“विकास” की चमक के पीछे की काली सच्चाई
देश में प्रतिदिन भूख और कुपोषण से मर जाते हैं 3000 बच्चे

संजय श्रीवास्तव

कई रिपोर्टों में यह शर्मनाक तथ्य आ चुका है कि भारत में भूख और कुपोषण की वजह से प्रतिदिन हज़ारों बच्चों की मौत हो जाती है। सरकारें बेशर्मी के साथ इसका खण्डन करती रही हैं। लेकिन अब ख़ुद सरकार द्वारा प्रायोजित एक सर्वेक्षण में यह सच्चाई सामने आयी है कि देश में पाँच वर्ष से कम के 42 प्रतिशत बच्चों का वज़न सामान्य से कम है, यानी वे गम्भीर कुपोषण और भूख के शिकार हैं। यह आँकड़ा दुनिया के सबसे ग़रीब माने जाने वाले हिस्से सब-सहारा अफ्रीका के देशों के मुकाबले लगभग दोगुना है!

इस रिपोर्ट से स्पष्ट है कि भूख और कुपोषण से पैदा होने वाली बीमारियों से देश में प्रतिदिन कम से कम 3000 बच्चे मौत के मुँह में चले जाते हैं। चिकित्सा विज्ञान कहता है कि जन्म के समय ढाई किलो से कम वज़न होने पर बच्चे के कम उम्र में ही मर जाने की आशंका तीन गुना बढ़ जाती है और जब बच्चों को सामान्य से दो गुना अतिरिक्त पोषाहार के साथ स्वास्थ्य सुविधाएँ नहीं मिलती हैं तो पाँच साल की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते मृत्यु की आशंका बीस गुना तक बढ़ जाती है।

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अपनी ही सरकार की रिपोर्ट में यह सच सामने आने के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कहना पड़ा कि कुपोषण एक “राष्ट्रीय शर्म” है। ज़ाहिरा तौर पर उन्होंने यह स्वीकार नहीं किया कि इस शर्मनाक हालात के लिए वही नीतियाँ ज़िम्मेदार हैं जिनके दम पर भारत के ज़बर्दस्त आर्थिक “विकास” और अगले कुछ दशकों में इसके “महाशक्ति” बनने के दावे किये जा रहे हैं।

यह एक ऐसा विकास है जिसकी बदौलत करोड़पतियों और अरबपतियों की संख्या में भारत अमेरिका और यूरोप को टक्कर दे रहा है, हर बड़े शहर में रोज़ नये आलीशान रेस्टोरेंट खुल रहे हैं जिनमें शहरी मध्य वर्ग के परजीवी दुनियाभर के व्यंजनों को चखने के लिए घंटेभर में हज़ारों रुपये फूँक डालते हैं लेकिन करोड़ों बच्चे भरपेट खाना भी न मिलने से मर रहे हैं या फिर मौत से भी बदतर ज़िन्दगी जी रहे हैं। पिछले अक्टूबर 2013 में नान्दी फाउण्डेशन द्वारा जारी उपरोक्त रिपोर्ट में कहा गया कि भारत का “पोषण संकट” बच्चों की सभी मौतों में से आधे के लिए ज़िम्मेदार है।

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इस दयनीय स्थिति के बावजूद भारत स्वास्थ्य पर कुल सकल घरेलू उत्पाद का सिर्फ 1.2 प्रतिशत खर्च करता है। यह दुनिया के बहुत से ग़रीब देशों से भी कम है। जो सरकार करोड़ों बच्चों को सिर्फ इसलिए भूख से मरने देती है क्योंकि उसके पास “सबका पेट भरने के लिए पैसे नहीं हैं”, वही सरकार जनता की गाढ़ी कमाई के खरबों रुपये हथियारों की ख़रीद पर लुटाने में ज़रा भी संकोच नहीं करती। भारत इस समय दुनिया में हथियारों के सबसे बड़े ख़रीदारों में से एक है। जल्दी ही फ्रांस के साथ 900 अरब रुपये में 126 लड़ाकू विमान ख़रीदने का सौदा तय होने वाला है। प्रति वर्ष इससे आधी धनराशि खर्च करके देश से भूख और कुपोषण को ख़त्म किया जा सकता है। देश की सुरक्षा भी लोगों से होती है सिर्फ हथियारों से नहीं।

कितने शर्म की बात है कि इस इक्कीसवीं सदी में जब दुनिया भर में पौष्टिक और सन्तुलित आहार लेने पर काफ़ी जोर दिया जा रहा है, सुपोषण-कुपोषण के उच्च स्तरीय मानकों को लेकर बहस चल रही हो, ऐसे में भारत सरकार प्रति व्यक्ति मात्र पाँच किलो सूखे अनाज की बदौलत सभी के लिए खाद्य सुरक्षा पक्की करने का दम भर रही है। जिस देश में आज भी 32 करोड़ लोगों को रोज़ एक वक़्त भूखे पेट रहना पड़ता है, वहाँ पर यह प्रस्तावित विधेयक ग़रीबों के साथ एक मज़ाक नहीं तो और क्या है। दुनिया में कुपोषण के शिकार हर चार बच्चों में से एक भारत में रहता है। यह तादाद सब-सहारा अफ्रीका से भी ज़्यादा है। नेपाल, पाकिस्तान और बंगलादेश भी कुपोषण के मामले में हमसे बेहतर स्थिति में हैं।

अब यूपीए सरकार गरीबों के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने का क़ानून बनाकर सत्ता में बने रहने का मंसूबा पाले हुए है। ऊपरी तौर पर किसी को लग सकता है कि सरकार भूख की समस्या को लेकर कितनी चिन्तित है लेकिन जैसे ही हम इस क़ानून की तह में जाते हैं वैसे ही सरकार की असली मंशा उजागर हो जाती है। यह देश के ग़रीबों-मेहनतकशों के साथ एक और भद्दा मज़ाक है। चार साल पहले यूपीए-2 सरकार खाद्य सुरक्षा क़ानून बनाने के वायदे के साथ सत्ता में आयी थी और अब तक इस मुद्दे को लेकर संसद में चली नौटंकियों को देखकर यह साफ हो चुका है कि सरकार को खाद्य सुरक्षा को लेकर वास्तव में कोई चिन्ता नहीं है बल्कि इसका मकसद अगले साल लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र वोटों की फसल काटना भर है।

सच्चाई यह है कि खाद्यान्न के भण्डारण और संरक्षण के काम को भी ठीक तरीके से अंजाम दिया जाये तो भी आबादी की ज़रूरतों को काफी हद तक पूरा किया जा सकता है। इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के मुताबिक भारत में अनाज की कोई कमी नहीं है। फिर भी तीस करोड़ से ज़्यादा लोग भूखे पेट सोते हैं, जो पूरी दुनिया में सबसे ज़्यादा है। देश में हर साल 44 हज़ार करोड़ रुपये का अनाज, फल और सब्‍ज़ि‍याँ इसलिए बर्बाद हो जाती हैं क्योंकि उनके भण्डारण के लिए पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। यह हम नहीं कह रहे बल्कि कृषि मंत्री ने संसद के पिछले मानसून सत्र में यह जानकारी दी थी। आलीशान होटल, मॉल, एअरपोर्ट, एक्सप्रेस हाइवे आदि के निर्माण पर हज़ारों अरब खर्च कर रही सरकारें आज़ादी के बाद से 66 साल में अनाज को सुरक्षित रखने के लिए गोदाम नहीं बनवा पायी हैं, क्या इससे बढ़कर कोई सबूत चाहिए कि पूँजीपतियों की सेवक ये तमाम सरकारें जनता की दुश्मन हैं?

भारत में औसत आयु चीन के मुक़ाबले 7 वर्ष और श्रीलंका के मुक़ाबले 11 वर्ष कम है।  संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्युदर चीन के मुक़ाबले तीन गुना, श्रीलंका के मुक़ाबले लगभग 6 गुना और यहाँ तक कि बांग्लादेश और नेपाल से भी ज़्यादा है। भारतीय बच्चों में से क़रीब 60 फ़ीसदी बच्चे ख़ून की कमी से ग्रस्त हैं और 74 फ़ीसदी नवजातों में ख़ून की कमी होती है। 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मौत के 50 फ़ीसदी मामलों का कारण कुपोषण होता है। 5 वर्ष से कम आयु के 5 करोड़ भारतीय बच्चे गम्भीर कुपोषण के शिकार हैं। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, 63 फ़ीसदी भारतीय बच्चे प्रायः भूखे सोते हैं और 60 फ़ीसदी कुपोषणग्रस्त होते हैं। 23 फ़ीसदी बच्चे जन्म से कमज़ोर और बीमार होते हैं। एक हज़ार नवजात शिशुओं में से 60 एक वर्ष के भीतर मर जाते हैं। लगभग दस करोड़ बच्चे होटलों में प्लेटें धोने, मूँगफली बेचने आदि का काम करते हैं।

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नेता बार-बार कहते नहीं थकते कि बच्चे देश का भविष्य हैं। लेकिन कुपोषण के चलते देश के 48 प्रतिशत बच्चों और किशोरों का विकास बाधित है, 20 प्रतिशत बस किसी तरह ज़िन्दा हैं और 70 प्रतिशत में ख़ून की कमी है। ये आँकड़े गवाह हैं कि आने वाले भविष्य कैसा होगा! सरकार की ही मानें तो देश में इस समय करीब 36 करोड़ लोग ग़रीबी रेखा के नीचे हैं। सरकारी आँकड़े बताते हैं कि 36 फीसद महिलाओं और 34 फीसद पुरुषों को पौष्टिक आहार नहीं मिल पाता। महिलाओं को गर्भावस्था में भी पौष्टिक आहार नहीं मिल पाता जिसका असर माँ-बच्चे दोनों पर पड़ता है। ये हाल तब है जब देश में भुखमरी और ग़रीबी उन्मूलन की 22 योजनाएँ चल रही हैं।

 

मज़दूर बिगुलदिसम्‍बर  2013

 


 

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