कारख़ाना इलाक़ों से
आवाज़ निकालोगे तो काम से छुट्टी

राम दुलार, टेलर मास्टर, लुधियाना

मैं लुधियाना की एक कपड़ा मिल में ठेके पर काम करता हूँ। यहाँ पर टी-शर्ट बनाने का काम होता है जो विदेश की बड़ी कम्पनियाँ ख़रीद कर बेचती हैं। मेरा काम टी-शर्ट के कालर की सिलाई करने का है। कुछ दिन पहले मालिक और ठेकेदार ने मिलके मुझे तथा चार और मज़दूरों को काम से निकाल दिया है। बाकी सभी मज़दूरों की तरह हम भी बारह घण्टे काम करते थे लेकिन मालिक का लालच इससे भी पूरा नहीं होता था। अक्सर हमें तीन-तीन शिफ्ट लगातार काम करना पड़ता था। तीन शिफ्ट काम करने के दौरान हमसे कमरे पर आना नहीं हो पाता था इसलिए हम कम्पनी की कैंटीन में ही खाना खाते थे जिसका पैसा पहले मालिक या ठेकेदार अपनी तरफ से देते थे लेकिन पिछली कुछ बार से उन्होंने ऐसा करना बन्द कर दिया था। मैंने और मेरे चार दूसरे मज़दूर साथियों ने सब मज़दूरों से खाने का पैसा लेने के लिए ठेकेदार से बात करने के लिए कहा। इस बात का पता ठेकेदार को चल गया और मालिक को भी। इसीके बाद से वे हम लोगों को निकालने का मौका तलाश रहे थे। कुछ दिन बाद हम पाँचों में से मैं और एक और मज़दूर बीमार पड़ गये जिसके कारण हमें एक दिन के लिए फैक्ट्री से छुट्टी करनी पड़ी। बस इतनी सी बात पर हम दोनों सहित उन पाँच मज़दूरों का हिसाब कर दिया गया जिन्होंने खाने का पैसा लेने की बात उठायी थी। असल में मज़दूरों की कोई एकता न होने के चलते ही ठेकेदार और मालिक लोग ये सब करने का हौसला कर पाते हैं। मालिकों और ठेकेदारों की गुण्डागर्दी इतनी बढ़ चुकी है कि मज़दूर ज़रा-सी आवाज़ भी निकालते हैं तो काम से छुट्टी हो जाती है। ऐसा लग रहा है कि आने वाले समय में अगर मज़दूर के साँस लेने की भी आवाज़ आयेगी तो ये शैतान उनकी गर्दन पर बैठ जाया करेंगे।

इसी फैक्ट्री के बारे में मैं कुछ और बातें भी करना चाहता हूँ। इस फैक्ट्री में बड़ी कम्पनियों के लोग तैयार माल का ऑर्डर देने के लिए आते हैं जिनमें एडीडास, नाइक जैसी विदेशी कम्पनियाँ भी होती हैं। जब कम्पनियों के लोग ऑर्डर देने आते हैं तो मालिक इनकी खूब आवभगत करते हैं। सारी फैक्ट्री को चकाचक कर दिया जाता है। मज़दूरों को बाहर से आने वाले लोगों को क्या-क्या जवाब देना है, ये रटाया जाता है। तनखाह पूछने पर असल तनखाह से ज्यादा बोलने के लिए कहा जाता है। सभी मज़दूरों को जूते तक लाकर दिये जाते हैं। हमारी सिलाई मशीनों में सुई के चारो ओर लगने वाला गार्ड भी फिट कर दिया जाता है। ऐसे दिखाया जाता है कि मालिक मज़दूरों की देखभाल पर बहुत खर्चा करता है। लेकिन जैसे ही कम्पनी के आदमी जाते हैं, उनके साथ ही मज़दूरों के पैरों से जूते भी चले जाते हैं और मशीन में लगे गार्ड भी। मज़दूरों की उँगलियों में से फिर से तेज़ रफ्तार से चलने वाली सिलाई मशीन की सुई आर-पार होने लगती है। फिर पूरा साल मज़दूरों के काम करने वाले स्थान की तरफ कोई देखता भी नहीं और शौचालय इतने गन्दे और सड़ाँध से भर जाते हैं कि वहाँ कोई जानवर भी न जाये। लेकिन मज़दूरों को जाना पड़ता है। फैक्ट्री मज़दूरों के लिए जेल की तरह है। फैक्ट्री पहुँचते ही हम लोगों के अन्दर अजीब किस्म का डर-सहम घुसने लगता है और हमारे सिर मुजरिमों की तरह झुक जाते हैं। काम करते हुए बार-बार हम समय देखते हैं कि कब बारह घण्टे खत्म हों, कब मुक्ति मिले। मगर ये मुक्ति ज्यादा देर नहीं रहती। अगली सुबह फिर जेल। अपराधियों को बड़े-बड़े जुर्म के लिए भी दस-बीस साल की जेल होती है, लेकिन हम लोगों की पूरी ज़िन्दगी इन जेलों में निकल जाती है जिन्हें लोग फैक्ट्री कहते हैं, और वह भी बिना किसी गुनाह के!

 

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2012
 


 

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