चुनावी तैयारियों के बीच बजट का खेल
जनता की माला जपते हुए सेठों-लुटेरों की सेवा
पूँजीवादी नीतियों के कारण ख़स्ताहाल अर्थव्यवस्था का बोझ ढोती रहेगी मेहनतकश जनता

सम्‍पादकीय

जैसी कि उम्मीद थी, अगले आम चुनाव से पहले यूपीए सरकार के आख़िरी बजट में सबको ख़ुश करने और जनता को बड़े झटके न देने की भरपूर क़वायद की गयी है। लेकिन पिछले दो दशक से जारी उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों ने अर्थव्यवस्था की हालत ऐसी कर दी है कि चाहकर भी वित्तमंत्री चिदम्बरम कुछ ख़ास लोकलुभावन प्रावधान नहीं कर पाये हैं। उल्टे, देशी-विदेशी पूँजीपतियों को ख़ुश करने और उनका भरोसा जीतने के लिए काफ़ी मशक्कत की गयी है। वैसे तो, डीज़ल के दामों में बढ़ोत्तरी बजट से कुछ दिन पहले ही कर दी गयी थी, लेकिन बजट में भी ऐसे इन्तज़ाम किये गये हैं जिनका ख़ामियाज़ा जनता आने वाले कई सालों तक भरती रहेगी।

बजट में वित्त मंत्री ने समावेशी विकास और महिलाओं, युवाओं, ग़रीबों, दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों आदि के हितों के बारे में बड़ी-बड़ी बातें भले की हैं लेकिन वास्तव में यह बजट पूरी तरह से बड़े पूँजीवादी घरानों और विदेशी वित्तीय पूँजी के हितों को समर्पित है। बजट में विदेशी वित्तीय पूँजी को ख़ुश करने के लिए उसे पहले से भी अधिक रियायतें दी गयी हैं और उसकी सबसे बड़ी माँग राजकोषीय घाटे को कम करने को पूरा करने के लिए सब्सिडी से लेकर योजना बजट में भारी कटौतियाँ की गयी हैं। सब्सिडी में कटौती का मतलब है तेल, गैस, बिजली, खाद आदि के दामों में लगातार बढ़ोत्तरी। इसकी शुरुआत तो अभी से हो गयी है लेकिन आने वाले समय में कई राज्यों में विधानसभा चुनाव और फिर दिल्ली की गद्दी के लिए होने वाले चुनावों को देखते हुए सरकार अभी इसके अपेक्षाकृत थोड़े-थोड़े डोज़ दे रही है। यह तय है कि नयी सरकार चाहे जिसकी भी बने, उसे जनता की गर्दन में दाँत गड़ाकर ड्रैकुला की तरह ख़ून पीना ही पड़ेगा। चिदम्बरम ने अगले वर्ष के बजट में प्रमुख सब्सिडियों जैसे पेट्रोलियम उत्पादों, उर्वरक और खाद्य के बजट में लगभग 26884 करोड़ रुपये की कटौती कर दी है। चालू वित्तीय वर्ष 2012-13 में इन तीनों मदों पर कुल सब्सिडी 247853 करोड़ रुपये थी जिसे अगले वर्ष घटाकर 220971 करोड़ रुपये कर दिया गया है। इसमें सबसे ज्यादा कटौती पेट्रोलियम सब्सिडी में की गई है जिसमें चालू वर्ष की तुलना में 31879 करोड़ रुपये की कटौती करते हुए 96879 करोड़ रुपये से घटाकर मात्र 65000 करोड़ रुपये कर दिया गया है। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि अगले साल भी पेट्रोलियम उत्पादों खासकर पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतें बढ़ती रहेंगी। योजना बजट में कटौती का भी सीधा असर आम लोगों को मिलने वाले लाभ और रोज़गार के सृजन पर पड़ेगा।

2008 में विश्वव्यापी मन्दी के समय से ही भारतीय शासक दावा करते रहे हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत पर मन्दी का ज़्यादा असर नहीं पड़ेगा और चिन्ता की कोई बात नहीं है। लेकिन उदारीकरण- निजीकरण की जो नीतियाँ पिछले दो दशकों के दौरान अन्धाधुन्ध लागू की गयी हैं, उनके चलते दुनियाभर में गहराते आर्थिक संकट की चपेट में आने से भारतीय अर्थव्यवस्था बची रह ही नहीं सकती थी। और अब इस सच्चाई को भारतीय शासक भी स्वीकारने लगे हैं।भारत सरकार के केन्द्रीय सांख्यकीय संगठन (सी.एस.ओ.) के मुताबिक, चालू वित्तीय वर्ष में सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) की वृद्धि दर केवल 5 फीसदी रहने का अनुमान है जो पिछले एक दशक में अर्थव्यवस्था का सबसे ख़राब प्रदर्शन है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बार-बार कह रहे हैं कि “देश संकट के दौर से गुज़र रहा है।” ज़ाहिर है, हमेशा की तरह इस संकट का बोझ देश के ग़रीबों-मेहनतकशों की पहले से झुकी हुई पीठ पर ही पड़ना है। संकट से निकलने के लिए प्रधानमन्त्री तथा वित्तमन्त्री, योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोण्टेक सिंह अहलूवालिया, प्रधानमन्त्री के आर्थिक सलाहकार तथा अन्य लगभग सभी बुर्जुआ अर्थशास्त्री, सभी अख़बार आर्थिक सुधारों की गति तेज़ किये जाने की ज़ोर-शोर से वकालत कर रहे हैं। इन आर्थिक सुधारों में बचे-खुचे पब्लिक सेक्टर का तेज़ी से निजीकरण, श्रम क़ानूनों में बदलाव, हर तरह की सब्सिडियों का ख़ात्मा तथा देश की अर्थव्यवस्था को विदेशी पूँजी के लिए और अधिक खोलना शामिल है। ऐसा करते हुए ये लोग भूल जाते हैं कि ठीक इन्हीं क़दमों के कारण अर्थव्यवस्था आज इस हालत में पहुँची हुई है। मगर पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में उनके पास दूसरा कोई उपाय भी नहीं है। अमेरिका से लेकर यूरोप तक सारी दुनिया की पूँजीवादी सरकारें यही कर रही हैं, और संकट के दुष्चक्र में गोल-गोल घूम रही हैं।

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वर्तमान बजट में भी यही किया गया है। बजट पेश करने से ठीक पहले जनवरी के महीने में चिदम्बरम विदेशी वित्तीय पूँजी के प्रमुख केन्द्रों- हांगकांग, सिंगापुर, लन्दन और फ्रैंकफर्ट में बड़े विदेशी निवेशकों, बड़े फण्ड मैनेजरों और निवेश बैंकों के प्रतिनिधियों को भरोसा दिलाने गये कि बजट में उनके हितों और माँगों का पूरा ध्यान रखा जायेगा। यूपीए सरकार ने तय कर लिया है कि चुनावों से पहले देशी-विदेशी बड़ी पूँजी और कार्पोरेट घरानों को ख़ुश करना और उनका भरोसा जीतना ज़्यादा ज़रूरी है।इसकी एक वजह यह भी है कि  देशी-विदेशी पूँजीपतियों  द्वारा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री की दावेदारी के खुले समर्थन से कांग्रेस नेतृत्व घबराया हुआ है। पूँजीपतियों द्वारा मोदी के समर्थन की भी यही वजह है क्योंकि उन्हें एक ऐसा आदमी चाहिए जो उनके हितों को पूरा करने की ख़ातिर (जनता के लिए) “कड़े फ़ैसले” ले सकता हो। गुजरात में हर तरह के विरोध को रौंद-कुचलकर और पूँजीपतियों की लूट के लिए राज्य के संसाधनों को उपलब्ध कराकर वह उनका चहेता बन ही चुका है। दूसरी ओर, देशी-विदेशी घराने यूपीए सरकार पर आर्थिक सुधारों को तेज़ी से आगे बढ़ाने में नाकाम रहने के कारण ‘नीतिगत लकवे’ का आरोप लगाते रहे हैं।इसीलिए सरकार ने पिछले छह महीनों में देशी-विदेशी बड़ी पूँजी का भरोसा जीतने के लिए आर्थिक सुधारों को आक्रामक तरीके से आगे बढ़ाया है।

बजट भाषण में वित्त मंत्री ने खाद्य सुरक्षा को ‘मूलभूत अधिकार’ और खाद्य सुरक्षा क़ानून के प्रति यूपीए सरकार की वचनबद्धता का ऐलान करते हुए भी उसके लिए दिखावे के तौर पर दस हज़ार करोड़ रुपये दिये हैं। 2009 के चुनावों में वायदे के बावजूद सरकार खाद्य सुरक्षा क़ानून को लागू करने को लेकर बहुत उत्साहित नहीं है। यही कारण है कि खाद्य सुरक्षा को सबका अधिकार बनाने और सबके लिए भरपेट भोजन की गारण्टी करने से मुकर चुकी सरकार सीमित और आधे-अधूरे खाद्य सुरक्षा क़ानून को भी लागू करने और उसके लिए पर्याप्त बजट प्रावधान करने से कन्नी काट रही है। यूपीए सरकार मनरेगा की उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटती रहती है। लेकिन मनरेगा का बजट दो साल पहले 40 हज़ार करोड़ रुपये था लेकिन पिछले दो बजटों से उसके बजट में सात हज़ार करोड़ रुपये की कटौती करके उसे 33 हज़ार करोड़ रुपये कर दिया गया। अगले साल के बजट में भी चिदम्बरम ने 33 हज़ार करोड़ रुपये का ही आवण्टन किया है जबकि रुपये की कीमत लगातार गिरती जा रही है।

इस बजट में सबसे अधिक गाज योजना बजट पर गिरी है। चिदम्बरम ने बजट भाषण में योजना बजट ख़ासकर ग्रामीण विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि के लिए भारी आवण्टन का दावा किया है। लेकिन यह आँकड़ों की बाज़ीगरी के अलावा कुछ नहीं है। योजना बजट में यह भारी कटौती उस साल की गयी है, जब अर्थव्यवस्था घरेलू माँग और निवेश में गिरावट के कारण लड़खड़ा रही है, वृद्धि दर में कमी आ रही है और उसके गहरे संकट में फँसने का खतरा बढ़ता जा रहा है। लेकिन वित्त मंत्री ने अर्थव्यवस्था को ख़तरे में डालकर बड़ी देशी-विदेशी पूँजी खासकर वित्तीय पूँजी को खुश करने के लिए योजना बजट में कटौती की है। अगर सरकार ख़ुद कृषि, बुनियादी ढाँचे, ख़ासकर सामाजिक बुनियादी ढाँचे यानी शिक्षा और स्वास्थ्य आदि में भारी निवेश करती तो उससे न सिर्फ़ लोगों को रोज़गार मिलता बल्कि महँगाई पर काबू पाना भी आसान होता। लेकिन इसके उलट वित्त मंत्री ने विदेशी पूँजी और क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों को ख़ुश करने के लिए राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए सब्सिडी से लेकर योजना बजट तक में कटौती कर डाली है। इसका ख़ामियाजा आमलोगों को ही भुगतना पड़ेगा।की गयी कटौतियों का नतीजा यह होगा कि अगले साल चुनावों के बाद लगातार तीन सालों तक राजकोषीय घाटे में कटौती के नामपर आमलोगों पर अधिक से अधिक बोझ डालकर सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं के बजट में कटौती होती रहेगी।

इसमें कोई शक नहीं है कि अर्थव्यवस्था गहरे संकट में है और वित्त मंत्री पर ऐसा बजट पेश करने का दबाव है जो अर्थव्यवस्था की मद्धिम पड़ती रफ़्तार को फिर से तेज़ कर सके। इसके लिए जरूरी है कि अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़े। लेकिन निवेश बढ़ाने की रणनीति को लेकर अर्थव्यवस्था के मैनेजरों और अर्थशास्त्रियों में मतभेद हैं। वित्त मंत्री और उनके आर्थिक मैनेजरों समेत नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकारों का मानना है कि निवेश बढ़ाने के लिए सरकार को निवेश के अनुकूल माहौल बनाने और निजी निवेश की राह में आनेवाली बाधाओं को हटाने पर ज़ोर देना चाहिए और बाकी निजी क्षेत्र पर छोड़ देना चाहिए। लेकिन अर्थव्यवस्था के मैनेजरों का तर्क है कि अर्थव्यवस्था को वैश्विक मन्दी के संकट से उबारने के लिए चार साल पहले ही स्टिमुलस पैकेज दिया जा चुका है और उसके कारण बढ़ते राजकोषीय घाटे को देखते हुए अब राजकोषीय स्थिति को सुदृढ़ करने की सख्त जरूरत है। यूपीए सरकार ने वर्ष 2007-08 में अमेरिकी आर्थिक संकट के बाद पैदा हुई वैश्विक आर्थिक संकट से निपटने के लिए कोई दो लाख करोड़ रुपये के स्टिमुलस पैकेज का एंलान किया था। इस पैकेज के कारण कारपोरेट क्षेत्र अपने मुनाफ़े को बनाये रखने में कामयाब रहा। दूसरी ओर, स्टिमुलस पैकेज के कारण राजकोषीय घाटे में तेज़ी से वृद्धि हुई।

चिदम्बरम सार्वजनिक निवेश के बजाय निजी देशी-विदेशी निवेश में बढ़ोत्तरी पर दाँव लगा रहे हैं। इसके लिए वे उसकी हर माँग पूरी कर रहे हैं। राजकोषीय घाटे में कमी के लिए आमलोगों पर अधिक से अधिक बोझ लादने के साथ-साथ वे अर्थव्यवस्था के बचे क्षेत्रों जैसे खुदरा व्यापार को विदेशी पूँजी के लिए खोल रहे हैं। अर्थव्यवस्था की कमान बड़ी देशी-विदेशी पूँजी और कार्पोरेट घरानों के हाथों में सौंपने के बाद वित्त मंत्री के पास इसके अलावा और कोई विकल्प भी नहीं रह गया है कि बड़ी देशी-विदेशी पूँजी के ब्लैकमेल के आगे घुटने टेक दें।

इस बजट में महँगाई से निपटने के लिए कुछ नहीं है। उल्टे, डीज़ल और पेट्रोल के दामों में बढ़ोत्तरी का असर हर चीज़ पर पड़ने वाला है। रेल किरायों में बढ़ोत्तरी पहले ही हो चुकी है। भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत से साफ़ है कि आने वाले दिनों में इसका संकट और गहरायेगा। यह संकट भारत के मेहनतकश अवाम के लिए भी ढेरों मुसीबतें लेकर आयेगा। गरीबी, बेरोज़गारी, महँगाई में और अधिक इज़ाफ़ा होगा। चुनावी वर्ष के बजट ने वास्तविक हालत को ढाँपने-तोपने की चाहे जितनी कोशिश की हो, भारत के मेहनतकशों को आने वाले कठिन हालात का मुक़ाबला करने के लिए अभी से तैयारी शुरू कर देनी होगी।

 

मज़दूर बिगुलमार्च  2013

 


 

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