम में डालने को तैयार है। ये सब एक ही लड़ाई लड़ रहे हैं; चाहे जहाँ हों, हाथ में चाहे जो अस्त्र हों, पर वे सब हिम्मत के साथ लड़े जा रहे हैं। वे इतनी सहजता के साथ लड़ रहे हैं, उनमें दिखावे का और शोक का इतना अधिक अभाव है कि आपको ऐसा कभी नहीं लगेगा कि यह युद्ध मृत्यु से पहले नहीं ख़त्‍म हो सकता और इसमें उनके प्राण एक कच्चे डोरे से लटके हुए हैं।

मई दिवस पर क्रान्ति के सिपाहियों को परेड करते हुए आपने दसियों-बीसियों बार देखा होगा, वह कितनी शानदार होती थी। पर इस सेना की असली ताक़त को आप केवल युद्ध में ही देख सकते हैं, और तभी आप यह अनुभव करेंगे कि यह सेना अजेय है। तभी आपको ज्ञान होगा कि आप जितना सोचते थे, मृत्यु उससे कहीं अधिक सहज है, और वीर पुरुष के सिर के चारों ओर किसी दैवी आभा का घेरा नहीं हुआ करता। पर युद्ध उससे कहीं ज़्यादा निर्मम है जितना आप समझते थे, और उसमें अन्त तक टिके रहने और विजय प्राप्त करने के लिए अपार शक्ति की ज़रूरत होती है। आप इस सेना को आगे बढ़ते तो देखते हैं, पर हमेशा यह नहीं समझ पाते कि उसकी ताक़त कितनी है। उसके प्रहार इतने सहज और तर्क-संगत होते हैं।

पर आज यह बात आपकी समझ में आ जाती है।

1943 के मई दिवस की परेड के अवसर पर।

पहली मई, 1943 ने मेरी इस कहानी के प्रवाह को क्षण भर के लिए रोक दिया। पर यह उचित ही है। त्योहार के दिनों में आदमी और तरह से सोचता है, और आज मैं जिस हर्ष का अनुभव कर रहा हूँ, वह उसके बारे में मेरी स्मृति को तोड़-मोड़ सकता है।

पर पेचेक बिल्डिंग का “सिनेमा” कतई आनन्ददायक चीज़ न थी। वह तो यंत्रणा गृह का द्वार है जहाँ से आप दूसरों की चीख़ें और आहें सुनते हैं और सोचते रहते हैं कि आप पर क्या बीतने वाली है। वहाँ आप मज़बूत और स्वस्थ लोगों को अन्दर आते देखते हैं, और दो या तीन घण्टे बाद वे “पेशी” से पंगु होकर और टूटकर लौट आते हैं। प्रवेश करते समय एक सबल कण्ठ आपको “नमस्कार” कहता है – और लौटता है कष्ट से घुटा हुआ दम लेकर, टूटा हुआ, बुखार से जलता हुआ। कभी-कभी तो इससे भी बुरा दृश्य दिखाई पड़ता है। आप एक व्यक्ति को सीधी और चमकदार आँखें लेकर अन्दर जाते देखते हैं; पर जब वह लौटता है तो आपकी ओर नज़र उठाकर देखने का साहस उसे नहीं होता। वहाँ उस परीक्षा-गृह में दुर्बलता के एक क्षण ने उसे दबोच लिया – अनिश्चय और भय तथा अपने-आपको बचाने की प्रबल इच्छा के बस केवल एक क्षण ने। इसका अर्थ है कि कल वे नये बलि-पशुओं को पकड़ लायेंगे, जिन्हें नये सिरे से इन सारी यंत्रणाओं से गुजरना होगा, वे उन लोगों को पकड़ लायेंगे जिनका भेद इस साथी ने दुश्मन के आगे खोल दिया है।

जो आदमी यहाँ हिम्मत हार बैठता है और अपनी आत्मा को खो देता है, उसकी सूरत उस आदमी की अपेक्षा कहीं अधिक बुरी होती है जिसका शरीर यहाँ पंगु बना दिया गया है। यदि आपकी आँखों को यहाँ विचरने वाली मृत्यु पोंछ चुकी है, यदि आपकी इन्द्रियों में पुनर्जन्म फिर प्राणों का संचार कर चुका है, तो शब्दों के बिना भी आपको यह पहचानने में देर नहीं लगती कि कौन डगमगा चुका है, किसने दूसरे के साथ विश्वासघात किया है; और आप झट से उसे पहचान लेते हैं जिसने क्षण भर के लिए भी इस विचार को मन में आश्रय दिया है कि घुटने टेक देना और अपने सबसे कम महत्वपूर्ण सहकर्मियों का पता बता देना बेहतर है। जो लोग दुर्बल पड़ जाते हैं, उनकी हालत दयनीय है। अपनी वह ज़िन्दगी वे किस तरह बितायेंगे जिसे बचाने के लिए उन्होंने अपने एक साथी की ज़िन्दगी बेच डाली है।

जब मैं पहली बार “सिनेमा” में जाकर बैठा, तब यह विचार चाहे मेरे मन में न आया हो, पर बाद में यह बहुत बार आता रहा। और उस दिन सबेरे तो यह विचार एक दूसरी ही परिस्थिति में मेरे मन में उदय हुआ जब मैं उस कमरे में बैठा था जो समझ का अथाह भण्डार है; नम्बर 400 में।

“सिनेमा” में मैं ज़्यादा देर नहीं बैठा होऊँगा – शायद एक घण्टा, या शायद डेढ़ घण्टा – जब पीछे से किसी ने मेरा नाम पुकारा। दो चेक भाषा बोलने वालों ने, जो फ़ौजी नहीं मालूम पड़ते थे, मुझे अपने साथ लिया, बिजली के लिफ़्ट पर चढ़ाया और चौथी मंज़िल पर ले जाकर उतार लिया। फिर वे मुझे एक कमरे में ले गये जिसके दरवाजे़ पर नम्बर 400 लिखा था।

पहले तो बस मैं अकेला ही दीवार के पास की एक अकेली कुरसी पर बैठा रहा। मैं उस व्यक्ति जैसी अजीब भावनाओं से चारों तरफ देख रहा था जो यह सोचता हो कि जो क्षण इस समय बीत रहा है, उसे वह पहले भी कभी अनुभव कर चुका है। क्या मैं यहाँ पहले आया हूँ? नहीं तो, कभी नहीं। पर यह सब कुछ तो जाना हुआ सा मालूम पड़ता है। मैं इस कमरे को जानता हूँ, इसके बारे में एक निष्ठुर बुखार जैसी हालत का सपना देख चुका हूँ। सपने ने इस कमरे के रूप को विकृत करके बहुत ही घृणित बना दिया था – पर ऐसा नहीं कि पहचाना ही न जा सके। इस समय तो यह कमरा आकर्षक लग रहा है, धूप से और साफ रंगों से भरा हुआ। बड़ी-बड़ी खिड़कियों और उनके हलके परदों में से ताइन का गिरजाघर, लेतना का हरा-भरा बागीचा, और महल साफ दीख रहे हैं। मेरे सपने में इस कमरे में खिड़कियाँ नहीं थीं, उसमें अँधेरा था और उसका रंग मटमैला पीला जैसा था जिसके कारण लोग छायाओं जैसे लग उठते थे। हाँ, यहाँ लोग भी थे। अब तो यह खाली है और एक के पीछे एक पास-पास रखी हुई छह बेंचें ऐसी लगती हैं मानो चमकीले पीले रंग के फूलों वाले पौधों की सुन्दर क्यारी हो। सपने में यह कमरा लोगों से भरा हुआ था, जो बेंचों पर पास-पास बैठे हुए थे, जिनके चेहरे निस्तेज थे और उन पर खून उतर आया था। वहाँ दरवाज़े के बिल्कुल पास काम करने के नीले कपड़े पहले एक आदमी खड़ा था जिसकी आँखें संत्रस्त थीं, जो कुछ पीने के लिए, पीते जाने के लिए बेचैन था। फिर वह नाटक के गिरते हुए परदे की भाँति फर्श पर गिर पड़ा था—

हाँ, ठीक ऐसा ही था, पर अब मैं समझ रहा हूँ कि वह सपना नहीं था। वह बेहोशी का सपना सचमुच एक घटना थी।

वह मेरी गिरफ़्तारी की रात की और मेरी पहली पेशी की बात है। वे सुस्ताने के लिए या किसी और से निपटने के लिए मुझे यहाँ तीन बार लाये थे – या शायद दस बार, मैं क्या जानता हूँ। मैं नंगे पैर था और मुझे याद है कि फर्श के टाइल मेरे सूजे हुए पैरों को कितने सुखद और शीतल लगते थे।

उस रात ये बेंचें जुंकर्स कारखाने के मज़दूरों से भरी हुई थीं। उन सबको गेस्टापो ने उसी दिन पकड़ा था। दरवाज़े के पास नीले कपड़ों वाला आदमी जुंकर्स की पार्टी-सेल का कॉमरेड बार्टन था, जो अप्रत्यक्ष रूप से मेरी गिरफ़्तारी का कारण भी था। पर मेरे हश्र के लिए कहीं किसी और को ज़िम्मेदार न ठहरा दिया जाय, इसलिये मैं यह ज़रूर कहना चाहता हूँ कि मैं किसी की कायरता या विश्वासघात के कारण नहीं पकड़ा गया, बल्कि सिर्फ लापरवाही और दुर्भाग्य के कारण गिरफ़्तार हुआ। कॉमरेड बार्टन प्रतिरोध आन्दोलन के बड़े नेताओं से अपनी सेल का सम्पर्क स्थापित करने का प्रयत्न कर रहे थे। उनके मित्र कॉमरेड ज़ेलीनेक ने गुप्त कार्य के नियमों को तोड़कर उनके लिए सीधे ऊपर से सम्पर्क स्थापित करने का वादा कर दिया। मुझसे इस बारे में उन्होंने कुछ नहीं कहा। यह पहली भूल हुई। दूसरी भूल यह हुई कि कॉमरेड बार्टन का सम्पर्क द्वोराक नाम के एक आदमी से थे जो खुफिया निकला। उसे ज़ेलीनेक का नाम मालूम हो गया। इस तरह ज़ेलीनेक परिवार गेस्टापो के चंगुल में पड़ गया, किसी बड़ी ज़िम्मेदारी को पूरा न करने के कारण नहीं – उसे तो वे लोग दो बरस से बहुत वफ़ादारी के साथ पूरा कर रहे थे – बल्कि उस छोटी सी सहायता के कारण, जो गुप्त काम के नियमों के प्रतिकूल थी। और यह संयोग की ही बात थी कि पेचेक बिल्डिंगवालों ने उसी शाम को ज़ेलीनेक दम्पत्ति को गिरफ़्तार करने का इरादा किया जिस दिन मैं उनसे मिलने गया। और उस दिन इतनी बड़ी संख्या में भी वे वहाँ अकस्मात ही आ गये थे। योजना उस तरह की नहीं थी। ज़ेलीनेक दम्पति को अगले दिन गिरफ़्तार करने की बात थी। पर जुंकर्स सेल के सदस्यों को गिरफ़्तार कर लेने की सफलता के बाद गेस्टापो का दस्ता ज़ेलीनेक के यहाँ इतने उत्साह के साथ सिर्फ मजे के लिए जा पहुँचा था। उनके आ पहुँचने का हमें जितना आश्चर्य हुआ था, उससे कम मुझे वहाँ पाकर उन्हें भी नहीं हुआ था। पहले तो वे यह भी नहीं पहचान पाये कि कौन उनके हाथ लग गया है। और शायद उन्हें कभी पता न चलता अगर उसी के साथ-साथ उन्हें—।

पर विचारों का यह क्रम बीच में ही टूट गया और नम्बर 400 में फिर से उसे जारी करने का मौका बहुत समय बाद मिला। इस समय तक मैं अकेला न रह गया था, बेंचें भर गयी थीं और आश्चर्य से चकित कर देने वाले वे घण्टे जैसे-जैसे तेजी से बीतते गये, वैसे-वैसे लोगों की एक पंक्ति चारों तरफ दीवार के सहारे खड़ी होती गयी। कुछ तो ऐसी अजीब आश्चर्यजनक बातें हुईं कि मैं उन्हें समझ ही न सका। कुछ ऐसी नीचतापूर्ण बातें थीं जिन्हें मैं बहुत अच्छी तरह समझ गया।

पहले आश्चर्य की बात न तो अजीब थी, न दृष्टतापूर्ण। वह बहुत छोटी और महत्वहीन बात थी, पर तो भी मैं उसे कभी भूल नहीं सकता। गेस्टापो का जो एजेंट मेरी निगरानी कर रहा था – मुझे याद है कि यह वही आदमी था जिसने गिरफ़्तारी के बाद मेरी सारी जेबें उलट-पलट कर देखीं थीं – उसने एक जलती हुई सिगरेट का आधा टुकड़ा मेरी ओर फेंक दिया। वह तीन सप्ताह के भीतर मुझे मिलने वाली पहली सिगरेट थी, पृथ्वी पर फिर से लौट आने वाले व्यक्ति के लिए वह पहली सिगरेट थी। मैं उठा लूँ? या वह सोचेगा कि उसने मुझे एक सिगरेट से खरीद लिया? पर सिगरेट के साथ आने वाली उसकी नज़र एकदम बेबाक थी। वह साफ बताती थी कि उसे किसी को खरीदने में दिलचस्पी नहीं है। तो भी मैं उस सिगरेट का अन्त तक न उठा सका। हाल के पैदा हुए बच्चे सिगरेट पीने वाले नहीं हुआ करते।

दूसरा आश्चर्य – चार व्यक्ति नात्सियों की तरह पैर पटकते और खट-खट करते हुए कमरे में प्रवेश करते हैं और वहाँ मौजूद लोगों को और मुझे भी चेक भाषा में नमस्कार करते हैं। वे आकर मेज के पीछे बैठ जाते हैं, अपने काग़ज़ निकाल कर सामने रखते हैं, और फिर बहुत ही आराम के साथ सिगरेटें जलाते हैं मानो वे अफ़सर हों। पर मैं इन्हें जानता हूँ, मैं उनमें से कम से कम तीन को तो जानता ही हूँ। तो क्या यह मुमकिन है कि वे गेस्टापो की नौकरी में हैं? होंगे ही – पर क्या ये तीनों भी? अरे, यह तो तेरिंग्ल है या कहिये रेनेक, जिस नाम से हम लोग उसे पुकारते थे। वह तो यूनियन का और पार्टी का बहुत अर्से तक सेक्रेटरी रहा है। स्वभाव से वह कुछ अनियंत्रित ज़रूर था, पर था तो वफ़ादार। यह तो असम्भव है! और वह है आँका बाइकोवा, अब भी कितनी सीधी और कितनी सुन्दर, हालाँकि उसके बाल पूरी तरह सफ़ेद हो चुके हैं। वह बड़ी पक्की और मज़बूत लड़ने वाली औरत थी! नहीं, यह असम्भव है। और वह रहा वाशेक रेजेक, उत्तरी बोहेमिया की खानों का राज और पार्टी की जिला कमिटी का सचिक – निश्चय ही वही है; मैं उसे जानता हूँ। उत्तरी इलाके के उन तमाम संघर्षों को पार कर चुकने के बाद भी, जिनका हमने मिलकर सामना किया था, कोई चीज़ कैसे उसकी कमर तोड़ सकती है? नहीं, यह असम्भव है। लेकिन फिर वे यहाँ क्या कर रहे हैं? वे क्या चाहते हैं?

मुझे इन प्रश्नों का उत्तर अभी मिला भी न था कि दूसरे लोग आ पहुँचे। मिरका, ज़ेलीनेक और फ्रीड दम्पतियों को वे वहाँ ले आये। हाँ, मैं जानता हूँ, ये लोग तो मेरे साथ ही गिरफ़्तार हुए थे। लेकिन, वह पावेल क्रोपाचेक! वह कला का इतिहासकार यहाँ क्यों है, जो बुद्धिजीवियों के बीच काम करने में माइरेक की मदद करता था? माइरेक और मेरे सिवा उसके बारे में और कौन जानता था? और वह कुचले हुए चेहरे वाला लम्बा नौजवान क्यों यह बहाना बनाने की कोशिश कर रहा है कि हम एक-दूसरे को नहीं जानते। मैं सचमुच उसे नहीं जानता। पर वह कौन हो सकता है? अरे, यह तो श्ताइच है। श्ताइच? डाक्टर ज़्देनेक श्ताइच? बाप रे, इसका तो मतलब है कि उन्हें डाक्टरों की टुकड़ी का भी पता चल गया। पर उनके बारे में माइरेक और मेरे सिवा और कौन जानता था? और कोठरी में मुझे पीटते वक्त उस दिन वे बुद्धिजीवियों के दल के बारे में क्यों पूछ रहे थे? बुद्धिजीवियों के बीच मेरे काम करने का उन्हें पता कैसे चल गया। उस बारे में माइरेक और मेरे सिवा और किसी को क्या मालूम था?

इन सवालों का जवाब पाना कठिन नहीं था, लेकिन यह बड़ा भारी सदमा था – ज़रूर माइरेक ने ही बताया होगा; उसी ने हम लोगों का भेद खोल दिया है। क्षण भर के लिए मैंने आशा बाँधी कि उसने सब कुछ नहीं बताया है। पर वे फौरन ही क़ैदियों का एक और झुण्ड ले आये। तब मैंने देखा कि उसने क्या कर डाला है।

चेक बुद्धिजीवियों की राष्ट्रीय क्रान्तिकारी कमिटी में जिन-जिन लोगों को गिना जाता था, वे सब यहाँ मौजूद थे: लेखक व्लादिमीर वांचुरा; प्रोफेसर फेल्बर और उनका पुत्र; बेदरिच वाक्लावेक, ऐसे बदले भेष में कि पहचाने ही न जा सके; बोजेना पुल्पानोवा; जिन्द्रिच एल्ब्ल; मूर्तिकार द्वोराक। बुद्धिजीवियों के बीच काम के बारे में माइरेक ने ज़रूर सब कुछ बता दिया होगा।

पेचेक बिल्डिंग का पहला अनुभव मेरे लिए कुछ आसान न था। लेकिन यह सदमा सबसे भारी था। मैं मृत्यु की आशा करता था, विश्वासघात की नहीं। मैंने माइरेक के बारे में अधिक से अधिक रियायत से सोचने की कोशिश की, उसके कुकर्म के अच्छे से अच्छे कारण सोचने का प्रयत्न किया और आशा की कि कम से कम अमुक बातें तो माइरेक ने नहीं ही बतायी होंगी, लेकिन इसके सिवा मुझे और कोई शब्द नहीं मिला कि उसने विश्वासघात किया हैं यह डगमगाने लगना या दुर्बलता दिखाना नहीं था, न यह जानलेवा पाशविक अत्याचार के कारण अपनी सुध-बुध खो बैठना था जिसे माफ किया जा सके। अब मेरी समझ में आया कि किस तरह उन्हें पहली ही रात को मेरा नाम मालूम हो गया था। अब मैं समझा कि एनी जिरास्कोवा यहाँ कैसे पहुँची। एक-दो बार मैं उसके घर पर माइरेक से मिला था। अब मेरी समझ में आया कि क्रोपाचेक और डाक्टर श्ताइच यहाँ क्यों मौजूद हैं।

उसके बाद मुझे क़रीब-क़रीब रोज़ नम्बर 400 में ले जाया जाता था और रोज़ मुझे नयी बातें मालूम होती थीं। सारी चीज़ बड़ी दर्दनाक और भयानक थी। वह बड़े जीवट का आदमी था। स्पेन के मोर्चे पर लड़ने में वह गोलियों से नहीं डरा था। फ्रांस के यातना शिविर की भयानक ज़िन्दगी के समय भी उसने सिर नहीं झुकाया था। पर अब गेस्टापो के एक आदमी के हाथों में पड़ते ही उसकी नब्ज़ ढीली पड़ गयी थी, और अपनी चमड़ी बचाने के लिए उसने हम सबों के साथ दग़ा की थी। उसका विश्वास और उसका साहस कितना उथला रहा होगा कि थोड़े से मुक्कों से बचने के लिए ही वह टूट गया। जब तक वह दूसरे साथियों के बीच में रहा, अपने जैसे विचारों वाले दूसरे लोगों से घिरा हुआ था, तब तक वह दृढ़ रहा। जब तक वह उनके बारे में सोचता रहा, तब तक वह मज़बूत रहा। पर जैसे ही वह अकेला पड़ा और शत्रु ने अकेले में उसे कुरेदना शुरू किया, वैसे ही वह अपनी सारी शक्ति खो बैठा, क्योंकि वह अपने बारे में सोचने लगा। अपनी जान बचाने के लिए उसने अपने साथियों को दुश्मन के हवाले कर दिया, कायरता के आगे घुटने टेक दिये और कायरता के वशीभूत होकर विश्वासघात किया।

वह भूल गया कि अपने कमरे में पाये गये काग़ज़ों का मतलब बताने के बजाय उसका मर जाना बेहतर होता। उसने एक-एक बात उन्हें बता दी। उसने उन्हें नाम दे दिये और वे पते बता दिये जहाँ लोग छिपकर रहते थे। गेस्टापो के एक एजेंट को वह श्ताइच से मुलाकात कराने ले गया। उसने वाक्लावेक और क्रोपाचेक से मिलने के लिए पुलिसवालों को द्वोराक के घर भेजा। उसने एनी को पकड़ाया। लिदा नामक एक वीर लड़की के साथ, जो उससे प्यार करती थी, उसने दग़ा की। जो कुछ वह जानता था, उसका आधा तो उसने थोड़े से घूँसे पड़ते ही उगल दिया। और जब उसे लगा कि मैं मर चुका हूँ और अब कोई ऐसा आदमी नहीं है जिसके आगे उसे जवाबदेह होना पड़ेगा, तो बाकी बातें भी उसने कबूल दीं।

उनकी इन बातों ने मुझे नुकसान नहीं पहुँचाया। मैं तो गेस्टापो के हाथों में पड़ ही चुका था और अब मुझे क्या चीज़ नुकसान पहुँचा सकती थी? पर उसकी बातों ने और बहुत-सी जाँच-पड़ताल के लिए बुनियाद तैयार कर दी थी। उनसे प्रमाणों का एक ऐसा सिलसिला शुरू होता था जो मुझ तक आ पहुँचता था। उसने उन्हें वे बातें बतायी जिन्हें सुनकर उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। क्या मैंने, और प्रायः हर टुकड़ी के अधिकांश लोगों ने इसी के लिए मार्शल-लॉ के वे दिन काटे थे? उसके और मेरे चले जाने के बाद मेरी टुकड़ी तो चलती नहीं रह सकती थी। लेकिन अगर उसने अपना मुँह बन्द रखा होता, तो उसकी दूसरी टुकड़ी चलती रहती और उसके और मेरे मर जाने के बहुत दिनों बाद तक भी काम करती रहती।

एक कायर अपनी ज़िन्दगी से कहीं ज़्यादा दूसरी चीज़ों को नुकसान पहुँचाता है। और इस आदमी ने तो एक शानदार सेना को त्यागकर एक घृणिततम शत्रु के आगे आत्म-समर्पण किया था। कहने को वह आज भी जीवित है, लेकिन वास्तव में वह मर चुका है, क्योंकि उसने अपनी टुकड़ी से अपने आपको अलग कर लिया है। बाद में उसने प्रायश्चित करने की कोशिश की, पर उसे फिर कभी वापस नहीं लिया गया। इस प्रकार का बहिष्कार दूसरी जगहों की अपेक्षा जेल में सहन करना कहीं अधिक कठिन है।

 

मज़दूर बिगुलअगस्‍त  2013

 


 

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