फ़िलिस्तीनी जनता के बहादुराना संघर्ष ने एक बार फिर इज़रायली हमलावरों को पीछे हटने पर मजबूर किया
लेकिन बेशर्म ज़ायनवादी सत्ता फिर गाज़ा को तबाह करने पर आमादा

– लता

पिछले मई में 11 दिनों तक गाज़ा शहर पर भयानक बमबारी के बाद 21 मई को इज़रायल और फ़िलिस्तीनी संगठन हमास के बीच संघर्ष विराम हुआ। इज़रायल तो फ़िलिस्तीनी लोगों के जनसंहार की अपनी मुहिम को जारी रखना चाहता था लेकिन हमेशा की तरह फ़िलिस्तीनियों के ज़बर्दस्त बहादुराना संघर्ष और उनके समर्थन में पूरी दुनिया में सड़कों पर उमड़े जन सैलाब ने, और मुख्यत: इसी के कारण अमेरिका के दबाव ने इज़रायल को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। इज़रायल के हमलों और प्रतिबन्धों के कारण पहले से ही बुरी तरह तबाह गाज़ा पट्टी में इज़रायली बमों ने सैकड़ों घरों को नेस्तनाबूद कर दिया। गाज़ा के स्वास्थ्य अधिकारियों के मुताबिक कम से कम 240 लोग इन हमलों में मारे गये। हमास की ओर से दागे रॉकेटों से इज़रायल में 12 लोग मारे गये।
संघर्ष विराम के बाद भी इज़रायल लगातार उकसावे की कार्रवाइयाँ करता रहा है। संघर्ष विराम घोषित होने के कुछ ही घण्टों के बाद इज़रायली सैनिकों ने यरुशलम में ऐतिहासिक अल अक़्सा मस्जिद के परिसर में घुसकर स्टन ग्रेनेड और गोलियाँ दागीं जिससे 20 लोग धायल हो गये। पास के अल जर्राह इलाक़े में भी प्रदर्शनकारियों पर गोलियाँ चलायी गयीं। सैकड़ों फ़िलिस्तीनियों को गिरफ़्तार भी किया गया है।
इज़रायली प्रधानमंत्री नेतन्याहू की सरकार गिरने के बाद सत्ता में आया शख़्स नफ़्ताली बेनेट फ़िलिस्तीनियों से नफ़रत और ज़ायनवादी अन्धराष्ट्रवाद में उससे भी बढ़कर है। “मैंने बहुत से अरब लोगों की हत्या की है, इसमें क्या बड़ी बात है” जैसी वहशी बातें करने वाले बेनेट की सरकार ने संघर्ष विराम के बाद एक महीना पूरा होने से पहले ही गाज़ा और पूर्वी यरुशलम में फिर से बमबारी शुरू कर दी है।
आज यह समझना बहुत ज़रूरी है कि इंसाफ़ और आज़ादी के लिए फ़िलिस्तीनियों का संघर्ष अकेले उनका संघर्ष नहीं है। यह पूरी दुनिया में नस्लवाद और साम्राज्यवादी दबंगई के विरुद्ध शानदार लड़ाई का एक प्रतीक है। इसीलिए पूरी दुनिया का इंसाफ़पसन्द अवाम उनके पक्ष में बार-बार लाखों की तादाद में सड़कों पर उतरता रहा है। भारत के मेहनतकशों को भी इस शानदार लड़ाई के बारे में अच्छी तरह जान लेना चाहिए और फ़ासिस्टों द्वारा फैलाये जा रहे साम्प्रदायिक झूठ के बहकावे में नहीं आना चाहिए।
मज़दूर वर्ग जब मुक्त कण्ठ से यह नारा बुलन्द करता है कि ‘दुनिया के मज़दूरो, एक हो!’ तो इसकी गहराई और जिम्मेदारी को वह भली-भाँति समझता है। वह समझता है कि दुनिया के हर कोने में अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे मज़दूर चाहे वह एशियाई हों, अफ़्रीकी हों, लातिन अमेरिकी, मध्य-एशियाई, यूरोपीय या अमेरिकी ही क्यों न हो, उसके भाई हैं और इस नारे से वह बताता है कि उनके संघर्ष में वह साथ है। उनके संघर्ष में एकजुटता का प्रदर्शन कर वह दुनिया भर की पूँजीवादी सत्ताओं को चेतावनी देता है कि दुनिया के किसी भी कोने में लड़ रही मेहनतकश जनता अकेली नहीं है।
मज़दूर वर्ग जब पूँजीवाद के खिलाफ़ जंग का ऐलान करता है तो साथ ही वह समाज में मौजूद जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा आधारित अन्याय, उत्पीड़न और भेदभाव के ख़िलाफ़ भी खड़ा होता है। राष्ट्रीय दमन सामाजिक व राजनीतिक उत्पीड़न के प्रमुख रूपों में से एक है।
ऐसे ही एक ऐतिहासिक अन्याय के विरुद्ध संघर्ष का साथ दुनिया भर का मज़दूर वर्ग देता चला आया है। वह है फ़िलिस्तीनी जनता का ज़ायनवादी इज़रायल और अमेरिकी साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष। ज़ायनवाद एक धुर दक्षिणपंथी विचारधारा है, धार्मिक और नस्ली कट्टरपंथ पर आधारित एक धुर प्रतिक्रियावादी विचारधारा। इज़रायल नामक देश इसी धुर प्रतिक्रियावादी दक्षिणपंथी विचारधारा का एक औपनिवेशिक प्रयोग है जिसे साम्राज्यवाद ने मध्य-पूर्व में फ़िलिस्तीनी क़ौम को उसके देश से उजाड़कर अपनी सैन्य चौकी के तौर पर खड़ा किया था। फ़िलिस्तीनियों में मुसलमान, यहूदी और ईसाई और साथ ही अन्य धार्मिक समुदाय भी शामिल हैं। इज़रायल ने फ़िलिस्तीन की पूरी आबादी के खिलाफ़ जनरसंहार का सिलसिला कई दशकों से चला रखा है। हर दिन उत्पीड़न और अत्याचार करने के साथ थोड़े-थोड़े अन्तराल पर इज़रायल फ़िलिस्तीनियों के खिलाफ़ युद्ध छेड़ देता है। अमेरिका की भारी मदद से निर्मित अत्याधुनिक हथियारों से लैस इज़रायली सेना के सामने फ़िलिस्तीन के पास अपनी कोई सेना भी नहीं है। हमास नाक संगठन के पास कुछ सौ लड़ाके और पुराने रॉकेट व अन्य हथियार हैं। लेकिन जो चीज़ फ़िलिस्तीनियों के पास है, वह इज़रायल सहित किसी भाड़े की सेना के पास नहीं हो सकती। वह है उनका अदम्य साहस और लड़ने का जज़्बा जिनके दम पर वे बार-बार इज़रायल के मंसूबों को नाकाम करते रहे हैं।
ब्रिटेन के औपनिवेशिक काल के समय से ही फ़िलिस्तीन की जनता संघर्ष कर रही है ज़ायनवादी इज़रायलियों के विरुद्ध, उनके अत्याचारों, शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध। ज़ायनवादी विचारधारा अपने जन्म के काल में एक नस्ली श्रेष्ठतावादी उपनिवेशवादी विचारधारा थी। अपने जन्म के समय से ही सत्तापरस्त यह सोच आम मेहनतकश अवाम की विरोधी रही है। (फ़िलिस्तीन पर ब्रिटेन का मैंडेट 1918 में बना और इसी के आधार पर 1920 में मैंडेटरी फ़िलिस्तीन अस्तित्व में आया।)
ज़ायनवाद की विचारधारा का संस्थापक थियोडोर हर्ज़ल और बाद में इसका दूसरा प्रमुख नेता हाइम विज़मान अपना प्रोजेक्ट लेकर साम्राज्यवादी देशों के आगे-पीछे डोलते रहे। 19वीं सदी के मध्य या अन्त से अपनी विचारधारा की उत्पत्ति बताने वाले इन ज़ायनवादियों को अहमियत प्रथम विश्व युद्ध के दौरान मिली जब ब्रिटेन को समझ आया कि मध्यपूर्व को लेकर उसकी जो महत्वाकांक्षा और योजना है, उसमें ज़ायनवाद काफ़ी मददगार हो सकता है। नतीजतन, ज़ायनवाद के सेल्समैन को एक ग्राहक मिल गया। तेल के अकूत भण्डार मिलने और भारत तक पहुँचने का सीधा रास्ता होने की वजह से ब्रिटेन के लिए फ़िलिस्तीन रणनीतिक महत्व रखता था।
आधुनिक साम्राज्यवाद के दौर में यह बात स्पष्ट होती जा रही थी कि प्रत्यक्ष उपनिवेशों का दौर बीतता जा रहा है। ऐसे में पश्चिम साम्राज्यवादी तकतें अपने साम्राज्यवादी हितों की रक्षा के लिए ऐसे मित्र राष्ट्रों की तलाश करने लगे जो राजनीतिक तौर पर स्वतंत्र तो हो लेकिन आर्थिक तौर पर उनकी निर्भरता बनी रहे। यह ज़ाहिर सी बात थी कि आर्थिक निर्भरता और राजनीतिक स्वतंत्रता के बीच द्वन्द्व बना रहेगा। इज़रायल के साथ अमेरिका के सम्बन्ध इसी ओर एक क़दम था। हालाँकि अन्य नवस्वाधीन राष्ट्र-राज्यों की तुलना में इज़रायल इस मामले में भिन्न था क्योंकि उसका जन्म ही मध्यपूर्व में पश्चिमी साम्राज्यवादी हितों की रक्षा के लिए हुआ था और इसका जन्म एक सेटलर कॉलोनी के रूप में हुआ था। यह पहले ब्रिटेन और फिर बाद में अमेरिका के लिए मिलिट्री चेक पोस्ट का काम करता चला आ रहा है।
इस पूरे क्षेत्र का रणनीतिक महत्व इस मायने में है कि जिस साम्राज्यवादी धड़े का भी इस क्षेत्र के अकूत तेल भण्डार पर नियंत्रण होगा, उसका वर्चस्व विश्व पूँजीवादी व्यवस्था में स्थापित होगा। इस बात का इल्म सभी साम्राज्यवादी देशों को था इसलिए इस क्षेत्र पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए सभी प्रमुख साम्राज्वादी देश जैसे फ्रांस, ब्रिटेन और अमेरिका प्रयासरत थे।
ब्रिटेन की साम्राज्यवादी योजना के तहत इज़रायल इस क्षेत्र में उनका चेक पोस्ट बना। बाद में यह अमेरिका की सैन्य चौकी में तब्दील हो गया। इसके निर्माण और उसे चाक-चौबन्द रखने के लिए पहले ब्रिटेन और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका हर वर्ष करोड़ों रुपये खर्च करता आया है। अमेरिका में चाहे रिपब्लिकन की सरकार हो या डेमोक्रैट की, हर साल इज़रायल को सैन्य मदद देने के लिए करोड़ों डॉलर की धनराशि दी जाती है। 1949 से लेकर अब तक अमेरिका ने इज़रायल को जितने पैसे दिये हैं उसे देखकर समझा जा सकता है कि अमेरिका ने इस लठैत को पूरे लाड़ से पाल-पोस कर बड़ा किया है।
यहाँ तक कि “शान्ति का नोबल पुरस्कार” जीतने वाले राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इज़रायल को सैन्य सहयोग के तौर पर अब तक की सबसे बड़ी राशि देने की शुरुआत की। 2016 से आने वाले दस सालों के लिए प्रति वर्ष 380 करोड़ डॉलर की राशि इज़रायल को मिल रही है। क्या अमेरिका को नहीं पता कि यह पैसा आम मासूम फ़िलिस्तीनियों के ख़िलाफ़, उनके नरसंहार और जगह-ज़मीन हथियाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है; निहत्थे नागरिकों, बच्चों, बुजुर्गों और गर्भवति महिलाओं का क़त्ल करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है? अमेरिका द्वारा इज़रायल को 1949 से आज तक दी गयी हज़ारों डॉलर धनराशि इसी बात को सत्यापित करती है कि ऐसे सहयोग का उद्देश्य रणनीतिक महत्व वाले मध्य-पूर्व पर अपना नियंत्रण बनाये रखना है और यह पैसा उसकी क़ीमत है।
फ़िलिस्तीन में इज़रायल की स्थापना की ओर पहला कदम 1917 में बाल्फ़ोर घोषणा के साथ ब्रिटेन ने उठाया और इस क्षेत्र पर नियंत्रण के लिए अपना गुण्डा तैयार करना शुरू किया। फिर शुरू होता है फ़िलिस्तीनियों की ज़मीन हथियाने, उन्हें बेघर करने, उनके सस्ते श्रम का शोषण करने, उनके अपमान और दोयम दर्जे के नागरिकों में तब्दील करने का अनवरत सिलसिला। उस समय ब्रिटेन ने अपनी सेना और हथियारों के बूते ज़ायनवादियों को ज़मीनें दिलवायीं। फ़िलिस्तीनियों के गाँव के गाँव उनसे छीन लिये गये। 1948 में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र ने यहूदियों को “राज्य से वंचित राष्ट्र” बताते हुए उनकी प्राचीन ज़मीन पर उनके लिए एक राज्य बनाने का निर्णय लिया। इज़रायल राज्य की आधिकारिक घोषणा में लगभग बाल्फ़ोर घोषणा की बातों को ही दुहराया गया।
जर्मनी में यहूदियों के साथ हुए अत्याचार के बाद पूरे विश्व में इनके प्रति सहानुभूति की लहर थी। लेकिन जर्मनी के यंत्रणा शिविरों से निकले यहूदियों को कोई अपने देश में लेने को तैयार नहीं था। यहूदियों के अपने राज्य को मान्यता मिली लेकिन पहले से ही यहाँ मौजूद ज़ायनवादियों ने धीरे-धीरे संयुक्त राष्ट्र द्वारा चिह्नित सीमाओं का अतिक्रमण करना शुरू कर दिया। उन्हें अब आधिकारिक समर्थन और अन्तरराष्ट्रीय मान्यता मिल गयी थी। 1948 में फ़िलिस्तीनी अरब नागरिकों से ज़मीनें जबरन छीनी गयीं, उन्हें बेघर किया गया और उनका जनसंहार हुआ। यही था 1948 का नकबा। उसके बाद से साल-दर-साल अरब फ़िलिस्तीनियों को विस्थापित करते हुए और अपने सेटलमेंट (यहूदी बस्तियाँ) बना-बनाकर ज़ायनवादी इज़रायलियों ने फ़िलिस्तीनियों को गाज़ा पट्टी और पश्चिमी तट के थोड़े से इलाक़े में सीमित कर दिया है। रही सही जगह पर भी हर दिन उनकी नयी यहूदी बस्तियाँ बनती जा रही हैं। इसके लिए इज़रायली पूरी बेशर्मी और दादागीरी के साथ औरतों, बच्चों, बुज़ुर्गों तक की हत्या को जायज़ ठहराते हैं।
इसी साल, यानी मई 2021 में पूर्वी यरुशलम और गाज़ा में ज़मीन हथियाने और गाज़ा पर हमले को सही ठहराते हुए तत्कालीन इज़रायली प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने कहा था, “मैं अपने सभी दोस्तों को स्पष्ट तौर पर कह देना चाहता हूँ कि पूरा यरुशलम इज़रायल की चिरस्थाई राजधानी है और हम यहाँ और इसके आस-पास के इलाक़ों में निर्माण कार्य जारी रखेंगे जैसे कोई भी अन्य राष्ट्र अपनी राजधानी का निर्माण और विकास करता है। एक स्वायत्त राज्य में यह हमारा नैसर्गिक अधिकार है”। लेकिन इज़रायल वास्तव में एक औपनिवेशिक सेटलर परियोजना है जो कि पश्चिमी साम्राज्यवाद के हितों की मध्य-पूर्व में सेवा के लिए बनाया गया है। और इस “स्वायत्त राष्ट्र” में “राजधानी का निर्माण” वहाँ के असली राष्ट्र, यानी फ़िलिस्तीनियों को बेदख़ल कर, उनका कत्ल करके और उन पर बेइन्तहा ज़ुल्म ढाकर किया जा रहा है।
अपने ही देश में एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए फ़िलिस्तीनियों को कई चेक पोस्ट से गुज़रना पड़ता है और हर चेक पोस्ट पर रोज़ उन्हें ज़िल्लत, अपमान, हिंसा और अपशब्दों का सामना करना पड़ता है। एक बार चेक पोस्ट बन्द होने के बाद चाहे कितना भी आपातकाल क्यों न हो, किसी की जान जाती हो, कोई गर्भवती स्त्री हो, दूसरी तरफ़ जाने के लिए चेक पोस्ट नहीं खुल सकता। समय पर अस्पताल या डॉक्टर नहीं मिलने की वजह से हर रोज कइयों की जाने जाती हैं। यह तो रोज़मर्रा की कहानी है। फ़िलिस्तीनियों पर छोटे-मोटे सैन्य हमले हर साल-छह महीने पर तो होते ही रहते हैं। वर्ष 2000 से अब तक, 2006, 2008-09, 2012, 2014, 2018 और अब मई 2021 में 6 बड़े हमले हो चुके हैं जिनमें सैकड़ों लोगों की जानें गयी हैं। इज़रायल और उसका पक्षधर मीडिया इन हमलों की वजह हमास की आतंकवादी कार्रवाई बताता है। लेकिन हमास का मुख्य आधार तो गाज़ा पट्टी में है और पश्चिमी तट में फ़िलिस्तीनी अथॉरिटी और ‘फ़तह’ संगठन का दबदबा है। फिर पश्चिमी तट के के फ़िलिस्तीनियों के साथ ऐसा व्यवहार क्यों? क्यों उन्हें उनके घरों से निकाला जा रहा है? सड़कों पर गोलियों से भून दिया जाता, अगवा किया जाता है और बात-बात पर पूरे क्षेत्र की बिजली-पानी काट दी जाती है? वैसे तो गाज़ा पर कार्रवाई के लिए हमास का नाम लेना भी इज़रायल का एक बहाना ही है। उसके हमले में सबसे बड़ी संख्या में आम नागरिक, बच्चे और बुज़ुर्ग मारे जाते हैं, घरों, स्कूलों और अस्पतालों पर बमबारी की जाती है और बिजली व पानी की आपूर्ति तहस-नहस कर दी जाती है।
स्पष्ट है इज़राइल की ज़ायनवादी परियोजना फ़िलिस्तीनियों के सतत् दमन और उत्पीड़न पर ही आधारित है। लेकिन फ़िलिस्तीनियों का आज तक का संघर्ष इतिहास की इस सीख को फिर से सच साबित कर रहा है कि जब आम मेहनतकश लोग अपने अस्तित्व की लड़ाई में उतरते हैं, तो बड़े से बड़े हथियारों के ज़खीरे जन सैलाब में डूब जाते हैं।
इस वर्ष मई 2021 में इज़रायली हमले का कारण बना जेरुसलम के पूर्व में शेख ज़र्रा इलाका जो अरब फ़िलिस्तीनियों के अधिकार में है। वहाँ इज़रायली सेना राजधानी के निर्माण के नाम पर जबरन उनके घरों में घुस कर उन्हें बाहर निकालने और घरों पर कब्ज़ा जमाने का प्रयास करने लगी। 2017 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति ट्रम्प ने यरुशलम को इज़रायल की राजधानी के तौर पर मान्यता दे दी थी, हालाँकि संयुक्त राष्ट्र के 128 देशों ने इस प्रस्ताव के विरुद्ध वोट दिया था। यरुशलम को राजधानी घोषित कर इज़रायल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने उसके एक हिस्से में बसे फ़िलिस्तीनियों को बाहर निकालने की कार्रवाई शुरू कर दी थी।
फ़िलिस्तीनियों ने हज़ारों की संख्या में एकत्र होकर इसका प्रतिरोध किया। प्रतिरोध की जगह अल-अक्सा मस्जिद बनी। अगले ही दिन प्रतिरोध में गाज़ा से कुछ रॉकेट छोड़े गये और फिर इज़रायल की ओर से गाज़ा पर बमबारी शुरू हो गयी। हमास ने इज़रायलियों द्वारा फ़िलिस्तीनियों को उनके घरों से बाहर निकालने और अल-अक्सा मस्जिद पर हमले के प्रतिरोध में मिसाइलों से हमला किया। हालाँकि अत्याधुनिक सैन्य तकनीक से लैस इज़रायल के लिए यह हमला बहुत भारी नहीं पड़ता। ज़मीनी लड़ाई में वह गाज़ा में नहीं टिक सकता लेकिन अमेरिका के बूते तैयार उन्नत सैन्य तकनीक और विकसित सुरक्षा तंत्र के बूते यह अपनी रक्षा कर ले जाता है लेकिन गाज़ा के लड़ाकों ने इस बार कई गुना ज़्यादा बारंबारता के साथ रॉकेट बरसाए जिससे कि एक दर्जन इज़रायली मारे गए और कई दर्जन घायल हुए। इसकी तुलना में कई गुना ज़्यादा फ़िलिस्तीनी मारे गये।
हमास आज गाज़ा में प्रतिरोध संघर्ष को नेतृत्व दे रहा है। हमास को एक समय पश्चिमी साम्राज्यवादियों द्वारा यासर अराफ़ात के नेतृत्व वाले फ़िलिस्तीनी मुक्ति संगठन (पीएलओ) की अगुवाई में चल रहे जुझारू प्रतिरोध संघर्ष को कमज़ोर करने के लिए समर्थन और प्रश्रय दिया गया था। पर आज का हमास साम्राज्यवादियों का उपकरण नहीं रह गया है। आज का हमास जनदबाव में फ़िलिस्तीनियों का जुझारू नेतृत्व बन गया है। पीएलओ के समझौतापरस्त होने और फ़तह के कम्युनिस्ट धड़े के जनता के बीच अपनी जगह नहीं बना पाने की वजह से संघर्ष का नेतृत्व धार्मिक कट्टरपंथी ताकतों के हाथों में चला गया। धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील ताकतों के समझौतापरस्त होने या जनता में लोकप्रिय नहीं हो सकने की वजह से रिक्त स्थान की पूर्ति हमास ने की। फ़िलिस्तीनी अवाम मध्यपूर्व में सबसे धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील अवाम में से एक थी और आज भी है। इसी अवाम के दबाव में आज का हमास भी बदल गया है। आज का हमास प्रतिरोध युद्ध के नेतृत्व की वजह से जनता में मज़बूत सामाजिक आधार वाला संगठन बन गया है जिसके योद्धाओं की भर्ती आम फ़िलिस्तीनी नौजवानों से होती है। आज भी हमास एक इस्लामिक संगठन है, लेकिन फ़िलिस्तीनी जनता के राष्ट्रीय मुक्ति युद्ध का वही नेतृत्व कर रहा है और अपने धार्मिक स्वर को भी उसने कम कर दिया है।
पूरे विश्व में इज़रायल-समर्थक मीडिया हमास को आतंकवादी संगठन बताता है और इज़रायली हमले के लिए उसे ज़िम्मेदार ठहराता है। मगर यह बात साफ़ है कि आम मेहनतकश जनता आम तौर पर किसी आतंकवादी संगठन को समर्थन और पनाह नहीं देती। 2006 में आम चुनावों में हमास गाज़ा में सबसे बड़ी पार्टी की तरह उभरा और उसने चुनी हुई सरकार का गठन किया। लेबनान में मुँहकी खाने और हमास की सरकार बनाने से घबराया इज़रायल और अमेरिकी साम्राज्यवाद हमास को आतंकवादी करार देकर उस पर हमले करता है। साम्राज्यवाद और पूँजीवाद हमेशा ही जनता के प्रतिरोध युद्ध को आतंकवादी क़रार देते हैं। इज़रायली हमलों की असली वजह गाज़ा को तबाह करना होता है और हमास मात्र बहाना बनता है। लेकिन हर हमले के बाद हमास फ़िलिस्तीनी जनता में अधिक-से-अधिक लोकप्रिय होता जा रहा है।
मई 2021 में गाज़ा पर हुआ हमला 2014 से भी अधिक बर्बर था। हमास ने भी जम कर प्रतिरोध किया। हमास ने प्रतिरोध में लगभग साढ़े तीन हज़ार रॉकेट्स दागे। इज़रायल के अत्याधुनिक आयरन डोम मिसाइल डिटेक्टर की वजह से 90 प्रतिशत रॉकेट निशाने पर नहीं लगे। लेकिन समुद्र और स्थल दोनों ही रास्तों पर घेरेबन्दी के बावजूद हमास ने गाज़ा की आत्मरक्षा के लिए रॉकेट और मिसाइलें बनाईं और हथियारों का इंतज़ाम किया और कर रहा है। ज़ाहिर है यह जनता के सहयोग के बिना संभव नहीं है। इस हमले में फ़िलिस्तीन के 240 लोगों की जानें गयीं जिनमें 65 बच्चे, 39 औरतें और 17 बुज़ुर्ग हैं।
गाज़ा दुनिया के सबसे सघन आबाद इलाकों में एक है। ऐसे सघन आबाद क्षेत्र में मिसाइल हमला करना एक जघन्य अपराध है। पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों के शासक वर्ग इस अपराध के मूक दर्शक बने रहते हैं। लेकिन दुनियाभर की आम जनता फ़िलिस्तीन के समर्थन में सड़कों पर उतरती है। इस बार भी हज़ारों की संख्या में लन्दन, न्यूयॉर्क, पेरिस, तुर्की, लेबनान, दक्षिण अफ़्रीका, मोरक्को, लातिन अमेरिका के देशों में लोग इज़रायली हमले के ख़िलाफ़ और गाज़ा के समर्थन में सड़कों पर उतरे और अपनी-अपनी सरकारों पर दबाव बनाया। फ़िलिस्तीनी जनता के जुझारू संघर्ष और अन्तरराष्ट्रीय पैमाने पर किरकिरी के बाद ज़ायनवादी इज़रायल को युद्धविराम के लिए मानना पड़ा। 21 मई को इज़रायल और हमास ने युद्धविराम की घोषणा की।
मई 2021 के इज़रायली हमले के प्रतिरोध में पूरी फ़िलिस्तीन और अरब की जनता ने एक बार फिर जबरदस्त एकजुटता का प्रदर्शन किया। इस बार के प्रतिरोध ने एक बार फिर 1936 के विद्रोह की याद दिला दी। इज़रायलियों के आक्रामक विस्तार के विरोध में अरब फ़िलिस्तीनी आबादी ने 1936 में फ़िलिस्तीन के औपनिवेशिक इतिहास में सबसे लम्बी हड़ताल की थी। यह हड़ताल 6 महीनों तक चली। इस बार गाज़ा पर इज़रायली हमले के दौरान पूरे पश्चिमी तट के मेहनतकशों ने आम हड़ताल की घोषणा की और इसे युद्ध विराम तक जारी रखा। हड़ताल के दौरान सभी आर्थिक कार्य स्थगित कर दिये गये और सभी शैक्षणिक संस्थान बन्द रहे। पूरे मध्यपूर्व, फ़िलिस्तीन और इज़रायल की यहूदी बस्तियों में श्रम करने वालों का सबसे बड़ा हिस्सा फ़िलिस्तीनी मज़दूरों का है और यह सबसे सस्ता श्रम भी है। पूरे क्षेत्र के मजदूरों ने प्रतिरोध में आम हड़तालें की और बड़ी संख्या में सड़कों पर उतरकर गाज़ा के संघर्ष को अपना समर्थन दिया। आर्थिक गतिविधियों के पूर्ण रूप से स्थगित होने पर इज़रायल की अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ा और उस पर दबाव बना। जनता के जारी संघर्ष और अन्तरराष्ट्रीय दबाव में नेतनयाहू को संघर्ष विराम का समझौता करना पड़ा। लेकिन गाज़ा के लोग और पूरी फ़िलिस्तीनी जनता जानती है कि यह मात्र अगले तूफ़ान तक की शान्ति है। मासूम बच्चों का कत्ल, नौजवानों की गिरफ़्तारियाँ, अपहरण, घरों पर जबरन कब्ज़ा, जैतून के खेतों का जलाया जाना, इस बीच जारी रहेगा।
इज़रायलियों की बर्बरता की कल्पना किसी भी सामान्य नागरिक के बस की नहीं है। इनकी सोच कितनी मानवद्रोही, पतित और क्रूर है, इसका अन्दाज़ा उनके इस नारे से लगाया जा सकता है कि “एक को गोली दागो और दो को मारो”, यानी गर्भवती औरतों को गोली मारो ताकि दो जानें चली जायें। इज़रायली संसद नेसेट की एक महिला सांसद कहती है कि सारी फ़िलिस्तीनी माँओं की हत्या कर दी जानी चाहिए जो कि “सपोलों को जन्म देती हैं।” ऐसी बातें सुनकर आपको कुछ याद आया? जी हाँ, 2002 के गुजरात दंगों में ऐसे ही नारे संघी फ़ासिस्ट लगा रहे थे और आज भी वे ऐसी बातें करते रहते हैं। इज़रायली ज़ायनवादियों के प्रति संघियों का लगाव यूँही नहीं है।
आज फ़िलिस्तीन और गाज़ा की जनता संघर्ष कर रही है और पूरी दुनिया की इंसाफपसंद जनता उनके संघर्ष का साथ देती है। लेकिन एक दौर था जब पश्चिमी साम्राज्यवाद के प्रतिरोध में कई अरब देश एकजुट हो कर लड़ रहे थे। 1950, 60 और 70 के दशक में फ़िलिस्तीनियों के साथ हो रहे अन्याय के विरुद्ध अरब जनता और अरब देशों की सरकारें भी एक हद तक साथ आयीं। यह अखिल अरब राष्ट्रवाद का दौर था। दो बड़े और कुछ छोटे इज़रायल-अरब युद्ध हुए। लेकिन अरब देशों के शासक वर्गों की अपनी महत्वाकांक्षा, आपसी अन्तरविरोध और फूट की वजह से इज़रायल के समक्ष कोई सशक्त प्रतिद्वन्द्वी खड़ा नहीं हो पाया। मिस्र के राष्ट्रपति अनवर सदात और इज़रायल के बीच 1978 में हुआ कैम्प डेविड शान्ति समझौता अखिल अरब राष्ट्रवाद को लगा पहला बड़ा झटका था। मिस्र अपनी क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं के लिए अखिल अरब राष्ट्रवाद और फ़िलिस्तीनी संघर्ष को तिलांजलि दे चुका था। फिर एक-एक कर सभी देश सीरिया, जॉर्डन, लेबनान आदि छिटकने लगे। फ़तह भी समझौते की राह पर चल पड़ा। राष्ट्रीय संघर्षों की ऊष्मा कम होने लगी थी और कई नव स्वाधीन पूँजीवादी राष्ट्रों का शासक पूँजीपति वर्ग अपने-अपने हितों के लिए अलग-अलग स्तर पर साम्राज्यवाद के साथ समझौते और मोल-भाव करने लगे। ऐसे ही दौर में फ़िलिस्तीन की जनता ने अपनी कमर कसी और अपने बूते संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए सामने आयी। दोनों इन्तिफ़ादा जनता के अजेय-अमर संघर्ष की गाथा है। हमास के नेतृत्व सँभालने की परिस्थितियों पर हम पहले चर्चा कर चुके हैं।
आज पूरा मध्यपूर्व ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठा है। आधुनिक साम्राज्यवाद के लिए सबसे महत्वपूर्ण रणनीतिक क्षेत्र होने की क़ीमत फ़िलिस्तीन और पूरे मध्यपूर्व की जनता बीसवी सदी के दूसरे दशक से चुकाती चली आयी है। विश्व में सबसे अधिक प्रवासी और शरणार्थी अगर कहीं के हैं तो वह है मध्यपूर्व। इराक़, ईरान, सीरिया, फ़िलिस्तीन, मिस्र, यमन सहित इस पूरे क्षेत्र को अपने साम्राज्यवादी हितों की रक्षा और साम्राज्यवादी चौधराहट बनाये रखने के लिए अमेरिका जलाता-सुलगाता रहा है। उपनिवेशों की स्वतंत्रता के बाद विश्व का यह क्षेत्र आधुनिक साम्राज्यवाद की मार लगातार झेल रहा है। मध्यपूर्व एक खुला युद्ध क्षेत्र बना हआ है जहाँ शहरों, गाँवो और बस्तियों पर बेरहमी से बमबारी की जाती है; छोटे बच्चे जहाँ रातों को भय से सो नहीं पाते, माँएँ हर रात दुआ कर सोती हैं कि सुबह अपने बच्चों का मुँह देख पायें; पिता असहाय-लाचार सा अपने जले खेतों-खलिहानों को देखकर डरता है कि आने वाले दिन वह अपने भूखे बच्चों का मुँह कैसे देखेगा। यह सतत् त्रासदी से गुज़रता क्षेत्र है जिसकी तुलना कहीं से नहीं की जा सकती। वजह हम पहले ही बता चुके हैं – इस क्षेत्र का रणनीतिक महत्व। स्पष्ट है कि जनता इस क़दर भयभीत, लाचार और मुफ़लिसी का जीवन लगातार जीती नहीं चली जाएगी। वह लगातार लड़ तो रही है लेकिन एक सही मुकम्मल मंज़िल तक पहुँचने के लिए सही राजनीतिक दिशा और समझदारी की आवश्यकता है।
फिलिस्तीन एक राष्ट्र के तौर पर अपने दमन और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहा है और यह संघर्ष इतिहास में कई दौरों से गुज़र चुका है जिसमें प्रतिरोध का सबसे सशक्त दौर अखिल अरब राष्ट्रवाद का दौर रहा था। फ़िलिस्तीन की आज़ादी के साथ दो पहलू जुड़े हुए हैं एक फिलिस्तीन की राष्ट्र के तौर पर स्वतंत्रता; दूसरा ज़ायनवादी इज़रायल का साम्राज्यवादी निर्मिति होने की वजह फ़िलिस्तीन से पूरे अरब विश्व का जुड़ा होना। पश्चिमी साम्राज्यवाद के निहित स्वार्थों की वजह से यह पूरा क्षेत्र साम्राज्यवाद की एकल गाँठ बना हुआ है। आने वाले वर्षों में अगर जनक्रान्ति की शुरुआत कहीं से हुई, तो यह पूरे क्षेत्र में जंगल की आग की तरह फैल जायेगी। तब एक उन्नत स्तर की अखिल अरब एकजुटता सामने आयेगी। 1960 के दशक के बाद इतिहास में अखिल अरब राष्ट्रीयता को नेतृत्व देने वाली बुर्जुआज़ी अपनी प्रगतिशील सम्भावनाओं से रिक्त हो चुकी है, इसलिए नयी अखिल अरब राष्ट्रीयता का चरित्र सर्वहारा होगा। यदि इस क्रान्ति को फ़िलिस्तीन से शुरू होना है तो यह बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति होगी और फ़िलिस्तीनी बुर्जुआज़ी के बड़े हिस्से के ढुलमुल और समझौतापरस्त रवैये को देखते हुए ज़्यादा सम्भावना सर्वहारा पार्टी के नेतृत्व में इस क्रान्ति के पूरा होने की है। ऐसा कब होगा, यह अभी भविष्य के गर्भ में है, लेकिन विज्ञान अपना रास्ता बना लेता है और हमें पूरा विश्वास है कि फ़िलिस्तीन और अरब विश्व का संजीदा पढ़ा-लिखा तबका और नौजवान गम्भीरता से इस प्रयास में लगा होगा।

मज़दूर बिगुल, जून 2021


 

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