कारख़ाना इलाक़ों से
हमारी कमज़ोरी का ईनाम है — ग़ालियाँ और मारपीट!

एक मज़दूर, बादली, दिल्ली

आज मज़दूर आपस में बँटकर इतने कमज़ोर हो गये हैं कि मालिक हमें बुरी तरह लूट-खसोट तो रहे ही हैं, बात-बेबात गालियाँ देने और मारपीट पर भी उतारू हो जाते हैं। मैं दिल्ली के बादली क्षेत्र की एक गैस रेग्युलेटर बनाने की फैक्ट्री में काम करता था। यहाँ कुल 32 मज़दूर थे। यहाँ के मालिक शिवप्रकाश को बात-बात पर मज़दूरों से गाली-गलौच और मारपीट की आदत पड़ चुकी है। जब काम की कमी होती है तब तो इसका दिमाग और भी ख़राब हो जाता है।

फैक्ट्री में बनने वाला रेग्युलेटर करीब 22 मशीनों से होकर तैयार होता है। इसके बाद कई काम हाथ से भी करने पड़ते हैं। सारे मज़दूर लगातार काम में लगे रहते हैं। पिछले दिनों आर्डर कम होने से बौखलाया मालिक दो दिनों से लगातार गालियाँ बक रहा था। एक पार्टी को दिखाने के लिए उसने सैम्पल माँगा। उसमें सबकुछ ठीक था। बस एक जगह रंग ज़रा-सा निकला हुआ था। मालिक ने कारीगर को दफ्तर में बुलाया जहाँ माल लेने आयी पार्टी के भी 3-4 लोग बैठे थे। माँ-बहन की गालियाँ देते हुए उसने पूछा कि ये क्या है। कारीगर ने कहा बाबूजी, ज़रा सा पेण्ट छूटा है, अभी सही कर देता हूँ। इस पर मालिक ने पहले तो कान पकड़कर उसे बुरी तरह झिंझोड़ा और फिर दो थप्पड़ भी लगा दिये। फिर सारे मज़दूरों को गालियाँ बकने लगा। मज़दूरों ने इस पर आपत्ति करते हुए कहा कि इसे निकालना ही था तो मारा क्यों। दो दिन से गालियाँ दे रहे हो, फिर भी हम चुप हैं। इसके जवाब में उसने अगले ही दिन 22 लोगों को बाहर कर दिया। हमें चुपचाप चले आना पड़ा।

हम कहते भी क्या? ये तो हमारी कमज़ोरी का ही ईनाम है। हम ही आपस में इतने बँटे हुए हैं कि अपमान का घूँट पीकर भी काम करते रहते हैं। मगर कोई किसी भाई के लिए खड़ा नहीं होता। यही हाल रहा तो एक दिन ऐसा भी आयेगा जब मालिक पुराने ज़माने के ज़मींदारों की तरह जूते और कोड़े मारकर काम करायेंगे और मज़दूर ग़ुलामों की तरह सिर झुकाकर खटते और मरते रहेंगे। इसलिए, हमें एकजुट होकर लड़ना ही होगा।

 

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2012
 


 

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