प्रोजेक्ट पेगासस : पूँजीवादी सत्ता के जनविरोधी निगरानी तंत्र का नया औज़ार और शासक वर्ग के विभिन्न धड़ों के गहराते अन्तरविरोध

– प्रसेन

पिछले महीने पूरी दुनिया के राजनीतिक हलक़ों में एक शब्द भ्रमण कर रहा था – पेगासस! ‘प्रोजेक्ट पेगासस’ के खुलासे के बाद न केवल भारत की संसदीय राजनीति में उथल-पुथल पैदा हो गयी बल्कि विश्व के साम्राज्यवादी सरगनाओं तक इसकी आँच पहुँची। यूँ तो वर्ग समाज के अस्तित्व में आने, राजसत्ता के जन्म के साथ ही शोषक-शासक वर्ग द्वारा अपने हितों के मद्देनज़र विकसित किये गये जननिगरानी तंत्र का एक लम्बा इतिहास है। लेकिन वर्ग समाज की सबसे उन्नत अवस्था यानी पूँजीवाद के या वर्तमान ढाँचागत संकट से ग्रस्त पूँजीवाद के दौर में, सूचना तंत्र की स्थूल और सूक्ष्म स्तर पर विराट प्रगति ने राजसत्ता के हाथ में अभूतपूर्व औज़ार सौंप दिया है। कम्प्यूटर, मोबाइल फ़ोन, इण्टरनेट आदि के ज़रिए डेटा पर सवार होकर पूरी दुनिया में शब्दों, चित्रों, ऑडियो-वीडियो के रूप में घूम रही सूचनाओं को सूचना-संचार की दुनिया के विश्व पूँजीवादी खिलाड़ियों और पूँजीवादी राजसत्ता द्वारा कहीं भी उतारा जा सकता है। इसके ज़रिए किसी की भी निजता के क्षेत्र में घुसकर उसकी सारी बातचीत, रुचियों, चाहतों आदि को जाना जा सकता है। स्पष्ट है कि इन सारी जानकारियों का राजनीतिक तौर पर सरकार द्वारा शोषक वर्गों के हित में और पूँजीवादी खिलाड़ियों द्वारा बाज़ार में इस्तेमाल किया जाता है।
पेगासस को अब तक का सबसे उन्नत व सबसे ख़तरनाक जासूसी स्पाइवेयर माना जा रहा है। इसे इज़रायल की एनएसओ ग्रुप कम्पनी बनाती है। यह कम्पनी इज़रायली ख़ुफ़िया विभाग की सीधी देखरेख में काम करती है। एनएसओ का दावा है कि वह पेगासस मात्र सरकारों को बेचती है न कि निजी संस्थाओं या व्यक्तियों को। ‘प्रोजेक्ट पेगासस’ के खुलासे से यह पता चला कि भारत, बहरीन, यूएई, सउदी अरब आदि को मिलाकर क़रीब 50 देश पेगासस के ग्राहक हैं। ‘प्रोजेक्ट पेगासस’ के खुलासे से यह भी पूरी तरह साफ़ है कि इसका इस्तेमाल सरकार द्वारा अपने ही देश के राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं, मानवाधिकार कर्मियों, जनपक्षधर पत्रकारों, वकीलों, बुद्धिजीवियों, विपक्षी नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों आदि पर किया जा रहा है।
पेगासस एक ऐसा जासूसी सॉफ़्टवेयर है जो मोबाइल मैसेजिंग ऐप से पासवर्ड, सम्पर्क सूची, कैलेण्डर, ईवेण्ट, टेक्स्ट सन्देश, लाइव वॉयस कॉल सहित यूजर्स के निजी डेटा को चुरा सकता है। इतना ही नहीं, फ़ोन के आसपास की सभी गतिविधियों को रिकॉर्ड करने के लिए फ़ोन बन्द होने पर भी फ़ोन कैमरा और माइक्रोफ़ोन को चालू किया जा सकता है। उपयोगकर्ता की जानकारी के बिना यह मालवेयर ईमेल, लोकेशन ट्रैकिंग, नेटवर्क विवरण, डिवाइस सेटिंग्स और ब्राउज़िंग हिस्ट्री डेटा तक भी पहुँच सकता है। यह मालवेयर पासवर्ड से सुरक्षित उपकरणों तक में पहुँचने की क्षमता रखता है। इंस्टॉल किये गये डिवाइस पर कोई निशान न छोड़ने, कम से कम बैटरी, मेमोरी और डेटा की खपत इसकी विशेषताएँ हैं ताकि उपयोगकर्ता को सन्देह पैदा न हो। जोखिम की स्थिति में स्वयं से अनइंस्टॉल होना, गहन विश्लेषण के लिए किसी भी डिलीट की गयी फ़ाइल को पुनः प्राप्त करने की क्षमता भी पेगासस स्पाइवेयर में है। पीबीएनएस की रिपोर्ट के मुताबिक़, पेगासस एक लिंक भेजता है और यदि उपयोगकर्ता लिंक पर क्लिक करता है, तो उसके फ़ोन पर मालवेयर या निगरानी की अनुमति देने वाला कोड इंस्टॉल हो जाता है। बताया जा रहा है कि इसके नये संस्करण के लिए किसी लिंक पर क्लिक करने की भी आवश्यकता नहीं होती है।
पेगासस एक बेहद महँगा स्पाइवेयर है। 2016 में पेगासस के ज़रिए 10 लोगों की जासूसी का ख़र्च क़रीब 9 करोड़ रुपये बैठता था। इसमें क़रीब 4 करोड़ 84 लाख रुपये 10 फ़ोन को हैक करने का ख़र्च था और क़रीब 3 करोड़ 75 लाख रुपये इंस्टॉलेशन फ़ीस के तौर पर चार्ज किये जाते थे। भारत में पेगासस द्वारा क़रीब 300 लोगों की जासूसी पर सरकार द्वारा ख़र्च का हिसाब लगाया जाये तो 2016 के दाम पर यह ख़र्च क़रीब 2700 करोड़ रुपये बैठेगा।

पेगासस स्पाइवेयर की जानकारी कैसे हुई?

पेगासस से जुड़ी जानकारी पहली बार 2016 में संयुक्त अरब अमीरात के मानवाधिकार कार्यकर्ता अहमद मंसूर की बदौलत मिली। उन्हें कई सन्दिग्ध एसएमएस प्राप्त हुए थे। उन्होंने अपने फ़ोन के विषय में टोरण्टो विश्वविद्यालय के ‘सिटीजन लैब’ के जानकारों और एक अन्य साइबर सुरक्षा फ़र्म ‘लुकआउट’ से मदद ली। मंसूर का अन्दाज़ा सही था। अगर उन्होंने लिंक पर क्लिक किया होता, तो उनका आइफ़ोन मालवेयर से संक्रमित हो जाता। इस मालवेयर को पेगासस का नाम दिया गया। ग़ौर करने वाली बात यह है कि आमतौर पर सुरक्षित माने जाने वाले एप्पल फ़ोन की सुरक्षा को ये स्पाइवेयर भेदने में कामयाब हुआ। इसके बाद 2017 में ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ मेक्सिको की सरकार पर पेगासस की मदद से मोबाइल की जासूसी करने वाला उपकरण बनाने का आरोप लगा। रिपोर्ट के मुताबिक़ इसका इस्तेमाल मेक्सिको में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और भ्रष्टाचार विरोधी कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ किया जा रहा था। मई 2020 में आयी एक रिपोर्ट में आरोप लगाया गया कि एनएसओ ग्रुप ने यूज़र्स के फ़ोन में हैकिंग सॉफ़्टवेयर डालने के लिए फ़ेसुबक की तरह दिखने वाली वेबसाइट का प्रयोग किया। समाचार वेबसाइट ‘मदरबोर्ड’ की एक जाँच में दावा किया गया है कि एनएसओ ने पेगासस हैकिंग टूल को फैलाने के लिए एक फ़ेसुबक के मिलता जुलता डोमेन बनाया और इस काम के लिए अमेरिका में मौजूद सर्वरों का इस्तेमाल किया गया। बाद में ‘फ़ेसुबक’ ने बताया कि उन्होंने इस डोमेन पर अधिकार हासिल किया ताकि इस स्पाइवेयर को फैलने से रोका जा सके। एनएसओ कम्पनी पर सऊदी सरकार को सॉफ़्टवेयर देने का भी आरोप है, जिसका पत्रकार जमाल खशोगी की हत्या से पहले जासूसी करने के लिए इस्तेमाल किया गया था। दिसम्बर 2020 में साइबर सुरक्षा से जुड़े शोधकर्ताओं ने आरोप लगाया कि कम्पनी के बनाये गये स्पाइवेयर से अलजज़ीरा के दर्जनों पत्रकारों का फ़ोन कथित तौर पर हैक कर लिया गया था।
अभी हाल ही में ये मामला तब सामने आया जब एनएसओ के किसी व्हिसलब्लोवर द्वारा फ़्रांस के जनपक्षधर पत्रकारों के समूह ‘फ़ॉर्बिडेन स्टोरीज़’ को एक सूची मिली, जिसमें दुनिया के 50 हज़ार से ज़्यादा फ़ोन नम्बर थे। पेगासस इन नम्बरों को या तो अपनी घुसपैठ का शिकार बना चुका है या बनाने वाला था। 50000 फ़ोन नम्बरों की सूचना लीक होने के बाद दुनिया के 17 जाने-माने मीडिया संस्थानों द गार्जियन, ले मोण्ड, वाशिंगटन पोस्ट, द वायर, फ़्रण्टलाइन आदि की लैब में जाँच-पड़ताल के बाद लीक हुए नम्बरों की पेगासस द्वारा जासूसी की पुष्टि हुई। ‘द वायर’ के मुताबिक़ भारत सरकार ने 2017 से 2019 के दौरान क़रीब 300 भारतीयों की जासूसी की है। जिनमें कम से कम 40 भारतीय पत्रकारों के फ़ोन को जासूसी के लिए पेगासस की मदद से हैक किया गया था।
पेगासस स्पाइवेयर विश्व पूँजीवादी जननिगरानी तंत्र के समुद्र में डूबे हिमखण्ड का शिखर मात्र है। इसके अलावा फिंसफिशर, पैकेजशेपर जैसे और न जाने कितने स्पाइवेयर मौजूद हैं जो यही काम कर रहे हैं। वास्तव में देखा जाये तो सूचना-संचार के अभूतपूर्व विकास से ग्लोबल सर्विलान्स कैपिटलिज़्म का एक पूरा तंत्र खड़ा हुआ है। इस तंत्र की एक भुजा पूँजीवादी बाज़ार के हितों की निगरानी कर रही है तो दूसरी पूँजीवादी राजसत्ता के हितों के मद्देनज़र जन असन्तोषों की। ग्लोबल सर्विलान्स कैपिटलिज़्म के इस तंत्र में सरकार और बड़ी-बड़ी पूँजीवादी कम्पनियाँ लगी हुई हैं। ये पूरा तंत्र न केवल बाज़ार के हितों की निगरानी करता है बल्कि यह बाज़ार के सांस्कृतिक अनुकूलन का माध्यम भी है। लोगों के फ़ोन नम्बर, बैंक अकाउण्ट, राशन कार्ड, बीमा, बिजली से सम्बन्धित जानकारियों के अलावा लोगों की रुचियों, आदतों से सम्बन्धित जानकारियाँ बड़ी आसानी से बड़ी-बड़ी कम्पनियों तक पहुँच जाती हैं। यह तंत्र इतना उन्नत है कि आप मसलन जूते की बात कीजिए और फिर आप अपना फ़ोन खोलिए तो अक्सर जूते का प्रचार आपके स्क्रीन, फ़ेसुबक आदि पर आ जाता है। फ़ोन आपको सुनता रहता है और आपकी बातों से बाज़ार के काम की चीज़ निकालकर कम्पनियों तक पहुँचाता रहता है। फिर कम्पनी आपकी क्षमता, रुचि आदि को ध्यान रखती हुई सामानों की पूरी लिस्ट आपके सामने भेजती रहती है। इस सन्दर्भ में शोशना जुबोफ़ की वृहदाकार पुस्तक ‘द एज ऑफ़ सर्विलांस कैपिटलिज़्म’ (The Age of Surveillance Capitalism) गूगल, फ़ेसुबक जैसे प्लेटफ़ॉर्म और अमेज़न जैसी ई-कम्पनी के माध्यम से इस पूरे गोरखधन्धे की बारीक जाँच-पड़ताल पेश करती है। इस पुस्तक की कमज़ोरी यह है कि यह राजसत्ता की कारगुज़ारियों को ठीक से सामने नहीं लाती।
अब एक बार फिर ‘प्रोजेक्ट पेगासस’ पर वापस लौटते हैं। पेगासस स्पाइवेयर के खुलासे पर राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर आख़िर इतना शोर क्यों मचा? यह वर्तमान समय में एक ओपेन सीक्रेट है कि पूरी दुनिया का शासक वर्ग अपने बनाये नियमों द्वारा या उसका अतिक्रमण करके पहले भी लोगों की जासूसी करवाता रहा है। एक पुरानी कहावत है – लुटेरों को भी आपस में ईमानदारी की ज़रूरत होती है। लेकिन पूँजीवादी लुटेरों के बीच हितों को लेकर जो भयानक गला-काटू होड़ चलती रहती है, उसमें हर तरह के तिकड़म, साम-दाम-दण्ड-भेद का भरपूर उपयोग होता है। इसलिए एक कहावत यह भी है कि लुटेरे आपस में रात्रि-भोज करते समय लम्बे हैण्डल वाले चम्मच का इस्तेमाल करते हैं! पूँजीवादी व्यवस्था कोई एकाश्मी व्यवस्था नहीं है। पूँजीवादी व्यवस्था के आर्थिक अन्तरविरोध राजनीतिक तौर पर पूँजीवादी लुटेरों के अलग-अलग धड़ों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली पूँजीवादी पार्टियों और एक पार्टी के भीतर भी कई ब्लॉकों के आपसी अन्तरविरोध के रूप में प्रकट होते हैं। पहले भी बाज़ार में पैदा होने वाला पूँजीपतियों का ‘दुश्मनाना भाईचारा’ उन्हें एक-दूसरे का सगा नहीं होने देता था और एक-दूसरे की गर्दन रेत देने का कोई अवसर वे गँवाते नहीं थे, लेकिन वर्तमान समय में विश्व पूँजीवाद जिस आर्थिक और राजनीतिक संकट से गुज़र रहा है, उसमें आपसी विश्वसनीयता के किसी भी नियम के और भी कोई मायने नहीं रह गये हैं। उनकी राजनीतिक एकता केवल सर्वहारा वर्ग और व्यापक मेहनतकश जनता के विरुद्ध प्रकट होती है। ‘प्रोजेक्ट पेगासस’ ने इनकी आपसी विश्वसनीयता की नौटंकी की चादर को भी उघाड़ दिया। भारत के अलावा पेगासस के सभी ख़रीदार देशों की सरकारों द्वारा पेगासस के ज़रिए जिन लोगों की जासूसी की गयी उनमें ज़्यादातर वे पत्रकार और नौकरशाह हैं जो जनपक्षधर अवस्थिति से सरकार व उनकी नीतियों का मुखर विरोध कर रहे थे, विपक्ष के नेता हैं, पार्टी के भीतर के विरोधी ब्लॉक हैं, प्रशासनिक ढाँचे में सरकार की हाँ में हाँ न मिलाने वाले लोग हैं। भारत में जिन लोगों की जासूसी करवायी गयी है उनमें ज़्यादातर मोदी सरकार की नीतियों के मुखर आलोचक रहे हैं या असहमत रहे हैं। अगर पत्रकारों की बात की जाये तो हिन्दुस्तान टाइम्स, इण्डियन एक्सप्रेस, टीवी-18, द हिन्दू, द ट्रिब्यून, द वायर जैसे संस्थानों से जुड़े पत्रकार जैसे एम के वेणु, सिद्धार्थ वरदराजन, रोहिणी सिंह, स्वाती चतुर्वेदी आदि के अलावा कई स्वतंत्र पत्रकार हैं, जो मोदी सरकार के ख़िलाफ़ मुखर थे। इन पत्रकारों के अलावा विपक्षी पार्टी जैसे कांग्रेस नेता राहुल गाँधी और कांग्रेस के राजनीतिक रणनीतिकार प्रशान्त किशोर, सुप्रीम कोर्ट के जज और सुरक्षा एजेंसियों के मौजूदा और पूर्व हेड समेत कई बिजनेसमैन शामिल हैं। प्रशासनिक अधिकारियों में इलेक्शन कमिश्नर अशोक लवासा के फ़ोन की जासूसी की गयी जो मोदी की हाँ में हाँ नहीं मिलाते थे। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज रंजन गोगोई पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली महिला का फ़ोन नम्बर भी इस लिस्ट में शामिल है। इतना ही नहीं पेगासस द्वारा जिनकी जासूसी करवायी गयी उसमें ख़ुद भाजपा के दो नेता केन्द्रीय मंत्री प्रह्लाद सिंह पटेल और रेल तथा आईटी मंत्री अश्विनी वैष्णव का नाम है। इससे पूँजीवादी राज्यसत्ता और पूँजीपतियों के विभिन्न धड़ों और फ़ासीवादी भाजपा के अलग-अलग ब्लॉकों के अन्तरविरोध और पार्टी के भीतर हावी ब्लॉक द्वारा नौकरशाही, न्यायपालिका को साधने और ब्लैकमेल करने का भी खुलासा होता है। ‘प्रोजेक्ट पेगासस’ के खुलासे से मचने वाले शोर के पीछे एक महत्वपूर्ण वजह यही है कि पूँजीवादी लुटेरों के विभिन्न राजनीतिक धड़ों के आपसी अन्तरविरोध उभरकर सामने आ गये। दूसरी वजह यह है कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर फ़्रांस के राष्ट्रपति के फ़ोन की जासूसी की ख़बर आने पर फ़्रांस का बुर्जआ वर्ग असन्तुष्ट है। फ़्रांस के राष्ट्रपति को अपना फ़ोन बदलना पड़ा! फ़्रांसीसी सरकार द्वारा इस पूरे मामले की जाँच की अनुमति देने से भी माहौल गरम हो गया। ‘प्रोजेक्ट पेगासस’ के खुलासे के बाद राफ़ेल डील की फ़ाइल फिर से खुल गयी है। अन्तरराष्ट्रीय दबाव के चलते इज़राइल को एनएसओ के ऑफ़िस पर छापे मारने पड़े और जाँच बैठानी पड़ी।
साफ़ है अगर राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर बुर्जुआ वर्ग के आपसी अन्तरविरोध न उभर जाते तो ‘प्रोजेक्ट पेगासस’ पर इतना शोर क़तई न मचता। इसका सबसे महत्वपूर्ण प्रमाण है अमेरिका के मैसाच्युसेट्स की डिजिटल फ़ोरेंसिक फ़र्म ‘आर्सेनल कंसल्टिंग’ की तीन रिपोर्टें। ग़ौरतलब है कि वाशिंगटन पोस्ट की भारत संवाददाता निहा नसीह की एक रिपोर्ट के हवाले से पता चला है कि ‘आर्सेनल कंसल्टिंग’ ने बहुचर्चित भीमा कोरेगाँव, प्रधानमंत्री को मारने के तथाकथित माओवादी षड्यंत्र की साज़िश में यूएपीए के तहत जेल में बन्द आरोपियों में से दो – रोना विल्सन और सुरेन्द्र गाड्गिल के डिजिटल रिकॉर्ड्स और ई-मेल की जाँच के बाद पाया है कि किसी हैकर के ज़रिए इन दोनों के कम्प्यूटर में आपत्तिजनक सामग्री इंस्टॉल की गयी थी। गिरफ़्तारी के पहले फ़ादर स्टेन (जिनकी कुछ दिन पहले जेल में मौत हो गयी), गौतम नौलखा और आनन्द तेलतुम्बडे ने भी यही बात कही थी। इस पूरे मसले पर राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की मीडिया (कुछ को छोड़कर) ने कोई शोर नहीं मचाया और न ही विपक्षी दल या उसके नेताओं ने कोई उठा-पटक की। बात स्पष्ट है – इस मामले में चूँकि मसला राज्य बनाम जनता के हितों के लिए आवाज़ उठाने वाले सामाजिक/राजनीतिक कार्यकर्ताओं का है इसलिए कोई शोर नहीं। जबकि प्रोजेक्ट पेगासस के खुलासे ने राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग के विभिन्न धड़ों के अन्तरविरोध को उभार दिया इसलिए इतना हँगामा बरपा।
भारत में फ़ोन टैपिंग का मामला नया नहीं है। इसकी क़ानूनी वैधता है। ब्रिटिश औपनिवेशिक ग़ुलामी के समय बने भारतीय टेलीग्राफ़ अधिनियम, 1885 की धारा 5 (2) आज़ादी के बाद भी लागू थी। कम्प्यूटर, मोबाइल फ़ोन, इण्टरनेट आदि के बाद नये क़ानून बनाये गये। सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 69 केन्द्र सरकार या राज्य सरकार को किसी भी कम्प्यूटर संसाधन में उत्पन्न, प्रेषित, प्राप्त या संग्रहित किसी भी जानकारी को इण्टरसेप्ट, मॉनिटर या डिक्रिप्ट करने का अधिकार देती है। इस तरह के इण्टरसेप्शन के लिए केन्द्र सरकार ने 10 एजेंसियों को अधिकृत किया है। ये एजेंसियां हैं – इण्टेलीजेंस ब्यूरो, नारकोटिक्स कण्ट्रोल ब्यूरो, प्रवर्तन निदेशालय, केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड, राजस्व ख़ुफ़िया निदेशालय, केन्द्रीय जाँच ब्यूरो, राष्ट्रीय जाँच एजेंसी; कैबिनेट सचिवालय (रॉ), सिग्नल इण्टेलीजेंस निदेशालय (केवल जम्मू और कश्मीर, उत्तर पूर्व और असम के सेवा क्षेत्रों के लिए) और पुलिस आयुक्त, दिल्ली। ये अधिकार भारत की सम्प्रभुता या अखण्डता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध या सार्वजनिक व्यवस्था को बनाये रखने के लिए या इनसे जुड़े किसी संज्ञेय अपराध को रोकने के लिए या किसी संज्ञेय अपराध की जाँच के लिए दिये गये हैं। किसी भी एजेंसी को इण्टरसेप्शन या मॉनिटरिंग या डिक्रिप्शन के लिए कोई व्यापक अनुमति नहीं है और प्रत्येक मामले में क़ानून और नियमों की उचित प्रक्रिया के अनुसार सक्षम प्राधिकारी से अनुमति की आवश्यकता होती है। साथ ही प्रत्येक मामले की समीक्षा केन्द्र में कैबिनेट सचिव और राज्य सरकारों में मुख्य सचिव की अध्यक्षता वाली एक समिति करती है। एक बार इजाज़त मिलने के बाद इण्टरसेप्शन को दो महीने तक जारी रखा जा सकता है और दो बार रिन्यू किया जा सकता है लेकिन किसी भी स्थिति में ये इण्टरसेप्शन 180 दिनों से ज़्यादा नहीं किया जा सकता।
लेकिन फिर जैसा कि हर क़ानून के साथ होता है। सरकार इसका इस्तेमाल अपने राजनीतिक विरोधियों मसलन राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं, जनपक्षधर पत्रकारों, मानवाधिकार-कर्मियों, जजों, विपक्ष के नेताओं आदि के लिए करती है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण, जासूसी के इन औज़ारों को चाक-चौबन्द करने का असली बुनियादी और दूरगामी मक़सद है जनता की क्रान्तिकारी शक्तियों को कुचलना। बाक़ी लक्ष्य गौण हैं, हालाँकि वे तात्कालिक तौर पर प्रमुख दिख सकते हैं। इण्टरसेप्शन के लिए जो वजहें दी गयी हैं वे इतनी व्यापक और इतनी अस्पष्ट हैं कि बात सरकार की मर्ज़ी की बन जाती है।
क़ानून के दुरुपयोग के अलावा अब बात करते हैं फ़ासीवादी मोदी सरकार द्वारा अपनाये गये ग़ैर-क़ानूनी तरीक़ों के बारे में। सरकार ने संविधान में मौजूद ‘निजता’ के मौलिक अधिकार की धज्जियाँ उड़ाते हुए लोगों की जासूसी के लिए और भी कई सिस्टम बनाये हैं। जिनमें कॉम्प्रिहेंसिव मॉनिटरिंग सिस्टम, नेटग्रेड और नेत्र जैसे मुख्य हैं। सरकार का यह सिस्टम इण्टरनेट के ज़रिए थोक में लोगों से सम्बन्धित जानकारियाँ इकट्ठा करने के लिए बनाया गया है। 2012 में ‘द इण्डियन एक्सप्रेस’ अख़बार ने आरटीआई का इस्तेमाल कर जुटायी गयी जानकारी के आधार पर रिपोर्ट किया कि केन्द्रीय गृह मंत्रालय हर महीने औसतन 7,500 से 9,000 टेलीफ़ोन इण्टरसेप्शन यानी हर दिन औसतन 250-300 टेलीफ़ोन इण्टरसेप्शन के एप्लीकेशन को स्वीकृति देता है। इतने एप्लीकेशन की पूरी तरह जाँच करके स्वीकृति दे पाना होम सेक्रेटरी के लिए सम्भव ही नहीं है। ज़ाहिर है कि इतने सारे इण्टरसेप्शन की स्वीकृति मनमर्ज़ी तरीक़े से बिना यह देखे दी जा रही है किसका इण्टरसेप्शन क़ानूनी दायरे के अन्दर है और किसका उसके बाहर।
जबकि स्पाईवेयर का इस्तेमाल तो पूरी तरह अवैध है। क्योंकि स्पाईवेयर किसी के सिस्टम में बग़ैर इजाज़त के घुसता है, डेटा को एकत्रित करता है, और फिर उस डेटा को सिस्टम के बग़ैर इजाज़त या जानकारी के बाहर भेजता है। मोदी सरकार इसी पेंच में फँसी है। पेगासस के मामले में सरकार इसके इस्तेमाल को न तो पूरी तरह से नकार रही है और न ही स्वीकार कर रही है। सरकार का बस इतना कहना है कि हमने कोई अवैध इण्टरसेप्शन नहीं किया है। हमने जो किया क़ानूनसंगत तरीक़े से किया है! पेगासस के इस्तेमाल करने को पूरी तरह से नकार देने पर सरकार के सामने संकट यह है कि उस सूरत में सरकार पर इस मामले की तफ़्तीश कराने का मामला बन जायेगा। पेगासस जासूसी मामले में सरकार की लिप्तता के बारे में देश के जाने-माने वकील प्रशान्त भूषण का कहना है कि सरकार ने लोगों की जासूसी के लिए लोकसभा चुनाव-2019 से पहले राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय (एनएससीएस) के बजट में क़रीब 10 बार बढ़ोत्तरी की । जिस कारण एनएससीएस के लिए वित्त वर्ष 2016-17 में बजट आवण्टन 33.17 करोड़ रुपये से 10 गुना बढ़कर वर्ष 2017-18 में 333.58 करोड़ रुपये हो गया।
कुल मिलकर कहा जाये तो ‘प्रोजेक्ट पेगासस’ का खुलासा पूँजीवादी विश्व के जनविरोधी जननिगरानी तंत्र का खुलासा है। यह पूँजीवादी बाज़ार और राज्यसत्ता के आपसी गँठजोड़ के सच का नंगा खुलासा है। यह पूँजीपति वर्ग के हाथ में सूचना प्रौद्योगिकी के रूप में उस अतिविकसित औज़ार का खुलासा है जो डेटा के रूप में दुनियाभर में फैले विराट अदृश्य जाल के ज़रिए किसी भी जानकारी को पाने में आने वाली बाधा को भेद सकता है। लेकिन यह जननिगरानी तंत्र एक तरफ़ जितना पूँजीवादी व्यवस्था व राज्यसत्ता की शक्तिमत्ता को इंगित करता है उतना ही दूसरी तरफ़ यह पूँजीवादी व्यवस्था के बढ़ते असमाधेय आर्थिक और राजनीतिक संकट तथा राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर पूँजीपति वर्ग और राज्यसत्ता के विभिन्न धड़ों, ब्लॉकों के बीच की भयानक कुत्ताघसीटी को, शक्तिमत्ता के काग़ज़ीपन को भी उजागर करता है। साम्राज्यवादी, भारत के फ़ासीवादी और दुनिया के तानाशाह जनता के असन्तोषों पर नज़र रखने और उन्हें कुचलने के लिए चाहे जितनी उन्नत तकनीक हासिल कर लें लेकिन अन्ततः जनता के ग़ुस्से को संगठित होने और विस्फोट के वक़्त को वे न तो रोक सकते है और न भाँप सकते हैं। जर्मनी के मशहूर फ़ासीवाद विरोधी योद्धा बर्टोल्ट ब्रेख़्त की यह बात दुनियाभर के हुक्मरानों का अन्तिम समय तक पीछा करती रहेगी – जनरल तुम्हारा टैंक एक मज़बूत वाहन है…लेकिन उसमें एक नुक्स है – उसे ड्राइवर चाहिए।

मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2021


 

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