नाज़ी-विरोधी योद्धा सोफ़ी शोल की 100वीं जन्मतिथि के अवसर पर
सोफ़ी और उसके बहादुर साथियों की शहादत दुनिया भर में फ़ासीवाद के विरुद्ध लड़ने वालों को प्रेरित करती रहेगी!

– सत्यम

हिटलर और उसके नाज़ी शासन ने लाखों यहूदियों को तो मौत के घाट उतारा ही था, उसके बर्बर शासन के विरुद्ध लड़ने वाले, किसी भी रूप में उसका विरोध करने वाले 77 हज़ार अन्य जर्मन नागरिकों की भी हत्या की थी। इन नाज़ी-विरोधी योद्धाओं को फ़ौजी अदालतों और तथाकथित ‘जन न्यायालयों’ में मुक़दमे के नाटक के बाद गोली से उड़ा दिया गया या मध्ययुगीन बर्बर गिलोतीन से गर्दन काटकर मौत की सज़ा दी गयी। इन्हीं में से एक नाम था सोफ़ी शोल का जिसे 22 साल की उम्र में गिलोतीन से मार दिया दिया। उसके साथ उसके भाई हान्स शोल और साथी क्रिस्टोफ़ प्रोब्स्ट को भी गिलोतीन पर चढ़ा दिया गया।
आज वह हिटलर के ख़ि‍लाफ़ खड़ी होने का साहस दिखाने और अपनी जान से उसकी क़ीमत चुकाने वाली युवती के रूप में जर्मनी की सबसे लोकप्रिय नायिकाओं में से एक है। उस पर कई फ़िल्में बनी हैं, दर्जनों किताबें लिखी गयी हैं, बहुत से नाटकों और असंख्य कविताओं, पेंटिंग्स, म्यूराल और पोस्टरों में उसकी स्मृति अमर हो चुकी है। उसका नाम फ़ासिस्टों के ख़िलाफ़ अदम्य साहस के साथ उठ खड़े होने का प्रतीक बन चुका है।
सोफ़ी के पिता दक्षिण-पश्चिम जर्मनी के फ़ोर्खटेनबर्ग शहर के मेयर थे पर बाद में उसका परिवार ऊल्म शहर में बस गया था। अपने पाँच भाई-बहनों के साथ सोफ़ी जब किशोरावस्था में थी तब तक हिटलर और नाज़ी पार्टी का जर्मनी पर क़ब्ज़ा हो चुका था। शुरू में सोफ़ी और बड़ा भाई हान्स हिटलर की नेशनल सोशलिस्ट पार्टी के समर्थक थे। बहुत से जर्मन नौजवानों की तरह वे भी पार्टी के हिटलर यूथ मूवमेण्ट और लीग ऑफ़ जर्मन गर्ल्स से जुड़ गये।
उसके पिता हिटलर के कट्टर विरोधी थे और अपने बच्चों में नाज़ियों के प्रति इस उत्साह से उन्हें गहरा धक्का लगा था। लेकिन धीरे-धीरे परिवार और दोस्तों की बातों का सोफ़ी और हान्स पर असर होने लगा। परिवार में सीखे उदारवादी मूल्यों के साथ थर्ड राइख़ की राजनीति का मेल बैठाना उनके लिए मुश्किल होता गया। उनके यहूदी परिचितों और कलाकारों के साथ होने वाले बरताव को देखकर भी उन्हें धक्का लगा और जिस समय तक हिटलर ने पोलैण्ड पर हमला किया, तब तक वे उसके विरोधी बन चुके थे। जर्मन नौजवानों को फ़ौज में भरती कर लड़ने के लिए भेजा जाने लगा। सोफ़ी ने अपने प्रेमी फ़्रिट्ज़ को, जो ख़ुद मोर्चे पर भेजा गया था, भेजे ख़त में लिखा : “मैं समझ नहीं पाती कि कैसे कुछ लोग दूसरों की ज़िन्दगी से ख‍िलवाड़ करते हैं। मैं इसे कभी समझ नहीं पाऊँगी, ये भयानक है। मुझे मत समझाओ कि यह सब पितृभूमि के लिए किया जाता है।”‍
हान्स म्यूनिख विश्वविद्यालय में चिकित्सा की पढ़ाई करने चला गया। उसने और उसके दो अन्य दोस्तों ने पूर्वी मोर्चे पर सोवियत संघ में जर्मन सेना के फ़ौजी अस्पताल में काम करते हुए युद्ध की विभीषिका को अपनी आँखों से देखा था और उन्हें पोलैण्ड और सोवियत संघ में जर्मन फ़ौजों द्वारा यहूदियों और दूसरे नागरिकों के जनसंहार के बारे में भी पता चला था। फ़ौज से लौटने पर हान्स और उसके दोस्तों ने युद्ध और नाज़ीवाद के विरुद्ध जर्मन जनता को जागरूक करने का संकल्प लिया। सोफ़ी ने भी म्यूनिख विश्वविद्यालय में दाख़िला ले लिया। जल्द ही उनके दोस्तों का एक ग्रुप बन गया जिन्हें कला, संस्कृति और दर्शन के सवालों में साझा दिलचस्पी एक-दूसरे से जोड़ती थी। सोफ़ी जीवविज्ञान की छात्रा थी और बढ़िया पियानो बजाने के साथ ही एक प्रतिभाशाली पेण्टर भी थी। ‍
लेकिन उस हिंसक दौर में इन बातों के लिए समय नहीं था जब करोड़ों लोग जीवन-मृत्यु के संघर्ष में जूझ रहे थे। उनके ग्रुप के कुछ विद्यार्थी सेना में रह चुके थे, वे एक मानवद्रोही शासन में जी रहे थे, और वे प्रतिरोध करने के लिए कृतसंकल्प थे।
हान्स शोल और उसके दोस्त अलेक्ज़ेण्डर श्मोरेल ने प्रतिरोध को संगठित रूप देने के लिए “व्हाइट रोज़” ग्रुप बनाया। सोफ़ी, क्रिस्टोफ़ प्रोब्स्ट और विली ग्राफ़ के अलावा, उनके एक प्रोफ़ेसर कुर्ट ह्यूबर भी इसमें शामिल हो गये। यही छह लोग ‘व्हाइट रोज़’ ग्रुप था जिसने नाज़ियों को इतना भयाक्रान्त कर दिया था कि एक-एक को ढूँढ़कर मार दिया गया।
जून 1942 में उन्होंने पर्चे छापकर और दीवारों पर नारे लिखकर अपना काम शुरू किया। दोस्तों और समर्थकों के नेटवर्क की मदद से वे पर्चे छापते और तरह-तरह के ख़ुफ़िया तरीक़ों से उन्हें बाँटते थे। पर्चों में जर्मन लोगों से नाज़ी सत्ता का प्रतिरोध करने का आह्वान किया जाता था, यहूदियों के ख़िलाफ़ फैलाई जा रही नफ़रत और उनकी हत्याओं की निन्दा की जाती थी और युद्ध ख़त्म करने की माँग उठाई जाती थी। वे घरों में छिपाकर रखी हाथ से चलने वाली साइक्लोस्टाइल मशीन पर पर्चे छापते थे और लिफ़ाफ़ों में रखकर डाक से म्यूनि‍ख और उसके आस-पास के इलाक़ों में छात्रों, शिक्षकों और बुद्ध‍िजीवियों को भेजते थे, पब्लिक टेलीफ़ोन बूथ की डायरेक्ट्री में और ऐसी अन्य जगहों पर रख देते थे।
एक पर्चे में लिखा गया था, “हम ख़ामोश नहीं रहेंगे। हम तुम्हारे ज़मीर की आवाज़ हैं। व्हाइट रोज़ तुम्हें चैन से जीने नहीं देगा।” जनवरी 1943 में निकाले गये उनके पाँचवे पर्चे ‘जर्मन जनता से अपील’ की 6 हज़ार प्रतियाँ छापी गयीं और उसे ग्रुप के सदस्यों और समर्थकों ने म्यूनिख ही नहीं, दक्षिण जर्मनी के कई शहरों में बाँटा। गिरफ़्तारी के बाद गेस्टापो की पूछताछ में सोफ़ी ने बताया था कि 1942 की गर्मियों से ही समूह का मक़सद व्यापक जर्मन जनता तक पहुँचना था, इसलिए इस पर्चे में समूह ने अपना नाम बदलकर ‘जर्मन प्रतिरोध आन्दोलन’ कर लिया था।
स्तालिनग्राद में जर्मन सेनाओं की बुरी तरह हार की ख़बरों को जर्मन जनता से छिपाया जा रहा था और उन्हें यह विश्वास दिलाया जा रहा था कि जल्द ही हिटलर की अगुवाई में जर्मनी विश्वविजयी होने वाला है। इसी समय उन्होंने अपना छठा पर्चा निकाला जो उनका आख़िरी पर्चा साबित हुआ। इसमें कहा गया था : “हमें स्तालिग्राद के मृतकों की सौगन्ध है।… अगर जर्मन नौजवान उठ खड़े नहीं हुए, एक ही साथ प्रतिशोध और पश्चाताप की भावना के साथ, और हमारी जनता के लिए सबसे घृणित आततायि‍यों को कुचलकर एक नये, शान्तिपूर्ण यूरोप की स्थापना नहीं करते, तो जर्मनी का नाम हमेशा के लिए कलंकित हो जायेगा!” 3, 8 और 15 फ़रवरी को ‘व्हाइट रोज़’ के सदस्यों ने म्यूनिख विश्वविद्यालय और अन्य इमारतों पर स्टेन्सिल से ‘हिटलर मुर्दाबाद’ और ‘आज़ादी’ जैसे नारे भी लिखे।
उनके पास डाक से भेजने के बाद भी काफ़ी पर्चे बच गये थे। लिफ़ाफ़े ख़त्म हो गये थे और काग़ज़ की कमी से और मिलना मुमकिन नहीं था। इसलिए साथियों के मना करने के बावजूद सोफ़ी और हान्स शोल ने 18 फ़रवरी को इन्हें विश्वविद्यालय में बाँटने का फ़ैसला किया। उस दिन सुबह दोनों एक सूटकेस में पर्चे लेकर गये और क्लास के दौरान कमरों के बन्द दरवाज़ों के सामने पर्चे रख दिये। कुछ पर्चे बच जाने पर वे ऊपर की मंज़ि‍ल पर इन्हें बाँटने गये। वहाँ एकाएक जोश में आकर बचे हुए थोड़े से पर्चों को सोफ़ी ने नीचे हॉल में उड़ा दिया। वे चुपचाप निकल जाना चाहते थे लेकिन एक कर्मचारी ने उन्हें देख लिया और गेस्टापो ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया। सातवें पर्चे का मज़मून भी उस समय हान्स के पास था जिसे उसने नष्ट करने की कोशिश की लेकिन कामयाब नहीं हुआ, हालाँकि सोफ़ी अपने पास के सारे सबूत नष्ट करने में कामयाब हो गयी। गेस्टापो में इस मामले की तफ़्तीश रॉबर्ट मोर नाम के इन्स्पेक्टर ने की थी और शुरू में उसने सोफ़ी को निर्दोष मानकर रिहा करने का आदेश दिया था। लेकिन हान्स ने अपनी ज़िम्मेदारी क़बूल कर लेने और अन्य सबूत मिलने के बाद सोफ़ी ने भी ‘व्हाइट रोज़’ के तमाम कामों में भागीदारी क़बूल कर ली और अपने साथियों को बचाने के लिए सारी ज़ि‍म्मेदारी ख़ुद लेने की भी कोशिश की।
22 फ़रवरी 1943 को सोफ़ी और हान्स शोल और क्रिस्टोफ़ प्रोब्स्ट पर नाज़ि‍यों की तथाकथित ‘जन अदालत’ में मुक़दमा चलाया गया। नाज़ियों के वफ़ादार प्रवक्ता की तरह पेश आने वाले जज फ़्रेसलर की धमकियों के बावजूद सोफ़ी दृढ़ता और वीरता से डटी रही और जवाब दिया, “हमारी तरह तुम भी जानते हो कि युद्ध हारा जा चुका है। लेकिन तुम अपनी कायरता से इसे स्वीकार नहीं करना चाहते।” तीनों को गम्भीर राष्ट्रद्रोह का दोषी घोषित कर जज रोलैण्ड फ़्रेसलर ने मौत की सज़ा सुना दी। सोफ़ी ने शान्ति के साथ कहा, “जहाँ आज हम खड़े हैं, एक दिन तुम वहीं खड़े होगे!”
नाज़ी इतना डरे हुए थे कि मृत्युदण्ड की सज़ा पर एक महीने बाद अमल की परम्परा के बावजूद इन तीनों को कुछ ही घण्टों के बाद गिलोतीन पर भेज दिया गया। मरने से ठीक पहले सोफ़ी के आख़िरी शब्द थे : “हम सच्चाई के विजयी होने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं जब किसी सच्चे लक्ष्य के लिए अपने आपको क़ुर्बान करने के लिए कोई तैयार ही नहीं होगा। इतना सुन्दर, धूपभरा दिन है, पर मुझे जाना है। लेकिन मेरी मृत्यु से क्या फ़र्क़ पड़ता है, अगर हमारे ज़रिए हज़ारों लोग जाग जाते हैं और कुछ कर गुज़रने को प्रेरित होते हैं?”
‘व्हाइट रोज़’ समूह के अन्य सदस्यों और समर्थकों को भी ढूँढ़-ढूँढ़कर पकड़ा गया और मुक़दमे का नाटक चलाकर कई को मृत्युदण्ड और आजीवन कारावास जैसी सज़ाएँ दी गयीं। जर्मन अख़बारों और रेडियो में इन्हें ग़द्दार और जर्मन राष्ट्र के द्रोहियों के रूप में पेश किया गया लेकिन तब तक देशभर में इनके हज़ारों समर्थक हो चुके थे और इनकी शहादत के बाद इनकी बातें और भी तेज़ी से फैल गयीं।
इनके प्रतिरोध और शहादत की ख़बरें जर्मनी से बाहर भी पहुँच गयीं। सोवियत लाल सेना ने “व्हाइट रोज़” के संघर्ष के सम्मान में जर्मन लोगों में प्रचार के लिए एक पर्चा प्रकशित किया जिसे जर्मन युद्धबन्दियों में, मोर्चों पर और जर्मन जनता के बीच बाँटा गया। उनका अन्तिम पर्चा छिपाकर इंग्लैण्ड पहुँचा दिया गया। 1943 के मध्य में, इस पर्चे को “म्यूनिख के छात्रों का घोषणापत्र” के नाम से प्रकाशित किया गया और मित्र राष्ट्रों के विमानों ने इसकी दसियों लाख प्रतियाँ पूरे जर्मनी पर गिरायीं। सोफ़ी के जीवन पर बनी फ़िल्म ‘सोफ़ी शोल: द फ़ाइनल डेज़’ आसमान से गिरते पर्चों के इस दृश्य के साथ ही समाप्त होती है।
यह फ़िल्म गेस्टापो और नाज़ी अदालत की फ़ाइलों में इस मामले की पूछताछ और मुक़दमे के रिकॉर्ड के आधार पर सोफ़ी शोल और उसके साथियों द्वारा फ़ासिस्टों के विरुद्ध जर्मन जनता को जगाने के प्रयास की इस शौर्यपूर्ण ऐतिहासिक घटना का चित्रण बहुत सच्चे और प्रेरक ढंग से करती है।

मज़दूर बिगुल, मई 2021


 

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