आज़ाद भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति: एक ऐतिहासिक रूपरेखा

– आनन्द सिंह

भारत में आम लोग कोरोना महामारी के पहले से ही अपने अनुभव से भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की ख़स्ताहाल स्थिति से वाक़िफ़ थे। आम आदमी के यहाँ अगर कोई बीमार पड़ जाता है तो वह एक हादसे से कम नहीं होता है। डॉक्टर, अस्पताल और दवाओं के ख़र्च से उसकी कमर टूट जाती है और उसके बाद भी बीमारी दूर होने और नयी बीमारी न पैदा होने की कोई गारण्टी नहीं होती। लेकिन इसके बावजूद कोरोना महामारी के पहले यहाँ के शासकों के गुणगान में लगे बुद्धिजीवी बेशर्मी से ढींगे हाँकते थे और महानगरों में स्थित चन्द सुपर स्पेशैलिटी अस्पतालों के दम पर भारत के विकास की तारीफ़ों के पुल बाँधे जाते थे। लेकिन कोरोना महामारी ने भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की ख़स्ताहाल हालत की पोल खोल दी है। कोरोना की दूसरी लहर में अस्पतालों के भीतर और बाहर के जो ख़ौफ़नाक मंज़र देखने में आ रहे हैं उसके बाद शासकों की सेवा में लगे तमाम बुद्धिजीवी भी भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की हालत पर सवाल उठाने पर मजबूर हो गये हैं।

उत्तर भारत के कई राज्यों में सरकारी अस्पतालों की ऐसी ख़स्ता हालत आम बात है। उदारीकरण के तीन दशकों के दौरान तमाम सरकारी अस्पतालों को धीरे-धीरे खोखला किया गया और पिछले सात सालों के दौरान बिल्कुल तबाही के कगार पर पहुँचा दिया गया है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि कोरोना महामारी की वजह से जिस विनाशकारी हालात के हम गवाह बन रहे हैं उसके लिए नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार द्वारा पिछले 7 सालों में की गयी करतूतें और उसका निकम्मापन सीधे तौर पर ज़िम्मेदार है। लेकिन यह भी सच है कि ये हालात आज़ादी के 7 दशकों के दौरान हुए पूँजीवादी विकास की तार्किक परिणति हैं और इसके लिए केन्द्र और राज्यों में सरकार में रह चुकीं तमाम चुनावी पार्टियाँ और भारत का समूचा पूँजीपति वर्ग ज़िम्मेदार है। इस लेख में हम आज़ादी के बाद से स्वास्थ्य सेवाओं के विकास की ऐतिहासिक रूपरेखा प्रस्तुत करेंगे और यह देखेंगे कि किस प्रकार आज़ाद भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य तंत्र एक बेहद कमज़ोर नींव पर खड़ा किया गया और बाद में नवउदारवाद के दौर में वह लगातार जर्जर होता गया तथा मोदी सरकार के 7 वर्षों के दौरान अपनायी गयी नीतियों की बदौलत यह तंत्र पूरी तरह से ध्वस्त होने की कगार पर आ गया है।
आज़ाद भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति जानने के लिए हम आज़ादी के बाद के इतिहास को मोटे तौर पर दो भागों में विभाजित कर सकते हैं: पहला, 1947 से 1980 के दशक के अन्त तक का दौर यानी नवउदारवादी नीतियों के लागू होने से पहले का दौर और दूसरा 1990 से अब तक का दौर, यानी नवउदारवाद का दौर। दूसरे दौर में हम मोदी सरकार के पिछले 7 सालों में अपनायी गयी नीतियों का विशेष उल्लेख करेंगे।

नवउदारवाद के पहले का दौर

आज़ादी के बाद सत्ता में आये भारत के पूँजीपति वर्ग की सबसे पहली प्राथमिकता अर्द्ध-सामन्ती उत्पादन सम्बन्धों को बदलकर पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों को स्थापित करना और देश में औद्योगिक विकास की आधारशिला तैयार करना था। चूँकि उस समय भारत का पूँजीपति वर्ग इतना कमज़ोर था कि वह अपने बूते बुनियादी और अवरचनात्मक उद्योगों का तानाबाना खड़ा नहीं कर सकता था इसलिए उसने आम लोगों की बचत का इस्तेमाल करके औद्योगिक विकास की आधारशिला तैयार करने की योजना बनायी। राजकीय पूँजीवाद के इस मॉडल के लिए लोगों की रज़ामन्दी लेने के लिए इसे समाजवाद का नाम दिया गया। लेकिन इस छलावे की पोल इसी से खुल जाती है कि जहाँ समाजवादी देशों ने औद्योगिक विकास और कृषि उत्पादकता में वृद्धि के साथ ही साथ शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों को भी शुरू से ही प्राथमिकता में रखा, वहीं भारत में शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्र कभी भी भारतीय शासकों की प्राथमिकता में नहीं रहे। शिक्षा और स्वास्थ्य पर उतना ही ध्यान दिया गया जितना पूँजीवादी विकास की न्यूनतम आवश्यकता थी।
भारत के नवजात पूँजीपति वर्ग और उनके नुमाइन्दों ने स्वास्थ्य जैसे मूलभूत अधिकार को तवज्जो नहीं दी, यह बात भारत का संविधान बनाने वाली संविधान सभा की बहसों से भी स्पष्ट हो जाती है। संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने स्वास्थ्य को मूलभूत अधिकार का दर्जा देने का प्रस्ताव रखा था, परन्तु संविधान सभा का बहुमत इसके ख़िलाफ़ था और इसीलिए संविधान में स्वास्थ्य को मूलमूत अधिकार के अध्याय में नहीं बल्कि राज्य के नीति निर्देशक तत्वों वाले अध्याय में रखा गया।
आज़ादी के ठीक पहले बनी भोरे कमेटी ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा की एक विस्तृत योजना तैयार की थी जिसमें पूरी आबादी को नि:शुल्क स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करने का प्रावधान था। परन्तु आज़ादी के बाद इस कमेटी की रिपोर्ट को ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया क्योंकि राज्य की प्राथमिकता में उद्योग, इन्फ़्रास्ट्रक्चर, वित्त और रक्षा जैसे क्षेत्र थे।
भारतीय शासकों के लिए यह शर्म की बात है कि 1946 में भोरे कमेटी की रिपोर्ट में प्रति एक लाख की आबादी पर 567 अस्पताल बेड, 62.3 डॉक्टर और 150.8 नर्सों का जो लक्ष्य रखा गया था वह आज तक पूरा नहीं हो पाया है। आज भारत में प्रति एक लाख आबादी पर मात्र 140 अस्पताल बेड, 66.18 डॉक्टर और 149.25 नर्स हैं। ऐसे में यह आश्चर्य की बात नहीं है कि यह स्वास्थ्य तंत्र कोरोना महामारी के सामने भहराकर गिर पड़ा है।
आज़ादी के बाद अस्तित्व में आयी सभी पंचवर्षीय योजनाओं में भी मुख्य ज़ोर आर्थिक विकास सुनिश्चित करने वाले क्षेत्रों पर ही रहा और शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, आवास जैसे क्षेत्रों को परिधि पर ही स्थान मिला। 1950 और 1960 के दशकों में स्वास्थ्य के नाम पर जो निवेश किया भी गया उसका अधिकांश हिस्सा मलेरिया, चेचक, तपेदिक, मिर्गी, फ़ाइलेरिया और हैज़ा जैसी महामारियों पर नियंत्रण पाने में ख़र्च किया गया। उस समय गाँवों से लेकर क़स्बों और शहरों तक स्वास्थ्य केन्द्रों का तानाबाना खड़ा करने की ज़रूरत थी, परन्तु उसपर कोई ध्यान नहीं दिया गया।
शुरू से ही बजट का बहुत कम हिस्सा स्वास्थ्य को आवण्टिक किया जाता था, लेकिन 1965 के बाद से स्वास्थ्य बजट का आधे से भी ज़्यादा ख़र्च परिवार नियोजन के मद में किया जाने लगा क्योंकि अब स्वास्थ्य के क्षेत्र में सबसे बड़ी प्राथमिकता जनसंख्या नियंत्रण हो गयी थी। इस नयी प्राथमिकता का स्वास्थ्य सेवाओं के विकास पर बहुत नकारात्मक असर पड़ा।
1983 में देश में पहली बार एक राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति बनायी गयी जिसमें सार्वभौमिक, समग्र प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं का लक्ष्य रखा गया। परन्तु इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए आवश्यक तंत्र व निवेश की ग़ैर-मौजूदगी में यह ज़बानी जमाख़र्च ही बनकर रह गया।
इस प्रकार नवउदारवाद के पहले के दौर में स्वास्थ्य सेवाओं की जो नींव तैयार की गयी थी वह बेहद कमज़ोर थी। गाँवों और पिछड़े इलाक़ों में तो स्वास्थ्य सेवाओं की हालत और भी ख़राब थी। अर्थव्यवस्था में राज्य का दख़ल था लेकिन स्वास्थ्य के क्षेत्र में यह दख़ल बहुत सीमित था। उस समय भी देशभर में स्वास्थ्य पर हुए कुल ख़र्च का 70 फ़ीसदी से ज़्यादा लोगों को अपनी जेब से देना पड़ता था। स्वास्थ्य के क्षेत्र में नवउदारवाद से पहले ही निजी क्षेत्र मौजूद था जिसपर सरकार का नियंत्रण सीमित था। हालाँकि उस समय अभी निजी अस्पतालों की अन्धी लूटपाट नहीं शुरू हुई थी और ख़ासकर शहरों के सरकारी अस्पतालों में ग़रीबों और आम आदमी को ठीकठाक इलाज उपलब्ध हो जाता था। दवाओं के मूल्य पर अभी भी सरकार का काफ़ी नियंत्रण रहता था, पेटेण्ट क़ानूनों की ग़ैर-मौजूदगी में तमाम जेनेरिक दवाएँ सस्ते दामों पर मिल जाती थीं।

नवउदारवाद का दौर

वैसे तो भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में निजी क्षेत्र आज़ादी के बाद से ही मौजूद रहा है, परन्तु 1990 के बाद शुरू हुए नवउदारवादी दौर में निजी क्षेत्र का दख़ल कई गुना बढ़ गया है। नवउदारवाद के पिछले तीन दशकों के दौरान गाँवों से लेकर क़स्बों और शहरों तक निजी अस्पतालों का एक विराट तंत्र खड़ा हुआ है जिसका एकमात्र मक़सद लोगों की बीमारियों का लाभ उठाकर ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा पीटना है। इस दौर में अस्पतालों के साथ ही प्राइवेट क्लिनिक, पैथोलॉजी, फ़ार्मेसी आदि का भी एक तानाबना खड़ा हुआ है जो लोगों की बदहाली की क़ीमत पर फलफूल रहा है। विडम्बना तो यह है कि स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर लोगों को लूट रही इन संस्थाओं को जनता के पैसे से सब्सिडी दी जाती है। मेडिकल की पढ़ाई के नाम पर मुनाफ़ा पीट रहे तमाम निजी मेडिकल कॉलेजों को भी जनता की गाढ़ी कमाई से सब्सिडी दी जाती है। दवा और वैक्सीन बनाने वाली तमाम कम्पनियों को भी कारख़ाना लगाने के लिए सरकार सब्सिडी देती है। मिसाल के लिए कोरोना की वैक्सीन बनाने वाली कम्पनियों सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटेक को भी भारत सरकार करोड़ों रुपये की सब्सिडी दे चुकी है। लेकिन इसके बावजूद ये निजी संस्थान संकट की स्थिति में जनता के साथ कोई मुरव्वत नहीं दिखाते हैं। एक अनुमान के मुताबिक़ इस समय भारत में स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान कर रही संस्थाओं में दो-तिहाई निजी हाथों में हैं।
निजीकरण की यह प्रक्रिया नवउदारवाद के दौर की अहम विशेषता है। इसके अतिरिक्त इस दौर में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में भी मरीज़ द्वारा किये जा रहे भुगतान की राशि में ज़बर्दस्त बढ़ोत्तरी हुई है। यानी सरकारी अस्पतालों में भी अब लोगों को पहले की तुलना में बहुत ज़्यादा भुगतान करना पड़ता है क्योंकि इस दौर में सरकार द्वारा दी जा रही सब्सिडी में भयंकर कटौती हुई है।
नवउदारवादी दौर की एक अन्य विशेषता स्वास्थ्य सेवा तंत्र का विकेन्द्रीकरण है। इसके तहत केन्द्र सरकार स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करने की ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़कर ये ज़िम्मेदारी जिला प्रशासन या उससे भी नीचे के स्तर के प्रशासन को सौंप रही है। कहने को तो यह स्वास्थ्य सेवाओं को स्थानीय परिस्थितियों के प्रति संवेदनशील और सहभागितापूर्ण बनाने के लिए किया जा रहा है, परन्तु इसकी परिणति स्वास्थ्य सेवाओं के बिखराव के रूप में हो रही है क्योंकि स्थानीय प्रशासनिक निकायों के पास पर्याप्त संसाधनों का अभाव है।
नवउदारवाद के दौर में स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में आये बदलावों की एक अहम विशेषता राज्य द्वारा स्वास्थ्य सेवाओं में की गयी लगातार कटौती रही है। इस पूरे दौर में स्वास्थ्य पर किया जाने वाला ख़र्च सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 1 प्रतिशत के आसपास ही रहा है जबकि इसे कम से कम जीडीपी के 3 प्रतिशत के आसपास होना चाहिए।
इसके अलावा नवउदारवाद के दौर में स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजी बीमा कम्पनियों की पैठ भी लगातार बढ़ती गयी है। लोगों के डर और असुरक्षा की भावना का लाभ उठाकर अकूत मुनाफ़ा कमाने का यह उद्योग नवउदाररवादी दौर में ख़ूब फलफूल रहा है। लेकिन विडम्बना यह है कि जहाँ एक ओर बीमा कम्पनियों का मुनाफ़ा बढ़ता गया वहीं दूसरी ओर आम आदमी का जीवन पहले से भी ज़्यादा असुरक्षित होता जा रहा है।
नवउदारवादी दौर की एक अन्य विशेषता दवा की क़ीमतों पर से सरकार का घटता नियंत्रण रही है। 1994 में आये ‘ड्रग प्राइस कण्ट्रोल ऑर्डर’ के तहत अधिकांश दवाओं की क़ीमत पर सरकारी नियंत्रण हटा दिया गया। विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू.टी.ओ) के ‘ट्रेड रिलेटेड इण्टेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स’ के आने के बाद भारत सरकार ने भी 1970 के ‘पेटेण्ट एक्ट’ में 2005 में संशोधन कर दिया। 2005 से पहले पुराने एक्ट के चलते भारत में सस्ती जेनेरिक दवाओं के उत्पादन में कुछ हद तक छूट थी जो किसी हद तक देश की ग़रीब जनता को सस्ती दवाएँ मुहैया कराने में मददगार था। परन्तु 2005 के बाद दवा का बाज़ार देशी-विदेशी दवा कम्पनियों द्वारा मुनाफ़ा पीटने के लिए पूरी तरह से खोल दिया गया। यही वजह है कि अब दवा की क़ीमतें आकाश छू रही हैं।

मोदी राज में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति

उदारीकरण, निजीकरण और भूमण्डलीकरण को बढ़ावा देने वाली नवउदारवादी नीतियों की शुरुआत कांग्रेस की सरकार ने की थी, लेकिन इन नीतियों को सबसे ज़्यादा नंगे रूप में लागू करने का काम 2014 में सत्ता में आयी मोदी सरकार ने किया जिसका एक नतीजा स्वास्थ्य सेवाओं के तंत्र की हालत बद से बदतर होने के रूप में सामने आया। इसमें ताज्जुब की बात नहीं है क्योंकि ये वही प्रधानमंत्री है जो अम्बानी के अस्पताल का बेशर्मी से उद्घाटन करते हुए कहता है कि भारत में प्राचीन काल से ही प्लास्टिक सर्जरी होती थी, जिसका प्रमाण गणेश के रूप में हमें मिलता है। ये वही प्रधानमंत्री है जो देशभर में ताली-थाली और दिया-मोमबत्ती जलाने से कोरोना भगाने का दम्भ भरता है।
वर्ष 2014 में सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने 2014, 2015 और 2016 के बजट में स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय पहल नहीं की और इस दौरान स्वास्थ्य बजट में कोई विचारणीय बढ़ोत्तरी नहीं की। 2017 में बजट में सरकार ने काला-अज़ार और फ़ाइलेरिया को एक वर्ष के भीतर और मिर्गी को 2018 के अन्त तक ख़त्म करने का लक्ष्य रखा। परन्तु ये लक्ष्य पूरे नहीं हो सके। 2017 में स्वास्थ्य नीति लायी गयी जिसमें सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को मज़बूत बनाने की बजाय स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में निजीकरण को और तेज़ करने पर ज़ोर दिया गया।
2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र मोदी सरकार ने 2018 के बजट में गाजे-बाजे के साथ आयुष्मान भारत योजना शुरू करने की घोषणा की और यह दावा किया कि इससे 50 करोड़ भारतीय लाभान्वित होंगे। लेकिन स्वास्थ्य बीमा पर आधारित यह स्कीम भी जनता के पैसे को सार्वजनिक स्वास्थ्य के मूलभूत ढाँचे को मज़बूत बनाने की बजाय निजी क्षेत्र को मुनाफ़ा कमाने के लिए दिया गया तोहफ़ा ही साबित हो रही है। ग़रीबों और मज़दूरों को तो इसका कोई ख़ास लाभ नहीं हो रहा है। यह इसी तथ्य से साबित हो जाता है कि कोरोना काल में जब ऐसी स्कीम के तहत किये जाने वाले दावों में बढ़ोत्तरी होनी चाहिए थी, उस समय इसमें गिरावट देखने को मिल रही है। यही नहीं इस स्कीम में बड़े पैमाने पर धाँधली की ख़बरें भी आ रही हैं जो यह दिखाती हैं कि इसके असली लाभार्थी सरकारी अफ़सर-बाबू और निजी अस्पतालों के मालिक हैं।
पिछले साल कोरोना महामारी के प्रकोप के बावजूद मोदी सरकार ने निजी अस्पतालों की अन्धाधुन्ध लूट और लचर सार्वजनिक स्वास्थ्य तंत्र को चुस्त-दुरुस्त करने के लिए कोई उल्लेखनीय पहल नहीं की। एक ओर महज़ चार घण्टे के नोटिस पर थोपे गये लॉकडाउन ने मज़दूरों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया वहीं दूसरी ओर इस समय का इस्तेमाल सार्वजनिक स्वास्थ्य तंत्र को चुस्त–दुस्त करने में न करने की वजह से आज स्थिति ये हो गयी है कि कोरोना की दूसरी लहर में लोग अस्पताल बेड, ऑक्सीजन, आईसीयू, वेण्टिलेटर और जीवनरक्षक दवाओं के लिए दर-दर भटकने को मजबूर हो रहे हैं। यही नहीं सरकार ने स्वास्थ्य तंत्र में बदलाव करने की कोई उल्लेखनीय पहल करने में नाकामी को ढँकने के लिए इस साल के बजट में आँकड़ों की हेराफेरी के ज़रिए यह दिखाने की हास्यास्पद कोशिश की कि सरकार ने स्वास्थ्य बजट में 137 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी कर दी है। यह सच्चाई सामने आने में ज़्यादा समय नहीं लगा कि सरकार ने वैक्सीन पर किये गये ख़र्च और अन्य कुछ मदों के ख़र्च को स्वास्थ्य सेवाओं के बजट में जोड़कर यह बढ़ोत्तरी दिखायी थी।
पिछले साल के अन्त में कोरोना की पहली लहर के ढलान के समय ही विशेषज्ञों ने दूसरी लहर के आने की चेतावनी दे दी थी, परन्तु मोदी सरकार ऐसी आपदा की स्थिति के लिए स्वास्थ्य सेवाओं को तैयार करने और सभी नागरिकों को वैक्सीन लगवाने की विस्तृत योजना बनाने की बजाय अपनी फ़र्ज़ी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटने में व्यस्त थी। तमाम चेतावनियों को धता बताते हुए सरकार ने कुम्भ मेले और विशाल चुनावी रैलियों को बदस्तूर जारी रखने का फ़ैसला किया। सरकार के इस अवैज्ञानिक, अहंकारपूर्ण और आपराधिक अति-आत्मविश्वास का नतीजा इस देश की जनता को भुगतना पड़ रहा है।
इस प्रकार हम पाते हैं कि आज देश में स्वास्थ्य सेवाओं के पूरे तंत्र के ढह जाने पर जो हाहाकार मचा है उसके लिए आज़ादी के बाद से सत्ता में आयीं तमाम सरकारों द्वारा सार्वजनिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता में न रखना, नवउदारवाद के युग में अन्धाधुन्ध निजीकरण को बढ़ावा देना और ख़ास तौर पर मोदी सरकार के सात वर्षों के कार्यकाल में निजीकरण की रफ़्तार तेज़ करना व कोरोना महामारी से निपटने के लिए पर्याप्त तैयारी न करने का आपराधिक कृत्य ज़िम्मेदार है। इसकी जड़ में मुनाफ़े पर टिका पूँजीवादी तंत्र है जो इन्सानों की तबाही और बदहाली की क़ीमत पर भी मुनाफ़ा कमाने का कोई मौक़ा नहीं चूकता। जब तक यह पूँजीवादी तंत्र इस देश में रहेगा तब तक एक ख़ुशहाल भविष्य की कल्पना करना बेमानी होगा। कोरोना महामारी की वजह से यह निर्मम यथार्थ नंगे रूप में सबके सामने आ गया है।

मज़दूर बिगुल, मई 2021


 

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