धनी किसान-कुलक आन्दोलन का हालिया घटनाक्रम और “किसान-मज़दूर एकता” के नारे की असलियत

– शिवानी

धनी किसान आन्दोलन को शुरू हुए छह महीने से ज़्यादा का वक़्त बीत चुका है। हाल ही में आन्दोलन के छह महीने पूरे होने पर 26 मई को किसानों द्वारा ‘काला दिवस’ मनाया गया था। लेकिन इस मौक़े पर हुए तमाम विरोध प्रदर्शनों में वैसी तादाद और तेवर नहीं दिखे, जो धनी किसान आन्दोलन के शुरुआती दौर में मौजूद थे। दिल्ली की सरहदों पर जारी इस आन्दोलन की जुटानों में पहले के मुक़ाबले किसानों की शिरक़त भी काफ़ी घटी है। आन्दोलन का नेतृत्व संख्यात्मक ताक़त में आयी इस कमी का कारण कभी धान ख़रीद के सीज़न को गिना रहा था तो कभी कोरोना महामारी को, जबकि यह आंशिक तौर पर ही सच है। इसके साथ ही पहले की ही तरह कुलक आन्दोलन पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ इलाक़ों के अलावा कहीं और सक्रिय नहीं है। ऐसा नहीं है कि ‘संयुक्त किसान मोर्चा’, जिसके नेतृत्व में आन्दोलन चल रहा है, ने आन्दोलन को देश के अलग हिस्सों में फैलाने की कोशिश नहीं की, लेकिन एमएसपी यानी कि लाभकारी मूल्य और एपीएमसी मण्डियों की मज़बूत व्यवस्था की देश के अन्य हिस्सों में अपेक्षाकृत अनुपस्थिति के कारण धनी किसान आन्दोलन को पंजाब-हरियाणा के बाहर पैर पसारने की कोई भौतिक ज़मीन ही नहीं मिली।
तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ शुरू हुए इस आन्दोलन ने मज़दूर आन्दोलन के दायरे में भी कृषि प्रश्न और किसान प्रश्न पर बहस की शुरुआत की और कई अवस्थितियों पर रोशनी डाली। आज मौजूदा किसान आन्दोलन की अपनी आन्तरिक गति से यह साफ़ हो चुका है कि यह आन्दोलन मूलत: और मुख्यत: लाभकारी मूल्य की व्यवस्था को बरक़रार रखने और बढ़ाने की लड़ाई है और इसलिए यह खेतिहर मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश किसानों, यानी कि ग़रीब, छोटे और निम्न-मँझोले किसानों का आन्दोलन नहीं है, भले ही इन वर्गों से भी मौजूदा आन्दोलन में भागीदारी हो रही है। जारी आन्दोलन के साथ ही आम तौर पर कृषि प्रश्न, किसान प्रश्न, लाभकारी मूल्य की व्यवस्था, बड़ी इजारेदार पूँजी द्वारा थोपी जाने वाली इजारेदारी क़ीमतों के निर्धारण का प्रश्न, बड़ी इजारेदारियों समेत, समूचे पूँजीपति वर्ग द्वारा मज़दूरी उत्पादों, जिसमें कि खाद्यान्न भी शामिल हैं, से जुड़े सेक्टरों में इजारेदार क़ीमतों को थोपने से बचना क्योंकि यह उनके सामूहिक वर्ग हितों को नुक़सान पहुँचाता है आदि, जैसे अहम मसलों पर मज़दूर आन्दोलन में भी कई बहसें जारी हैं।
जैसा कि हमारे द्वारा ‘बिगुल’ के पन्नों पर पहले भी लिखा जाता रहा है कि हमारा स्पष्ट तौर पर मानना है कि पहले दो कृषि क़ानूनों, यानी, फ़ार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एण्ड कॉमर्स (प्रमोशन एण्ड फैसिलिटेशन) एक्ट, 2020 और फ़ार्मर्स (एम्पावरमेण्ट एण्ड प्रोटेक्शन) एग्रीमेण्ट ऑन प्राइस अश्योरेन्स एण्ड फ़ार्म सर्विसेज़ एक्ट, 2020 से सर्वहारा वर्ग, ग़रीब, छोटे और निम्न मँझोले किसान और खेतिहर मज़दूर वर्ग की ज़िन्दगी पर सिर्फ़ इतना असर पड़ेगा कि पहले मुख्य रूप से गाँवों में पूँजीवादी भूस्वामियों व पूँजीवादी फ़ार्मरों यानी कि ग्रामीण पूँजीपति वर्ग द्वारा उनका शोषण किया जाता था, और अब पहले दो क़ानूनों के लागू होने के बाद उस शोषण में बड़े इजारेदार पूँजीपति वर्ग यानी कॉरपोरेट पूँजीपति वर्ग की बढ़ती हिस्सेदारी का रास्ता साफ़ होगा, यानी अब ये दोनों वर्ग मिलकर ग्रामीण सर्वहारा और ग़रीब किसानों को लूटेंगे या फिर इस भूमिका में प्रमुख तौर पर इजारेदार पूँजीपति वर्ग आ जायेगा। धनी किसानों, कुलकों, सूदख़ोरों (जो अक्सर स्वयं धनी किसान ही होते हैं), आढ़तियों-बिचौलियों (जो अक्सर स्वयं धनी किसान ही होते हैं) द्वारा पहले भी खेतिहर मज़दूरों, जिनमें की बड़ी तादाद में दलित मज़दूर भी शामिल हैं, की लूट और शोषण तथा ग़रीब व निम्न मँझोले किसानों की लूट और उजड़ना जारी था।
बड़ी इजारेदार पूँजी के खेती के क्षेत्र में प्रवेश से पहले कृषि में खेतिहर पूँजीपति वर्ग का दबदबा था और उजड़ने वाले अधिकांश ग़रीब, छोटे व निम्न मँझोले किसानों के उजड़ने का सबसे बड़ा कारण सूद, लगान और मुनाफ़े के ज़रिये खेतिहर पूँजीपति वर्ग द्वारा उनका शोषण ही था। कॉरपोरेट पूँजी यानी कि बड़ी इजारेदार पूँजी के प्रवेश के बाद भी उनका शोषण पहले की तरह ही जारी रहेगा, हालाँकि उनके प्रमुख शोषकों की स्थिति में ज़्यादा से ज़्यादा बड़ा इजारेदार पूँजीपति वर्ग आता जायेगा। धनी किसान-कुलक वर्ग, सूदख़ोर, आढ़तिये-बिचौलिये खेती के क्षेत्र में बड़ी इजारेदार पूँजी के प्रवेश के ख़िलाफ़ हैं और उन्हें मिलने वाले राजकीय संरक्षण यानी कि लाभकारी मूल्य की व्यवस्था, कृषि में अपने आर्थिक वर्चस्व और प्रभुत्व को बनाये रखना चाहते हैं। मौजूदा किसान आन्दोलन मुनाफ़े में अपनी हिस्सेदारी को सुनिश्चित करने के लिए धनी किसानों-कुलकों यानी कि खेतिहर पूँजीपति वर्ग की लड़ाई है और इसलिए वे लाभकारी मूल्य की व्यवस्था को क़ानूनी जामा पहनाने की माँग कर रहे हैं।
इन तीन कृषि क़ानूनों में सिर्फ़ तीसरा क़ानून, यानी कि आवश्यक वस्तुओं के क़ानून में किये गए परिवर्तन, सीधे तौर पर मज़दूर-मेहनतकशों के हितों के ख़िलाफ़ जाते हैं क्योंकि यह जमाख़ोरी और कालाबाज़ारी को बढ़ाने की छूट देते हैं जिससे बुनियादी वस्तुओं की क़ीमतों में कृत्रिम रूप से बढ़ोत्तरी करने की व्यापारिक पूँजी और तमाम प्रकार के बिचौलियों की क्षमता में इज़ाफ़ा होगा। इस तीसरे क़ानून के विरुद्ध सर्वहारा वर्ग, ग़रीब व निम्न-मँझोले किसानों और समूची आम मेहनतकश आबादी के राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र आन्दोलन को संगठित करने की आवश्यकता है।
हमने इस बात को भी बार-बार रेखांकित किया है कि ग़रीब व मँझोले किसान अपनी बर्बादी के लिए ज़िम्मेदार बड़े इजारेदार पूँजीपति वर्ग का विरोध अपेक्षाकृत छोटी पूँजी की ज़मीन से नहीं करेंगे बल्कि अपनी स्वतन्त्र वर्गीय राजनीतिक अवस्थिति से करेंगे। लाभकारी मूल्य की व्यवस्था को बनाये रखने का मसला और कुछ नहीं बस ग्रामीण पूँजीपति यानी धनी किसान-कुलक वर्ग और बड़े इजारेदार कॉरपोरेट पूँजीपति वर्ग के बीच का विवाद है, उनके बीच का अन्तर्विरोध है, जो कई बार काफ़ी तीखा भी हो सकता है लेकिन फिर भी यह शत्रुतापूर्ण अन्तर्विरोध नहीं है जैसा कि सर्वहारा वर्ग और समूचे पूँजीपति वर्ग के बीच का अन्तर्विरोध है। इसमें खेतिहर मज़दूरों, ग़रीब व निम्न-मँझोले किसानों को धनी किसान-कुलकों के वर्ग या बड़ी इजारेदार पूँजी यानी कि कॉरपोरेट पूँजी का साथ देने, किसी एक का पक्ष चुनने की कोई आवश्यकता नहीं है। ऐसा करना सर्वहारा वर्ग और ग़रीब व छोटे किसानों के वर्ग हितों के विपरीत है, उनके लिए नुक़सानदेह है और ठीक इसी कारण से वर्ग पुछल्लावाद और वर्ग आत्मसमर्पणवाद है।

लाभकारी मूल्य राज्य द्वारा समूचे समाज से वसूला जाने वाला ट्रिब्यूट है!

दरअसल लाभकारी मूल्य खेतिहर पूँजीपति वर्ग द्वारा समाज से वसूला जा रहा एक ट्रिब्यूट है जिसकी गारण्टी अब तक पूँजीवादी राज्यसत्ता धनी किसानों-कुलकों के लिए सुनिश्चित करती रही है। लाभकारी मूल्य एक प्रकार का अतिरिक्त मुनाफ़ा ही है, जो कि धनी किसानों-कुलकों के वर्ग के हितों के लिए राज्य द्वारा क़ीमतों के एक ऐसे ऊँचे स्तर पर निर्धारण द्वारा पैदा होता है जो कि इस वर्ग को औसत मुनाफ़े से ऊपर बेशी या अतिरिक्त मुनाफ़ा सुनिश्चित करता है। लाभकारी मूल्य और कुछ नहीं बल्कि पूँजीवादी भूस्वामियों, पूँजीवादी फ़ार्मरों व पूँजीवादी काश्तकार किसानों द्वारा समूचे समाज और आम मेहनतकश आबादी पर थोपा गया एक बेशी मुनाफ़ा या एक क़िस्म का इजारेदारी लगान है, जो कि सरकार द्वारा क़ीमतों के इजारेदार निर्धारण के ज़रिये पैदा होता है। यह समाज से वसूला जाने वाला एक प्रकार का ट्रिब्यूट है और ठीक इसलिए जनविरोधी है।
कृषि उत्पादों, जिसमें कि खाद्यान्न भी शामिल हैं, की क़ीमतें बढ़ाने की कोई भी माँग समूचे समाज के विरुद्ध जाती है और पूँजीवादी भूस्वामी वर्ग की निरपेक्ष लगान या फिर इजारेदार लगान को बढ़ाने की माँग के समान है; ठीक इन्ही अर्थों में, लाभकारी मूल्य, जो कि पूँजीवादी राज्यसत्ता द्वारा धनी किसानों, पूँजीवादी फ़ार्मरों और कुलकों के पक्ष में समाज से वसूला जाना वाला ट्रिब्यूट है, एक इजारेदारी क़ीमत और इजारेदारी लगान है, जो कि खाद्य उत्पादों की क़ीमतों को बढ़ाता है और इसलिए मज़दूर वर्ग समेत आम मेहनतकश आबादी के ख़िलाफ़ जाता है।
एक दौर में भारतीय पूँजीपति वर्ग को राजनीतिक और आर्थिक कारणों से कृषि में पूँजीवादी विकास के लिए पूँजीवादी धनी किसानों-कुलकों के एक पूरे वर्ग को खड़ा करने की आवश्यकता थी। इसी वजह से 1960 के दशक में तथाकथित ‘हरित क्रान्ति’ की शुरुआत की गयी और राजकीय संरक्षण, जिसमें कि लाभकारी मूल्य की व्यवस्था प्रमुख थी, के ज़रिये इस पूरे वर्ग को खड़ा किया गया। आज भारतीय पूँजीवाद जिस दौर में है उसे खेतिहर पूँजीपति वर्ग को इस प्रकार का संरक्षण देने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह बड़ी इजारेदार वित्तीय-औद्योगिक पूँजी समेत समूचे पूँजीपति वर्ग के लिए नुक़सानदेह है। क्यों? क्योंकि खाद्यान्न और मज़दूर उत्पादों की ऊँची क़ीमतें मज़दूरी पर बढ़ने का दबाव पैदा करती हैं और नतीजतन कुल सृजित मूल्य में मुनाफ़े के हिस्से को कम कर सकती हैं, जोकि समूचे पूँजीपति वर्ग के सामूहिक वर्ग हितों के ख़िलाफ़ जाता है।
इसलिए आज बड़ी इजारेदार पूँजी और पूँजीवादी राज्यसत्ता, जो समूचे पूँजीपति वर्ग के दीर्घकालिक सामूहिक वर्ग हितों की नुमाइन्दगी करती है, लाभकारी मूल्य की व्यवस्था को ख़त्म करना चाहते हैं।
धनी किसानों-कुलकों के पक्ष में सरकार द्वारा एमएसपी के रूप में वसूला जाने वाला यह ट्रिब्यूट किसी भी सूरत में आम मेहनतकश जनता के पक्ष में नहीं है, बल्कि उसके ख़िलाफ़ जाता है। यह दीगर बात है कि इसके ख़त्म होने के बाद भी मेहनतकश जनता को इसका लाभ तभी मिलेगा जबकि वह बड़े इजारेदार पूँजीपति वर्ग से संघर्ष कर अपनी औसत मज़दूरी को उसी स्तर पर बरक़रार रखे। नहीं तो इस ट्रिब्यूट के ख़त्म होने का पूरा लाभ केवल बड़े इजारेदार पूँजीपति वर्ग को ही मिलेगा। लेकिन इसका ख़त्म होना किसी भी रूप में मज़दूर वर्ग, ग़रीब व निम्न-मंझोले किसानों और शहरी निम्न मध्यम व मध्यम वर्ग को नुक़सान नहीं पहुँचाने वाला है। वजह, जैसा कि हमने ऊपर बताया, यही है कि यह एक प्रकार का अतिरिक्त मुनाफ़ा/इजारेदारी क़ीमत/ इजारेदारी लगान है जो पूर्णत: धनी किसानों-कुलकों के वर्ग को व्यापक आम मेहनतकश आबादी की क़ीमत पर लाभ पहुँचाता है।
यही कारण है कि कोई भी सर्वहारा वर्गीय क्रान्तिकारी ताक़त लाभकारी मूल्य से मिलने वाले इस बेशी मुनाफ़े का समर्थन नहीं करेगी। इस माँग का समर्थन करना अपने आप में पूँजीवादी कुलकों-फ़ार्मरों के बेशी मुनाफ़े व लगानख़ोरी का समर्थन करना है। मज़दूर वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली कोई भी शक्ति रणनीतिक या रणकौशलात्मक तौर पर भी लाभकारी मूल्य का समर्थन नहीं कर सकती है। यह वास्तव में सर्वहारा वर्गीय राजनीति और विचारधारा को तिलांजलि देने के समान होगा, वर्ग आत्मसमर्पणवाद, वर्ग सहयोगवाद और वर्ग पुछल्लावाद होगा और सर्वहारा वर्ग के सामान्य राजनीतिक आन्दोलन को नुक़सान पहुँचाना होगा। इसलिए आज मज़दूर वर्ग को भी लाभकारी मूल्य की व्यवस्था पर साफ़-नज़र होने की ज़रूरत है।

“किसान-मज़दूर एकता” के नारे की हक़ीक़त

हम पहले भी ‘बिगुल’ के पृष्ठों पर बताते रहे हैं कि किसान कोई एक सजातीय या एकाश्मी वर्ग नहीं होता है। सबसे पहले सवाल यह उठता है कि हम किस किसान की बात कर रहे हैं। क्या हम उन 86 प्रतिशत ग़रीब व परिधिगत किसानों की बात कर रहे हैं जो कि सवा हेक्टेयर से भी कम ज़मीन के मालिक हैं और मुख्य रूप से अपने जीविकोपार्जन के लिए उजरती श्रम पर निर्भर हैं यानी कि अर्द्ध-सर्वहारा हैं, या फिर हम उन किसानों की बात कर रहे हैं जो कि 4 हेक्टेयर से अधिक ज़मीन के मालिक हैं और मुख्यतः वही लाभकारी मूल्य का फ़ायदा पाते हैं और गाँवों में राजनीतिक व आर्थिक तौर पर प्रभुत्वशाली वर्ग हैं। इसके अलावा गाँवों में खेतिहर मज़दूरों की बड़ी आबादी रहती है जिनका बहुलांश दलित व प्रवासी मज़दूर हैं। आज जब लाभकारी मूल्य की व्यवस्था पर ख़तरे के बादल मंडराने लगे हैं तो गाँव के इस धनी किसान व कुलक वर्ग को अचानक “मज़दूर-किसान एकता” की याद आयी है! यह धनी किसान व कुलक वर्ग खेतिहर मज़दूरों और ग़रीब किसानों के साथ क्या बर्ताव करता रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है।
मौजूदा धनी किसान आन्दोलन के जारी रहते हुए इस वक़्त भी पंजाब में धनी किसानों-कुलकों और उनकी नुमाइन्दगी करने वाली तमाम यूनियनों द्वारा अपनी पंचायतों में ग़ैर-जनवादी तरीक़े से मत डालकर खेत मज़दूरी पर एकतरफ़ा फैसले लिए जा रहे हैं और मज़दूरी पर कैप लगाए जा रहे हैं। खेत मज़दूरों के पक्ष से इसके बारे में राय तक नहीं ली जा रही है। खेतिहर मज़दूर आबादी जिनमें मुख्य तौर पर स्त्री मज़दूर, दलित मज़दूर और प्रवासी मज़दूर शामिल हैं, एक ओर गाँवों में धनी किसानों, सूदख़ोरों, आढ़तियों पर अपनी निर्भरता के कारण और दूसरी ओर अपनी स्वतन्त्र वर्ग चेतना व वर्ग संगठन के अभाव में अपने अधिकारों की दृढ़तापूर्वक हिफ़ाज़त भी नहीं कर पाती है।
पिछले वर्ष भी लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मज़दूरों की सस्ती श्रमशक्ति की आपूर्ति में कमी आने के कारण इन्हीं धनी किसानों और कुलकों ने पंजाब और हरियाणा के तमाम गाँवों में अपनी पंचायतों के ज़रिये मज़दूरों की मज़दूरी पर एक सीलिंग लगा दी थी और मज़दूरी के रेट तय किये थे और ऐलान कर दिया था कि यदि किसी किसान ने इस मज़दूरी से ज़्यादा मज़दूरी दी तो उनका बहिष्कार किया जायेगा और अगर गाँव का कोई खेतिहर मज़दूर बेहतर मज़दूरी की तलाश में गाँव से कहीं बाहर जाकर काम करता है, तो उसका भी सामाजिक बहिष्कार किया जायेगा। जैसा कि हमने पहले भी इंगित किया था कि पंजाब और हरियाणा में स्थानीय खेतिहर मज़दूरों की भारी बहुसंख्या दलित है और जाट व जट्ट धनी किसानों व कुलकों के हाथों आर्थिक शोषण के साथ-साथ सामाजिक उत्पीड़न के बर्बर रूपों को भी झेलती है। लेकिन अब जब इन धनी किसानों व कुलकों पर उससे से भी बड़ी पूँजी यानी कॉरपोरेट पूँजी का क़हर बरपा हो रहा है, तो यह शोषक-उत्पीड़क वर्ग अचानक “मज़दूर-किसान एकता” का हिमायती हो गया है।
पंजाब में खेत मज़दूरी पर ये फ़ैसले तब लिये जा रहे हैं, जब सिंघु और टीकरी बॉर्डर से “किसान-मज़दूर एकता” के नारे अभी तक लगाये जा रहे हैं और बार-बार इस “एकता” को क़ायम करने की दुहाई दी जा रही है। मज़दूर वर्ग को समझाया जा रहा है कि अपने वर्ग हित भुलाकर साझा दुश्मन, यानी कि, बड़ी इजारेदार पूँजी के ख़िलाफ़ संघर्ष में वह अपने वर्तमान शोषकों, यानी कि, धनी किसानों-कुलकों के वर्ग का साथ दे, क्योंकि इस वक़्त छोटी पूँजी बड़ी पूँजी के आगमन से भयाक्रान्त है! मज़दूर आन्दोलन में सक्रिय कुछ “यथार्थवादी” चतुर सुजान कुलकों-धनी किसानों द्वारा खेतिहर मज़दूरों के शोषण को पहले ही अतीत की बात क़रार दे चुके हैं! लेकिन इस “एकता” की असलियत तो खेत मज़दूरी पर कुलकों-धनी किसानों, यानी कि ग्रामीण पूँजीपति वर्ग, के इन फ़ैसलों द्वारा लगायी गयी सीलिंग से ही स्पष्ट हो जाती है।
पंजाब के खेतिहर मज़दूरों की नुमाइन्दगी का दम भरने वाली कुछ यूनियनें, जिसमें लिबरेशन से जुड़ी यूनियन प्रमुख है, खेतिहर मज़दूरों को किसान आन्दोलन में भीड़ बढ़ाने के लिए दिल्ली भी ले गयी थीं। जहाँ धनी किसानों ने अपनी ट्रॉलियों तक में मज़दूरों को जगह नहीं दी थी और उन्हें रात आसमान के नीचे बितानी पड़ी थी। काफ़ी फ़ज़ीहत होने के बाद पंजाब किसान यूनियन के नेता रुलदू सिंह को वापस जाकर माफ़ी भी माँगनी पड़ी थी। आज यह मज़दूर वर्ग से दग़ाबाज़ी करने वाली यूनियनें भी मज़दूरी पर सीलिंग के इन फ़ैसलों पर घड़ियाली आंसू बहा रही हैं। यह भी याद रहे कि खेत मज़दूरी पर यह फ़ैसले उस वक़्त भी आये हैं जब मोदी सरकार द्वारा चावल, दलहन और तेल बीजों पर फिर से एमएसपी बढ़ा दिया गया है। इसकी घोषणा सरकार ने हाल ही में की है।
क्या कारण है कि जो “मार्क्सवादी” एमएसपी की व्यव्यथा को बरक़रार रखने और इसे बढ़ाने के कुलकों के कोरस में सुर मिला रहे हैं, वे सभी पंजाब में मज़दूरी पर इन फ़ैसलों पर चुप है? क्या कारण है कि ऐसे “क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट” जिनमें तमाम किस्म के “यथार्थवादी”, क़ौमवादी और नरोदवादी शामिल हैं, वे कभी खेतिहर मज़दूरों के लिए सरकारी संरक्षण,यानी कि, न्यूनतम मज़दूरी की माँग नहीं उठाते हैं? क्या कारण है कि वे खाद्यानों की क़ीमतों में बढ़ोतरी के लिए पूरे पूँजीपति वर्ग और पूँजीवाद को कटघरे में न खड़ा करके, उसके सिर्फ़ एक धड़े, इजारेदार पूँजी को दोषी ठहराते हैं, जबकि स्वयं कुलक-धनी किसान वर्ग भी इसके लिए ज़िम्मेदार हैं, लेकिन उसे बाइज़्ज़त बरी कर देते हैं?
कारण है उनकी कुलकपरस्ती जो उनको मज़दूर वर्ग के हितों का सौदागर बनाती है, इन तमाम क़िस्म के कुलकपरस्तों को सर्वहारा वर्ग से विश्वासघात के लिए प्रेरित करती है और उसे अपने ही शोषकों के एक धड़े का पुछल्ला बनने की नसीहत देती है।

धनी किसान आन्दोलन के फ़ासीवाद-विरोधी चरित्र के दावे की असलियत

भारत में फ़ासीवाद के उभार से हताश-निराश लिबरल जमात व प्रगतिशीत ताक़तें दावा कर रही हैं कि मौजूदा धनी किसान आन्दोलन फ़ासीवाद विरोधी आन्दोलन है। हालाँकि इस आन्दोलन का नेतृत्व करने वाली ताक़तों का ऐसा कोई दावा नहीं है! ऐसे तमाम लोगों ने धनी किसान आन्दोलन से फ़ासीवाद को हराने की काफ़ी उम्मीदें पाली हुई हैं। बंगाल चुनावों में भाजपा की हार को कुछ लोग फ़ासीवाद की निर्णायक हार क़रार दे रहे हैं और किसान आन्दोलन की इसमें भूमिका को बढ़ा-चढ़कर पेश कर रहे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि बंगाल में फ़ासीवादी भाजपा की हार के कारण अलहदा हैं और उनका किसान आन्दोलन से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। अगर किसान आन्दोलन ही भाजपा की हार का प्रमुख कारण था तो पश्चिम बंगाल में तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ स्थानीय किसान आन्दोलन खड़ा क्यों नहीं हो पाया? क्यों पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुलक नेताओं को ममता बैनर्जी के समर्थन में प्रचार करने जाना पड़ा? वजह यह है कि बंगाल में एमएसपी और एपीएमसी मण्डियों की व्यवस्था पहले से ही मौजूद नहीं है और इसलिए ही वहाँ कोई आन्दोलन नहीं है। कुलक किसान आन्दोलन पर ताली बजाने वाली इसी लिबरल वायरस से ग्रस्त जमात कुछ दिनों पहले तक ममता बनर्जी के नाम के क़सीदे पढ़ रही थी। आज इन्हें राकेश टिकैत में फ़ासीवाद-विरोधी नायक दिख रहा है! ऐसा अति आशावादी नज़रिया गहरे निराशावाद, पराजयबोध और वर्ग राजनीति के बोध और अन्तर्दृष्टि के अभाव के कारण ही पैदा होता है।
इसके अलावा, धनी किसानों-कुलकों का यह वर्ग ऐतिहासिक तौर पर भी कितना फ़ासीवाद-विरोधी हो सकता है, यह पिछले लम्बे समय में स्पष्ट भी हो चुका है। जिन टिकैत बन्धुओं में प्रगतिशील ताक़तें फ़ासीवाद-विरोधी सम्भावनाएँ टटोल रही हैं, उनकी मुज्ज़फ्फरनगर दंगों में आपराधिक भूमिका कौन नहीं जानता है। हालाँकि स्मृतिलोप की शिकार ऐसी ताक़तें इन्हें अब अतीत की बात मानती हैं! 1990 के बाद से ही क्लासिकीय कुलक राजनीति के ह्रास के साथ इस रिक्तता को संघ परिवार व भाजपा की फ़ासीवादी राजनीति व अन्य प्रकार की प्रतिक्रियावादी दक्षिणपन्थी व धार्मिक कट्टरपन्थी राजनीति ने तेज़ी से भरा है। विशेष तौर पर, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में। यह वर्ग अपनी प्रकृति से ही फ़ासीवाद व प्रतिक्रियावाद का सामाजिक आधार बनने की सम्भावना-सम्पन्नता रखता हैं। तात्कालिक तौर पर, किसी आर्थिक मुद्दे या किसी विशिष्ट माँग पर, जैसा कि लाभकारी मूल्य को बचाने वाले मौजूदा आन्दोलन ने स्पष्ट किया है, इसका फ़ासीवादी सरकार के साथ अन्तर्विरोध हो सकता है, जो कि काफ़ी तीखा भी हो सकता है। लेकिन यह वर्ग मुख्यत: और मूलत: किसी फ़ासीवाद-विरोधी सम्भावना से रिक्त है और मौक़ा पड़ने पर फ़ासीवादियों के साथ या अन्य प्रकार की धार्मिक कट्टरपन्थी या दक्षिणपन्थी प्रतिक्रियावादी राजनीति के साथ खड़ा हो सकता है और होता भी रहा है।
इसलिए जिन लोगों को यह लगता है कि मौजूदा किसान आन्दोलन का चरित्र फ़ासीवाद विरोधी है वे मुग़ालते में जी रहे हैं और पराजयबोध उनकी तर्क बुद्धि पर हावी हो गया है। हाल में हरियाणा के मेवात ज़िले में एक मुस्लिम युवक की ‘मॉब लिंचिंग’ के आरोपियों के पक्ष में महापंचायतों का आयोजन किया गया। यह महापंचायतें गाँवों में ऐन उस वक़्त हो रही हैं जब तथाकथित फ़ासीवाद-विरोधी किसान आन्दोलन जारी है। इन तमाम उच्च जातियों की महापंचायतों और खाप पंचायतों के पीछे सक्रिय ताक़तें असल में ख़ुद ग्रामीण शासक वर्ग से आते हैं। ये किसी विशेष मौक़े पर अपनी संकीर्ण आर्थिक व वर्ग माँगों के चलते फ़ासीवादी सरकार से टकराव की स्थिति में हो सकते हैं लेकिन यह टकराव की स्थिति ही इनके आर्थिक हितों पर चोट के कारण पैदा होती है।
मौजूदा धनी किसान आन्दोलन के दौरान भी पंजाब और हरियाणा के तमाम इलाक़ों में भाजपा और जजपा के नेताओं को किसानों का रोष झेलना पड़ा। फतेहाबाद ज़िले के टोहाना विधान सभा क्षेत्र में जननायक जनता पार्टी के विधायक देवेन्दर बबली के ख़िलाफ़ किसानों का विरोध प्रदर्शन इसका एक उदाहरण है, हालाँकि बबली कृषि क़ानूनों के मसले पर अपनी ही सरकार की आलोचना करता रहा था और उसने इस्तीफ़ा देने तक की धमकी दी थी। जहाँ तक पंजाब में भाजपा की अलोकप्रियता का प्रश्न है तो अगर कुछ शहरी क्षेत्रों को छोड़ दिया जाए तो भाजपा पारम्परिक तौर पर भी कभी वहाँ मज़बूत स्थिति में थी ही नहीं। इसके अलावा धार्मिक कट्टरपन्थी अकाली दल अभी कुछ समय पहले तक तो इसी फासीवादी भाजपा के साथ गठबन्धन में थी जो अब कृषि क़ानूनों पर विरोध जता रही है। कारण यह है कि अकाली दल भी जानता है कि उसके प्रमुख वर्गीय राजनीतिक निर्वाचक यही धनी-किसानों कुलकों का वर्ग है जिसे वह फ़िलहाल नाराज़ करने का जोख़िम नहीं उठा सकती है। इसलिए धनी किसान-कुलक वर्ग का फ़ौरी तौर पर भाजपा-विरोध फ़ासीवाद–विरोध कत्तई नहीं है।
धनी किसान आन्दोलन के नेतृत्व ने एकदम स्पष्ट तौर पर यह बात रेखांकित भी की है कि मौजूदा आन्दोलन फ़ासीवाद-विरोधी आन्दोलन नहीं है; अगर केन्द्र सरकार लाभकारी मूल्य की व्यवस्था को क़ानूनी रूप दे दे तो उन्हें आरएसएस और भाजपा की मज़दूर वर्ग-विरोधी, मुसलमान-विरोधी, दलित-विरोधी, स्त्री-विरोधी फ़ासीवादी राजनीति से कोई विचारधारात्मक तक़लीफ़ या परहेज़ नहीं है। उन्हें तो बस लाभकारी मूल्य के रूप में अपने बेशी मुनाफ़े की गारण्टी चाहिए।
वर्तमान किसान आन्दोलन के फ़ासीवाद विरोधी होने की असलियत उस वक़्त ही ज़ाहिर हो गयी थी जब ग़ाज़ीपुर बॉर्डर के धरने पर समर्थन में आये जामिया के मुसलमान छात्रों को वहाँ से भगा दिया गया था और उनके ख़िलाफ़ पुलिस को बुला लिया गया था। यह तथाकथित फ़ासीवाद विरोधी चरित्र तब भी उजागर हो गया था जब अपेक्षाकृत जनवादी व प्रगतिशील चरित्र रखने वाली भारतीय किसान यूनियन उगराहां ने आन्दोलन के दौरान ही राजनीतिक बन्दियों की रिहाई के समर्थन में कार्यक्रम किया था और आन्दोलन के बाक़ी किसान नेतृत्व ने बाक़ायदा बयान जारी कर के ख़ुद को इस कार्यक्रम से अलग कर दिया था और स्पष्ट किया था कि आन्दोलन की लड़ाई सिर्फ़ तीन क़ानूनों की वापसी और लाभकारी मूल्य का क़ानून बनवाने तक सीमित है। और यह भी नहीं भूलना चाहिए कि नरेश टिकैत जैसा घोर साम्प्रदायिक कुलक नेता अयोध्या में राम लला के यहाँ किसान आन्दोलन की जीत की कामना करने पहुँचा था!
यह प्रगतिशील शक्तियों का निराशावाद और पराजयवाद है जो उन्हें ऐसे मज़ाक़िया तर्क देने की ओर ले जा रहा है कि धनी किसानों और कुलकों का मौजूदा आन्दोलन एक फ़ासीवाद-विरोधी आन्दोलन है और इसलिए रणकौशलात्मक तौर पर इसका समर्थन किया जाना चाहिए। ऐसा कोई भी ख़याली पुलाव पकाना सर्वहारा वर्ग और उसकी क्रान्तिकारी ताक़तों के लिए राजनीतिक आत्महत्या के समान होगा। न केवल यह ख़ामख़याली भरा अव्यावहारिक विचार है, बल्कि साथ ही नुक़सानदेह भी है और सर्वहारा वर्ग की राजनीतिक स्वतन्त्रता को गिरवी रखना है, उसे अपनी शक्तियों को विकसित करने और साथ ही उसकी एक स्वतन्त्र राजनीतिक अवस्थिति को विकसित करने की आमूलगामी प्रक्रिया को बाधित करना है।
इसके अलावा, धनी किसान आन्दोलन के नेतृत्व के बीच भी उठापटक जारी है। हरियाणा के प्रमुख किसान नेता गुरनाम सिंह चढुनी राकेश टिकैत को उत्तर प्रदेश पर अपनी ऊर्जा व्यय करने की सलाह दे रहे हैं। टिकैत द्वारा पंजाब-हरियाणा के दौरों मारने को लेकर चढुनी काफ़ी उत्साहित नहीं दिख रहे थे! वहीं राकेश टिकैत की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ 26 जनवरी के घटनाक्रम के बाद आन्दोलन का चेहरा बन जाने की वजह से कुछ ज़्यादा ही ज़ोर मार रही हैं। दूसरी तरफ़, कुछ समय पहले भारतीय किसान यूनियन उगराहां, जो वैसे ‘संयुक्त किसान मोर्चा’ में औपचारिक तौर पर शामिल नहीं है, आन्दोलन में सक्रिय दुस्साहसवादी व धार्मिक कट्टरपन्थी व अलगाववादी समूहों के साथ भिड़ती हुई नज़र आयी थी। कुलक आन्दोलन के नेतृत्व में दरारें नज़र आनी शुरू हो गयी है, हालाँकि जितने एकीकृत नेतृत्व की छवि पहले भी पेश की जा रही थी वह वास्तव में उतना एकीकृत कभी था नहीं। सरकार को लगातार वार्ता शुरू करने के प्रस्ताव भी भेजे जा रहे हैं, हालाँकि मोदी सरकार ने अभी तक ऐसी कोई तत्परता नहीं दिखायी है। हाल में कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने वार्ता पुनः शुरू करने की बात कही है।
जो भी हो, इतना तय है कि मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन ग्रामीण सर्वहारा और सीमान्त, छोटे, निम्न-मध्यम किसानों के हितों का प्रतिनिधित्व कत्तई नहीं करता है और इसका केन्द्रीय सरोकार लाभकारी मूल्य के रूप में बेशी मुनाफ़े की व्यवस्था को क़ानूनी जामा पहनाने तक सीमित है। इसलिए सर्वहारा वर्ग और ग़रीब किसान आबादी को “बेग़ानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना” कत्तई नहीं बनना चाहिए।

मज़दूर बिगुल, जून 2021


 

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