माँगपत्रक शिक्षणमाला – 3
ठेका प्रथा के ख़ात्मे की माँग पूँजीवाद की एक आम प्रवृत्ति पर चोट करती है

 

मज़दूर माँगपत्रक 2011 क़ी अन्य माँगों — न्यूनतम मज़दूरी, काम के घण्टे कम करने, ठेका के ख़ात्मे, काम की बेहतर तथा उचित स्थितियों की माँग, कार्यस्थल पर सुरक्षा और दुर्घटना की स्थिति में उचित मुआवज़ा, प्रवासी मज़दूरों के हितों की सुरक्षा, स्त्री मज़दूरों की विशेष माँगों, ग्रामीण व खेतिहर मज़दूरों, घरेलू मज़दूरों, स्वतन्त्र दिहाड़ी मज़दूरों की माँगों के बारे में विस्तार से जानने के लिए क्लिक करें। — सम्पादक

 

माँगपत्रक आन्दोलन-2011 के द्वारा प्रस्तुत किये गये माँगपत्रक में तीसरी और चौथी माँग आज मजदूर वर्ग के लिए भारी महत्व रखती है। यह माँग है ठेका प्रथा के ख़ात्मे की माँग और साथ ही पीस-रेट पर काम करने वाले और कैजुअल मजदूरों से जुड़ी माँगें। इन माँगों का राजनीतिक महत्‍व और आधार समझना हमारे लिए महत्‍वपूर्ण है। ये माँगें उन महत्‍वपूर्ण राजनीतिक माँगों में से हैं जो पूँजीवादी व्यवस्था के कुछ सबसे अहम आम रुझानों पर चोट करती हैं।

पूँजीवादी उत्पादन की जरूरत है ठेका प्रथा

हम पहले की किश्तों में देख चुके हैं कि पूँजीवादी उत्पादन की प्रकृति ही ऐसी है जिसमें सामानों का उत्पादन एकतरफा तरीके से बढ़ता जाता है, लेकिन दूसरी तरफ आबादी का बड़ा हिस्सा इस पूँजीवादी उत्पादन के चलते ही और अधिक ग़रीब होता जाता है और इन सामानों को ख़रीदने की ताकत खोता जाता है। नतीजतन, सामानों से बाजार तो पटता जाता है लेकिन ख़रीदारों की कमी हो जाती है। इसे ही अति-उत्पादन का संकट कहा जाता है। मजदूर अपनी श्रम-शक्ति पूँजीपति को बेचता है और उसका श्रम ही कच्चे माल को सामानों में ढालकर वस्तु रूप धारण कर लेता है। मजदूर की मेहनत ही बेकार कच्चे मालों को अपने कौशल और परिश्रम से जोड़कर उपयोगी और बिकाऊ बनाती है। लेकिन इसके बदले में मजदूर को महज जीने की खुराक मिलती है, जबकि दूसरी ओर उसकी मेहनत के उत्पादों को बेचकर पूँजीपति की पूँजी फूलती जाती है। लेकिन समाज का अस्सी प्रतिशत हिस्सा आम मेहनतकश आबादी से बनता है। और पूँजीवादी उत्पादन से लेकर वितरण की पूरी प्रक्रिया इस समूची मेहनतकश आबादी को लगातार दरिद्र बनाती जाती है। अगर अस्सी फीसदी जनता ही भयंकर ग़रीबी और दरिद्रता की स्थिति में रहेगी तो जाहिर है कि उपभोग घटेगा और नतीजतन अति-उत्पादन का संकट होगा। यह संकट आने पर पूँजीपति की पूँजी का बड़ा हिस्सा माल में फँसकर रह जाता है, जो बिकता नहीं है। ऐसे में, पूँजीपति उत्पादन में कटौती करता है, मुनाफे की गिरती दर को कायम रखने के लिए लागत में हर सम्भव कटौती करता है और छँटनी-तालाबन्दी का सहारा लेता है। लागत को कम करने के लिए जहाँ पूँजीपति और अधिक उन्नत मशीनों और तकनोलॉजी का सहारा लेता है, वहीं वह मजदूरों के काम करने के घण्टों को बढ़ा देता है। उन्नत मशीनें और तकनोलॉजी मजदूरों को काम से बाहर करने की प्रक्रिया को और तेज कर देती हैं। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान मजदूरों की एक भारी आबादी पैदा होती है जो या तो बेरोजगारों की विशाल रिजर्व आर्मी का निर्माण करती है, या फिर अनौपचारिक और अनियमित मजदूर वर्ग में शामिल होती है। यही वह आबादी है जो ठेके पर, पीस-रेट पर और कैजुअल मजदूर के रूप में काम करती है। वास्तव में, ठेका प्रथा और पीस रेट पर होने वाला काम और साथ ही कैजुअलाइजेशन की पूरी प्रक्रिया मजदूरी को घटाने का काम करते हैं। लागत घटाने के लिए पूँजीपति द्वारा उठाये गये कदमों में से एक यह भी है कि स्थायी मजदूरों की संख्या को लगातार कम किया जाये और अस्थायी और ठेके पर काम करने वाले मजदूरों को बढ़ाया जाये। यही कारण है कि 1992 से 2002 के पूरे दशक के दौरान जो कि तमाम मन्दियों से भरा रहा, भारत में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में ठेका मजदूरों का हिस्सा करीब 12 प्रतिशत से बढ़कर 30 प्रतिशत के करीब जा पहुँचा। अब तक यह हिस्सा अगर उसी रफ्तार से बढ़ा हो तो करीब 50 फीसदी तक पहुँच चुका होगा। याद रहे कि हम सिर्फ मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की बात कर रहे हैं और वह भी सरकारी ऑंकड़ों की। अगर सभी सेक्टरों को मिला दिया जाये तो स्थायी रोजगार प्राप्त कामगारों की आबादी कामगारों की कुल आबादी का महज 7 प्रतिशत है।

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पूँजीवादी व्यवस्था की यह आम प्रकृति होती है कि वह मजदूर वर्ग को अधिक से अधिक अरक्षित और असुरक्षित स्थिति में ले जाती है। पूँजीपति वर्ग को ऐसा मजदूर चाहिए जिसकी मोलभाव करने और शर्तें रखने की ताकत नगण्य हो। ऐसा मजदूर वही हो सकता है जिसके पास कोई स्थायी रोजगार न हो। ऐसा मजदूर जिसके सिर पर नौकरी खो देने की तलवार हमेशा लटकती रहती हो। जिसके आवास से लेकर चिकित्सा तक की जरूरतों का कोई ठिकाना न हो। ऐसा मजदूर वही हो सकता है जिसके पास रोजगार का कोई स्थायी करार न हो। मार्क्‍स ने पूँजीवादी व्यवस्था के तार-तार को खोल देने वाली अपनी महान रचना’पूँजी’ में बताया है कि पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर बेरोजगारी का होना कोई विचलन नहीं बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था का नियम है। यह बेरोजगार आबादी वास्तव में एक सापेक्षिक ‘अतिरिक्त’ आबादी होती है जिसका पूँजीवादी अति-उत्पादन के संकट के कारण पूँजीवादी समाज में कोई इस्तेमाल नहीं रह जाता है (वास्तव में यह अति-उत्पादन कोई अति-उत्पादन नहीं होता, बल्कि मालों का वह विशालकाय जखीरा होता है जिसे मुनाफे वाली दर पर बेचा नहीं जा सकता। यदि व्यवस्था का लक्ष्य समूचे समाज के जीवन को सुन्दर बनाना हो, तो उत्पादन की कोई भी मात्रा ”अति” नहीं होगी)। मार्क्‍स ने हमें सिखाया कि यह सापेक्षिक ‘अतिरिक्त’आबादी चार किस्मों में रहती है। उसमें एक हिस्सा वह भी है जिसे हम आज के ठेका मजदूर और पीस-रेट मजदूर के रूप में देखते हैं। देखिये मार्क्‍स ने क्या लिखा है : ”सापेक्षिक अतिरिक्त जनसंख्या की तीसरी श्रेणी है ठहरावग्रस्त, जो सक्रिय श्रम सेना का हिस्सा है, लेकिन जिसके पास बेहद अनियमित रोजगार होता है। यहाँ यह पूँजी को उपयोग करके फेंक देने लायक श्रम-शक्ति का एक असीमित भण्डार उपलब्धा कराती है। इसके जीवन की स्थितियाँ मजदूर वर्ग के औसत सामान्य स्तर से नीचे चली जाती हैं; यही इसे पूँजीवादी शोषण की विशेष शाखाओं का एक व्यापक आधार बनाती है। इसकी चारित्रिक अभिलाक्षणिकता है अधिकतम कार्यकाल और न्यूनतम मजदूरी।” इसी प्रकार लेनिन ने भी अपनी रचना ‘रूस में पूँजीवाद का विकास’ में पूँजीवादी उत्पादन में ठेका प्रथा के बारे में स्पष्ट शब्दों में लिखा है। लेनिन लिखते हैं : ”आइये सबसे पहले घरेलू उद्योग में पूँजीपति और मजदूर के बीच बिचौलियों की विशाल मात्रा पर ग़ौर किया जाये। बड़ा उद्यमी स्वयं सैकड़ों और हजारों मजदूरों को सामग्री नहीं बाँट सकता है, जो कई बार कई गाँवों में बिखरे होते हैं; यहाँ जिस चीज की जरूरत होती है वह है बिचौलिये (कुछ मामलों में बिचौलियों का एक पूरा पदानुक्रम) का प्रकट होना जो सामग्री को थोक में लेता है और छोटी-छोटी मात्राओं में वितरित करता है। हम एक नियमित स्वेटिंग सिस्टम पाते हैं, भयंकरतम शोषण का एक तन्त्र : ”सबकॉण्ट्रैक्टर” (या वर्करूम ओनर, या लेस उद्योग में ट्रेड्सवुमन, आदि, आदि) जो मजदूर के करीब होता है, जानता है कि उसके दुख के एक-एक मामले का फायदा कैसे उठाना है और शोषण के ऐसे-ऐसे तरीके निकालता है, जिनकी कल्पना भी कर पाना बड़ी इकाइयों में सम्भव नहीं होगा…”। ऐसे उद्धरणों का ढेर लगाया जा सकता है जिसमें मार्क्‍स, एंगेल्स और लेनिन ने पूँजीवादी उत्पादन की एक ख़ासियत के तौर पर ठेका प्रथा के महत्‍व को बतलाया है।

ठेका प्रथा मुख्य तौर पर चार कामों को अंजाम देती है। पहला, मजदूरी को नीचे करना और पूँजीपति की लागत को घटाकर मुनाफे को बढ़ाने में सहायता करना। दूसरा, मजदूर को बेहद असुरक्षित स्थिति में पहुँचा देना, जिससे कि उससे गुलामों की तरह काम लिया जा सके। तीसरा, मजदूरों को संगठित होने से रोकने में सहायता करना। और चौथा, मजदूरों में सर्वहारा चेतना को कुन्द करना। ये चारों चीजें मजदूरों के समक्ष पूँजीपति को और अधिक मजबूत बनाती हैं। इसलिए हम कहते हैं कि ठेका प्रथा के उन्मूलन की माँग एक महत्‍वपूर्ण राजनीतिक माँग है और यह पूँजीवादी व्यवस्था की एक आम प्रवृत्ति पर चोट करती है।

भारत में ठेका मजदूरी

भारत में ठेका मजदूरी का इतिहास पुराना है। जब देश ब्रिटिश साम्राज्य- वादियों का गुलाम था, ठेका प्रथा की कहानी तभी से शुरू हो गयी थी। जब ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने भारत में कुछ औद्योगिक केन्द्रों की स्थापना की और आधुनिक यान्त्रिाक औद्योगिक उत्पादन की शुरुआत की, तो उन्हें श्रम की आवश्यकता पड़ी। पूरे ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में श्रम की आपूर्ति एक समस्या बनी रही। जब पहली बार उन्हें इस समस्या का सामना करना पड़ा तो उन्होंने बिचौलियों,जिन्हें वे जॉबर कहते थे, के जरिये मजदूरों की भर्ती शुरू की। लेकिन जल्द ही इस जॉबर तन्त्र ने ऐसे-ऐसे अमानवीय रूप अख्तियार किये कि इस पूरे तन्त्र की चारों तरफ भारी आलोचना शुरू हो गयी। नतीजतन, ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों ने श्रम आयोगों की स्थापना की परम्परा शुरू की। पहले रॉयल कमीशन ऑन लेबर ने, जिसे व्हिटली कमीशन के नाम से भी जाना जाता है, सिर्फ इतना कहा कि जॉबर की भूमिका को कम किया जाये। 1946 में भी एक लेबर कमीशन बना जिसे रेगे कमिटी भी कहा जाता है। इस कमीशन ने कहा कि जहाँ सम्भव हो, वहाँ ठेका प्रथा को समाप्त किया जाये। तब से ही, आजादी के बाद भी सभी कमीशनों ने यह जुमला अपना लिया : ”जहाँ सम्भव हो”। इस वाक्यांश के जरिये वास्तव में सारी सरकारों ने ठेका व्यवस्था को बढ़ाने का ही काम किया है।1969 में आजादी के बाद पहला श्रम आयोग बना और उसने भी यही कहा कि जहाँ सम्भव हो वहाँ ठेका प्रथा का ख़ात्मा किया जाये। इसके बाद ही 1970 में भारत सरकार ने ठेका मजदूरी (उन्मूलन व विनियमन) अधिनियम, 1970 का निर्माण किया। वास्तव में इस कानून को जल्द बनाने का कारण यह था कि देश के तमाम हिस्सों में ठेका मजदूरों ने 1960 के दशक में काम करने की स्थितियों और न्यूनतम मजदूरी के लिए जुझारू लड़ाइयाँ लड़ी थीं। इस कानून को 1971में थोड़ा संशोधित किया गया। इस कानून के जरिये भारत सरकार ने यह वायदा किया कि एक क्रमिक प्रक्रिया में ठेका मजदूरी को समाप्त किया जायेगा। लेकिन पिछले चार दशकों में ठेका मजदूरी कहीं भी समाप्त होने की बजाय लगातार बढ़ी ही है।

ठेका मजदूरी (उन्मूलन व विनियमन) अधिनियम की दुख भरी कहानी!

ठेका मजदूरों के लिए इस कानून ने तमाम सुविधाओं और सुरक्षा का वायदा किया। लेकिन इनका वास्तविकता में कोई अर्थ नहीं है। इस कानून के सेक्शन 16 से लेकर 19 तक में इस बात का प्रावधान किया गया है कि काम करने की जगह पर ठेका मजदूरों के लिए कैण्टीन, रेस्ट रूम और फर्स्ट एड, आदि की व्यवस्था होनी चाहिए। सेक्शन 21 के तहत यह कानून समय पर ठेकेदार द्वारा मजदूरी दिये जाने का प्रावधान करता है और सेक्शन 21;4) के तहत यह भी कहा गया है कि अगर ठेकेदार समय पर उचित मजदूरी का भुगतान नहीं करता है तो इसका भुगतान प्रधान नियोक्ता को करना होगा। सेक्शन 12 स्पष्ट तौर पर कहता है कोई भी ठेकेदार बिना लाइसेंस के ठेके पर मजदूरों को नहीं रख सकता है। इसके अतिरिक्त, ठेका मजदूरों को इस कानून के तहत कर्मचारी राज्य बीमा (ईएसआई), भविष्य निधि (पीएफ), और न्यूनतम मजदूरी प्राप्त करने की सुविधाएँ मिली हुई हैं। लेकिन यह सारी दुनिया जानती है कि इन सभी प्रावधानों का पूँजीपति नंगे तौर पर पूरे देश में उल्लंघन करते हैं। कहीं भी यह कानून लागू नहीं किया जाता है।

सबसे पहले तो यह कानून ठेका मजदूरी की समाप्ति के लिए बना है। लेकिन सरकार अपने ही विभागों में धड़ल्ले से ठेकाकरण कर रही है और स्थायी पदों को धीरे-धीरे समाप्त कर रही है। स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति और गोल्डेन हैण्डशेक जैसी साजिशों के जरिये स्थायी मजदूरों को काम से बाहर कर उनकी जगह पर ठेका मजदूरों को रखा जा रहा है। नये-नये सरकारी उपक्रमों, जैसे कि दिल्ली मेट्रो कारपोरेशन में 80 फीसदी काम ठेके पर ही हो रहा है। जब सरकार स्वयं अन्धोरगर्दी करते हुए ठेकाकरण कर रही है तो फिर निजी क्षेत्र में रोजगार की तो बात ही क्या की जाये। निजी क्षेत्र में मजदूरी करने वाले हर दस व्यक्ति में नौ ठेके पर हैं। नतीजा यह है कि आज पूरे देश की कुल मजदूर आबादी का 93 प्रतिशत अनौपचारिक क्षेत्र में काम कर रहा है।

जाहिर है कि इस कानून का मजदूरों के लिए वास्तविकता और व्यवहार में कोई अर्थ नहीं है। सीटू, एटक, आदि जैसी संशोधनवादी और बी.एम.एस. और इण्टक जैसी पूँजीवादी पार्टियों की यूनियनों ने अब इस मुद्दे का अपने संघर्ष के एजेण्डे में रखना भी छोड़ दिया है। बताने की जरूरत नहीं है कि ये यूनियनें मजदूर वर्ग से ग़द्दारी कर चुकी हैं और वास्तव में पूँजीपतियों की ही सेवा करने में लगी हुई हैं, यह बात अलग है कि यह सेवा पीछे के चोर दरवाजे के रास्ते की जा रही है। इन यूनियनों से यह उम्मीद करना अब बेकार है कि वे इस कानून को लागू करवाने के लिए सरकार को मजबूर करेंगी। इस कानून को लागू करवाने के लिए मजदूरों को अपना एकजुट माँगपत्रक बनाकर संगठित होना होगा और इस माँगपत्रक को लेकर एक देशव्यापी आन्दोलन खड़ा करना होगा। यही माँगपत्रक आन्दोलन-2011 का मकसद है।

माँगपत्रक आन्दोलन-2011 ठेका प्रथा के उन्मूलन की माँग करता है और मजदूरों को संगठित होने का आह्नान करता है!

माँगपत्रक आन्दोलन-2011 द्वारा प्रस्तुत माँगपत्रक में कहा गया है कि ठेका मजदूरी के सन्दर्भ में हमारी दो माँगें हैं। एक दूरगामी माँग है तो दूसरी तात्कालिक माँगों का एक समुच्चय। दूरगामी माँग यह है कि ठेका मजदूरी को पूरी तरह समाप्त किया जाये। श्रम का ठेकाकरण पूरी तरह बन्द होना चाहिए क्योंकि यह मजदूरों को अरक्षित बनाता है, उन्हें संगठित होने की क्षमता से वंचित करता है, उनकी मजदूरी को कम करता है, उन्हें गुलामी जैसी कार्य-स्थितियों में धकेलता है और रोजगार की एक शर्त भी पूरा नहीं करता : न यह रोजमर्रा काम की गारण्टी करता है और न किसी प्रकार की आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा देता है। यह मजदूर वर्ग को आर्थिक और राजनीतिक तौर पर कमजोर करता है और उनसे लड़ने की ताकत छीनता है। इसलिए ठेका प्रथा को समाप्त करना मजदूर वर्ग की एक प्रमुख राजनीतिक माँग है।

जब तक इस दूरगामी माँग के लिए संघर्ष जारी है, तब तक के लिए तात्कालिक तौर पर दो तरह की माँगें की गयी हैं। पहली तात्कालिक माँग यह है कि ठेका मजदूरी कानून के तहत ठेका मजदूरों को मिलने वाले सभी अधिकारों को सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी सरकार ले और इसका उल्लंघन करने वालों को कड़ी से कड़ी सजा दे। दूसरी तात्कालिक माँग यह है कि ठेका मजदूरी कानून के ही कई प्रावधान मजदूरों के प्रति पक्षपातपूर्ण हैं और उन्हें तत्काल संशोधित किया जाना चाहिए। मिसाल के तौर पर, 20 से अधिक मजदूरों वाले उपक्रम में ही ठेका मजदूरी कानून के प्रावधान लागू होंगे। इस प्रावधान का कोई अर्थ नहीं है। जहाँ एक भी ठेका मजदूर हो वहाँ उसे आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा मिलनी चाहिए और इसलिए इस कानून के प्रावधान वहाँ भी लागू होने चाहिए। इसके अतिरिक्त, इस कानून में संशोधन के लिए तमाम सिफारिशें भारत की न्यायपालिका ने की हैं, जो लागू किये जाने योग्य हैं। इन सिफारिशों के अनुसार भी इस कानून में संशोधन किया जाना चाहिए।

इस माँग की राजनीतिक जरूरत और महत्‍व को समझने की आज मजदूरों को सख्त जरूरत है। मजदूर वर्ग के ही एक हिस्से को यह लगने लगा है कि ठेका प्रथा की समाप्ति की माँग करना शेखचिल्ली जैसी बात करना है। सवाल यहाँ यह नहीं है कि ठेका प्रथा इस माँग के जरिये समाप्त हो ही जायेगी या नहीं। यहाँ सवाल इस बात का है कि हम चाहे ठेका प्रथा को समाप्त करवा पायें या न करवा पायें, इसे समाप्त करने की माँग करना अपने आप में पूँजीवाद की आम प्रवृत्ति पर चोट है। यह मजदूरों को राजनीतिक तौर पर जागृत, गोलबन्द और संगठित करने में हमारी मदद करेगा और पूँजीवाद को उनके समक्ष बेपरदा कर देगा। हमें इस माँग के संघर्ष में कुछ भी खोना नहीं है, सिर्फ पाना ही पाना है। इसलिए माँगपत्रक आन्दोलन-2011 की इस माँग के बारे में साथ बैठकर पढ़ें, इसे समझें और इसे हर मजदूर भाई-बहन के दिल में बिठा दें! यह मजदूर वर्ग को पूँजी द्वारा उसे कमजोर करने के लिए लगातार किये जा रहे हमलों का एक जबर्दस्त प्रतिरोध होगा कि हम ठेका प्रथा को समाप्त करने की माँग से पूरी शासन-व्यवस्था को हिला दें! इस माँग को फैलायें! इसके लिए समर्थन जुटायें! आने वाली एक मई को माँगपत्रक आन्दोलन के पहले चरण के समापन पर संसद घेरने के लिए लामबन्द और संगठित हों!

अब चलो नई शुरुआत करो!

मजदूर मुक्ति की बात करो!

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2011


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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