उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों के आगामी विधान सभा चुनाव
देश में अन्धराष्ट्रवाद और साम्प्रदायिकता के गहराते बादल

– लता

उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव मार्च 2022 में होने जा रहे हैं। इसके आस-पास ही उत्तराखण्ड, पंजाब, मणिपुर और गोवा विधान सभा के भी चुनाव होने जा रहे हैं। देश की आबो-हवा में अन्धराष्ट्रवाद और धार्मिक साम्प्रदायिकता के गाढ़े रंग घुलने लगे हैं। आतंकवादी हमले, सीमा पर गोलीबारी और देश में जगह-जगह दंगे इन चुनावों की सूचना दे रहे हैं। वैसे तो फ़ासीवादी मोदी सरकार और उसके सबसे मुस्तैद सिपहसालार अमित शाह, अन्धराष्ट्रवाद और धार्मिक साम्प्रदायिकता के रंग कभी फीके नहीं पड़ने देते लेकिन चुनावों के दौरान तो इन पर गाढ़ा वार्निश चढ़ाया जाता है।
इस बार दंगा बहुत बड़ा था
ख़ूब हुई थी
ख़ून की बारिश
अगले साल अच्छी होगी
फ़सल मतदान की।
– गोरख पाण्डे
जैसे ही सीमा पर गोलाबारी, आतंकवादी हमले, लव ज़िहाद, हिन्दू-मुसलमान आदि शब्द दिन में कई बार सुनाई देने लगें तो लोगों को समझ आने लगता है कि ज़रूर कोई चुनाव नज़दीक है। अक्सर लोगों को बोलते सुना होगा कि – ‘अरे चुनाव आ रहे हैं, देखना ज़रूर कोई पुलवामा, कोई सर्जिकल स्ट्राइक या दंगा होगा’। यह सच है और बेहद त्रासद भी क्योंकि लोगों का ध्यान असल मुद्दों और कठिनाइयों से भटकाने के लिए अन्धराष्ट्रवाद और साम्प्रदायिक उन्माद सबसे कारगर नुस्ख़ों में एक है। जब महँगाई हमारी कमर तोड़ रही होती है, बेरोज़गारी, छँटनी, तालाबन्दी से हमारी आह-कराह निकल रही होती है तो हमें ‘हिन्दू धर्म का अपमान’, ‘सीमा पर जवान’, ‘56 इंच के सीने वाला बलवान’ आदि का शोर सुनाई देने लगता है। हमारे बीच से भी कई लोग इन बातों पर विश्वास करने लगते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि चाहे सीमा पर मरने वाले जवान हों या दंगों में मरने वाले लोग सभी आम मेहनतकश मज़दूर आबादी से आते हैं। नेता, मंत्री और करोड़पतियों के बच्चे कभी सेना में भर्ती नहीं होते और न ही दंगों में इनके मारे जाने की बात सुनने में आती है। बेरोज़गारी, ग़रीबी, भुखमरी और कुपोषण से हम मरते हैं और दंगों में भी हमारे लोगों की ही मौतें होती हैं।
हमें अन्धराष्ट्रवाद और साम्प्र-दायिकता के पीछे की असली राजनीति को समझना बेहद ज़रूरी है क्योंकि एक बार फिर देश का राजनीतिक माहौल बेहद गम्भीर रूप से बिगड़ता जा रहा है। धर्म-संस्कृति के ठेकेदार और राष्ट्रवाद के चैम्पियन बने बजरंगदल, विश्व हिन्दू परिषद (विहिप), आरएसएस जैसे फ़ासीवादी संगठन बिना सिर-पैर की बातों पर धार्मिक उन्माद भड़का रहे हैं, लोगों के दिलो-दिमाग़ में ज़हर घोल रहे हैं। वैसे तो आरएसएस, बजरंगदल, विहिप या शिव सेना के लम्पट लंगूर सालभर किसी न किसी विज्ञापन, फ़िल्म या वैलेण्टाइन डे आदि पर शोर मचाते ही रहते हैं, तोड़-फोड़ करते ही रहते हैं। साथ ही अकेले कमज़ोर लोगों को मारना, अपमानित करना, मॉब लिन्चिंग करना इनके व्यवसाय हैं। लेकिन चुनावों के दौरान ये और भी घातक हो जाते हैं। बड़े-बड़े पूँजीपतियों से मिले चुनावी चन्दों में से एक हिस्सा इन उपद्रवियों को जाता है ताकि ये साम्प्रदायिक घटनाओं को अंजाम दे सकें। अभी हाल ही में 28 अक्टूबर को त्रिपुरा में सड़कों पर मुस्लिम समुदाय के ख़िलाफ़ विश्व हिन्दू परिषद के गुण्डों ने भड़काऊ नारे लगाकर रैलियाँ निकाली और फिर दंगे भड़काये। वजह बतायी गयी कि बांग्लादेश में विजयदशमी के दिन हिन्दुओं की दुकानें जलायी गयीं, उन्हें मारा गया इसलिए यह बदले के तौर पर किया जा रहा है। निश्चित ही बंगलादेश की इस घटना की निन्दा की जानी चाहिए और दोषियों को सज़ा देने की माँग वहाँ की सरकार से की जानी चाहिए। वहाँ के तरक़्क़ीपसन्द मुसलमानों और हिन्दुओं ने इन हमलों का इतने बड़े पैमाने पर विरोध किया कि बंगलादेश की प्रधानमंत्री तक को इस पर माफ़ी माँगनी पड़ी और स्पष्टीकरण देना पड़ा। हमें यह समझना चाहिए कि कहीं भी ऐसी घटनाओं को अंजाम साम्प्रदायिक ताक़तें ही देती हैं जिनमें आम लोग पिसते हैं। इसका मतलब यह क़तई नहीं होता कि किसी धर्म विशेष के सभी लोग ऐसी घटनाओं के लिए जि़म्मेदार होते हैं। हमारे देश में आरएसएस, बजरंगदल, विहिप, शिव सेना जैसे फ़ासीवादी संगठन के भगवा ब्रिगेड जब दंगे भड़काते हैं या सड़कों पर मासूमों की मॉब लिन्चिंग करते हैं तो क्या इनकी हरकतों के लिए सभी हिन्दू दोषी हो जाते हैं? वैसे ही बंगलादेश और पाकिस्तान में हिन्दुओं या अन्य अल्पसंख्यकों के साथ होने वाली हिंसा के लिए सभी मुसलमान ज़िम्मेदार नहीं होते हैं। एक और बात जो ध्यान देने वाली है वह यह कि विजयदशमी यानी 15 अक्टूबर की घटना की ‘प्रतिक्रिया’ देने में हिन्दुत्ववादी फ़ासीवादियों को 12-15 दिन लग गये। इसका मतलब है कि यह जनता की स्वत:स्फूर्त प्रतिक्रिया नहीं थी बल्कि सोची-समझी योजना के तहत तैयारी के साथ लोगों में साम्प्रदायिक आग भड़कायी गयी और इस घटना को अंजाम दिया गया। दंगे हमेशा ही मैन्युफ़ैक्चर किये जाते हैं; चुनावों में अपनी गोटी लाल करने के लिए पूँजीवादी चुनावबाज़ व फ़ासीवादी पार्टियाँ अपनी राजनीति की फ़ैक्टरियों में दंगे मैन्युफ़ैक्चर करती हैं। अभी त्रिपुरा में और आने वाले समय में देश के अलग-अलग हिस्सों से ऐसी ख़बरें आती रहेंगी और आम लोग मरते रहेंगे।
बेहद संक्षेप में लेकिन इस ओर भी आपका ध्यान दिलाना ज़रूरी है कि त्रिपुरा वही राज्य है जिसमें 25 साल माकपा के नेतृत्व वाली वाम मोर्चे की सरकार थी। आज यहाँ भाजपा की सरकार है। जैसा पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव 2019 में हुआ वही त्रिपुरा में भी देखने को मिला। संशोधनवादी पार्टियों का सामाजिक आधार सीधे भाजपा में शामिल हो गया। इसके पीछे इन लाल कलँगी वाली संसदवादी पार्टियों का असली चेहरा नज़र आता है जिसने मज़दूर वर्ग को अर्थवाद और अवसरवाद के दलदल में घसीटा, नवउदारवाद की नीतियों को लागू किया और मज़दूर-मेहनतकश आबादी की राजनीतिक चेतना उन्नत करने का कोई प्रयास नहीं किया। परिणाम यह है कि आम मेहनतकश आबादी का भी एक हिस्सा फ़ासीवादी राजनीति के प्रभाव में है और आगजनी, दंगों और हत्या में भागीदारी कर रहा है।
बहरहाल, उत्तर प्रदेश के चुनावों पर वापस लौटते हैं। यह चुनाव और इसके साथ अन्य राज्यों के चुनाव भी किसी भी रूप में भिन्न नहीं होने जा रहे हैं। देश के अभी के माहौल को देखकर समझा जा सकता है कि चुनावों का यह दौर शायद पहले से कहीं ज़्यादा हिंसक, साम्प्रदायिक और अन्धराष्ट्रवाद की लहर से भरा होगा क्योंकि इन चुनावों को 2024 के चुनावों का पूर्वाभ्यास माना जा रहा है।
लोकसभा की 80 सीटों के हिसाब से उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है। इसलिए यहाँ लोकसभा और राज्यसभा दोनों के ही चुनाव किसी भी चुनावबाज़ पार्टी के लिए विशेष महत्व रखते हैं। सपा, बसपा, कांग्रेस, आम आदमी पार्टी आदि की चुनावी तैयारियों को देखकर यह बात बिल्कुल सही लगती है। मज़दूर वर्ग के लिए इन चुनाव अभियानों में सबसे ग़ौर करने वाली बात यह है कि इनमें से किसी भी पार्टी के पास कम से कम ज़ुबानी जमा ख़र्च के लिए भी रोज़गार, महँगाई, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि मुद्दा प्रमुख मुद्दा नहीं है। इन्हें दुहराते सब हैं लेकिन भाजपा की तरह ही इन पार्टियों ने भी चुनाव प्रचार में धर्म की शरण ली है। भाजपा और आरएसएस के हिन्दुत्व एजेण्डे पर हम बाद में आयेंगे। पहले इन पार्टियों की राजनीति पर एक नज़र डाल लेते हैं। केजरीवाल और आम आदमी पार्टी (आप) पंजाब में बार-बार धनी किसानों को आश्वासन दे रहे हैं कि ‘आप’ की जीत उन्हें उचित मुआवज़ा दिलायेगी वहीं उत्तर प्रदेश में क़दम रखते ही उन्हें हिन्दू धर्म, रामलला और राम-मन्दिर मुद्दा नज़र आता है। अयोध्या में राम मन्दिर के निर्माण का लम्बे समय से समर्थन कर रहे केजरीवाल ने घोषणा की है कि दिल्ली वालों को राम मन्दिर की यात्रा मुफ़्त करायेंगे और अगर जीत गये तो यूपी वालों के लिए भी यात्रा मुफ़्त होगी। बसपा के सतीष चन्द्र मिश्रा ने वायदा किया है कि अगर उनकी पार्टी जीत कर आती है तो भव्य राम मन्दिर का निर्माण वे करेंगे। सपा के अखिलेश यादव भी घुमा-फिराकर राम मन्दिर, अयोध्या और सबसे बड़ा हिन्दू होने का दावा करते रहते हैं। राम जन्मभूमि विवाद की सूत्रधार कांग्रेस तो हमेशा से नर्म हिन्दुत्व का कार्ड खेलती आयी है। हिन्दू वोट बैंक को आकृष्ट करने के फ़िराक़ में चुनाव अभियानों के दौरान मन्दिरों के दर्शन और पूजा-पाठ करती है। इनकी ये करतूतें कितने वोट हासिल करवाती हैं उसका पता नहीं लेकिन एक बात निश्चित है कि ये चुनावों में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को मज़बूत बनाता है। लेकिन इन्हें यह बात समझ नहीं आती कि यदि धर्म को मुद्दा बनाया जायेगा तो इनका यह नर्म हिन्दुत्व फ़ासीवादी हिन्दुत्व के आगे टिकेगा नहीं लेकिन साम्प्रदायिकता की आग भड़काने में घी का काम ज़रूर करेगा। वैसे देखा जाये तो इनके पास भी जनता को दिखाने के लिए है ही क्या? नवउदारवाद की नीतियों को सबने धड़ल्ले से लागू किया है, मज़दूरों का ख़ून निचोड़ने की नीतियाँ इन सबों ने लागू की हैं। बड़े-बड़े चुनावी वायदे ज़मीन पर फुस्स रहे हैं, ओबीसी, दलित व अन्य जातिगत पहचान की राजनीति भी अब नहीं चल सकती क्योंकि इन सामाजिक रूप से दमित व शोषित समुदायों का भी कोई उद्धार तो इनके हाथों कभी हुआ नहीं। ख़ैर, जो भी हो इनका धर्म को मुद्दा बनाना भाजपा की फ़ासीवादी हिन्दुत्ववादी राजनीति को ही लाभ पहुँचाएगा क्योंकि जब धर्म की बात आयेगी तो “हिन्दू हृदयसम्राट” तो भाजपा के पास ही हैं और फ़ासीवादी लम्पटों गुण्डों की वानर सेना भी इनकी ही है!
साम्प्रदायिक फ़ासीवादी राजनीति को हवा देना भाजपा के लिए इस समय बेहद फ़ायदेमन्द है क्योंकि किसान आन्दोलन और तीन कृषि क़ानून की वजह से धनी किसानों में पैदा हुए असन्तोष पर भी साम्प्रदायिक लहर और धार्मिक उन्माद के ज़रिए हावी हुआ जा सकता है। लेकिन उससे भी बड़ा कारण यह है कि कोरोना महामारी की शुरुआत के बाद से अब तक योगी सरकार की भयंकर संवेदनहीनता और नाकामी और उसके बाद महँगाई, बेरोज़गारी और ग़रीबी पर क़ाबू पाने के प्रयासों की बजाय अपनी सरकार के झूठे प्रचार पर करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाने के कारण व्यापक जनता में भयंकर असन्तोष है, जो कि उत्तर प्रदेश में ही नहीं बल्कि हालिया विधानसभा उपचुनावों में कई राज्यों में प्रकट हुआ है। यही कारण है कि बहुत मुमकिन है कि भाजपा आगामी विधानसभा चुनावों में हर जगह अपने तुरुप का पत्ता खेल सकती है, यानी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी राजनीति के ज़रिए धार्मिक ध्रुवीकरण और छोटे-बड़े दंगे कर हिन्दू वोटों का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण।
धार्मिक ध्रुवीकरण और साम्प्रदायिक उन्माद के अलावा जिस मुद्दे को भाजपा और संघ परिवार हमेशा सुलगाये रहते हैं वह है – अन्धराष्ट्रवाद। अन्धराष्ट्रवाद के लिए सदा तैयार ज़हरीला कॉकटेल है कश्मीर का मुद्दा और हिन्दुस्तान-पाकिस्तान तनाव। कोरोना काल में ऑक्सीजन, अस्पताल और दवाइयों की कमी से बेमौत मरने वालों की संख्या चालीस लाख से ऊपर की है जिनमें निश्चित ही बड़ी आबादी हिन्दुओं की ही रही होगी। इस दौरान फ़ासीवादी संगठनों को हिन्दू ख़तरे में नज़र नहीं आये। तब तो बजरंगदल और आरएसएस को साँप सूँघ गया था। लेकिन हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के मैच जैसी मामूली बात पर इनका विषैला अन्धराष्ट्रवाद उफान मारने लगता है। उस समय ये लोगों को मारते-पीटते हैं और उन्हें पाकिस्तान भेजने की बातें करते हैं। अभी आलम यह है कि हर दूसरी ख़बर कुछ इस प्रकार की ही है। क्या देश में नौजवानों की बेरोज़गारी मुद्दा नहीं है, महँगाई, बीमारी, शिक्षा, कम मज़दूरी, काम के बढ़ते घण्टे ये मुद्दे नहीं हैं? देश की अस्सी प्रतिशत आबादी इन मुद्दों के बोझ तले दबती जा रही है। बच्चे भूख, कुपोषण और मामूली बीमारी से मर रहे हैं। लेकिन सभी जगह से शोर उठ रहा है कि हिन्दू ख़तरे में हैं और इनका विरोध करने वाला हर व्यक्ति देशद्रोही है।
अभी जैसे-जैसे चुनाव नज़दीक आते जा रहे हैं कश्मीर में तनाव बढ़ रहा है और सीमा से गोलाबारी की ख़बरें आनी शुरू हो गयी हैं। 30 अक्टूबर को बारूदी सुरंग विस्फोट में दो सेनाकर्मी मारे गये। इसके पहले आतंकवादी हमले हुए। अक्टूबर के महीने में कश्मीर में हुए आतंकवादी हमलों में कई लोगों की जानें गयीं जिसमें हिन्दू, सिख और मुसलमान समुदाय के लोग शामिल थे। 2 अक्टूबर को दो कश्मीरी मुसलमानों को आतंकवादियों ने मारा फिर 7 अक्टूबर को एक स्कूल में घुसकर स्कूल की प्रधानाचार्या सुपिन्दर कौर और एक हिन्दू शिक्षक की गोली मार कर हत्या कर दी। दवाई दुकान के मालिक माखनलाल बिन्दु को आतंकवादियों ने अपना निशाना बनाया। फिर रेहड़ी लगाने वाले एक प्रवासी मज़दूर और एक मुसलमान टैक्सी चालक को भी आतंकवादियों ने मार डाला। इन कायराना आतंकवादी हमलों में मरने वाले सभी समुदायों से होते हैं लेकिन गोदी मीडिया इन्हें हिन्दुओं पर होने वाले कश्मीरी मुसलमान के हमले के रूप में प्रस्तुत करती है और पूरी कश्मीरी मुसलमान आबादी को आतंकवादी क़रार दे देती है।
अन्धराष्ट्रवाद की लहर पैदा करने के लिए, जैसा कि हमने पहले भी कहा है, कश्मीर का मुद्दा इनके लिए रामबाण नुस्ख़ा होता है। कश्मीर का मुद्दा इनके लिए एक तीर से दो निशाने साधने का काम करता है: अन्धराष्ट्रवाद का मसाला और धार्मिक ध्रुवीकरण व साम्प्रदायिकता के लिए कश्मीरी पण्डितों का मुद्दा। उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण चुनाव में इस मुद्दे को भुनाया न जाये ऐसा भला कैसे हो सकता है! साथ ही यह मुद्दा जितना सियासी महत्व भारत के हुक्मरानों के लिए रखता है उतना ही यह पाकिस्तान के हुक्मरानों के लिए भी काम की तरकीब है। दोनों ही देशों के पूँजीवादी शासक वर्ग अपनी-अपनी असफलताओं को छुपाने और जनता का शोषण-उत्पीड़न जारी रखने के लिए इसका बेहद कुशलता से प्रयोग करते हैं। नवउदारवाद की नीतियों की वजह से पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था भी घोर संकट से गुज़र रही है। भारत की तरह पाकिस्तान में भी आम मेहनतकश जनता और मज़दूर वर्ग का ध्यान बेराज़गारी, ग़रीबी, भुखमरी, कुपोषण, स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास आदि से भटकाने के लिए सीमा विवाद, साम्प्रदायिक उन्माद और आतंकवाद चाहिए होता है।
कश्मीर के इतिहास और कश्मीर के मुद्दे पर हम बिगुल के पन्नों पर लिखते आये हैं क्योंकि कश्मीरी क़ौम के दुख-तकलीफ़ों को समझकर और उसके सही इतिहास से परिचित होकर ही भारत का सर्वहारा वर्ग कश्मीर के मुद्दे पर अपनी सही राय बना सकता है और उसके संघर्ष का हिस्सा बन सकता है। यह भारत के सर्वहारा वर्ग के लिए बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि किसी भी देश का सर्वहारा वर्ग यदि अपने देश के पूँजीपति हुक्मरानों द्वारा दमित क़ौमों के दमन-उत्पीड़न पर ख़ामोश रहता है तो वह अपने आप को भी पूँजीवादी ग़ुलामी से मुक्त नहीं कर सकता। सर्वहारा वर्ग की ख़ामोशी अन्धराष्ट्रवाद का मौन समर्थन होगा और देश की आम मेहनतकश आबादी उस ज़हरीली राजनीति के प्रभाव में रहेगी।
5 अगस्त 2019 को धारा 350 और 35-ए के हटाये जाने के बाद अमित शाह और मोदी कश्मीर में विरोध प्रदर्शनों के आँकड़ों से यह स्थापित करना चाह रहे हैं कि कश्मीरी क़ौम भारत में शामिल होना स्वीकार कर चुकी है। विरोध प्रदर्शनों का कम होना उनकी कसौटी है। वैसे तो इस सरकार के आँकड़ों पर कितना भरोसा किया जा सकता है हम सभी को पता है। धारा 370 और 35 ए हटाये जाने की घोषणा के साथ कश्मीर में दस लाख अतिरिक्त सेना की तैनाती कर दी गयी थी। वैसे ही कश्मीर विश्व में सेना की सबसे सघन उपस्थिति वाला भूभाग है। उसमें 10 लाख और सैनिक कश्मीर पहुँच गये। मोदी-शाह के तमाम झूठे दावों की सच्चाई यह है कि कश्मीरियों की बेलगाम गिरफ़्तारियाँ, झूठे एनकाउण्टर तो बदस्तूर जारी ही हैं साथ ही उन्हें नयी धमकियों और अन्याय का सामना करना पड़ रहा है। छोटे बच्चों तक को गिरफ़्तार किया जा रहा है। अक्टूबर महीने में अपने तीन दिन के दौरे पर गये अमित शाह ने “पत्थरबाज़ों” को सज़ा देने के लिए उनके पासपोर्ट नहीं जारी किये जाने के प्रावधान की घोषणा कर दी है। पत्थरबाज़ी या किसी आतंकवादी समूह से जुड़े होने के शक मात्र पर बिना किसी सबूत के लोगों को नौकरियों से निकाला जा रहा है। उन्हें अपना पक्ष रखने का मौक़ा देना तो दूर उनके बकाये पैसे भी नहीं दिये जा रहे हैं। लोग महीनों-महीनों से बिना नौकरी और वेतन के हैं। इस भयंकर तानाशाही, सेना के बूटों और बैरलों तले घोषणा की जा रही है कि सब कुछ शान्तिपूर्ण और सामान्य है। पूरा कश्मीर लम्बे समय से सेना की छावनी बना हुआ है और आज तो सभी कश्मीरी खुली जेल में क़ैद हैं। कश्मीरी जनता की यह ख़तरनाक स्थिति बद से बदतर हुई है। उनके लिए इस खौफ़नाक स्थिति, और सेना की ज्य़ादतियों में कुछ नया नहीं है लेकिन ज़रूरत है भारत के मज़दूर और मेहनतकश वर्ग को इसे समझने और महसूस करने की। इतना तय है कि किसी भी क़ौम का दमन प्रतिरोध को अनिवार्य रूप से जन्म देता है। किसी भी दमित राष्ट्र के लोग राष्ट्रीय दमन के ख़िलाफ़ संघर्ष करते ही हैं; यदि वे जीतते नहीं तो उन्हें हराया भी नहीं जा सकता है। ऐसी सूरत में जिस भी दमित क़ौम में जो भी ताक़त क़ब्ज़ा करने वाली दमनकारी क़ौम के ख़िलाफ़ लड़ती दिखती है, जनता उसके पक्ष में जाती है। यदि राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन में किसी प्रगतिशील शक्ति की मौजूदगी नहीं होती, तो जनता क्रान्तिकारियों द्वारा किसी प्रगतिशील विकल्प के निर्माण का इन्तज़ार नहीं करती। वह लड़ती है और उसके पास जो कुछ भी होता है उसके साथ लड़ती है। यही वजह है कि कश्मीर में क़ौमी दमन के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाली शक्तियों में शामिल धार्मिक कट्टरपन्थी शक्तियों का भी एक सामाजिक आधार है।
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के आने के बाद कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियों के बढ़ने की सम्भावना जतायी जा रही है। लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे तालिबान और पाकिस्तान-समर्थित आतंकवादी हमले बढ़ेंगे जो मोदी और इमरान ख़ान दोनों के हक़ में हैं। इन हमलों का अपने-अपने तरीक़े से हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के हुक्मरान इस्तेमाल करेंगे। लेकिन मोदी सरकार के आतंकवाद समाप्त होने के तमाम दावों के बावजूद और विशेषकर 5 अगस्त के बाद से कश्मीरी नौजवानों का आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होना बढ़ा है। आतंकवादी गतिविधियों में मात्र बाहरी हाथ नहीं है, बल्कि वहाँ की स्थानीय नौजवान आबादी भारतीय राज्य के घनघोर दमन-उत्पीड़न की वजह से प्रतिक्रिया के तौर पर इन गतिविधियों में शामिल होती है। आतंकवाद नौजवानों की एक दिशाहीन प्रतिक्रिया है। आज इन नौजवानों को सही दिशा देने वाली राजनीतिक समझदारी और शक्ति की कमी है। गुपकार के नेताओं की कश्मीरी जनता में कोई साख नहीं बची है। चाहे नेशनल कॉन्फ़्रेंस हो या पीडीपी इनकी धोखेबाज़ियाँ, भारतीय सत्ता के साथ समझौते और प्रेमालाप जगज़ाहिर हैं। इस गैंग के नेता चाहे 5 अगस्त को काले दिन का नाम दें या घोर विश्वासघात कहें लेकिन सच तो यह है कि इनके अनुसार धारा 370 को फिर से बहाल करने की माँग यथार्थवादी माँग नहीं है और इसलिए अब ये कश्मीर को राज्य का दर्जा दिलाने की माँग कर रहे हैं। इनसे कश्मीरी अवाम और नौजवानों को कोई उम्मीद नहीं है। लेकिन उनके पास विकल्पहीनता की स्थिति भी है और यही विकल्पहीनता उन्हें आतंकवाद की ओर धकेलती है।
कश्मीरी क़ौम के साथ हो रहे उत्पीड़न और अन्याय की बात जैसे ही होने लगती है, उसके बरक्स कश्मीरी पण्डितों के साथ हुई ज़्यादतियों को रखकर कश्मीरी अवाम के साथ हो रहे अन्याय के अस्तित्व को ही नकार दिया जाता है या उसे वैध ठहराया जाता है। कश्मीरी क़ौम बनाम कश्मीरी पण्डित का कुतर्क देश के धार्मिक ध्रुवीकरण में बड़ी भूमिका अदा करता है। सच्चाई यह है कि कश्मीरी क़ौम का मतलब केवल कश्मीरी मुसलमान नहीं हैं, बल्कि कश्मीरी पण्डित भी हैं, जिनकी भाषा, संस्कृति, इतिहास और सामाजिक मनोविज्ञान साझा रहे हैं। कश्मीरी क़ौम के आत्मनिर्णय की बात करने वाली या उनसे संवेदना रखने वाली इन्साफ़पसन्द भारतीय आबादी पर कश्मीरी पण्डितों के साथ हुई ज़्यादती पर चुप रहने का आरोप लगाया जाता है। 1990-92 के दौरान 399 कश्मीरी पण्डितों की जान गयी जो बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। राजीव गाँधी की सरकार ने 1987 में कश्मीर विधानसभा चुनावों में धाँधली की जिसके नतीजे के तौर पर कश्मीरी अवाम ख़ासकर कश्मीरी नौजवानों में भारत सरकार और उसके कथित लोकतांत्रिक रवैये को लेकर मोहभंग हुआ और उनका झुकाव आतंकवाद की ओर बढ़ा, हालाँकि कश्मीरी क़ौम के साथ भारत के पूँजीपति वर्ग का विश्वासघात 1950 के दशक से यानी नेहरू काल में ही शुरू हो गया था। यही वह दौर था जब भारत में मन्दिर-मस्जिद विवाद खड़ा कर संघ परिवार और भाजपा धार्मिक ध्रुवीकरण और साम्प्रदायिकता की आग फैला रहे थे। केन्द्र में वी.पी. सिंह की गठबन्धन सरकार थी जिसे भाजपा और संसदीय वाम दलों दोनों का ही समर्थन प्राप्त था। जगमोहन के मुस्लिम-विरोधी चरित्र को जानते हुए भी वी. पी. सिंह ने जगमोहन को कश्मीर का गवर्नर नियुक्त किया। जगमोहन पर कश्मीर घाटी में मुसलमान-विरोधी राजनीति को हवा देने और कश्मीरी पण्डितों को कश्मीर छोड़ने में प्रोत्साहित करने का आरोप लगाया जाता है। अटल विहारी वाजपेयी की सरकार के समय कश्मीर में जगमोहन के कामों को देखते हुए यह आरोप बिल्कुल सही लगते हैं। 1990 की घटना कश्मीरी क़ौम और भारत सरकार के बीच तीखे होते अन्तरविरोध और कश्मीर के राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन में धार्मिक कट्टरपन्थी शक्तियों के हावी होने का नतीजा था। कश्मीर के शासन-प्रशासन पर और साथ ही वहाँ की अर्थव्यवस्था व शिक्षा आदि के क्षेत्र में भी ऐतिहासिक तौर पर कश्मीरी पण्डितों का प्रभुत्व रहा था, जिसका इन धार्मिक कट्टरपन्थियों ने इस्तेमाल भी किया, क्योंकि एक वर्गीय अन्तरविरोध को उन्हें ग़लत तरीक़े से पेश करने का अवसर मिला। भारतीय सत्ता के विश्वासघात से पैदा हुआ क्रोध राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन में धार्मिक कट्टरपन्थ के हावी होने के बाद कश्मीरी पण्डितों की ओर निर्देशित करने में इन शक्तियों को सफलता मिली। लेकिन इस राजनीतिक अन्तरविरोध को हिन्दूवादी प्रस्थान बिन्दु से धार्मिक रंग देने का काम जगमोहन ने किया। जगमोहन की इस कुटिल साम्प्रदायिक राजनीति के मौन समर्थकों में तत्कालीन सरकार में शामिल लाल कलँगी वाले वाम दलाल भी शामिल थे।
1990 तक कश्मीर में लगभग 75,000 कश्मीरी पण्डितों की आबादी थी जिनमें से 70,000 कश्मीरी पण्डित 1990 से 1992 तक कश्मीर छोड़ चुके थे। 2000 तक कश्मीर से बाहर जाने का सिलसिला जारी रहा। आज वहाँ 800 परिवार बचे हैं जो 1990 से वहाँ हैं। इस विस्थापित आबादी के अधिकांश हिस्से को भारत सरकार ने देश के विभिन्न हिस्सों में बसाया, नौकरियाँ दीं और सामाजिक सुरक्षा प्रदान की। इस आबादी का बहुलांश अच्छा खाता-पीता मध्यवर्ग है जो सुरक्षित ज़िन्दगी जीता है। इस भारी आबादी के लिए कश्मीर-वापसी यथार्थ से ज़्यादा एक रूमानी विचार है। अच्छी नौकरीशुदा सुरक्षित ज़िन्दगी छोड़कर ये वापस नहीं जाना चाहते हैं। बस अनुपम खेर जैसे लोग भाजपा के धार्मिक ध्रुवीकरण को तीव्र करने के लिए बन्दर नाच करते रहते हैं और इस आबादी को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करते हैं। केन्द्र में भाजपा सरकार के आने के बाद और उसके पहले भी तमाम प्रयासों व सरकारी नौकरियाँ दिये जाने के बावजूद आँकड़े बताते हैं कि मात्र 3000 के लगभग आबादी कश्मीर वापस गयी है।
अभी कश्मीर उन लोगों का है जो वहाँ सदियों से जीते चले आये हैं और आज भी जी रहे हैं। इस आबादी में चाहे कश्मीरी पण्डित हों, मुसलमान हों या फिर सिख। अपने भविष्य का निर्णय यह आबादी स्वयं करेगी। उसके इस आत्मनिर्णय के अधिकार को अन्धराष्ट्रवाद और साम्प्रदायिक उन्माद की लहर के तले दबाया नहीं जा सकता। इस तरह के उन्मादी राजनीतिक प्रचार को किनारे कर मज़दूरों-मेहनकशों को कश्मीर का असली इतिहास जानना समझना चाहिए। पाकिस्तान-समर्थित क़बायली हमलों के दौरान 1947 से लेकर 1949 के बेहद उथल-पुथल के दौर में कश्मीर अपनी शर्तों पर भारतीय संघ में शामिल हुआ था। कश्मीर इस शर्त पर भारतीय संघ में शामिल हुआ कि विदेशी मसलों, सुरक्षा और मुद्रा चलन के अतिरिक्त भारतीय राज्य कश्मीर की स्वायत्तता को बरक़रार रखेगा और अन्य सभी मसलों पर निर्णय लेने की शक्ति कश्मीर की सरकार के हाथ में होगी। इसके लिए भारतीय संविधान में विशेष धारा 370 को शामिल किया गया। नेहरू ने कश्मीर में स्थिति सामान्य होने पर जनमत संग्रह का वायदा किया था जिसमें कश्मीर की जनता को अपने भविष्य का फ़ैसला करना था। लेकिन कभी वह जनमत संग्रह नहीं हुआ और तब से लेकर अब तक कश्मीरी क़ौम को भारत सरकार से विश्वासघात, हिंसा, दमन और उत्पीड़न के सिवा और कुछ हासिल नहीं हुआ है। आज जब इस वायदे की याद भारतीय सत्ता को दिलायी जाती है तो वह कश्मीरी जनता को ‘एहसान फ़रामोश’ और आतंकवादी कहती है। भारत की मज़दूर-मेहनतकश आबादी को जानना चाहिए कि पिछले डेढ़ दशक में सेना के हाथों 60,000 कश्मीरियों ने अपनी जान गँवायी है, 7,000 से अधिक लापता हैं। अनगिनत बेनाम सामूहिक क़ब्रें मिली हैं जिनमें न जाने कितनी माँओं की सन्तानें दफ़्न हैं। इन क़ब्रों में सोये लोगों की माँओं की पथरायी आँखें चौखट पर टिकी उनके लौटने का इन्तज़ार कर रही हैं। अनगिनत औरतों का अपहरण और बलात्कार हुआ है, पेलेट गन के छर्रे कितने मासूमों को अन्धा बना चुके हैं। क्या इसे भारत राज्य द्वारा प्रायोजित आतंकवाद नहीं कहा जाना चाहिए? इस राज्य-प्रायोजित आतंकवाद की प्रतिक्रिया में और राजनीतिक विकल्पहीनता की स्थिति में कश्मीर में आतंकवाद की विभिन्न धाराओं में नौजवान शामिल हो रहे हैं। हमें यह समझना होगा कि पाकिस्तान और तालिबान-समर्थित आतंकवाद के अलावा कश्मीर की घाटी में आतंकवादी गतिविधियाँ सत्ता-प्रायोजित आतंकवाद की प्रतिक्रिया ही हैं। बिना राज्य-प्रायोजित आतंक के जनता का कोई भी हिस्सा कभी आतंकवाद की ओर आकर्षित नहीं होता है।
भारत के मज़दूर मेहनतकश वर्ग को यह समझना होगा कि साम्प्रदायिक फ़ासीवादी भाजपा का आक्रामक अन्धराष्ट्रवाद आज बड़ी इज़ारेदार पूँजी की सेवा में लगा हुआ है। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की आपसी लड़ाई अँग्रेज़ों से विरासत में मिली है और आज यह दोनों देशों के पूँजीपति वर्ग के हित साधने की नीति के तौर पर भरपूर इस्तेमाल की जा रही है। ये मुद्दे जनता का रोज़गार, स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास जैसे मूल मुद्दों से ध्यान भटकाने और सरकार की नाकामियों को छुपाने का बेहद कारगर उपाय साबित होते हैं। दोनों देश के पूँजीपतियों की प्रतिस्पर्धा आपसी हितों के टकराव की वजह से होती है, लेकिन सबसे पहले ये अपने-अपने देश की आम मेहनतकश आबादी के शोषक, उनके दुश्मन हैं। यही आम मेहनकश आबादी इनकी फ़ैक्टरियों, कल-कारख़ानों, गोदामों और खेतों में खटती है और उसके ही बेटे-बेटियाँ सीमा पर हमलों व युद्ध में मारे जाते हैं। हमें समझना होगा कि हमारे असली दुश्मन हमारी बेरोज़गारी, शोषण, उत्पीड़न, बदहाली की ज़िम्मेदार हमारे देश का पूँजीपति वर्ग और उसकी सत्ता है और यही वर्ग कश्मीरी क़ौम के उत्पीड़न और दमन के लिए भी ज़िम्मेदार है। इसके इस दमन और उत्पीड़न का समर्थन पूँजीपति वर्ग की राजनीति का समर्थन होगा। इसलिए अन्धराष्ट्रवाद की राजनीति के पीछे छिपे असली चेहरे को समझने की ज़रूरत है। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान दोनों ही देशों में मज़दूर-मेहनतकश वर्ग देशी-विदेशी पूँजी द्वारा शोषित-उत्पीड़ित हैं। एक देश के मज़दूर वर्ग का दूसरे देश के मज़दूर वर्ग से हितों का कोई टकराव नहीं होता। अगर हम इस बात को समझ लें तो हम इनके झाँसें में नहीं आयेंगे और अपनी एकता के बल पर अपने हक़ों के संघर्ष को ज़्यादा प्रभावी बना पायेंगे। रही बात कश्मीर की तो कश्मीर काग़ज़ पर बना कोई नक़्शा या मुकुट नहीं। कश्मीर सबसे पहले वहाँ रहने वाले कश्मीरियों का है। मज़दूर वर्ग इन्साफ़पसन्द होता है और दमित राष्ट्रों के आत्मनिर्णय और दमित राष्ट्रीयताओं के जनवादी अधिकार का पूरा समर्थन करता है। इसलिए भारत के मज़दूर वर्ग को कश्मीरी क़ौम के आत्मनिर्णय के अधिकार का पुरज़ोर समर्थन करना चाहिए।

मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2021


 

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